परमानंद जिनेन्द्र की, शाश्वत मूर्ति अनूप।
परम सुखालय जिनभवन, नमूँ नमूँ चिद्रूप।।१।।
(मेरी भावना की चाल)
मेरु सुदर्शन विजय अचल, मंदर विद्युन्माली जग में।
पूज्य पवित्र परमसुखदाता, अनुपम सुरपर्वत सच में।।
अहो अचेतन होकर भी ये, चेतन को सुख देते हैं।
दर्शन पूजन वंदन करते, भव भव दु:ख हर लेते हैं।।२।।
अनादि अनिधन पृथ्वीमय ये, सर्वरत्न से स्वयं बने।
भद्रसाल नंदन सुमनस वन, पांडुकवन से युक्त घने।।
सुरपति सुरगण सुरवनितायें, सुरपुर में आते रहते।
पंचम स्वर से जिनगुण गाते, भक्ति सहित नर्तन करते।।३।।
विद्याधरियाँ विद्याधर गण सब जिनवंदन को आते हैं।
कर्मभूमि के नरनारी भी, विद्या बल से जाते हैं।।
चारण ऋषिगण नित्य विचरते, स्वात्म सुधारस पीते हैं।
निज शुद्धातम को ध्याध्याकर, कर्म अरी को जीते हैं।।४।।
मैं भी वंदन स्तुति प्रणमन करके भव का नाश करूँ।
मेरे शिवपथ के विघ्नों को हरो नाथ! यम त्रास हरूँ।।
बस प्रभु केवल ‘ज्ञानमती’ ही, देवो इक ही आश धरूँ।
तुम पद भक्ति मिले भव भव में, जिससे स्वात्म विकास करूँ।।५।।
श्री जिनवर जिनभवन अरु, जिनवर बिंब महान्।
मैं नित वंदूं भाव से, पावूँ निजसुख थान।।६।।