जैन संस्कृति की महान धरोहर परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की छोटी बहिन एवं माता मोहिनी की पाँचवी कन्यारत्न कु. मनोवती (आर्यिका श्री अभयमती माताजी) का जन्म सन् १९४३ में मगशिर शु. सप्तमी की पवित्र तिथि में हुआ था। पुत्र से भी अधिक पुत्रियों को वात्सल्य प्रदान करने वाले पिता श्री छोटेलाल जी ने अपनी इस पुत्री का नाम भी बड़े प्यार से ‘‘मनोवती’’ रखा। माता से प्राप्त धार्मिक संस्कार, गांव का प्राकृतिक वातावरण, घर का स्नेहिल वातावरण, पाठशाला का धार्मिक वातावरण तथा बड़ी बहन मैना का स्नेह, इन सबने बालिका मनोवती के ऊपर गहरी छाप छोड़ी। चूँकि गाँव में ४-५ क्लास तक लौकिक अध्ययन के पश्चात् पढ़ने की कोई सुविधा नहीं थी अत: ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र के पश्चात् प्रत्येक बालिका के लिए घर ही विद्यालय था। कु. मनोवती को भी माता मोहिनी घर के कामकाज से फुर्सत पाने के बाद धार्मिक पाठ पढ़ने की प्रेरणा प्रदान करतीं, जिसका प्रतिफल यह निकला कि मनोवती ने भी अपने नाम को सार्थक करने हेतु अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने का संकल्प कर लिया।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के पदचिन्हों पर चलने की उत्कट भावना
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के पदचिन्हों पर चलने की उत्कट भावना रखने वाली बालिका मनोवती ने सन् १९५२ में बड़ी बहन मैना को संघर्षों पर विजय प्राप्त कर त्यागमार्ग अंगीकार करने का उनका साहस देखा था और उनकी भी अभिलाषा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हो रही थी। किन्तु उन भावनाओं को साकार रूप मिलने की काललब्धि आई सन् १९६२ में, जब वह लाडनू (राज.) में अपनी माँ एवं लघु भ्राता रवीन्द्र कुमार के साथ आचार्य श्री शिवसागर महाराज के दर्शनार्थ आई और पूज्य माताजी के दर्शन किए। फिर क्या था, सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली, गंभीर मुद्रा, शान्त स्वभावी एवं धार्मिक अध्ययन को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानने वाली कु. मनोवती माँ के लाख समझाने के बावजूद दृढ़तापूर्वक आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास अध्ययन करने लगीं। सन् १९६२ में पूज्य माताजी ने आचार्यश्री शिवसागर महाराज की आज्ञा से अपनी ४ शिष्याओं (आर्यिकाओं) के साथ शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर की ओर विहार किया उस समय कु. मनोवती भी ब्रह्मचारिणी अवस्था में माताजी के साथ थीं। चूँकि साधु और श्रावक धर्मरूपी गाड़ी के दो पहिए हैं और इन दोनों के परस्पर पूरक होने से ही संसार और मोक्ष की व्यवस्था चलती है। बिना श्रावक के साधु और बिना साधु के श्रावक की गाड़ी सुचारू रूप से नहीं चलती है और साधु के विहार में कुशल संघ संचालक की भी आवश्यकता होती है। उस सम्मेदशिखर यात्रा के समय कु. मनोवती ने ब्र. श्री सुगनचंद जी एवं अपने छोटे भाई श्री प्रकाशचंद जी के साथ कुशलतापूर्वक संघ संचालन किया। जगह-जगह के प्राकृतिक वातावरण में आत्मसाधना करते हुए संघ छ: माह में सम्मेदशिखर पहुँच गया। २० तीर्थंकरों तथा करोड़ों मुनियों की निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर की परम पूज्य धरा के दर्शन व विशाल पर्वत की वंदना कर सभी साधु पुण्य अर्जित करने लगे, उस समय ब्र. मनोवती जी ने भी तीर्थ पर रहकर गिरिराज की अनेक वंदनाएं कीं।
सन् १९६३ में पूज्य माताजी का चातुर्मास कलकत्ता में हुआ
उस समय माताजी की आज्ञानुसार वह गिरनार यात्रा के लिए गर्इं। उस समय यह बार-बार माताजी से दीक्षा हेतु आग्रह करती थीं, वैसे कु.मनोवती के मन में दीक्षा लेने की तीव्र अभिलाषा आने के बाद माताजी ने हैदराबाद की ओर मंगल विहार किया और उनकी दीक्षा हेतु अति उत्कृष्ट भावना को देखते हुए पूज्य माताजी ने उनको क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की। उस समय ब्र. मनोवती जी की दीक्षा का अद्भुत एवं अद्वितीय दृश्य हैदराबाद के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया और ‘‘क्षुल्लिका अभयमती जी’’ के रूप में आपको पाकर हर्षित हो उठा। चातुर्मास के बाद संघ विहार करके श्रवणबेलगोला भगवान बाहुबली के श्रीचरणों में पहुँचा। उस प्रथम पदयात्रा से इन्हें विशेष शारीरिक कष्ट हुआ, चूँकि प्रारंभ से ही स्वास्थ्य की दृष्टि से यह कमजोर थीं अत: गंभीररूप से बीमार हुर्इं लेकिन पूज्य माताजी के आशीर्वाद तथा भगवान बाहुबली की छत्रछाया में स्वास्थ्य लाभ करते हुए माताजी के साथ अध्ययन और रत्नत्रय साधना में निमग्न रहीं। सन् १९६९ में माताजी संघ सहित श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र में आचार्य श्री शिवसागर महाराज के सानिध्य में आयोजित होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में पहुँची। उस समय विधि के अनहोने प्रसंग से आचार्यश्री बीमार पड़ गए और देखते ही देखते फाल्गुन वदी अमावस्या को वह दिव्यात्मा इस नश्वर शरीर का त्याग कर अविनश्वर सुख में विलीन हो गई, इस आकस्मिक निधन से समस्त संघ को गहरा धक्का लगा और सभी साधु निराश हो गए किन्तु ‘‘विधि के विधान को कोई टाल नहीं सकता’’ और साधु के मरण को भी महोत्सव संज्ञा मान आगम की आज्ञानुसार अपनी चर्या में संलग्न रहते हुए चतुर्विध संघ ने मिलकर मुनि धर्मसागर जी महाराज को फाल्गुन सुदी अष्टमी को आचार्यपट्ट प्रदान किया और आचार्यश्री ने भी कुशलतापूर्वक संघ का दायित्व निर्वहन करते हुए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। उसी दिन फाल्गुन शु. अष्टमी को आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के करकमलों से कई दीक्षाएं सम्पन्न हुर्इं, जिसमें क्षुल्लिका श्री अभयमती माताजी को आर्यिका अभयमती माताजी के रूप में आचार्य श्री ने प्रथम आर्यिका दीक्षा प्रदान की थी, तब से लेकर आज तक पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी अपने आत्मकल्याण के साथ-साथ परकल्याण में भी संलग्न हैं। आर्यिका चर्या का आगमोक्त परिपालन करते हुए आपने भारत के अनेक नगरों में पदविहार कर धर्म की गंगा बहाई है, जिसमें कई वर्षों तक बुंदेलखण्ड की यात्रा करते हुए आपने कई एक महिला मण्डल एवं स्वाध्याय मण्डल की स्थापना की, साथ ही कई पुस्तकों का लेखन व पद्यानुवाद कार्य भी किया। सदैव चारित्र में दृढ़ रहते हुए आज भी वह अपने संयम पालन में पूर्णरूपेण सजग हैं तथा अपने कमजोर शरीर से भी आर्यिका चर्या का पालन कर रही हैं अत: आपके इन्हीं सब गुणों को देखते हुए पूज्य माताजी ने आपको समय-समय पर ‘‘आर्यिकारत्न’’ एवं ‘‘चारित्रश्रमणी’’ की उपाधि से अलंकृत किया है। वस्तुत: ऐसी महान गुणों की धारक पूज्य माताजी सदैव दीर्घायु रहते हुए अपना वरदहस्त हम सब पर बनाए रखें, यही वीरप्रभु से मंगल प्रार्थना है।