उत्तर भारतीय जैन ग्रंथ भंडारों में प्राकृत, संस्कृत के अतिरिक्त अपभ्रंश भाषा की पांडुलिपियाँ प्रचुरता से प्राप्त होती है। प्रस्तुत आलेख में १५वीं शताब्दी के रचनाकार पं. तेजपाल कृत वरांगचारिउ की करौली, अजमेर एवं नागौर से प्राप्त ३ पांडुलिपियों का परिचय एवं उनके माध्यम से तैयार की गई सम्पादित प्रति के वेशिष्यों का परिचय दिया गया है। भारतीय संस्कृति की परम्परा अति प्राचीन है, जिसके अन्तर्गत वैदिक, जैन एवं बौद्ध इन तीन परम्पराओं का समावेश दो धाराओं में प्राप्त होता है। एक वैदिक परम्परा और दूसरी जैन और बौद्ध की संयुक्त श्रमण परम्परा, जिसका स्वरूप आज विद्यमान है। इन तीनों परम्पराओं का स्वतंत्र एवं पृथक्—पृथक् अस्तित्व है। वैदिक परम्परा में वेद, जैन परम्परा में आगम एवं बौद्ध परम्परा में त्रिपिटक आधार ग्रंथ स्वीकृत किये गये हैं।
भगवान महावीर ने जन— सामान्य तक अपनी वाणी पहुँचाने के लिए अपने उपदेशों में प्राकृत भाषा का प्रयोग किया। यह प्राकृत मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा परिवार (६०० ई. पू. से १००० ई. तक) से सम्बन्धित है। प्राकृत भाषा के अनेक भेदों में अपभ्रंश भाषा भी आधुनिक भाषा का एक भेद माना गया है। अपभ्रंश का समय ईसा की छठी—सातवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं—अठारहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इस भाषा में अनवरत काव्य साहित्य लिखा जाता रहता है। अपभ्रंश प्राकृत का बिगड़ा हुआ रूप है अर्थात् जब प्राकृत ने मूल स्वरूप को छोड़ दिया अथवा प्राकृत में वैकल्पिक प्रयोगों का प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया तब उस भाषा को अपभ्रंश नाम दिया गया। इस भाषा में कथा तथा चारित्र प्रधान काव्यों का सृजन सर्वाधिक मात्रा में हुआ है, साथ ही पुराण एवं अध्यात्मपरक ग्रंथों का भी प्रणयन किया गया। जैन साहित्य की समृद्धता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज जितना साहित्य प्रकाशित होकर हमारे सामने उपलब्ध है, उससे कई गुना अधिक साहित्य पाण्डुलिपियों के रूप में ग्रंथ भण्डारों में संग्रहीत है। आज आवश्यकता है यथानुसार उनका सम्पादन करके समाज के समक्ष विलुप्त ज्ञान राशि को उजागर किया जाए। आगम साहित्य के अतिरिक्त सैकड़ों ग्रंथ जो आज धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आचार एवं नीति आदि विविध विधाओं का ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, उससे भी अधिक सामग्री स्रोत कथा, प्रकरण, व्याख्या, सैद्धान्तिक विवेचनों से सम्बन्धित विधाओं का ज्ञान कराने में समर्थ कही जा सकती है। पाण्डुलिपियों का संरक्षण करने वाले ग्रंथ भंडार हमारी सांस्कृतिक धरोहर के केन्द्र हैंं। प्राकृत की परवर्ती परम्परा में अपभ्रंश भाषा में जो साहित्य आज अप्रकाशित हैं, उनमें से पन्द्रहवी शताब्दी के रचनाकार पं. तेजपाल की कृति वरांगचरिउ के पाठ—सम्पादन के लिए अपना शोध का विषय बनाया।
प्रति परिचय
वरांगचरिउ की कुल मिलाकर ३ हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई। जो करौली (सवाई माधोपुर), अजमेर एवं नागौर के जैन शास्त्र भण्डारों में विद्यमान हैं। उन्हें क्रमश: Aख् तथा N संज्ञा दी गई है। तीनों प्रतियां पूर्ण हैं, मात्र करौली (सवाई माधोपुर) प्रति में प्रशस्ति प्राप्त हुई है, जिनका परिचय इस प्रकार है— ख्, प्रति करौली (सवाई माधोपुर) पंचायती दि. जैन मंदिर से प्राप्त हुई। जिसमें ५६ पत्र हैं एवं पूर्ण प्रति है। इसका आकार १र्१ ४.५ है। इस प्रति की लिखावट गहरी एवं मोटी है। इसमें पहले पेज में ९ पंक्तियाँ हैं इसके अलावा अन्य प्रत्येक पेज में १० पंक्तियाँ हैं। कुल ११०९ पंक्तियाँ हैं। इसमें रचयिता का नाम तेजपाल एवं उनके गुरु विशालर्कीति का नाम प्रारम्भ में एवं प्रत्येक संधि के अंत में प्राप्त हुआ है। समय का उल्लेख नहीं है। प्रशस्ति भी प्राप्त नहीं होती है। यह प्रति करौली के परम मित्र अनुपम चतुर्वेदी के माध्यम से प्राप्त हुई। प्रति का आरम्भ इस प्रकार है—
नाम: श्री वीतरागाय। आचार्य श्री विसालर्कीित गुरुभ्योनम:।।
पणविवि जिणईसहो………………।
अन्त इस प्रकार है— घत्ता—जो णरू दयवंतउ
णिम्मलचित्तउ णिव्वु जि जिणु आराहइ।
जो अप्पउ साइ वि केवलु पायवि मुत्ति रमणि सोसाहइ।।
प्रति की विशेषताएँ—
१. संयुक्त ण बीच में ही एक बारीक आड़ी रेखा खींचकर दर्शाया गया है।
२. पूर्ण प्रति में चाहे छ संयुक्त अवस्था में या एकत्व रूप में सर्वदा एक ही बनावट (छ) दर्शायी गई है।
३. संयुक्त क्ख एवं ग्ग की बनावट रक एवं ग्र के रूप में पाई जाती है।
४. आदि में सर्वदा णकार का ही प्रयोग हुआ है।
५. अशुद्ध वर्णों/अक्षरों एवं मात्राओं को काली स्याही से मोटी पंक्ति खींचकर मिटाया गया है।
६. अनावश्यक अनुस्वार की प्रवृत्ति अधिक है।
७. दु और हु में अन्तर पकड़ना कठिन प्रतीत होता है।
८. भूल से छूटे हुए पदों अथवा वर्णों को हंस पद देकर उन्हें बगल, ऊपर या नीचे अर्थात् यदि अक्षर नीचे की ओर तो नीचे की ओर ही दिया गया है साथ ही चिन्ह एवं पंक्ति संख्या देकर लिखा गया है। अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहीं कहीं शब्दों का अर्थ भी दिया गया है, जहाँ बराबर का चिन्ह लगाया गया है।
९. ‘ष’ इस आकृति को ख पढ़ा जाता है लेकिन कहीं—कहीं लिपिकार की गलती से ‘स’ के लिए ‘ष’ का प्रयोग हुआ है, यथा—सुषेण। A प्रति— A, प्रति अजमेर स्थित भट्टारक हर्षर्कीति शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुई। यह प्रति जीर्ण अवस्था में है किन्तु पूर्ण प्रति है। इसमें ५६ पत्र है। इसका आकार ११’र्’ ५’’। इसका भण्डारण क्रमांक—११०० एवं ग्रंथ क्रमांक—१०४ है। इसमें प्रत्येक पेज में १० पंक्तियाँ एवं ३५ अक्षर है। प्रतिलिपिकाल वि. सं. १६०७ दिया हुआ है। इसमें दीर्घ प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिसमें रचयिता के परिवार, गोत्र एवं गुरु परम्परा का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रति का आरम्भ इस प्रकार है—
ऊँ नमो वीतरागाय। पणविवि जिणईसहो जियवम्मीसहो
केवलणाणपयासहो। सुरनरखेयरवुहणुय पय
पयरूह वसुकम्मरि विणासहो।।छ।।
अन्त में प्रशस्ति है—
संवत् १६०७ वर्ष वैशाखवदि दिन अमरसर
शुभस्थाने। राय श्री सूयमल्लविजयराज्ये।।
श्री मूलसंघे नंद्याम्नाये। बलात्कारगणे।
सरस्वतीगच्छे। श्री कुन्दकुंदाचार्यन्वये।।
भट्टारक श्री जिनचंद्र। तत्पट्ट…….श्री प्रभाचंद्र।
मंडण श्री रत्नर्कीित तत् शिष्य सिद्धांतधम्र्मामृत पयोधरान
मंडलाचार्य श्री भुवनर्कीित तदाम्नाये खंडेलवालवंशे।
सावडगोत्रे। सा सूंप तस्यभार्या रूहै।
तस्य पुत्राचत्वार:।
प्रथम पुत्र संघभारधुरंधर सा. रणमल्ल।
द्वि. पुत्र सा. वल्लालु। त्रि. पुत्र सा. ईसर।
चतु पुत्र साहपोल्हण।।
एतेषां मध्ये सा. रणमल्ल।
तस्यभार्या रयणादे।।
तत् पुत्रात्रिय।
प्रथम पुत्र सा. ताल्हू द्वितीय पुत्र सा. धरमा।
त्रि, पुत्र सा. मठू। सा. ताल्हू भा. केलूं तस्य पुत्र त्रिय।
प्रथम पुत्र भृणां (मृणा। त्रि, पु. सा. श्रीवंत।
तस्यभार्या सुरूपदे।।
एतान मध्ये गुरुवार्या धैर्यगांभीर्य।
चातुर्यादि गुणगणवि र्निमित शरीर शृंगारहारेण
सा. तेजपाल तेनेदं शास्त्रं कृतं पश्चात् लिखाप्पि।
मंडलाचार्य श्री भुवनर्कीति। तत् शिष्य
आचार्य श्री विशालर्कीति तस्मै सदपात्रायप्रदत्तं।
शुभंभवतु।
ज्ञानवान ज्ञानदानेन।
निर्भयोदानत:।
अन्नदानात् सुखीनित्यं।
नित्र्याधिभेषजात भवेत्।।२।।
श्री लेखक पावकयो शुभं भवतु।
A, प्रति की विशेषताएँ
१. इस प्रति में नकार के स्थान एवं णकार दोनों के प्रयोग मिलते हैं। नारि, नारियल, जिणवर आदि।
२.इस प्रति में भी ‘क्ख’ की बनावट ‘रक’ एवं ‘ग्ग’ की ग्र रूप में पाई जाती है।
३. इस प्रति में संयुक्त ‘छ’ बनावट यह है, लेकिन एकत्व या आदि में इस रूप में पाया जाता है।
४. दीर्घ ऊकार की बनावट ‘अ’ रूप में प्राप्त होती है। जैसे—कोअहलु, पाठ होना चाहिए था—कोऊहलु।
५. भूलवश छूटे हुए पदों अथवा वर्णों को हंसपद देकर उन्हें हाँसिये में लिखा गया है तथा वहां संदर्भ सूचक पंक्ति संख्या अंकित कर दी गई है। यदि छूटा हुआ वह अंश ऊपर की ओर का है तो वह ऊपरी हाँसियें में और यदि नीचे की ओर का है, तो नीचे की ओर वहीं पर पंक्ति संख्या भी दे दी गयी है। हांसिये में अंकित पंक्ति के साथ ( +) का चिन्ह भी अंकित कर दिया गया है। कहीं—कहीं देशी शब्द एवं अन्य शब्दों का अर्थ भी का चिन्ह अंकितकर सूचित किया है।
६.प्रति में अक्षरों की लिखावट सघन है और कहीं—कहीं अक्षर को पढ़ने में आँखों पर बहुत जोर देना पड़ता है।
N, प्रतिप्रति भट्टारक मुनीन्द्रर्कीति दि. जैन सरस्वतीभवन, नागौर (राज.) से प्राप्त हुई। इसमें ५६ पत्र है एवं पूर्ण प्रति है। इसका आकार ११’र्’ ४.५’’। इसका ग्रंथ क्रमांक—४४१ है। ग्रंथ भण्डार ग्रंथसूची से ज्ञात हुआ है कि वि. सं. २००८ वीर सं. २४७८ ग्रंथ भण्डार में सतीशचन्द्र पाटनी को यह प्रति भेंट की थी। इसमें दीर्घ प्रशस्ति भी प्राप्त होती है। लिपिकाल वि. सं. १६०७, ज्येष्ठ शुक्ल ३ सोमवार को लिपि की है। इसमें अक्षर स्वच्छ दिखाई देते हैं। N, प्रति का प्रारम्भ इस प्रकार है—
ॐ नमो वीतरागाय।।।। पणविविजिणईसहो ………।
अंत में दीर्घ प्रशस्ति है जो इस प्रकार है—
इति वरांगचरित्रसमाप्त:।।
शुभं भवतु।।
श्री अथ संवत्सरे अस्मिन् श्री नृप विक्रमादित्यगताब्दातु:।
संवत् १६०७ वर्षें ज्येष्ठ मासे शुक्ल पक्षे तृतीया तिथौ सोमवासरे।।
N, प्रति की विशेषताएँ—यह प्रति ए, प्रति से कॉपी की गई हो ऐसा प्रतीत होता है। १. इस प्रति में ‘ए’ की मात्रा हमेशा अक्षर के ऊपर न होकर आगे होती है। इस प्रवृत्ति की बहुलता है। जैसे—कहेइ।
प्रति प्रशस्तियों की प्रमाणिका
A, ख् एवं N प्रतियों तथा उनकी प्रशस्तियों में मूलसंघ, बलात्कारगण के जिन भट्टारकों एवं मुनिराजों तथा खंडेलवालान्वय में पाटनी, सावड एवं साह गोत्रों में उनके श्रद्धालु श्रावकों तथा प्रतिलेखन स्थानों के नाम आये है। उनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्या है ? इस पर चर्चा करना उचित होगा। दिगम्बर जैन संघ के इतिहास में बलात्कारगण का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है और जैन साहित्य की सुरक्षा एवं संवर्धन में इस गण के भट्टारकों, मुनियों तथा श्रद्धालु—श्रावकों का अभूतपूर्व एवं अनुपम योगदान रहा है।
केवल साहित्य ही नहीं, जैन धर्म सम्प्रदाय और जैनतीर्थों व मंदिरों की सुरक्षा प्रचार—प्रसार और निर्माण में सदैव ही इस संघ का बहुत बड़ा हाथ रहा है। यद्यपि इस गण का उद्भव आचार्य कुन्दकुन्दचार्य से माना जाता है और तदनुसार इसके साथ कुन्दकुन्दचार्यान्वय, नंद्याम्नाय, सरस्वतीगच्छ आदि पद भी जुडे रहते हैं परन्तु इस गण का प्रथम उल्लेख आचार्य श्रीचन्द्र ने किया है जो धारानगरी के निवासी थे एवं जिन्होंने सम्वत १०७०, १०८० से १०८७ में क्रमश: पुराणसार, उत्तरपुराण एवं पद्मचरित की रचना की थी। यही से इस गण की ऐतिहासिक परम्परा चालू होती है और विक्रम की १५वीं शती तक जाती है। दक्षिण में इस गण की कारंजा एवं लातूर शाखाएं वि. की १६वीं शती से प्रारम्भ होकर वर्तमान तक चल रही हैं। बलात्कार की उत्तरशाखा मंडपदुर्ग (मांडवगढ़ राजस्थान) में भट्टारक बसंतर्कीित के द्वारा सं. १२६४ में प्रारम्भ हुई तथा विशालर्कीित, शुभर्कीित, धर्मचंद्र, रत्नर्कीित एवं प्रभाचंद्र भट्टारक से होती हुई भट्टारक पद्मनंदी (सं. १३८५-१४५०) तक आकर उनके बाद दिल्ली, जयपुर, ईडर एवं सूरत इन चार प्रमुख शाखाओं में विभक्त हो गयी।
दिल्ली जयपुर शाखा में से दो और उपशाखाएँ निकली, नागौर शाखा एवं अटेर शाखा। अटेर शाखा में से सोनागिर प्रशाखा, ईडरशाखा से भानपुर उपशाखा और सूरतशाखा से जेरहट उपशाखा। इन सबका दीर्घकालीन इतिहास है और इनमेंसे बहुत से भट्टारक पीठ आज भी विद्यमान हैं। इस प्राकर हम देखते हैं कि बलात्कारगण की शाखा, उपशाखा और प्रशाखाएं सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्यास थी। दिल्ल, जयपुर, पंजाब में आज का कुरूक्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश में मेरठ व आगरा के संभाग इन समस्त प्रदेशों में बलात्कारगण के भट्टारकों, मुनियों तथा भक्त श्रावकों द्वारा निरंतर धर्म व साहित्य की सुरक्षा और संवर्धन का कार्य सम्पन्न किया जाता रहा। उक्त भट्टारक परम्परा के भट्टारक विशालर्कीित, भट्टारक भुवनर्कीित, भट्टारक रत्नर्कीित एवं भट्टारक विपुलर्कीित को पं. तेजपाल ने अपने ग्रंथ वरागचरिउ की चतुर्थ संधि के २३वें कडवक में गुरु के रूप में स्मरण किया है।
पाठ—सम्पादन पद्धति
१.सामान्य सिद्धांत के रूप में A, ख् और N प्रतियों में पाठों की प्रामाणिकता को ध्यान में रखकर इन प्रतियों के पाठों को ही मूल में स्वीकार किया गया है। परन्तु अर्थ औचित्य तथा व्याकरण एवं छंदशुद्धि की दृष्टि से जहाँ कहीं भी आवश्यकता महसूस हुई वहाँ पर तीनों (A, ख् एवं N) में से मात्र ए, प्रति का पाठ मूल पाठ में लिया है, क्वचित् अन्य प्रतियों के पाठ को भी स्वीकार किया है। मेरा कहने का अभिप्राय यह है कि ए, को आदर्श प्रति के रूप में रखा है एवं अन्य प्रतियों का मिलान किया है। यद्यपि ए, प्रति में भी यदि अर्थ—औचित्य, व्याकरण एवं छंद शुद्धि की अपेक्षा शुद्ध नहीं हुआ तो अन्य प्रतियों के पाठ को भी मूलपाठ में स्वीकृत किया है। ऐसे समस्त स्थलों में यह पाठ परिवर्तन कहीं भी एक अक्षर, एकमात्रा अथवा एक अनुस्वार से अधिक नहीं किया।
२.न और ण के प्रयोग के सम्बन्ध में यह प्रणाली अपनायी है कि आदि में सम्पूर्ण स्थानों पर ‘ण’ पाठ को ही ग्रहण किया। जैसे—नारि, नारियल प्राप्त शब्दों को णारि एवं णारियल पाठ ही रखा है। मध्यवर्ती ‘न’ को कहीं—कहीं ‘न’ एवं कहीं कहीं ण रूप में ही ग्रहण किया है।—गिन्हि (२/१२)
३.सभी प्रतियों में लगभग सर्वत्र ‘ब’ के स्थान व प्रयोग मिलता है इस सम्बन्ध में मैंने मूल संस्कृत शब्द के अनुसार, यथा—स्थान ब, व दोनों का प्रयोग किया है।
४.‘हउं’ पाठ प्रतियों में कहीं ‘हउ’ एवं ‘हंउ’ प्राप्त होता है तो सर्वत्र (सम्पूर्ण प्रति में) ‘हउं’ पाठ को ग्रहण किया है। जो कि पूर्ण प्रामाणिक एवं शुद्ध है।
५.सभी प्रतियों में प्राप्त तहि, किंह, जहि आदि पाठ को यथानुसार रखा है।
६. प्रतियों में लिखावट सम्बन्धी भूल प्राय: होती है। जैसे— ख्, प्रति में ‘छ’ की बनावट सर्वत्र छ रूप में ही प्राप्त होती है चाहे संयुक्त अक्षर हो अथवा नहीं हो वहाँ यथायोग्य पाठ को लिया है। इसी तरह ‘एप्पिणु’ प्रत्यय में कहीं ‘एपिणु’ पाठ प्राप्त हुआ और कही ‘एप्पिणु’ पाठ को सर्वत्र पाठान्तर लेकर एप्पिणु पाठ को मूलपाठ में रखा है।
७.संयुक्त अक्षर के पूर्व यदि दीर्घ मात्रा का अक्षर विद्यमान रहता है, तो उसको हस्व कर दिया गया है—ह्रस्व संयोगे ८४/१ (सिद्धहेमशब्दानुशासन) यथा—साप्पुरिसह (द्वितीय संधि, कडवक—२) के स्थान पर सप्पुरिसह पाठ लिया है।
सुमत जैन
शोध सहायक, राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन केन्द्र,