जिन घाति चतुष्टय कर्म हरा, दर्शन सुख ज्ञान वीर्यमय हैं। सु अनंतचतुष्टयरूप परम, औदारिक तनु में स्थित हैं।। अष्टादश दोष रहित आत्मा, वे ही अरिहंत परमगुरु हैं। वे ध्यान योग्य हैं नित उनको, तुम ध्यावो वे त्रिभुवनगुरु हैं।।५०।।
जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जो अनंत चतुष्टयमय हैं, जो शुभ-परमौदारिक शरीर में विराजमान हैं, जो शुद्ध-दोष रहित हैं ऐसे आत्मा अरिहंत परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। अरिहंत भगवान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चार चतुष्टयरूप हो चुके हैं। सात प्रकार की धातुओं से रहित परमौदारिक दिव्य-शुभ शरीर में स्थित हैं, यह उनका शरीर हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान है। क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ये १८ दोष हैं। ये इन दोषों से रहित होते हैं इसीलिए शुद्ध कहलाते हैं। ‘अरि’ अर्थात् मोहनीय कर्म, ‘रज’ से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और ‘रहस्य’ से अंतराय। इस प्रकार अरि, रज, रहस्य इन तीनों को हनन करने वाले-नष्ट करने वाले होने से अरिहंत कहलाते हैं तथ इन्द्र आदि देवों द्वारा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणक के समय की गई महापूजा को प्राप्त होने से ‘अर्हन्’ कहलाते हैं। इनके १००८ नाम आगम में कहे गये हैं। ऐसे अर्हंत जिन भट्टारक ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान के अंतर्गत है।
सिद्ध परमेष्ठी
अष्ट कर्म तनु नष्ट किया, औ शाश्वत लोकालोक सकल। उसके ज्ञाता औ दृष्टा हैं, जो पुरुषाकार तथा निष्कल।। जो लोकशिखर पर स्थित हैं, वे आत्मा सिद्ध कहाते हैं। तुम सब जन उनका ध्यान करो, वे सबको सिद्ध बनाते हैं।।५१।।
जिन्होंने आठ कर्मरूपी शरीर का नाश कर दिया है, जो लोक-अलोक के जानने और देखने वाले हैं, पुरुषाकार हैं, लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, ऐसे आत्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं तुम सब लोग उनका ध्यान करो। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन कर्मरूपी शरीर को जिन्होंने नष्ट कर दिया है तथा नामकर्म के अंतर्गत औदारिक, तैजस, कार्मण आदि शरीर से भी रहित हैं इसलिए अशरीरी हैं, निराकार हैं, फिर भी ज्ञानशरीरी हैं, चैतन्य धातु की मूर्ति स्वरूप हैं। परम ज्ञान कांड की भावना के फलस्वरूप निर्मल पूर्ण ज्ञान और दर्शन के द्वारा सर्वलोक-अलोक को तथा उनके अन्तर्गत सम्पूर्ण पदार्थों को और उनकी भूत-वर्तमान-भविष्यत् ऐसी तीनों काल संबंधी पर्यायों को एक साथ जानने और देखने वाले होने से सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। निश्चयनय से इन्द्रियों के अगोचर हैं, मूर्तिरहित होने से निराकार हैं फिर भी व्यवहारनय से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने से पुरुषाकार हैं। जैसे मोमरहित मूस के बीच का आकार होता है अथवा छाया के प्रतिबिम्ब का आकार होता है, ऐसे हैं। इसीलिए जिस आसन से-पद्मासन या खड्गासन से मोक्ष गये हैं, उसी आसन से पुरुषाकार हैं। अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक सिद्धि से रहित अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धिरूप सिद्धि से सहित होने से ही ये सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। ये मोहनीय के अभाव से सम्यक्त्व, ज्ञानावरण-दर्शनावरण के अभाव से ज्ञान-दर्शन, अन्तराय के अभाव से वीर्य, वेदनीय के अभाव से अव्याबाध, आयु के अभाव से अवगाहनत्व, नाम के अभाव से सूक्ष्मत्व और गोत्र के अभाव से अगुरुलघुत्व इस प्रकार आठ कर्मों के नष्ट हो जाने से आठ गुणों को प्राप्त कर चुके हैं। यद्यपि ये आठ गुण मुख्य हैं फिर भी इनके अनंतगुण प्रगट हो चुके हैं। ऐसे सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। देखे, सुने, अनुभव में आए ऐसे पंचेन्द्रिय विषयोे का त्याग कर सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प अवस्था में तीन गुप्ति से सहित होकर ‘रूपातीत’ धर्मध्यान में एकाग्र होकर इन सिद्धों का ध्यान करना चाहिए।
आचार्य परमेष्ठी
दर्शन औ ज्ञान प्रधान जहाँ, ऐसे जो वीर्याचार तथा। चारित्र महातप ये पाँचों, आचार कहाते सौख्यप्रदा।। इन पंचाचारों में निज को, पर को जो नित्य लगाते हैं। वे ध्यान योग्य हैं श्रेष्ठ मुनी, वे ही आचार्य कहाते हैं।।५२।।
जिनमें ज्ञानाचार-दर्शनाचार प्रधान हैं ऐसे वीर्याचार, चारित्राचार और तप आचार मे जो अपने को और पर को लगाते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं जो कि ध्यान करने योग्य हैं। निश्चयनय का विषयभूत ‘शुद्ध समयसार’ इस शब्द से वाच्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि समस्त परपदार्थों से भिन्न और परम चैतन्य का विलासरूप निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि का नाम सम्यग्दर्शन है। उसमें जो परिणमन-आचरण है, उसी का नाम दर्शनाचार है। उसी शुद्ध आत्मा को स्वसंवेदनरूप भेद ज्ञान के द्वारा रागादि पर भावों से भिन्न जानना ज्ञानाचार है। वीतराग चारित्र के लिए कारण ऐसे व्यवहार चारित्र में प्रवृत्ति करना चारित्राचार है। समस्त परद्रव्यों की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बाह्य तपों को तपते हुए जो आचरण है, सो तप आचार है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनकी रक्षा के लिए अपनी शक्ति को नहीं छिपाना वीर्याचार है। आचार्यों के लिए ये पाँच आचार प्रधान हैं। वैसे आचार्य के छत्तीस गुण माने हैं। १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये ३६ गुण हैं। इन गुणों से युक्त आचार्यदेव ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत है।
उपाध्याय परमेष्ठी
जो रत्नत्रय से युक्त सदा, धर्मोपदेश में तत्पर हैं। जो यति पुंगव में श्रेष्ठ रहें, सो आत्मा उपाध्याय गुरु हैं।। उनको नित नमन हमारा है, वे ज्ञानामृत बरसाते हैं। मोहादी विष से मूच्र्छित को, जिनवच औषधी पिलाते हैं।।५३।।
जो रत्नत्रय सहित हैं और नित्य ही धर्मोपदेश देने में तत्पर रहते हैं, वे यतीश्वरों में श्रेष्ठ आत्मा उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनको मेरा नमस्कार होवे। जो व्यवहारनय और निश्चयनय इन दोनों का अवलम्बन लेकर शिष्यों को पढ़ाते हैं और धर्म का उपदेश देना ही जिनका एक कार्य है, वे उपाध्याय गुरु हैं। इनके २५ गुण माने हैं। ग्यारह अंग, चौदह पूर्वरूप श्रुत का पढ़ना-पढ़ाना ये ही इनके २५ गुण हैं। ये उपाध्याय परमेष्ठी भी नग्न दिगम्बर साधुओं में ही होते हैं अत: ये भी ध्यान के विषय हैं।
साधु परमेष्ठी
जो दर्शन ज्ञान सहित ऐसा, चारित्र कहा शिव का मारग। जो नित ही शुद्ध कहा जाता, उस रत्नत्रय के जो साधक।। वे ही साधू कहलाते हैं, जो करें साधना शिवपथ की। रत्नत्रयमय उन साधू को, हो मेरा नमस्कार नित ही।।५४।।
जो मुनि मोक्षमार्ग के स्वरूप दर्शन और ज्ञान से सहित, नित्य ही शुद्ध ऐसे चारित्र को साधते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं, उनको मेरा नमस्कार होवे। जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान से सहित चारित्र की साधना करते हैं, वे साधु कहलाते हैं। इनके २८ मूलगुण माने हैं-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य-पूर्ण वस्त्रादि त्याग, अस्नान, पृथ्वी पर शयन, दन्तधावन त्याग, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन ये २८ मूलगुण हैं। इनके पालन करने वाले नग्न दिगम्बर मुनि ही साधु कहलाते हैं। ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधना में लगे रहते हैं। सदा व्यवहार-निश्चय चारित्र के बल से शुद्ध आत्मा की साधना करते रहते हैं, इसीलिए ये ध्यान करने योग्य हैं। महामंत्र-णमोकार मंत्र में इन पाँचों परमेष्ठी को ही नमस्कार किया है। ये परमपद में स्थित हैं इसीलिए परमेष्ठी कहलाते हैं। इनमें से अरहंत, सिद्ध ये दो परमेष्ठी तो दिखते नहीं हैं। सिद्ध तो सदा ही नहीं दिख सकते, चतुर्थकाल में अरहंत भगवान का समवसरण दिखता रहता है। आज तो इस पंचमकाल में आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी दृष्टिगोचर होते हैं। परोक्ष मे अरहंत, सिद्ध की, प्रत्यक्ष में आचार्यादि की वंदना, स्तुति करना तथा इन्हीं के नाममंत्र की जाप्य करना, एकाग्रचित्त हो ध्यान करना चाहिए, ये ही मोक्षमार्ग हैं इसलिए इनका ध्यान भी मोक्षमार्ग की सिद्धि कराने वाला है।