विविधता में एकता को संजोए इस भारतीय संस्कृति में संसारी प्राणी के उन्नयन एवं सही मार्गदर्शन हेतु सम्पूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत कराते रोचक नाटकों का महत्त्व प्राचीनकाल से चला आ रहा है। आज भी भारत के कोने—में दशहरे के अवसर पर दश दिनों तक प्रत्येक ग्राम, नगर में रामलीला का मंचन कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के जीवन को दर्शाते हुए अन्याय पर न्याय एवं सतीत्व की रक्षा का सन्देश प्रदान किया जाता है। वैदिक साहित्य में भरत, वामन, कालिदास के नाटकों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। जैन संस्कृति में भी नाटकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पूर्वाचार्य प्रणीत अनेक ग्रन्थों में ऐसे—ऐसे कथानक भरे पड़े हैं जिनके आलोढन से प्राणी की दिशा परिर्वितत हो जाती है। हम प्राचीन ग्रन्थों की बात जानें दें, इस दिशा में बीसवीं शताब्दी का प्रत्यक्ष उदाहरण जैनशासन की अनमोल निधि, सरस्वती स्वरूपा, नारियों की मसीहा, कुमारिकाओं की पथप्रर्दिशका परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी हैं जिन्होंने ७—८ वर्ष की उम्र में ‘‘अकलंक—निकंलक’’ नाम का वह वैराग्यमयी नाटक देखा जिसमें आई एक पंक्ति ‘‘कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना अधिक श्रेयस्कर है—‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पदर्शनं वरम्’’ के माध्यम से अकलंक ने अपने पिता से विवाह न करने का संकल्प दोहराया, उसी एक पंक्ति ने बालिका मैना के जीवन को पूर्णरूपेण वैराग्य मार्ग की ओर अग्रसर कर दिया और जिनशासन को ज्ञानमती माताजी जैसी दिव्य विभूति प्राप्त हुई । जैनागम को ३०० अमूल्य रत्नरूपी उच्चकोटि के ग्रन्थों की प्रदात्री पूज्य माताजी ने स्वयमेव ग्रन्थ लेखन के क्रम में अनेक नाटकों की समय—समय पर रचना की और उसी क्रम में उन्होंने अपनी प्रभावक एवं सुयोग्य शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी को अनेक साहित्यिक कृतियों के लेखन की प्रेरणा देते हुए अनेक आगमोक्त समयोचित नाट्य रचनाएँ करवाई जिसके माध्यम से जैनागम के गूढ़विषयों को रोचक शैली में हृदयंगम किया जा सकता है। वस्तुत: साहित्य की विधाओं में इन माताजी द्वय द्वारा की गई साहित्यिक सेवा अनुपमेय, वन्दनीय और अभिवन्दनीय रहेगी। प्रसंगानुसार पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी द्वारा रचित कतिपय नाट्य रचनाओं का समीक्षात्मक विवेचन यहां प्रस्तुत है
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की आज्ञानुर्वितनी, महान गुरु की महान शिष्या द्वारा रचित ‘‘ऋषभदेव दशावतार नाटक’’ दश भवों में विभाजित है। वामन, भरत, कालिदास से चली आ रही नाट्य परम्परा का निर्वाह करते इस नाटक में दश भवों का सुन्दर दिग्दर्शन है। नाटक का कथानक पौराणिक है और यह जैन पौराणिक चरित्रों की परिपाटी का निर्वाह करते हुए भगवान ऋषभदेव के चरित्र के विभिन्न पहलुओं एवं तत्कालीन, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक , आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं पर प्रकाश डालता है। भगवान ऋषभदेव के १० भव सम्बन्धी इन कथानकों का इस नाटक में इतना सजीव चित्रण है कि एक क्षण को पाठक स्वयं को उसी में आत्मसात कर लेता है। कथानक पौराणिक एवं गम्भीर होते हुए भी सर्वत्र सरल, सुबोध एवं परिष्कृत भाषा शैली के प्रयोग से अत्यन्त रोचक हो गया है। वाक्य कहीं दुरुह नहीं हैं, शब्द सौष्ठव अद्भुत है, बीच—बीच में नृत्य, भजन आदि के दृश्य नाटक में सरसता और सुन्दरता प्रदान करते हैं। इस नाटक के प्रारम्भ में ही पूज्य माताजी ने दिशानिर्देश दिया है कि महापुरुषों से सम्बन्धित नाटक में पति—पत्नी का पाठ किसी बालक—बालिका को न देकर बालिका—बालिका, बालक—बालक अथवा वास्तविक पति—पत्नी को देवें और जैन मुनि, आर्यिका के पाठ किसी व्यक्ति विशेष से न कराकर स्टेचू या चित्र से काम लेवें, जो इस बात का द्योतक है कि पूज्य माताजी को आगमविरुद्धता बिल्कुल सहन नहीं है।
भगवान ऋषभदेव निर्वाण महामहोत्सव वर्ष के अन्तर्गत रचित गद्य—पद्य के सुन्दर सम्मिश्रण युक्त इस नृत्य नाटिका में भगवान ऋषभदेव के चरित्र का अत्यन्त रोचक वर्णन है। युग की आदि का कथानक होते हुए भी काव्यात्मक शैली और सौष्ठवपूर्ण भाषा का गुम्फन मन में नई जिज्ञासा उत्पन्न करता है। सर्वप्रथम मंगलाचरण रूप सामूहिक प्रार्थना के बाद सूत्रधार द्वारा कृतयुग की आदि का दृश्य और भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन कराया गया है, पुन: भोगभूमि में युगलिया जन्म, भगवान ऋषभदेव के गर्भ—जन्मादि पंचकल्याणक, भोगभूमि के अन्त और कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रजा को व्याकुल देख भगवान ऋषभदेव का आजीविका हेतु षट्क्रियाओं का उपदेश देना आदि का अत्यन्त सजीव चित्रण है। वर्तमान की आधुनिक तर्जों के साथ—साथ इसमें स्थान—स्थान पर शंभु छन्द एवं दोहा का प्रयोग कर इसकी छटा को और अधिक दर्शनीय बना दिया गया है। नाटक में अनेक अलंकार एवं रसों का भी सुन्दर समन्वय है। र्आियकाश्री द्वारा शास्त्रोक्त घटनाओं को काव्यात्मक शैली में सरल शब्दों में मात्र अल्प समय में लिख देना उनकी एक बड़ी विशेषता है जिस हेतु आशुकवियित्री इन माताजी का काव्य जगत चिरऋणी रहेगा।
उत्तर पुराण, वीरजिणिन्द चरिउ आदि में महासती चन्दना का जो चरित्र र्विणत है वही प्रामाणिक जीवन—चरित्र इस कथानक में पूज्य माताजी ने दर्शाया है। कुछ लोग शास्त्र—पुराणों से अनभिज्ञ होने के कारण सती चन्दना को राज दधिवाहन की पुत्री एवं राजा चेटक की दौहितृ मानकर उसे बाजार में बेचा जाना, उसकी माँ को सेनापति द्वारा मारा जाना आदि रूप से उनके चरित्र को दर्शाते हैं किन्तु दिगम्बर जैन ग्रन्थों में ऐसा कोई कथन नहीं है अपितु चन्दना के शील व्रत का चमत्कार आदि का इसमें शास्त्रोक्त वर्णन है। भगवान महावीर के २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से लिखित यह नाटक तत्कालीन सामाजिक दृष्टिकोण की ओर इंगित करता है। नाटक में करुण रस का उचित प्रयोग किया गया है। भाषाविन्यास की दृष्टि से नाटक पौराणिक होकर भी वर्तमान काल के परिप्रेक्ष्य में भी कई घटनाओं में नवीन सा लगता है जैसे—किसी सुन्दर नारी को देखकर पुरुष का आसक्त हो शीलभंग करने का प्रयास और सौत की ईष्र्यावश बिना आधार के शंकित होने पर किसी नारी का अन्य नारी को पीड़ा देना इत्यादि। नाटक का प्रत्येक वाक्य अत्यन्त परिष्कृत, सरल एवं भावपूर्ण है। वस्तुत: इस रोमांचक एवं हृदयस्पर्शी कथानक के माध्यम से हमारा मस्तक सतियों के सतीत्व के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है।
जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के गर्भ में आने से पूर्व वैशाली के राज चेटक और रानी सुभद्रा की प्रिय पुत्री और कुण्डलपुर के राजा सर्वार्थ एवं रानी श्रीमती की पुत्रवधू युवराज सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला देवी ने बिहार प्रान्त के नालन्दा जिला स्थित कुण्डलपुर नगरी में अद्भुत १६ स्वप्न देखे थे जिसके प्रतिफल में राजा सिद्धार्थ ने बताया था कि वह शीघ्र ही तीर्थंकर पुत्र को जन्म देंगी और नव माह पश्चात् उसी कुण्डलपुर नगरी में उन्होंने तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया था जिससे वह तिथि एक महोत्सव तिथि बन गई थी, इसी इतिहास को इसमें उत्तर पुराण आदि ग्रन्थों के आधार से दर्शाया गया है। अन्य नाटकों की भाँति यह नाटक भी स्वयं में विशिष्ट है और भगवान महावीर के जन्म सम्बन्धी भ्रामक प्रचार करने वाले लोगों के लिए शास्त्रीय प्रमाण है। मानवीय क्षमता का दिग्दर्शक है तीर्थंकर पद, जो परिपूर्णता, पवित्रता, अिंहसात्मकता और कारुणिकता का संदेशवाहक है। उन तीर्थंकर भगवान अथवा उनके परम पूज्य माता—ाqपता के बारे में भ्रामक प्रचार—प्रसार करना उनका अवर्णवाद है जिससे महान असाताकर्म का बन्ध होता है। नाटक के अंत में तीर्थंकर महावीर की बाल सभा एवं सर्प क्रीड़ा का सुन्दर अंकन है जिसमें भगवान महावीर द्वारा क्रीड़ा करते हुए अपने अवधिज्ञान से अनेक शास्त्रीय, लौकिक, सामाजिक तथा व्यावहारिक विषयों का ज्ञान प्रदान करने का अत्यन्त मोहक चित्रण है। नाटक का शब्द सौष्ठव, अलंकारिक भाषा अद्भुत है, इसके माध्यम से रचयित्री के हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, अंग्रेजी, नीमाड़ी, बुन्देलखण्डी आदि भाषाओं के परिष्कृत ज्ञान का पता चलता है।
भगवान महावीर को आज से २५६९ वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के जृम्भिका ग्राम में ऋजुकूला नदी के तट पर वैशाख शुक्ला दशमी को १२ वर्ष की तपस्या के बाद दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी किन्तु गणधर शिष्य के अभाव में महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि नहीं खिरी, भगवान विहार करते हुए राजगृही नगरी के विपुलाचल पर्वत पर पधारे वहीं इन्द्र युक्तिपूर्वक ब्राह्मणपुर नगर के इन्द्रभूति गौतम को लाया जहाँ मानस्तम्भ देखते ही उसका मिथ्यात्व गलित हो गया और सम्यग्दृष्टि हो वे भगवान के समवसरण में जिनदीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर कहलाए और ६६ दिन पश्चात् उस पर्वत पर भगवान की दिव्यध्वनि खिरने से वह पर्वत भी धन्य हो गया, उसी कथानक को पूज्य माताजी ने अत्यन्त सुरुचिपूर्ण भाषा शैली में लिखा है। वाक्यविन्यास की दृष्टि से छोटे—छोटे वाक्यों से यह पौराणिक कथन अत्यन्त सरल हो गया है अत: अपने उद्देश्य की पृष्ठभूमि में पुस्तक अपनी सार्थकता और उपयोगिता को लिए हुए है। यह नाटक हमें मिथ्यात्व अन्धकार से हटाकर सम्यग्ज्ञान रूपी प्रकाश से आलोकित करता है। साथ ही समवसरण के मुख्य श्रोता द्वारा पूछे गऐ प्रश्न से श्रावक—श्राविकाओं के अष्टमूल गुण, ग्यारह प्रतिमा, र्आियका चर्या, गृहस्थ धर्म, मुनि धर्म आदि का शास्त्रोक्त ज्ञान भी होता है। चतुर्थ एवं पंचम दृश्य के माध्यम से देवदर्शन की महिमा का वर्णन किया गया है।
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की र्आियका दीक्षा स्वर्ण जयंती के अवसर पर लिखित यह नाटक शब्द वैशिष्ठ्य की दृष्टि से अद्भुत है इसकी रोचक एवं प्रेरणास्पद शैली आबाल—गोपाल सभी पर संस्कारों की अमिट छाप छोड़ने में सफल हो इसी मनोभावना के साथ इस नाटक को चित्रांकित किया गया है। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जैसे महान व्यक्तित्व ने गगनचुम्बी ऊँचाइयों को मात्र कुछ ही दिन में या माह में ही स्पर्श नहीं किया है वरन् बचपन से लेकर आज तक की जीवन यात्रा में प्रतिक्षण वैराग्य, ज्ञान,संयम, त्याग, जिनेन्द्र भक्ति और स्वाध्याय का जो अद्भुत सम्मिश्रण पूज्य माताजी में निबद्ध रहा है उसी का यह प्रतिफल है। इसी को साररूप में पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चन्दनामती माताजी ने इस नाटक में प्रस्तुत किया है। एक ओर तो पूज्य ज्ञानमती माताजी का वैराग्यमयी व्यक्तित्व और दूसरी ओर उसका मर्मस्पर्शी सजीव चित्रण पाठक को बांधे रखने में पूर्ण सक्षम है। सुधी पाठक या दर्शक जब नाटक को पढ़ना या देखना प्रारम्भ करता है जो जैसे आँखों के सामने मैना का बचपन, पुन: अत्यन्त संघर्षों के मध्य गृहिंपजरे से निकलकर मुक्तिमार्ग की ओर बढ़कर क्षुल्लिका दीक्षा लेना, निरन्तर पठन—पाठन, पुन: र्आियका दीक्षा लेना, निर्मोह प्रवृत्ति, अत्यन्त वैराग्य, श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में किए गए ध्यान में जम्बूद्वीप रचना की उपलब्धि, विपुल साहित्य सृजन एवं विविध धर्मप्रभावनात्मक कार्यकलाप एक—एक कर मानो जीवन्त हो उठते हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो वह घटना सचमुच में हो रही हो और उस लौह बाला के प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है।
श्रुतपञ्चमी पर्व की महत्ता को दर्शाते इस नाटक में चार दृश्यों के माध्यम से षट्खण्डागम ग्रन्थ रचना की सम्पूर्ण विषयवस्तु बताई गई है। इस नाटिका में सर्वप्रथम आज से दो हजार वर्ष पूर्व वेणा नदी के तट पर होने वाले संत सम्मेलन की रोचक वार्ता, पुन: सन्तों द्वारा युग प्रतिक्रमण, श्रुतज्ञान को अविच्छिन्न रखने हेतु आचार्य धरसेन द्वारा पत्र भेजकर पुष्पदंत—भूतबलि जैसे योग्य शिष्यों को बुलाना, उनकी परीक्षा लेना, पुन: उनका गुरुदेव से श्रुतज्ञान प्राप्त कर ग्रन्थ रचना करना आदि का सुन्दर चित्रण है। जिस दिन इस सिद्धान्त ग्रंथ के लेखन का कार्य पूर्ण हुआ वही दिन ‘श्रुतपञ्चमी पर्व’ के नाम से जाना गया। पदलालित्य की दृष्टि से यह नाटक अत्यन्त गम्भीर है किन्तु सर्वत्र सरल सुबोध भाषा शैली से अत्यन्त रोचक हो गया है।
इस रोमांचकारी नाटक में भगवान महावीर के कई भव पूर्व का चित्रण है जब एक भील ने एक मुनि को मृग समझ कर उस पर बाण चलाना चाहा पुन: अपनी स्त्री के समझाने पर उनको नहीं मारा और मुनि के सम्बोधन से िंहसा का त्यागकर अष्टमूल गुण का पालन करते हुए सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया कालान्तर में वही भील का जीव एक दिन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर बने। यह नाटक इस ओर इंगित करता है कि जीवन में संयम, तप—त्याग और सम्यग्दर्शन की अचिन्त्य महिमा है जो एक पामर प्राणी को भी पूज्य बना देता है।
इसमें छ: नाटिकाएं हैं सबकी विषयवस्तु आगमोक्त किन्तु अलग-अलग है। प्रथम नाटिका ‘भरत जी घर में वैरागी’ पौराणिक है। ‘कुण्डलपुर के राजकुमार महावीर’ में भगवान के गर्भ एवं जन्मकल्याणक का सजीव चित्रण करते हुए उनकी बाल सभा का भी वर्णन है। ‘‘उत्तमक्षमा—एक रूपक’’ के माध्यम से क्रोध को आत्मा की वैभाविक परिणति बताते हुए एक सत्य कथानक के माध्यम से उससे होने वाली हानियों का रोमांचक चित्रण है। उत्तम मार्दव एवं आर्जव की मोनो एक्टिंग के माध्यम से उसकी अच्छाइयों का दिग्दर्शन कराया गया है और ‘दहेज का चमत्कार’ नाटिका में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थ अवस्था की माता श्रीमती मोहिनी देवी को उनके पिता द्वारा प्रदत्त दहेज रूपी ग्रंथ पद्मनन्दिपंचिंवशतिका से होने वाले चमत्कार का सुन्दर वर्णन है, उसी ग्रंथ के स्वाध्याय ने उनकी प्रथम कन्या मैना को ‘‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी’’ जैसी महान साध्वी बना दिया जिन्होंने जैनशासन की पताका को दिग्दिगन्त व्यापी फहरा दिया है। वस्तुत: प्रत्येक माता-पिता को अपनी पुत्री के विवाह में दहेजस्वरूप एक ग्रन्थ अवश्य भेंट करना चाहिए यही लेखिका के लेखन का अभिप्राय है।
इन सभी नाटकों के शीर्षकों से ही लेखिका की प्रतिभा— सम्पन्नता स्पष्ट झलकती है। नाटकों में स्थान-स्थान पर लिखित भजन र्आियकाश्री की काव्य प्रतिभा की सुन्दर झलक प्रस्तुत करते हैं। लेखिका ने अपनी काव्यप्रतिभा के बल पर ही नीरस एवं गम्भीर विषय को अत्यधिक रोचक बना दिया है। इससे माध्यम से हमें तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, र्धािमक, र्आिथक एवं सांस्कृतिक दशाओं का परिज्ञान होने के साथ-साथ आगमोक्त ज्ञान भी सहजता से प्राप्त होता है। पूज्य माताजी की नाट्य शैली में ‘‘स्वात्म जागरण’’ और ‘‘परजागरण’’ की अनेकानेक सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। बन्धुओं ! काव्य की दो प्रमुख विधाएँ हैं—दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य। दृश्य काव्य के अन्तर्गत ही नाटक की गणना की गई है। श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य अधिक प्रभावकारक होते हैं। अनपढ़, ग्रामीण बालक भी नाटक में प्रस्तुत की गई भाव भंगिमाओं द्वारा वस्तुस्थिति को समझ जाते हैं। उनकी मनोभूमि पर वे अभिव्यक्त भाव अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। इन सभी नाटकों में पूज्य माताजी ने उन—उन चरित्रों के विशाल जीवन को अपनी सुविज्ञ ज्ञानांजलि में समेट कर जन—जन को धन्य कर दिया है। ऐसी पूज्यनीय, त्रिकालवन्दनीय माताजी के बारे में कुछ भी कहना नन्हें हाथों से सागर की गहराई एवं पर्वत की ऊँचाई को मापने सदृश दुरुह कार्य है। वस्तुत: उनकी इन महान कृतियों के माध्यम से हम अपने ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बनाकर संसार सन्तति का छेदन कर एक दिन परमात्म पद की प्राप्ति हेतु अग्रसर होवें और जब तक उस परमात्म पद की प्राप्ति नहीं होती तब तक ऐसे गुरुओं की छत्रछाया, जिनधर्म एवं सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सदैव होती रहे यही भावना भानी चाहिए।