महापुरुष रामचन्द्रजी के समय की बात है । सिद्धार्थ नगरी के राजा क्षेमंकर और रानी फललत्य’ के देशभूषण और कुलभूषण नामक दो राजकुमार थे । दोनों भाइयों को एक-दूसरे के प्रति अपार प्रेम था । वे मात्र इसी भव में नहीं, बल्कि पूर्व में अनेक भव से एक-दूसरे के भाई थे । दोनों भाई आत्मा को जाननेवाले थे और पूर्वभव के संस्कारी थे । राजा ने बाल्यावस्था से ही दोनों को विद्याभ्यास के लिए देशान्तर भेज दिया था । पन्द्रह वर्ष तक दोनों भाई विद्याभ्यास में इतने मग्न रहे कि विद्यागुरु के अलावा किसी और को जानते तक नहीं थे । विद्याभ्यास पूरा करके जिस समय दोनों युवा राजकुमार घर आये उस समय राजा ने नगरी का शृंगार करके उनका भव्य सम्मान किया और उनके विवाह के लिए राजकन्याओं को पसन्द करने की तैयारी की ” दोनों राजकुमार उसके ऊपर मुग्ध हो गये । वह राजकन्या भी एकटक उनको देख रही थी और दोनों का रूप देख-देख कर बहुत प्रसन्न हो रही थी । अब, एकसाथ उन देशभूषण और कुलभूषण दोनों भाइयों को ऐसा लगा कि यह ० मेरे लिए ही है.. .यह मेरे ऊपर प्रसन्न हो रही है, मैं ही इससे विवाह करूँगा, परन्तु दूसरा भाई इसी राजकन्या के ऊपर ही नजर रखकर उसे राग से निहार रहा है – यह देखकर दोनों को एक दूसरे पर द्वेष आया कि यदि मेरा भाई इस कन्या के ऊपर नजर रखेगा तो मैं उसे मारकर इस राजकन्या से विवाह करूँगा । – ऐसा मन ही मन में वे एक -दूसरे को मारकर भी उस मजकन्म के साथ विवाह करने की सोच रहे थे । दोनों का चित्त एक ही राजकुमारी में एकदम आसक्त था. इस कारण वे एक -दूसरे से कहने लगे – ‘ ‘इस राजकुमारी के साथ मैं विवाह करूँगा, तुम नहीं । इस प्रकार मैं -मैं… .तू- तू करते-करते दोनों भाई हाथी के ऊपर बैठे-बैठे वाद -विवाद करने लगे । कन्या के मोहवश दोनों भाई एक-दूसरे के प्रति स्नेह भूल गये और द्वेषपूर्ण बर्ताव करने लगे । कन्या की खातिर एक-दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हो गये । अरे विषयासक्ति! भाई- भाई के स्नेह को भी तोड़ देती है । अरे रे! चार -चार भव से परम स्नेह रखनेवाले दोनों भाई इस समय विषयासक्तिवश एक-दूसरे को मारने के लिए भी तैयार हो गये । हृदय -परिवर्तन इतने में कुछ शब्द उनके कान में पड़ते ही दोनों भाई चौंक गये.. .जैसे बिजली ही उनके ऊपर पड़ गई हो, कैसे दोनों स्तब्ध हो गये?.. .क्या शब्द थे वे? उनके साथ में चल रहे बुद्धिमान मंत्री ने जब दोनों राजकुमारों को लड़ाई करने की तैयारी करते देखा तथा ‘ ‘दोनों की नजर भी राजकुमारी की ओर ही लगी है ‘ ‘ – यह देखा, तब उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि ‘ ‘ये दोनों राजकुमारी के लिए ही लड़ रहे हैं….” । उन्होंने कहा – ‘ ‘देखो, राजकुमारो! सामने राजमहल के झरोखे में ‘तुम्हारी बहिन ‘ खड़ी है, बहुत वर्षों बाद तुम्हें पहली बार देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो रही है कि अहा! कितने अच्छे लग रहे हैं मेरे भाई! अत: टकटकी लगाकर तुम्हें निहार रही है । तुम विद्याभ्यास करने गये थे, उसके बाद इसका जन्म हुआ था, यह तुम्हारी बहिन तुम्हें पहली बार देखकर कितनी खुश है! तुम भी इसे पहली बार देख रहे हो….” अरे रे । इस झरोखे में खड़ी -खड़ी जो हमारे सामने हँस रही है, वह राजकुमारी कोई और नहीं, हमारी ही सगी बहिन है । ‘ ‘ – ऐसा जानकर दोनों भाइयों के मन में जबरदस्त झटका लगा । लज्जा से वे वहीं ठहर गये । वे सोचने लगे – ” अरे रे । यह तो हमारी छोटी बहिन है! हमने इसे कभी देखा नहीं, जिससे समझ नहीं सके, अज्ञानता के कारण हम अपनी बहिन के ऊपर ही विकार से मोहित हुए! और एक-दूसरे को मारने का विचार करने लगे! अरे, विषयांध होकर हम भाई- भाई के स्नेह को भी भूल गये । हाय रे! हमें यह दुष्ट विचार क्यों आया? अरे रे ! ऐसे ससार में क्या रहना? जहाँ एक भव की स्त्री दूसरे भव में माता या बहिन हो, ज् –ज् र्क्य वहिन दूसरे भव में स्त्री आदि हो । अब इस संसार से विराम लेना चाहिये । अनेक दे ज से भरा हुआ यह ससार, जिसमें दुष्ट मोह, जीव को अनेक प्रकार से नाच नचाता है । हमें –ट- है कि मोह के वश होकर हमने अपनी बहिन के ऊपर विकार भाव किया । अरे रे! अब, ? -इग्ना को हम क्या मुँह दिखायेंगे?’ ‘ ऐसा विचार करके उन्हें राजमहल जाने में अत्यन्त शर्म महसूस हुई । इसप्रकार संसार को दें—- न्मयकर दोनों भाई अत्यन्त विरक्त हुए और वहाँ से लौट गये तथा जिनदीक्षा लेकर मुनि २ – मुनि देशभूषण और कुलभूषण आत्मसाधना में तत्पर हुए । वे देश-देशान्तर में विचरण –८- हुए पुथ्वी को तीर्थरूप बनाने लगे. … .उनके पिता दोनों पुत्रों के विरह में आहार को त्याग इन. प्राण छोड्कर भवनवासी देवों में गरुडेन्द्र हुए । मोक्षगामी राजकुमार…. और उनका कुटुम्ब – टेशभूषण और कुलभूषण – दोनों राजकुमार भाई जिस समय एकाएक संसार से विरक्त होकर स्थ्यौक्षा लेने के लिए तैयार हुए, उसी समय पुत्रवियोग से व्याकुल माता ने पुत्रों को रोकने हेतु कूद? प्रयत्न किया, उसकी बहिन ने भी मुनिपने में बहुत कष्ट बताते हुए कहा – हे बन्धुओ! वहाँ कोई माता-पिता या परिवार नहीं है, कुटुम्ब के बिना वन में अकेले किस ज्वार रहोगे?’ ‘ तब वैरागी कुमारों ने कहा – ‘ ‘हे माता! हे बहिन! मुनियों के तो महा- आनन्द है । उनका चन चैतन्य परिवार उनके साथ ही है । वहाँ वे कोई अकेले नहीं हैं, ‘ ‘ कहा भी है –
(शार्दूलविक्रीडित छन्द)
धैर्ययस्य पिता क्षमा च जननि शान्तिश्चिरं गेहिनी,” सत्य सुतरयं दया च भगिनि भ्राता मन: संयम : ।’ शय्या भूमितल दिशोदुपि वसा ज्ञानामृत भोजनं, ”ऐतेयस्यकुटुम्बिनोवदसखे! कस्मात्भययोगिन: । ।
धैर्य जिसका पिता है, क्षमा जिसकी माता है, अत्यन्त शान्ति जिसकी गृहिणी है, सत्य जिसका पुत्र है, दया जिसकी बहिन है और संयम जिसका भाईहै – ऐसा उत्तम वीतरागी परिवार दुनियों को जंगल में आनन्द देता है । फिर पृथ्वी जिसकी शटया है, आकाश जिसके वस्त्र हैं, ज्ञानामृत जिसका भोजन है – ऐसे योगी को डर किसका? भय तो इस मोहमयी संसार में है, मोक्ष के साधकों को भय कैसा?’ ‘ ऐसा कहकर देशभूषण-कुलभूषण दोनों कुमार वन में चले गये और दीक्षा लेकर मुनि हो गये । उनकी बहिन आर्यिका हो गयी । दोनों राजकुमार मुनि होकर चैतन्य के अनन्त गुणों से भरे-पूरे परिवार के साथ अत्यन्त आनन्द के साथ क्रीड़ा करने लगे । शुद्धोपयोग के द्वारा निजगुण के स्व- परिवार के साथ भाव-विभोर होते हुए मोक्ष की साधना करने लगे । एक बार जब दोनों मुनिराज वंशधर पर्वत की चोटी पर प्रतिमायोग धारण कर उग्र ध्यान में लीन थे, तब पूर्व की द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर दुष्ट अग्निप्रभदेव आकर उन पर घोर उपसर्ग करने लगा । उसी समय अपने चौदह वर्ष के वन प्रवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण वंशधर पर्वत के समीपस्थ वंशस्थल नगर के पास से होकर जा रहे थे; तब अत्यन्त भयभीत नगरजनों को देखकर राम द्वारा उसका कारण पूछे जाने पर नगरजनों ने कहा- यहाँ रोज रात्रि के समय कोई दुष्ट देव भयंकर उपसर्ग करता है, उसकी अत्यन्त कर्कश आवाज से यहाँ के सभी जन भयभीत हैं । पता ही नहीं चलता कि पर्वत के ऊपर पिछले तीन दिन से रात्रि को क्या होता है? यह सुनकर श्री राम उस पर्वत पर जाने को उद्यत हुए, तब नगरजनों ने कहा – वहाँ बहुत डर है,, जिसे तुम बरदाश्त नहीं कर सकते, इसलिए तुम वहाँ मत जाओ और हमारे साथ सुरक्षित स्थान पर चलो । ‘ ‘ ऐसा सुनकर सीता भी भयभीत होकर कहने लगी – ‘ ‘हे देव! आप वहाँ मत जाइये । चलो. हम भी इन लोगों के साथ निर्भय स्थान में जाकर ही रात्रि बितायेंगे । ‘ ‘ उस समय राम ने हँसकर कहा – ‘ ‘हे जानकी! तुम तो बहुत कमजोर हो । तुम्हें लोगों के साथ रजाना हो तो तुम जाओ । मैं तो रात को इसी पर्वत के ऊपर रहूँगा और यहाँ यह सब क्या हो रहा है? उसे देखूँगा । मुझे कोई डर नहीं है । तब सीता ने कहा – ‘ ‘हे नाथ! तुम्हारा हठ दुर्निवार है । तुम जाओगे तो मैं भी साथ ल आऊँगी । जब आप और लक्ष्मण जैसे वीर मेरे साथ हैं, तब फिर मुझे भी भय कैसा? – ऐप्य कहकर वह भी राम -लक्ष्मण के साथ ही वंशधर पर्वत की ओर चल पड़ी । लोगों ने उन्हें न जाने के लिए बहुत समझाया; परन्तु राम-लक्ष्मण निर्भयतापूर्वक पर्वत इन् ओर चले गये, सीता भी उनके साथ गयी । सीता भय से कहीं पर्वत के ऊपर से गिर न जाये ऐसा विचार कर राम आगे और लक्ष्मण पीछे, बीच में सीता – इसप्रकार दोनों भाई बहुत को पहाड के शिखर तक ले गये । पहाड़ के ऊपर जाकर उन्होंने अद्भुत आश्चर्यकारी दृश्य देखा । अहो! अत्यन्त सुकोमल – -न नु?इन्गज देह से भिन्न अपने आत्मा का ध्यान कर रहे हैं । नदी के समान गंभीर उनकी शान्त – वै – रेस वीतरागी मुनि भगवन्तों को देखकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई और भक्ति – भाव से .-.८.-.. –८- जिसे सुनकर पर्वत के ऊपर रहनेवाले पशु भी मोहित हो गये और वहाँ आकर शान्ति ग् – -! उसके बाद राम -सीता और लक्ष्मण वहीं रुक गये । देर: रात हुई…. और असुर उपद्रव करने वहाँ आ पहुंचा, बड़ा भयंकर सर्प का रूप लेकर -न त् फुंकारते हुए वह उन मुनिराजों के शरीर से लिपट गया । राम -लक्ष्मण इस उपद्रव को 2- त्री माया समझकर उस पर अतिशय क्रोधित हुए । सीता तो उसका भयंकर रूप देखकर भय से डर ही गयी…. तब राम ने कहा – ‘ ‘हे देवी! तुम भय मत करो । ‘ ‘ इसप्रकार सीता को धीरज बंधाकर दोनों भाइयों ने मुनियों के शरीर से सर्प को दू किया । च्न्टेक् और वासुदेव के पुण्य प्रताप से असुरदेवों की विक्रिया का जोर नहीं चला । उसने अपनी ज्न्याजनित माया समेट ली । इसप्रकार उपसर्ग दू हुआ समझकर राम -सीता और लक्ष्मण -आनन्द पूर्वक मुनिराजों की स्तुति करने लगे – हे देव! आप तो संसार से उदास मोक्ष के साधक हो, आप मंगल हो, आपकी शरण लेकर -च्चजीवों का भवरूपी उपसर्ग तू हो जाता है और आनन्दमय मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है । अहो, —उप जिनमार्ग के प्रकाशक हो और सम्बक्त्वादि तीन उत्तम रत्नों के द्वारा सुशोभित हो रहे हो, आत्मा की साधना में आप मेरू के समान निश्चल हो । तुच्छ असुरदेव पिछली तीन रातों से घोर उपद्रव करता रहा, फिर भी आप आत्मसाधना से नहीं डिगे, जरा-सा विकल्प भी नहीं किया । –वन्य है आपकी वीतरागता! आपके पास एक नहीं, परन्तु अनेक लब्धियाँ हैं, आप चाहें तो असुरदेव को क्षणमात्र में परास्त कर सकते हो ?? भगा सकते हो ।… .परन्तु ऐसे उपसर्ग कर्ता के प्रति भी आपको क्रोध नहीं । – ऐसे आप चैतन्य के ध्यान के द्वारा ?शुक्लध्यान के द्वारा केवलज्ञान साधने में तत्पर हो । ‘ ‘ इसप्रकार वे उनके चरणों में बैठकर स्तुति करते रहे….; लेकिन वहाँ मध्यरात्रि के समय वह दुष्ट देव फिर से आया और मुनियों के ऊपर पुन : उपसर्ग करने लगा । भयानक रूप धारण करके राक्षस और भूतों के समूह नाचने लगे । विचित्र आवाज कर -करके शरीर में से अग्नि की लपटें निकालने लगे…..हाथ में तलवार -भाला लेकर कूदने लगे “उनके उत्पात से पर्वत की शिलाएं भी काँपने लगीं “मानों कोई भयंकर भूकंप ही आया हो ” जिस समय बाहर में यह सब कुछ हो रहा था ,उस समय दोनों मुनिवर अन्दर शुक्लध्यान में मग्न होकर आत्मा के अपार आनन्द का अनुभव कर रहे थे । बाहर क्या हो रहा है? इस पर उनका लक्ष्य नहीं था । सीता यह दृश्य देखकर पुन : भयभीत होने लगी, तब राम ने कहा – देवी! तुम डरो मत, तुम इन मुनिवरों के चरणों में ही बैठी रहो, हम इन दुष्टों को भगा कर आते हैं । ‘ ‘ – ऐसा कहकर सीता को मुनिराजों के चरणों में छोड्कर राम -लक्ष्मण ने दुष्ट असुरदेव को ललकारा । राम के धनुष की टंकार से ऐसा लगा मानों वज्रपात हो गया हो । लक्ष्मण की सिंह -गर्जना सुन करके अग्निप्रथ -देव समझ गया कि ये कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, ये तो महाप्रतापी बलदेव और वासुदेव हैं; अत: राम -लक्ष्मण का पुण्य -प्रताप देखकर वह अग्निप्रभदेव भाग गया और उसकी सब माया भी समाप्त हो गई तथा फिर से उपसर्ग दूर हुआ । उपसर्ग दूर होते ही ध्यान में लीन देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । तब केवलज्ञान उत्सव मनाने के लिए स्वर्ग से देव आये । चारों ओर मंगलनाद होने लगा । रात्रि भी दिव्य प्रकाश से जगमगा उठी । केवलज्ञान के प्रताप से रात और दिन में कोई भेद नहीं रहा । मानों रात्रि की छाया असुरकुमार देव के साथ ही चली गई हो । अहो, अपनें सामने मुनि भगवन्तों को केवलज्ञान होता देखकर राम -सीता और लक्ष्मण को तो अपार आनन्द हुआ । हर्षित होकर उन्होंने सर्वज्ञ भगवन्तों की भक्ति – भाव से परम स्तुति की, दिव्यध्वनि द्वारा भगवान का उपदेश सुना । अहो, प्रभु के श्रीमुख से चैतन्यतत्व की कोई परम अद्भुत गम्भीर महिमा सुनकर उनके आनन्द का पार न रहा । देशभूषण-कुलभूषण के पिता जो मरकर गरुडेन्द्र हुए थे, वे भी केवली भगवान के दर्शन करने के लिए आये । यहाँ राम -लक्ष्मण से मिलकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक बोले – ये दोनों मुनि हमारे पूर्वभव के पुत्र हैं, तुमने इनकी भक्ति की और इनका उपसर्ग दूर किया – यह देख कर मैं वहुत प्रसत्र हुआ हूँ । इसलिए जो माँगना हो, वह माँगो, मैं तुम्हें वही दूगां । तब राम ने कहा – ‘ ‘जब कभी हम पर संकट आये, तब आप हमारी मदद करें । ” यह वचन प्रमाण करके गरुडेन्द्र ने कहा – ” अच्छा, तुम यही समझना कि मैं तुम्हारे पास ही हूँ” केवली भगवान की वाणी सुनकर अनेक जीवों ने धर्म प्राप्त किया । राजा और प्रजाजनों ने – टे —-कर आनन्दर्रुक उत्सव मनाया । केवलज्ञान के प्रताप से सर्वत्र आनन्द-मँगल छा – –जान की वाणी में ऐसा आया कि रामचन्द्रजी इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे । श्री रामचन्द्रजी बलभद्र हैं, तद्भव मोक्षगामी हैं । ‘ – ऐसा केवली प्रभु की वाणी में सुनकर …. न् उनका बहुत सम्मान किया । मुनिवरों को केवलज्ञान उत्पन्न होने से उस भूमि को महा –.-ज्वर समझकर राम-सीता और लक्ष्मण बहुत दिनों तक वहीं रहे और महान उत्सवर्त्क पर्वत -पर मन्दिर बनवाकर अद्भुत जिन- भक्ति की । उसी समय से यह पर्वत ‘रामटेक तीर्थ ‘ के -न् से प्रसिद्ध है । गगनविहारी देशभूषण-कुलभूषण केवली भगवन्त दिव्य- ध्वनि से अनेक देशों के भव्यजीवों -ऊं- धर्म का प्रतिबोध कराते हुए अयोध्यानगरी में पधारे । तब फिर से उन केवली भगवन्तों के दर्शन स्थ्ये राम -लक्ष्मण आदि राजा-प्रजा सभी को बहुत हर्ष हुआ । उनका धर्मोपदेश सुनकर भरत – दीक्षा ली और त्रिलोकमण्डन हाथी ने भी श्रावक व्रत अंगीकार किये । उसके बाद विहार करते हुए वे दोनों केवली भगवन्त रूस्थलगिरी पधारे और वहाँ से मोक्ष प्राप्त कर सिद्धालय में उइराजमान हुए । दोनों भाई संसार में अनेक भव साथ रहे और आज मोक्ष में भी साथ-साथ ही विराजमान हैं । उन केवली भगवन्तों को हमारा बारम्बार नमस्कार हो । कुन्धलगिरि सिद्धक्षेत्र महाराष्ट्र में है, वहाँ से ये देशभूषण तथा कुलभूषण मुनिवर मोक्ष गये है । उनकी यादगार के लिये अभी भी पहाड़ के ऊपर उन दो भगवन्तों की सुन्दर प्रतिमायें हैं । सिद्धक्षेत्र बहुत रमणीय स्थान है । देशभूषण-कुलभूषण दोनों चार भव से सगे भाई थे । आप उनकी जीवन कथा पढ़कर अपने जीवन में आत्मसात कर उन जैसे बनने की भावना भाते हुए कल्याण मार्ग पर लगें – यही इस कथा का उद्देश्य है ।