परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी-एक विराट व्यक्तित्व
पथभ्रमित दर-दर भटकते जीव का संबल हो तुम।
अध्यात्म की अनुपम मणि, कलिकाल की नवज्योति तुम।।
वैराग्य की उत्कृष्ट स्वामिनि, हो स्वयं इतिहास तुम।
हे माँ चरण तेरे पखारूँ, स्वयं शारद मात तुम।।
जिस प्रकार समुद्र के भीतर रत्नों की अपार राशि भरी पड़ी है जिसकी दीप्ति के समान समस्त विश्व में कोई रत्न न हो किन्तु उन रत्नों का लाभ समुद्र के तल का स्पर्श कर डुबकी लगाने वालों को ही सुलभ हो पाता है उसी प्रकार इस संसाररूपी समुद्र के भीतर रत्नत्रयरूपी चिंतामणि रत्न विद्यमान हैं जिसे आत्मसात करने वालों को मोक्षरूपी अक्षय सुख की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। अनादिकालीन संसार भ्रमण के चक्र में फंसे जीव को मनुष्य पर्याय की प्राप्ति के पश्चात् महान पुण्योदय से ही उस अनमोल रत्न की प्राप्ति हो पाती है जिनके गौरव-गरिमामयी उदाहरण हमारे तीर्थंकर, बलभद्र आदि महापुरुष तथा उनकी क्रम परम्परा में अनेकों महान आचार्य आदि हैं जिन्होंने जन्म-जन्मान्तर में संचित महान पुण्य के फलस्वरूप अपने जीवन को रत्न स्वरूप बना लिया और संसार परिभ्रमण को समाप्त कर लिया अथवा शीघ्र ही समाप्त करेंगे। आर्यखण्ड के गौरवशाली आर्यावर्त अर्थात् भारतदेश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हमें परिलक्षित कराती है उन भगवन्तों के जीवन पर, उन महापुरुषों के आचरण पर, उन मनीषियों के चिन्तर पर, जिन्होंने न सिर्फ भारत भू को अपितु सम्पूर्ण विश्व को आत्म-परहित की भावना से निहित जो कल्याणकारी मार्ग दिखाया, युगों-युगों तक यह धरा उनका अनुसरण करेगी। वस्तुत: यह भारत भू ऐसे ही सन्तों-भगवन्तों से सनाथ हुई है। इतिहास जब-जब याद करेगा इस युग के परम उपकारी गुरू आचार्य श्री धरसेन स्वामी को, तब-तब नमन करेगा इस युग के प्रथम सिद्धान्तग्रन्थकर्ता आचार्य श्री पुष्पदन्त-भूतबलि को, धरा जब भी याद करेगी आचार्य श्री अकलंक देव को, नहीं भूल पायेगी वीर बलिदानी निकलंक को, जब-जब सृष्टि जपेगी प्रभु आदिनाथ की पुत्री गणिनी ब्राह्मी माता के नाम मंत्र को, अवश्य दोहराएगी आर्यिका माता सुन्दरी के भी उच्च आदर्शों को, जब भी दुनिया गाएगी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का गुणानुवाद, तब-तब नहीं भूल पायेगी भ्रातृवत्सल जनअनुकरणीय भ्राता लक्ष्मण को, ठीक इसी प्रकार भारत की यह पावन वसुन्धरा जब-जब स्मरण करेगी चारित्रिक सम्पदा के आराधकों की प्रकाशस्तम्भ, चुम्बकीय व्यक्तित्व, मूलाचार का जीवन्त रूप, युग की अनमोल धरोहर, राष्ट्रगौरव, प्रात:स्मरणीय गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी की अलौकिक, अनुकरणीय, चिंतनीय, अकथनीय, वंदनीय, स्मरणीय जीवन गाथा को, तब-तब याद करेगी चन्द्रगुप्त, अर्जुन और एकलव्य के समान गुरूभक्ति का अनुपमेय, अनुकरणीय, वंदनीय आदर्श प्रस्तुत करने वाली, स्वर्णमयी आभायुक्त, सृजनात्मक मस्तिष्क से परिपूरित लाला श्री छोटेलाल जी के यश को विस्तारित करने वाली विलक्षण कन्यारत्न कु.माधुरी (वर्तमान में परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी) के आदर्शमयी व्यक्तित्व को, जिन्होंने महान गुरू की समर्पित शिष्या होने के साथ-साथ अपने वात्सल्यमयी व्यवहार से जनमानस को आकर्षित किया है, जिन्होंने जिनशासन की कीर्तिपताका को फहराते हुए धर्म एवं जिनसंस्कृति की परम्परा को अक्षुण्ण रखने में अपना अतुल्य योगदान देकर जैन जगत पर महती उपकार किया है। भव्य जीवों को जिनेन्द्र भगवान प्रतीण शाश्वत मोक्षमार्ग में अनुरक्त करने में सतत संलग्न परम स्तुत्य पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी अपने ज्ञानरश्मियों से आज दिग्दिगन्त को आलोकित कर रही हैं। ऐसी परम विदुषी माताजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लेखनी चलाना मानो सूर्य को पकड़ने का दुस्साहस ही है अथवा सागर की गहराई या पर्वत की उँचाई को मापने जैसा है किन्तु उन दिव्यप्रभा के स्वर्णिम व्यक्तित्व को अपने किंचित् टूटे-फूटे शब्दों में प्रस्तुत करने का यहाँ प्रयासमात्र ही है-
होनहार बिरवान के होत चिकने पात
युगप्रवर्तिका, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी जैसे दिव्य, अलौकिक व महान रत्नों की प्रसूता माता मोहिनी की पवित्र कुक्षि से १२वीं सन्तान के रूप में अवतरित पिता छोटेलाल जी की लाडली बिटिया कु. माधुरी का जन्म ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, १८ मई १९५८ की पावन तिथि में हुआ। अन्य सन्तानों की भांति यह भी अपने माता-पिता की दुलारी थीं। माधुरी की एक विशेष आदत रही कि सायंकाल जब माता मोहिनी मंदिर जाने लगतीं, प्राय: सभी बच्चे भी मंदिर जाते, लेकिन ये नियम से माँ के साथ मंदिर जाती थीं। उस समय एकाकीपन महसूस होने पर पिता छोटेलाल जी मोहिनी देवी का मजाक उड़ाते और गुस्सा भी करते कि देवी जी के पीछे सारी फौज चल पड़ी लेकिन माधुरी का माँ के साथ मंदिर जाना, पुन: शास्त्रादि पढ़कर माँ के आने पर ही वापस आना ‘हर समय माँ से चिपके रहना’ इत्यादि बातों को देखकर शायद उन्हें अच्छा लगता और वे कहते कि माधुरी सदा अपनी माँ से चिपकी रहती है ऐसा लगता है कि यही इनकी सारी जिन्दगी सेवा करेगी। यह शब्द आज माधुरी से चन्दनामती की पर्याय प्राप्त करने पर भी उनके कानों में गूँजा करते हैं। क्योंकि सच्चे मन से प्राप्त आशीर्वाद सदैव फलीभूत होता है तभी पिता का आशीर्वाद इनके जीवन में फलीभूत हुआ और इन्होंने पूज्य माताजी के पास व्रतादि लेकर रहते हुए भी अपनी माँ की ‘‘आर्यिका श्री रत्नमती माताजी’’ के रूप में अन्त समय तक सेवा की और उनकी सुन्दर समाधि बनवाने में अपना अहर्निश सहयोग प्रदान किया।
जीवन में संस्कारों की पड़ती है अमिट छाप
इस असार संसार में प्राणी जन्म लेता है और आयु पूर्ण कर मृत्यु का वरण कर लेता है। Teacher is like a candle, which lights others by consuming itself. अर्थात् गुरू मोमबत्ती की तरह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है। वस्तुत: जिनेन्द्र भगवान तथा गुरू प्रज्ञारूपी चक्षु प्रदान करने में समर्थ हैं।
जन-जन की प्रियकारिणी
तीक्ष्ण बुद्धि वाली कुमारिका माधुरी ने लौकिक शिक्षा की प्राप्ति के अन्तराल में अपने शिक्षक वर्ग एवं सभी सहपाठियों का अपनी कुशाग्र बुद्धि और मेधाशक्ति के कारण मन जीत लिया और सबमें प्रिय रहीं और जब धार्मिक क्षेत्र में कदम रखा तब भी अपनी अलौकिक प्रतिभाशक्ति से शास्त्री, विद्यावाचस्पति इत्यादि धार्मिक शिक्षा को प्राप्त करते हुए जिनागम से सम्बन्धित अनेकों श्लोक, गाथाएँ इत्यादि कंठस्थ कर गुरू एवं संघस्थ सहपाठियों के मन को प्रसन्न कर सबकी प्रिय रहीं। गुरू के कठोर अनुशासन में रहकर गहन अध्ययन से प्राप्त ज्ञान से आज आगत प्रत्येक शिष्य और भक्त लाभान्वित होता है। पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी में सबसे बड़ा गुण है-अपनी वात्सल्यपूर्ण वाणी के द्वारा सामंजस्य, प्रेम एवं मैत्री का संदेश संघस्थ शिष्यों एवं समाज को प्रदान करना, जो सर्वथा अनुकरणीय एवं अभिवन्दनीय है।
गृहस्थावस्था के भाई-बहन
लाला श्री छोटेलाल जी एवं माता मोहिनी की पुष्पित बगिया में सुरभित पुष्पों में प्रथमत:
१. कु. मैना-पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (बाल ब्र.)
२. श्रीमती शांतिदेवी (विवाहित)
३. सौ. श्रीमती देवी (विवाहित)
४. श्री कैलाशचन्द जैन सर्राफ (विवाहित)
५. कु. मनोवती-चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती माताजी (बाल ब्र.)
६. स्व. श्री प्रकाशचन्द जैन (विवाहित)
७. श्री सुभाषचन्द्र जैन (विवाहित)
८. श्रीमती कुमुदनी देवी (विवाहित)
९. कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन (बाल ब्र.)
१०. श्रीमती मालती देवी (विवाहित)
११. श्रीमती कामिनी देवी (विवाहित)
१२. कु. माधुरी-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी (बाल ब्र.)
१३. श्रीमती त्रिशला जैन (विवाहित)।
इस सुरभित फुलवारी से ३ पुष्पों ने आर्यिका बनकर सारे संसार को सुवासित किया है तथा एक भाई ब्र. रवीन्द्र कुमार जी भी सर्वत्र अपना सुवास फैला रहे हैं और युवाओं के आदर्श हैं। स्वयं उनकी माताजी के दर्शनार्थ जयपुर जाने का सुयोग प्राप्त हुआ जिसने इनके जीवन को ही परिवर्तित कर दिया। उस समय हालांकि छोटेलाल जी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी कि माधुरी माताजी के पास जाए। वे अक्सर कहा करते थे कि बिटिया! ज्ञानमती माताजी बड़ी निष्ठुर हैं वे सबके केशों का लोंच कर देती हैं। बन्धुओं! यह मोहनीय कर्म ही संसारी प्राणी को चतुर्भति परिभ्रमण कराता रहता है। सब कर्मों में इसे प्रधान कहा है। अगर इस पर प्राणी विजय प्राप्त कर ले तब सिद्धावस्था पाने में विलम्ब कहाँ? शायद यही मोह लालाजी के मन में था इसलिये वह अपने बच्चों को अपने से दूर जाते नहीं देख पाते थे। खैर, बालमन जब हठ पर आ जाता है तब उसके आगे अच्छे-अच्छे परास्त हो जाते हैं। इन्होंने अब तक कभी अपनी बड़ी बहन को नहीं देखा था मात्र चर्चाएँ ही सुनी थीं और न कभी आर्यिका माताजी आदि का दर्शन ही किया था अत: उनकी अत्यधिक इच्छा के आगे पिता को झुकना ही पड़ा। जयपुर में परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज के विशाल चतुर्विध संघ में कई मुनि, आर्यिका आदि तथा अनेक शिष्य-शिष्याएँ थीं जिन्हें पूज्य माताजी अध्ययन करवाती रहती थीं। माताजी के प्रथम दर्शन ने बालिका माधुरी को यह सोचने पर विवश कर दिया कि मुंडे केश और एक साड़ी में लिपटी हुई आर्यिका माता मेरी बहन हैं? उस समय उन्हें कुछ हँसी भी आयी तब भैय्या प्रकाशजी ने उन्हें समझाया कि बिटिया! ये महान पदवी की धारक महापूज्य आर्यिका माताजी हैं, इन्हें कभी हँसना नहीं चाहिये। पुन: जब भाई ने नजदीक से ले जाकर इनको पूज्य माताजी के दर्शन करवाये और बताया कि माताजी ने ही तुम्हारा ‘माधुरी’ नाम रखा था। माताजी ने भी इन्हें प्रथम बार देखा था किन्तु ‘रत्न पारखी’ के समान साधु पुरुष मानव पारखी बनकर पहचान लेते हैं कि यह मलिन पाषाण समान दिखता है किन्तु योग्य सामग्री के द्वारा यही पाषाण तुल्य जीवन बहुमूल्य रत्नरूपता प्राप्त कर सकता है। अत: एक दो दिन पश्चात् माताजी ने कु. माधुरी को पास बुलाकर उनसे धार्मिक व लौकिक अध्ययन के विषय में पूछते हुए १-२ संस्कृत के श्लोक पढ़ाए और शुद्ध व स्पष्ट उच्चारण देख उनके मन को अत्यन्त आल्हाद हुआ। फिर तो उन्होंने शायद सोच ही लिया था कि इस हीरे को मुझे जैनागम रूपी हार में जड़ना ही है। खैर, माधुरी से कुछ पढ़ाने का पूछने पर एक बार तो वे डरीं किन्तु जब माताजी ने उन्हें सीधे गोम्मटसार जीवकाण्ड के दो श्लोक पढ़ाए तब उन्होंने उसे दूसरे दिन कंठाग्र कर सुना दिया। इस प्रकार मात्र १२ दिन में उन्होंने ३५ श्लोक कंठस्थ किये और कुमारावस्था में गुरूमुख से नि:सृत वह गाथाएं जीवन मंदिर पर कलशारोहण करने के लिए मानों नींव का पत्थर ही साबित हुर्इं। वस्तुत: अनादिकालीन संसार में परिभ्रमण करते हुए भव्य जीव के लिए द्वादशांग वाणी ही एक माध्यम है जो भव भ्रमण के अपार पारावार में निमग्न, निराश्रित और निराश पथिक के लिए दिशासूचक ज्योति स्तम्भ है। आज के पंचमकाल में हमें साक्षात् तीर्थंकरों की वाणी का पान कर भवसागर से पार होने का सौभाग्य नहीं है परन्तु उस वाणी से अभिसिंचित करने वाले हमारे संत हम सबके आराध्य और स्तुत्य हैं जिनके द्वारा हम तीर्थंकर भगवन्तों की वाणी का परिज्ञान कर अपने जीवन को समुन्नत बना सकते हैं। गुरू के लिए आदिपुराण में कहा भी है-
न बिना यानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णव:।
नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णव:।।
जिस प्रकार जहाज के बिना समुद्र नहीं तिरा जा सकता है उसी प्रकार गुरू के बिना संसाररूपी समुद्र नहीं तिरा जा सकता है। गुरू के एक वाक्य को भी हृदयंगम कर लेने वाला जीव निश्चित ही अपना कल्याण कर लेगा और यही कु. माधुरी के साथ भी हुआ। किसी ने कहा भी है- Devotion to ignorance bestows ignorance and devotion to Gyana (self-knowledge) bestows Gyana. For it is a well established fact that a thing can grant only that which it possesses. अर्थात् अज्ञानता की साधना अज्ञानता प्रदान करती है तथा ज्ञान (आत्मज्ञान) की साधना ज्ञान प्रदान करती है क्योंकि यह एक भलीभाँति स्थापित तथ्य है कि कोई वस्तु वही दे सकती है जो उसके पास विद्यमान है। महानुभावों! शायद यही कारण था कि उस नन्हीं-सी बालिका को एक ज्ञानी ने अपना अवलम्बन देकर वह ज्ञान प्रदान कर दिया जिसने उसके जीवन में आत्मज्ञान को प्रस्फुटित कर दिया। कुछ दिनों बाद घर से पत्र आने पर जब जाने की बात आई तब बाल-मन एक बार फिर मचल गया कि मुझे तो यहीं रहना है। यह सुनकर तो भाई-भाभी अवाक् रह गये कि बेटा! यह कोई हँसी-खेल नहीं है। यह तलवार की धार पर चलने के समान अत्यन्त कठिन मार्ग है। फिर भी कु. माधुरी जब माताजी से कहने लगीं तब माताजी ने हँसकर उन्हें कुछ शिक्षाएँ देकर शान्त किया। अब माधुरी जी ने घर आकर अपनी पढ़ाई विधिवत् प्रारम्भ कर दी। उस समय टिकैतनगर में मुनि श्री १०८ सुबलसागर जी महाराज चातुर्मास कर रहे थे, जब उन्होंने ‘‘माताजी के पास क्या-क्या पढ़ा’’ इत्यादि बातें पूछीं तब माधुरी के मुख से गोम्मटसार की ३५ गाथा स्पष्ट एवं मिष्ट भाषा में सुनकर वे आश्चर्यचकित रह गए और कौतुकवश प्रतिदिन उनसे गाथा सुनकर उनकी तीक्ष्ण बुद्धि की प्रशंसा करते। सन् १९७१ में प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अजमेर चातुर्मास के समय दशलक्षण पर्व में माता मोहिनी एवं बड़े भाई-भाभ्ीा के साथ उन्हें माताजी के दर्शन का द्वितीय अवसर प्राप्त हुआ। फिर तो मानों उनका उन्नत भविष्य उनके सामने भविष्य का निर्माता बनकर आ खड़ा हुआ और काललब्धि के आ जाने से माधुरी की शादी के प्रति अनिच्छा देख पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने मात्र १३ वर्ष की अल्पायु में भाद्रपद शुक्ला दशमी (सुगन्धदशमी) के दिन अजमेर नगर के छोटे धड़े की नशिया में त्रैलोक्यपूज्य महान ब्रह्मचर्य व्रत को प्रदान कर जीवन को कुन्दनसम बना दिया। उस समय कु. माधुरी अधिक कुछ तो नहीं समझ पार्इं किन्तु जिनेन्द्रप्रतिमा एवं गुरूचरणों में नत होकर मात्र एक उत्कृष्ट कामना की कि भविष्य में मैं सब संघर्षों को झेलकर निर्विघ्नतया अपने व्रत का पालन करूँ ऐसी शक्ति मेरे अन्दर प्रकट हो। उस समय भायी गयी वह भावना आखिरकार मूर्तरूप में प्रकट हुई क्योंकि कहा गया है कि-
अर्हत् प्रसादतो विश्वविघ्नशांति: सतां भवेत्।
अर्थात् जिनेन्द्र कृपा से सज्जन पुरुषों के लिए विश्व के सम्पूर्ण विघ्नों की शांति हो जाती है। आर्षमार्ग में गुरूओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘‘भवान्धेस्तारको गुरू:’’ भवरूपी समुद्र को पार करने के लिए गुरू नौका के समान हैं। और कहा भी है कि- सम्पन्न हुए। स्वयं माताजी के ही सानिध्य में कई बार विधान करवाकर आपने इसे अपना सौभाग्य समझा है। यह गुरू अनुकम्पा ही है कि छोटी-सी उम्र में ही लोग इनको एक विद्वान और व्रतिक की तरह मूल्यांकन करते रहे हैं।
गागर में सागर-सा अमृत भरा हुआ है हर शब्दों में-(आशुकवियित्री)
बहुधा देखने में आता है कि कोई कवि होता है तो गायक नहीं, गायक होता है तो लेखन प्रतिभा नहीं होती। दोनों हो भी जायें तो मधुर स्वर नहीं होता और वह सब भी गुण हों तो चतुरनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान नहीं होता। परन्तु कु. माधुरी को तो यह बाल्यावस्था से प्राप्त मौलिक गुण था। चहँुमुखी प्रतिभा की धनी पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती मातजी के अन्दर एक विशेष गुण है तत्काल समयानुसार नूतन कविता, भजन, चालीसा आदि का सारपूर्ण लेखन। मात्र ५-१० मिनट के अन्तराल में ही निर्मित प्रत्येक काव्य धर्म, दर्शन, अध्यात्म और इतिहास से समन्वित प्रेरणास्पद रहता है। काव्य रचना के समय इनकी तन्मयता दर्शनीय है। सरस, सरल, गाम्भीर्यपूर्ण, साहित्यिक सौष्ठव से भरपूर इनकी प्रत्येक रचना जैन साहित्य की अनमोल निधि है। इनकी लेखनी से अब तक सैकड़ों भजन, आरती, चालीसा, स्तुति, मुक्तक, पद्यानुवाद-समयसार के कलशों का, अनेकानेक विधान (जैसे-भक्तामर, मनोकामना सिद्धि, तीर्थंकर जन्मभूमि, कल्याण मंदिर, नवग्रहशांति एवं तीर्थंकर पंचकल्याणक तीर्थ विधान) लिखे जा चुके हैं। हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी में भी काव्य रचना की आप सिद्धहस्त रचयित्री हैं। जब पूज्य चन्दनामती माताजी कु. माधुरी के रूप में स्कूल में अध्ययनरत थीं तभी नीतिवाक्यामृत की एक सूक्ति इन्हें बड़ी प्रिय लगती थी ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि’’। इनके मन में सदैव यही भावना उठती थी कि मेरी माँ वास्तव में मेरी सच्ची जननी हैंं। हे प्रभु! मैं कब ऐसी योग्यता हासिल करूँगी कि अपनी माँ के जीवन पर कुछ लिख सकू। वैसे भी यह लौकिक अध्ययन करते-करते अपनी मौलिक रचनायें करने लगी थीं। उस समय की इनकी कतिपय उपलब्ध रचनाओं को देखकर इनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचय स्वयमेव प्राप्त होता है। श्रीमती मोहिनी देवी ने आर्यिका दीक्षा लेकर ‘‘रत्नमती माताजी’’ के रूप में १३ वर्षों तक निरतिचार चर्या का पालन करते हुए उत्तम समाधि की प्राप्ति की। आज भी आपके उस परिवार से अनेक भव्य जीव निकलकर अपनी आत्मा के कल्याण में अग्रसर हैं।
ब्रह्मचर्य की दृढ़ता लखकर कामदेव भी हुआ पराजित
महापुराण में आचार्य जिनसेन स्वामी कहते हैं ‘‘पुण्ये प्रसेदुषि नृणां किमिवात्स्यङ्घ्यम्? अर्थात् संसार में पुण्ययोग से मनुष्यों को सबकुछ प्राप्त हो सकता है। यूँ तो उत्तम संयम की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है फिर भी महान पुण्यात्माओं को यह सुयोग भी मिल ही जाता है। कुछ समय पश्चात् माता मोहिनी ने पिता श्री छोटेलाल जी की समाधि के पश्चात् आत्मबल पर आर्यिका दीक्षा लेने का निर्णय किया और शुभ मुहूर्त में उनकी दीक्षा हो गई तब कन्या माधुरी को भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। माँ की छत्रच्छाया में रहने की जिद, आखिर एक बार पुन: बालहठ के आगे भाइयों को परास्त होना पड़ा और इन्हें संघ में रहने तथा अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस मध्य घर में आकर उन्होंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की और संघ में आकर माताजी के आशीर्वाद से कठिन परिश्रमपूर्वक शास्त्री के तीनों खण्डों की परीक्षा प्रथम श्रेणी में मात्र ३ माह में पूर्णकर सबको चकित कर दिया। वस्तुत: माँ की पवित्र कुक्षि से ही प्राप्त सुसंस्कार और माताजी का प्रेरणास्पद शुभाशीर्वाद इनके लिए आत्मोन्नति में विशेष सहायक हुए हैं। इस बीच भाइयों-भाभियों के अतीव आग्रह से कई बार घर जाना भी हुआ और विवाह सम्बन्धों की चर्चाएँ भी आर्इं किन्तु दृढ़ता के संस्कारों ने इन्हें ठुकराकर गुरू की छत्रच्छाया में रहकर मानव जीवन को सफल कर मोक्षपथ का पथिक बनना स्वीकार किया और एक बार पुन: एक महान आत्मा ने ब्रह्मचर्य रूपी खड्ग से कामदेवरूपी शत्रु को अपनी आत्मशक्ति से पराजित कर दिया। जिसके आगे अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनि भी परास्त हो जाते हैं।
बन्धुओें! गुरूभक्ति से महावन में भी बड़ा भारी नगर हो सकता है और उसमें कल्पलता के समान अभीष्ट फल प्राप्त हो सकते हैं। आचार्यों ने गुरूभक्ति के बारे में बताते हुए और भी कहा है-
गुरूभक्ति संजमेण य तरंति संसार सायरं घोरं।
छिण्णंति अट्ठ कम्मं जम्मं मरणं ण पावेंति।।
वैराग्य पथ पर वृद्धिंगत कन्या माधुरी ने अपने जीवन में एक ही गुरू बनाया और गुरू अनुवूâलता, निश्छल सेवा, अनुपम गुरूभक्ति, सेवा-वैय्यावृत्ति एवं पूर्ण समर्पण को अपना एकमेव लक्ष्य बनाते हुए शास्त्री, विद्यावाचस्पति आदि परीक्षाओं को उत्तीर्ण किया और अपने द्वारा अर्जित ज्ञान का सदुपयोग भी आत्म-पर कल्याण के अतिरिक्त गुरूभक्ति एवं गुरू गुण लेखन में ही विशेषत: किया है।
तव वाणी वीणा सम मन को झंकृत कर जाती है
(ओजस्वी वाणी)-किसी ने कहा है कि-जिसकी आँखों में वात्सल्य हो उसे सारी दुनिया अच्छी लगती है पर जिसकी वाणी में माधुर्य हो वह सारी दुनिया को अच्छा लगता है और वैसे भी जिव्हा पर सरस्वती का निवास होता है इसलिये संयमपूर्वक बोली गई वाणी सरस्वती के समान सर्वत्र प्रेम, प्रतिष्ठा और सद्भाव को बढ़ाती है। लोक में वाणी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोई भी प्राणी वाणी के माध्यम से शत्रु को भी मित्र और मित्र को शत्रु बना सकता है। हिंसक को अहिंसक, पापी को पुनीत, दुर्जन को सज्जन, क्रोधी को क्षमावान, भयग्रस्त को निर्भय, अधर्मी को धर्मी, द्वन्द्वी को निद्र्वन्द्वी तथा रोगी को निरोगी बना सकता है। विश्व में जो महापुरुषों की शृंखला दिखाई पड़ रही है वह वाणी का ही उपकार है क्योंकि हमारे पूज्य महापुरुष, सन्तगण, गुरूजन मात्र उस वाणी को प्राणी के लिये उपदेशित नहीं करते अपितु उसे पहले निज में उतारते हैं फिर उसके परिपालन की जीवों को शिक्षा प्रदान करते हैं अर्थात् ‘‘यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया’’। इसलिये संसार में प्रत्येक प्राणी सन्तों की वाणी पर विश्वास रखकर चलते हैं और साधु भी संसार भय से संतप्त प्राणी को पीयूषमय वाणी से सींचते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि भौतिकवादी इस युग में हमें दिगम्बर सन्तों के दर्शन एवं उनकी अमृततुल्य वाणी का रसास्वादन समय-समय पर मिलता रहता है। जिनेन्द्रदेव की वाणी को, आगम के सार को अपने हित-मित-प्रिय वचनों से ‘प्र’ वचन-उत्कृष्ट वचन के माध्यम से हम तक पहँुचाकर जीवन को समुन्नत बनाने वाले वे सन्त सदैव अभिवन्दनीय हैं। सन्तों की उसी श्रेणी में पूज्य प्रज्ञाश्रमणी श्री चन्दनामती माताजी भी एक ऐसा अनूठा व्यक्तित्व हैं जिनके मुखमण्डल से नि:सृत आगमोक्त, समसामयिक ओजस्वी वाणी, प्रभावक उद्बोधन, स्वरचित सुमधुर भजन बाल, युवा एवं वृद्ध तीनों ही पीढ़ियों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सभा चाहे छोटी हो अथवा बड़ी, प्रत्येक श्रोता जिन-संस्कृति एवं गुरूपरम्परा के प्रति सोचने और हृदयंगम करने को विवश हो ही जाता है क्योंकि समयोचित, सटीक, सरल, लयबद्ध और प्रभावक वाणी किये प्रभावित नहीं करती है? पूज्य माताजी के संघ में आगमन से लेकर अब तक आयोजित प्रत्येक शिविर, सेमिनार, संगोष्ठी आदि में आपकी वाणी द्वारा अमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ है। साथ ही समय-समय पर आयोजित पूजा-विधानों में आपकी स्वरलहरी ने भक्तों को मंत्रमुग्ध भी किया है। सन् १९८० में २८ वर्ष की अल्पायु में आपने अपनी जन्मभूमि टिकैतनगर में विधानाचार्य के रूप में प्रथम विधान करवाया। पूज्य माताजी का आशीर्वाद और विशेष कृपा ही थी कि सारी जैन-अजैन जनता में जो नाद गूँजा वह विशाल दृश्य दर्शनीय और स्वयं में अपूर्व रहा। विधानकर्ता श्री छोटीशाह जी ने खुले दिल से सभी का स्वागत सत्कार करते हुए विधान सम्पन्न कर रथयात्रा की व पूरे गाँव का प्रीतिभोज करवाया। इस समय उसी ग्राम की बेटी को सभी ने पुत्रीवत् नहीं प्रत्युत् एक विधानाचार्य के रूप में बहुमान दिया जिसकी स्मृतियाँ आज भी पूज्य चन्दनामती माताजी के मानसपटल पर अंकित हैं। पुन: द्वितीय विधान भी आपने टिकैतनगर में ही सम्पन्न कराया। सन् १९८१ में आपकी ननिहाल महमूदाबाद में भी विशाल स्तर पर इन्द्रध्वज मण्डल विधान सम्पन्न हुआ। वहाँ भी लोगों ने अतीव आग्रह कर इन्हें आमन्त्रित किया। उस समय समाज का असीम स्नेह-वात्सल्य इन्हें प्राप्त हुआ और सब पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उधर से ही लश्कर (ग्वालियर) में पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी के सानिध्य में आयोजित इन्द्रध्वज विधान में भी आप गई। इस प्रकार क्रमश: इनके द्वारा कई एक विधान परम्परा के एक सुरभित पुष्प के रूप में १३ अगस्त १९८९, श्रावण शुक्ला ग्यारस की तिथि में ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से आर्यिका दीक्षा की प्राप्ति कर संयम पथ पर आरोहण किया और मधुरता के साथ-साथ शीतलतापूर्ण गुणों से समाविष्ट ‘‘चन्दनामती’’ इस नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए अपने ज्ञानसुधा रूपी चन्दनामृत से विश्व को सुवासित कर दिया। दीक्षा से पूर्व इन्होंने अहमदाबाद (गुजरात) में शिविर का आयोजन करके वहाँ धर्म का डंका बजा दिया था जिसकी स्मृतियाँ आज भी लोगों के मन-मस्तिष्क में तरो-ताजा हैं। इसके अतिरिक्त लखनऊ, टिकैतनगर, महमूदाबाद, बड़ौत, सरधना आदि जिन-जिन स्थानों पर ये गई वहाँ के लोग इनके प्रति असीम वात्सल्य भाव रखते हैं ऐसा इनका चुम्बकीय व्यक्तित्व है। कहा भी है-
कोयल किसको देत है कागा किससे लेत।
जीभड़ल्या अमरत बसे, जग अपना कर लेत।।
वस्तुत: स्वभाव इतना मृदु एवं मधुर हो जो सबमें घुल-मिल जाये। केवल वस्त्रों से या आभूषणों की समानता से जीवन नौका नहीं तिरेगी बल्कि स्वभाव की समानता से नैय्या पार लगेगी। पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी में वह मिष्टता, वह मृदुता विद्यमान है। यही कारण है कि दीक्षा की सूचना जब लोगों को प्राप्त हुई तब स्थान-स्थान पर इनका स्वागत कर बिनौरी निकालने की इच्छा इनके सम्पर्क में आने वाले लोगों को अत्यधिक हुई। तब परमपूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से विशेष आग्रह कर उन्होंने बिनौरी का कार्यक्रम रखकर उन्हें वहाँ आमन्त्रित किया और लखनऊ, महमूदाबाद, सीतापुर, अहमदाबाद (गुजरात), सनावद (म.प्र.), बड़ौत, सरधना, टाउन (हस्तिनापुर), दरियाबाद, जन्मभूमि टिकैतनगर आदि स्थानों पर इनका भावभीना स्वागत किया गया। जन्मभूमि टिवैâतनगर की दु:ख एवं हर्षमिश्रित घड़ियों की प्रत्यक्षदर्शी मैं स्वयं हूँ जो कि आज भी मेरे मानसपटल पर अंकित है। जब परिवार व समाज के लोग अपनी लाडली पुत्री से बिछुड़ने के गम में रो रहे थे तथा उनको संयम पथ पर बढ़ते देख आशीषों की वर्षा करते हुए प्रसन्न भी हो रहे थे। ठीक ऐसा ही माहौल इनकी दीक्षा के समय भी था जब अपार माताजी के पास रहते हुए भी लेखन की यह धारा प्रवाहमान होती रही। एक दिन साहस करके इन्होंने ५१ पद्यों में ‘‘माँ मोहिनी से रत्नमती तक’’ का चित्रांकन किया। उस छोटी-सी बालिका की लेखनी का यह प्रथम प्रयास देखकर माताजी बहुत प्रसन्न हुर्इं और शाबासी भी दी। वहीं माताजी के पास पं. बाबूलाल जी जमादार बैठे हुए थे। उन्होंने भी वह कृति देखी और प्रसन्न होते हुए ‘‘मातृभक्ति’’ के रूप में उसे छपाने की बात कही। वह पुस्तक आज भी उपलब्ध है। अर्थ गाम्भीर्य से परिपूर्ण गद्य लेखन-“Our sacred books are our light-houses erected in the great sea of time”. सद्पुस्तके वह प्रकाशगृह हैं, जो समय के विशाल समुद्र में खड़ी की गई हैं। आत्मोन्नति के मार्ग में सुसाहित्य का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। साधक पुरुष के लिए साधना मार्ग में साध्य की ओर बढ़ने के लिए सत्साहित्य एक प्रकृष्ट आलम्बन है। सद्गुरू सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते हैं परन्तु सत्साहित्य प्रत्येक मंदिर, साहित्य सदन एवं स्वाध्याय भवन में उपलब्ध हो जाता है। सत्साहित्य का उपयोग तभी होता है जब साधक उसका अध्ययन करके उनमें अपना प्रतिबिम्ब देखता है। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे दिग्गज आचार्यों ने भी सत्साहित्य की रचना एवं उनके स्वाध्याय में ही अपना सम्पूर्ण जीवन बिताया। ऐसे आचार्यों का नाम आज भी अमर है। साहित्य की विधाओं में गहन चिन्तन-मनन द्वारा अपनी कृतियों से जिनवाणी माता की सेवा करने वाली पूज्य चन्दनामती माताजी का नाम भी युगों-युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा क्योंकि काव्य लेखन के साथ ही गद्य लेखन के क्षेत्र में अपनी सशक्त लेखनी से आपने अविस्मरणीय योगदान दिया है। जिनमें सर्वोपरि है पूज्य गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी कृत सिद्धान्तचिन्तामणि टीका का हिन्दी पद्यानुवाद। यह कृतियाँ आने वाली पीढ़ी के लिए ऐतिहासिक धरोहर हैं जो सरल भाषा में सिद्धान्त ग्रन्थ का सार समझाने में सक्षम कृति सिद्ध होगी। इनका सृजनात्मक मस्तिष्क धर्मप्रभावना के नये-नये आयामों को यथार्थ रूप देते हुए सदैव पठन-पाठन लेखन आदि में दत्तचित्त रहता है। चूँकि यह गुण आपने माताजी से विरासत में ही प्राप्त किया है अत: आपको लेखन में विशेष आल्हाद होता है। जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग पूज्य माताजी की विशेषता है जो प्रत्येक शिष्य के लिये ग्रहणीय है। इनकी लेखनी का प्रत्येक शब्द मोती के समान चुना हुआ अत्यन्त सुन्दर है। प्रतिक्षण चलती लेखनी के प्रत्यक्षीभूत लगभग १०० पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं जैसे-अवध की अनमोल मणि, महावीर स्तोत्र की संस्कृत-हिन्दी टीका, ज्ञानज्योति की भारत यात्रा, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, भगवान महावीर हिन्दी अंग्रेजी जैन शब्दकोश, चारित्रचन्द्रिका, ज्ञानमती माताजी के अमूल्य प्रवचन आदि। अनेक नाटक, चित्रकथाएँ, अनेक पद्यानुवाद के साथ ही सम्पादित अनेक ग्रन्थ जैसे-आर्यिका रत्नमती अभिनन्दन ग्रन्थ, आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रन्थ, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिनन्दन ग्रन्थ, कुण्डलपुर अभिनन्दन ग्रन्थ, भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि ग्रन्थ, गणिनी ज्ञानमती गौरव ग्रन्थ आदि। इसके अतिरिक्त वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला से निकलने वाली सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के सम्पादन में भी आपका पूर्ण सहयोग रहता है जिसमें चतुरनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान सुधी पाठकों को घर बैठे प्राप्त होता है। वस्तुत: साहित्यिक क्षेत्र में जैनधर्म के विपुल एवं कठिन साहित्य को सरल, परिमार्जित एवं सौष्ठवपूर्ण भाषाशैली में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत कर इन्होंने साहित्य की जो अनुपमेय सेवा की है साहित्य की विधाओं में ऐसी गरिमामयी व्यक्तित्व सदैव अभिवन्दनीय रहेंगी। आचार्यों ने कहा है-
वदनं प्रसाद सदनं सदयं, हृदयं सुधा मुचो वाच:।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्या:।।
दीक्षा की चर्चा सुनकर जन-जन स्वागत को उमड़ पड़े-(माधुरी से बनीं ‘आर्यिका चन्दनामती)-आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भव्य जीवों के लिए उपदेश दिया है-‘‘परोपकार मृत्सृज्य स्वोपकार परो भव’’ अर्थात् परोपकार की अपेक्षा स्वोपकार में लगना हितकर है। परोपकार की भावना के विकास के लिए शिक्षा और स्वोपकार की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए दीक्षा आवश्यक है। शिक्षा व्यक्ति को बहिर्मुखी और दीक्षा अन्तर्मुखी बनाती है। शिक्षा से इहलोक और दीक्षा से परलोक सुधरता है। अत: जीवन में दोनों की उपयोगिता है परन्तु मुख्यता दीक्षा की ही है। कहा भी है-
आदहिदं कादव्वं, पदहिदं च कादव्वं।
आदहिद-पदहिदादो, सुट्ठ आदहिदं कादव्वं।।
महर्षि पुष्पदन्त का कथन है-‘‘दीक्षां गृहणन्ति मनुजा: स्वकर्महरणाय च स्वपुण्य वृद्धये, केचित् संसृति मुक्तये’’ अर्थात् दीक्षा ग्रहण करने से कर्म की हानि, पुण्य की वृद्धि एवं पंचपरावर्तनरूप संसार से मुक्ति प्राप्त होती है। देवगण भी दीक्षा के लिए तरसते हैं। परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से वे उसे ग्रहण नहीं कर सकते। धन्य हैं वे पुण्यशाली जीव, जो दीक्षा ग्रहण कर देव दुर्लभ अपनी मानव पर्याय को सफल और सार्थक बना लेते हैं। शिक्षा को कोई भी प्राप्त कर सकता है, किन्तु दीक्षार्थी तो विरले ही होते हैं। बाल्यकाल से जिनके परिणाम वैराग्योन्मुख होते हैं, उनकी संख्या तो नगण्य ही है। दीक्षा का पावन प्रसंग किसी भव्यात्मा के जीवन में किसी वरदान की प्राप्ति से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह परमपद की ओर ले जाने वाला एक असाधारण कदम है। वस्तुत: चरित्र के आराधकों को किसी सीमा में बंधकर रहने की अपेक्षा उसे निरन्तर वृद्धिंगत करने की स्तुत्य अभिलाषा रहती है। वह हमेशा यही सोचता है-
प्रतिपद्य कदा दीक्षां विहरण्याम मेदिनीम्।
क्षपयित्वा कदा कर्म प्रपत्स्ये सिद्धसंश्रयम्।।
उसी अभिलाषा को जीवन का ध्येय बनाने वाली ब्र. कु. माधुरी जी ने ब्रह्मचारिणी अवस्था में जहाँ त्रिलोक शोध संस्थान के मन्त्री पद का कार्यभार सम्भाला वहीं पूज्य माताजी की प्रेरणा से आयोजित निर्माणात्मक कार्य, जैसे-हस्तिनापुर, अयोध्या, मांगीतुंगी, प्रयाग, कुण्डलपुर (नालंदा) इत्यादि तीर्थों के विकास-जीर्णोद्धार, सृजनात्मक कार्य एवं सभी राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में अपनी गुरूभक्ति की विशेष भावना के अनुरूप माताजी के चहँुमुखी कार्यकलापों को सफलता के उच्च शिखर पर पहँुचाने हेतु अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। लगभग १८ वर्षों तक अपने देश, समाज, गुरू, माता-पिता एवं कुटुम्बीजनों की यशकीर्ति को प्रसारित करते हुए इन्होंने नारी जीवन की सर्वोत्कृष्ट मंजिल आर्यिका दीक्षा की प्राप्ति हेतु पूज्य माताजी से निवेदन किया और चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की निष्कलंक‘
‘प्रज्ञाश्रमणी’’ की पदवी से अलंकृत-
वैभवं विनयो विद्या, विवेको निर्मलं यश:।
मति भूत्यादयश्चान्ते, भवन्ति गुरूभक्तित:।।
अर्थात् वैभव, विनय, विद्या, विवेक, निर्मल यश, बुद्धि और सम्पत्ति आदि पदार्थ गुरूभक्ति से प्राप्त होते हैं। अपनी लघुता के कारण फल आने पर वृक्ष की डालियाँ झुक जाती हैं और पानी से भरकर मेघ झुक जाते हैं। इसी तरह धन, विद्या, पद और यश की प्राप्ति भी झुकने वाले सज्जन को ही मिलती है जिसमें लघुता नहीं आती वे प्राप्त धन, विद्या, पद और यश का सदुपयोग नहीं कर सकते। प्राय: लोकव्यवहार में देखा जाता है कि शिष्य की समर्पण भावना, नि:स्वार्थ सेवा एवं योग्यता, गुरू आज्ञा का सतत् पालन आदि गुणों द्वारा वह स्वयमेव एक दिन पूज्यता की उच्च श्रेणी प्राप्त कर लेता है और वैसे भी-हीरा मुख ते ना कहे, बड़ो हमारो मोल।’’ फलत: आपके इन्हीं गुण विभूषित व्यक्तित्व के दृष्टिगत पूज्य माताजी ने सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली में आयोजित कल्पद्रुम महामण्डल विधान के विराट आयोजन के समापन अवसर पर आपको ‘‘प्रज्ञाश्रमणी’’ की उपाधि से अलंकृत किया जिसे आपने गुरूआज्ञा मानकर निर्लिप्त भाव से स्वीकार किया है क्योंकि उनका कहना है कि गुरू द्वारा प्रदत्त आर्यिका पदवी की प्राप्ति और उनका वात्सल्यपूर्ण दिशा-निर्देशन ही मेरे जीवन रूपी मन्दिर पर कलशारोहण कराने हेतु सबसे बड़ी सौगात है। ऐसे निस्पृही शिष्य विरले ही होते हैं जो प्रतिक्षण जिनसंस्कृति, तीर्थसंरक्षण और गुरूसेवा में संलग्न रहते हैं।
सिद्धों की श्रेणी में आने वाला जिनका नाम है
जिनागम में कहा गया है ‘‘णिप्पिच्छो णत्थि णिव्वाणं’’ बिना पिच्छी के निर्वाण नहीं हो सकता और जिसने एक बार इस रत्नत्रय को धारण कर निरतिचार चर्या पालन कर लिया वह कतिपय ही भवों में मुक्तिकन्या का वरण कर लेगा। रत्नत्रय की धारक, चारित्र चक्रि गुरूवर की बगिया की सुरभित पुष्प जो अपने साथ न जाने कितने प्राणियों को मोक्षमार्ग में लगाकर उनके भविष्य को उन्नत बनाने में संलग्न हैं वह कतिपय भवों में मुनिपद धारण कर साधना के उच्च सोपानों पर आरोहण करते हुए रत्नत्रय की जनसमूह के बीच इन्होंने अपने लम्बे-लम्बे केशों का लुंचन किया। तब सभी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी और उस समय माताजी ने इन पर दीक्षा संस्कार करते हुए सभी से पूछा था कि आप लोग बतायें कि यह दीक्षा के योग्य हैं? मैं इन्हें दीक्षा देउँ क्या? तब सभी ने करतल ध्वनि से जय-जयकार करते हुए इनकी दीक्षा की अनुमोदना की थी। जिसे याद कर आज भी परिवार के लोग हँसते हैं कि किस प्रकार माताजी ने हमारी लाडली बहन, बुआ, मौसी (अलग-अलग रिश्तों की दृष्टि से) का केशलोंच किया और पूछती हैं कि दीक्षा देउँ क्या? यथार्थ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की निष्कलंक परम्परामय बगिया में सुवासित इस पुष्प ने अपनी दिव्य सुगंधि से सम्पूर्ण जगत को सुवासित कर अपना नाम सार्थक कर दिखाया और इनके इस कदम से ‘‘कुलं पवित्रं, जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती बभूव।’’
आर्यिका दीक्षा के पश्चात् हुए मंगलमयी चातुर्मास
(लोगों को नवचेतना मिली)-किं न स्यात्साधुसंगमात्-महापुराण ग्रन्थ में ६२वें सर्ग में लिखा है कि साधु समागम से सबकुछ सम्भव है। संत के लिये तो ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ है अत: उनके लिए छोटे-बड़े सभी समान हैं माताजी मात्र बड़े-बड़े उद्योगपति, नेताओं या प्रशासनिक अधिकारियों को ही सम्बोधित नहीं करती हैं वरन् माताजी की दृष्टि में तो सभी प्राणी को आत्मकल्याण करने का अधिकार है। इसी भावना को साकाररूप देती पूज्य माताजी को मैंने देखा है कि भारत के विभिन्न नगरों, छोटे-छोटे ग्रामों में जैन-जैनेतर के मध्य पद विहार करते हुए कई-कई बार दिन में दो-दो, तीन-तीन बार भी अपने प्रवचनों से श्रद्धालुओं को उन्होंने ज्ञानसुधा का पान करवाया है। वास्तव में, जिनधर्म के प्रति अगाध समर्पण, कार्य में अद्भुत तत्परता, जिनेन्द्रभक्ति एवं साहित्य साधना के प्रति विपुल अनुराग, कठोर परिश्रम, दृढ़ इच्छाशक्ति, कार्य में एकाग्रता, अनुशासन आदि गुणों के दृष्टिगत मुझे यह अनुभव होता है कि बहुत बड़े-बड़े पदों पर आसीन भी कार्यक्षमता में पूज्य माताजी के समक्ष बौने हैं। आर्यिका दीक्षा के पश्चात् परम पूज्य गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी के साथ आपके बीस चातुर्मास परिपूर्ण हुए। सन् १९८९ से २००८ तक के सम्पन्न हुए चातुर्मास में हजारों किमी. की पदयात्रा के साथ चातुर्मास के मध्य जहाँ लोगों ने आपसे जैनागम का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया, नूतन दिशाबोध प्राप्त किया, नूतन स्फूर्ति का संचार किया वहीं पदविहार के मध्य कितने ही जैनेतर बंधुओं ने शाकाहार, सदाचार, जीवन निर्माण की प्रेरणा प्राप्त कर व्यसनों का त्यागकर अपनी मनुष्य पर्याय को संवारा और निज जीवन का उत्थान किया। पूज्य माताजी के साथ आपके चातुर्मास से पवित्र स्थल निम्नलिखित हैं- १. १९८९-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर २. १९९०-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर ३. १९९१-सरधना (मेरठ) ४. १९९२-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर ५. १९९३-अयोध्या तीर्थ ६. १९९४-टि“Our sacred books are our light-houses erected in the great sea of time”.तनगर (बाराबंकी) ७. १९९५-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर ८. १९९६-मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र ९. १९९७-लाल मंदिर-चाँदनी चौक (दिल्ली) १०. १९९८-राजा बाजार-कनॉट पैलेस (नई दिल्ली) ११. १९९९-कमल मंदिर-प्रीत विहार (दिल्ली) १२. २०००-अशोक विहार-फेज- (दिल्ली) १३. २००१-प्रयाग (इलाहाबाद) १४. २००२-प्रयाग (इलाहाबाद) १५. २००३-कुण्डलपुर (नालंदा) १६. २००४-कुण्डलपुर (नालंदा) १७. २००५-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर १८. २००६-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर १९. २००७-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर २०. २००८-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर २१. २००९-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर
आर्ष परम्परा हेतु समर्पित व्यक्तित्व-आचार्यों ने कहा है कि- त एव कीर्तिता: शिष्या, ये गुर्वाज्ञानुवर्तिन:।
जो गुरू आज्ञा के अनुवर्ती होते हैं वे ही शिष्य कहे गये हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की निष्कलंक परम्परा से नि:सृत आर्ष मार्ग पर चलकर आगम को अपना प्राण मानने वाली जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी, सरस्वती स्वरूपा परम पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से प्राप्त आर्षमार्गी ज्ञान को ही अपना प्राण मानने वाली पूज्य श्री चन्दनामती माताजी गुरू-परम्परा द्वारा स्थापित रीतियों, परम्पराओं का सर्वदा अनुपालन करना अपना सौभाग्य समझती हैं। साथ ही आने वाले प्रत्येक प्राणी पर इस गुरू-परम्परा के संस्कार डालने में आपको विशेष आनन्द आता है। तीर्थ और तीर्थसंरक्षण के लिए तो माताजी सदैव कहती हैं-
दुर्गम पथ को सुगम बनाना ही सच्ची कर्मठता है।
जंगल में मंगल कर महल बनाना सच्ची गुरूता है।।
तीरथ को नवतीर्थ बनाना ही सच्ची सक्रियता है।
तीरथ का उद्धार न करना मानवता की निष्क्रियता है।।
अनुकरणीय आदर्श-आगमोक्त चर्या, चारित्रिक दृढ़ता, कत्र्तव्यनिष्ठता से गुरू की महानता का सहज परिज्ञान कराने वाली पूज्य चन्दनामती माताजी अलौकिक प्रतिभाओं से सम्पन्न हैं। इतने सारे गुणों को एक साथ एकत्रित होने के बाद भी निरभिमानता, ख्याति-लाभ-पूजा से दूर, सरल तथा मोहक छवि से युक्त माताजी आज के युग में उन शिष्यों के लिए एक उदाहरण हैं जो थोड़ी-सी योग्यता प्राप्ति के पश्चात् स्वयं को गुरू से भी महत्तर समझकर ख्याति, लाभ, पूजा में पड़ जाते हैं। जैसे-जैसे आपकी प्रतिभा चन्द्रमा की षोडश कलाओं की भाँति वृद्धिंगत हुई है वैसे-वैसे ही पूज्य माताजी के प्रति आपकी समर्पण भावना में अभिवृद्धि ही हुई है। आप स्वयं तो गुरूभक्ति के परिपालन में पूर्णत: सजग हैं ही , आगत प्रत्येक शिष्य-शिष्याओं अथवा भक्तों को पूज्य माताजी के प्रति समर्पित होने की शिक्षा प्रदान करती रहती हैं। सामंजस्य, प्रेम, मैत्री, प्रसन्नता का सूत्र आपसे प्राप्त कर प्रत्येक शिष्य अपने जीवन को समुन्नत बना सकता है। संघ का कुशल संचालन करते हुए, गुरू-आज्ञा का पालन करते हुए संघस्थ शिष्य-शिष्याओं को असीम वात्सल्य देकर उनके पालन-पोषण, संग्रह-निग्रह में अत्यन्त कुशल माताजी परम सेवाभावी हैं। इनके पास रहकर कभी किसी भी रिक्तता का अनुभव मात्र भी नहीं होता अपितु गौरव ही होता है और उनके जीवन से बहुत कुछ शिक्षा भी प्राप्त होती है। वे सदैव यही प्रेरणा देती हैं कि-
Life is a Gift – Accept it, Life is a Love – Enjoy it, Life is a Challange – Meet it, Life is a Struggle – Fight it, Life is a Tragedy – Face it, Life is a Duty – Perform it.
सन्त-काव्य की परम्परा में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त, अपने हित-मित-प्रिय वचनामृत से जनकल्याण में निरत, साधना की उच्चतर सीढ़ियों पर सतत आरोहणरत, ऐसी महानतम गुणों की धारक रत्नत्रयस्वरूपा माताजी का वरदहस्त मुक्ति प्राप्ति तक सदैव हम पर बना रहे और प्रत्येक भव में सांसारिक विषय भोगों से ऊपर उठकर रत्नत्रयरूपी गंगा में अवगाहन कराने में सहकारी बने यही उन्नत भावना है। सही मायने में तो स्व-पर कल्याणरत ऐसे सन्तों से ही इस धरा का मस्तक सदैव गौरवान्वित है जिनका वर्णन चन्द शब्दों में कर पाना असाध्य प्रतीत होता है। मेरी तो जिनेन्द्र प्रभु से यही प्रार्थना है कि जब पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी अर्हंत पदवी को धारण करें तो पूज्य चन्दनामती माताजी उनकी प्रमुख गणधर बनकर हम भव्यात्माओं को दिव्य अमृतवाणी का पान करावें ताकि उनके साथ-साथ हम भी उस संसार परम्परा को समाप्त कर सके। अन्त में ऐसी गरिमामयी व्यक्तित्व के पावन चरणयुगल में भक्ति प्रसून स्वरूप एक कवि द्वारा रचित कतिपय पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए शीघ्र ही नारी जीवन की सर्वोत्कृष्ट मंजिल की प्राप्ति आर्यिका दीक्षा की कामना करती हूँ और संसार सन्तति छेदन तक ऐसे ही गुरू के अवलम्बन की भावना व्यक्त करते हुए अपनी लेखनी को विराम देती हूँ “