सारांश जैन परम्परा में परीषहजय एवं सल्लेखना के स्वरूप एवं भेद—प्रभेदों की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत आलेख में है जो अनेक भ्रांतियों के निरसन में सक्षम है।
जैन दर्शन भगवान महावीर का दर्शन है। जैन दर्शन के केन्द्र में आत्मा है। आत्मा के कर्मों को अलग कर वीतरागता की स्थिति प्राप्त करना साधना का मूल लक्ष्य है। आचार्य तुलसी ने मनोनुशासन में बतलाया—
आत्मशुद्धि साधनम् धर्म:।
१ आत्मशुद्धि के साधन को धर्म कहा गया है। आत्मशुद्धि की प्रथम मंजिल सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन के बाद सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् ज्ञान के बाद सम्यक् चारित्र का स्थान है। तीनों के समन्वय की उत्कृष्ट अवस्था वीतरागता की प्राप्ति है। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया—
सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्ग:।
२ सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। आगमवाणी में कहा गया—
चारितं खलु धम्मो
३—चारित्र ही धर्म है। चारित्र के द्वारा ही आत्मशुद्धि संभव है। चारित्र को पुष्ट करने में परीषहजय एवं उपसर्गजय सहयोगी बनते हैं। परीषहजय का अर्थ है—कष्टों को समभाव से सहन करना।
‘‘परिषहृत इति परीषह’’
४—जो सहा जाय वह परीषह है। परीषह को परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा है
‘‘मार्गाच्यवन निर्जरार्थ परिषोढव्या: परीषहा:।’’।।
अर्थात् स्वीकृत मार्ग से च्युत होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूख, प्यास आदि जो दु:ख, कष्ट या विघ्न सहन किए जायें उन्हें परीषह कहते हैं, और परीषहों को जीतना परीषहजय कहलाता है। परीषह के अर्थ में ही कहीं कहीं पर ‘उपसर्ग’ शब्द भी व्यवहृत हुआ है। भगवान् महावीर की धर्म—प्ररूपणा के दो मुख्य अंग—अहिंसा और कष्ट सहिष्णुता। कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अिंहसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाए रखना है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है—
‘‘सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे णिणस्सदि।
तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भवए।।
अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दु:ख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने आपको दु:ख से भावित करना चाहिए। साधना की सफलता के लिए अनुकूलता की शीतलता के साथ परीषह की प्रतिकूलता रूपी गर्मी की भी आवश्यकता है, परीषह साधक के लिए बाधक नहीं, साधक है। अत: परीषहों के उत्पन्न होने पर उसे समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। उपसर्गजय—नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति के जीवों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को उपसर्ग कहते हैं। इनका समभाव से सहन कर लेना उपसर्गजय कहलाता है। उपसर्ग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। साधु के २२ परीषह बताये गये हैं। जिन पर वह विजय पाता है। उत्तराध्यान५, समवायांग६ और तत्त्वार्थ सूत्र७ में २२ परीषहजय का वर्णन इस प्रकार है—
१. क्षुधा—भोजन, सम्बन्धी कष्ट को शांति से सहन करना।
२. पिपासा—पानी सम्बन्धी कष्ट का समभाव से सहन करना।
३. शीत—ठंडी हवा व हिम को शांति से सहन करना।
४. उष्ण—गर्मी के कष्ट को समभाव से सहन करना।
५. दंश—मशक—मच्छर, कीड़े, मकोड़े आदि के काटने से उत्पन्न कष्ट को सहना।
६. अचेल—वस्त्र रहित या अल्प वस्त्र सहित हो जाने पर किसी प्रकार की चिंता नहीं करना।
७. अरति—संयम के प्रति अधैर्य को सहन करना।
८. स्त्री—स्त्री को निहार कर काम—विह्वल न होना स्त्री—परीषहजय है।
९. चर्या—किसी गृहस्थ या घर आदि में आसक्ति न रखकर ग्रामानुग्राम विचरण करना।
१०. निषधा—जंगली जानवरों की आवाज सुनकर भयभीत न होना।
११. शय्या—सोते समय ऊँची—नीची, उबड़—खाबड़ शय्या को सहन करना।
१२. आक्रोश—प्रतिकूल वचन व व्यवहार पर आक्राश न आना।
१३. वध—तीक्ष्ण शस्त्रों से वध होने पर वध करने वाले के प्रति राग—द्वेष न करना।
१४. याचना—भिक्षा के समय दीनता न लाना।
१५. अलाभ—अभिलक्षित वस्तु न मिलने पर सम रहना।
१६. रोग—शरीर में रोग उत्पन्न होने पर समभाव रखना।
१७. तृण स्पर्श—तृणों पर शयन करने पर होने वाले कष्ट को समभाव से सहन करना।
१८. जल्ल—पसीना, कीचड़, धूलि आदि के शरीर पर इकट्ठा हो जाने पर उसे दूर करने का प्रयास करना।
१९. सत्कार पुरस्कार—प्रशंसा—निंदा की स्थिति में सम रहना।
२०. ज्ञान—अज्ञान से उत्पन्न कष्ट को समभाव से सहन करना।
२१. दर्शन—जिसकी श्रद्धा पूर्ण रूप से स्थिर रहीं है वह दर्शन परीषह पर विजय पाता है।
२२. प्रज्ञा—बुद्धि होने पर उसका मद न करना प्रज्ञा—परीषहजय है। इनमें अपने आपको सम रखना परीषहजय कहलाता है।
कष्टों को समभाव से सहन करने से हमारी प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ती है। प्रतिरोधात्मक शक्ति कर्म शरीर को शनै:—शनै: क्षीण करती है। परीषहजय में मन—वचन—काया—योग स्थिर होते हैं। योगों की स्थिरता आत्मा से कर्मदल को अलग होने के लिए मजबूर करती है। जैसे—जैसे समता आती है कर्मशरीर को पोषण बंद होता है तथा कर्म—पुद्गल आत्मा से विलग होते हैं। इसे निर्जरा कहा जाता है। उपसर्गजय से संयम सधता है। उपसर्गजय संयम की साधना है। संयम साधना है संवर उसकी निष्पत्ति है। परीषहजय तप का एक रूप है। तप साधना है निर्जरा उसकी निष्पत्ति है। भगवान महावीर ने संवर, निर्जरा का धर्म बताया है। संवर निर्जरा आत्मशुद्धि में सहायक है। आचारांगनिर्युक्ति के अनुसार स्त्री परीषह और सत्कार परीषह ये शीत परीषह के अंतर्गत आते हैं और शेष बीस उष्ण परीषह में। परीषहजय, उपसर्गजय को साधक अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है तो वह निरन्तर साधना से वीतरागता तक को प्राप्त कर सकता है। आत्मशुद्धि, भावशुद्धि पर निर्भर करती है। भावशुद्धि समभाव में रहने से होती है। परीषह एवं उपसर्गजय व्यक्ति को समभाव में ले जाते हैं। राग—द्वेष का न होना समभाव है। मोह से राग—द्वेष, राग—द्वेष से कम्र, कर्म से जन्म—मरण, जन्म—मरण से दु:ख तथा दु:ख से राग—द्वेष यह वर्तुल है जो हर संसारी आत्मा के साथ चलता रहता है। परीषहजय राग—द्वेष को क्षीण करते हैं। उपसर्गजय कर्मों को क्षीण करते हैं। परीषहजय समभाव प्राप्त करने का सर्वोत्तम माध्यम है। समभाव आत्म विजय का सर्वोत्तम माध्यम है।
सल्लेखना में दो शब्दों का योग है— सत् + लेखना। सत् का अर्थ सम्यक् तथा लेखना का अर्थ—सार—संभाल करना है। इस सन्दर्भ में लेखना का अर्थ व्यक्ति के द्वारा अपने जीवन में क्रिया कलापों को त्यागते हुए शरीर को क्रमश: कृश करना है। अर्थात् जब साधु अथवा श्रावक आहार का क्रमश: त्याग करते हुए मरण को प्राप्त करता है तो उसे सल्लेखना कहते हैं। जैनधर्म एवं दर्शन अपने वैशिष्टय को लिए हुए अनादिकाल से निरंतर गतिशील है। विभिन्न मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को लिए हुए यह दर्शन जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त साधना के अनेक पृष्टों को उद्घटित करता है। जिसके मूल में समता, अभय, निर्ममत्व, अमूच्र्छा, अपरिग्रह आदि भावनाएँ विद्यमान रहती हैं।
बाह्य जगत से निस्पृही होने के साथ—साथ स्वयं के शरीर से भी जब मोह समाप्त हो जाता है, तब आहार आदि का त्याग कर अपने आपको कृश करते हुए समाप्त किए जाने की कला जैन परम्परा में मान्य है, जिसे सल्लेखना (सन्थारा) कहा जाता है। भारतीय परम्परा में इसे समाधि शब्द से जाना जाता है। जैन परम्परा में जहां जीने की कला सिखाई जाती है वहां मरने की कला भी सिखाई जाती है। मरने की कला सल्लेखना है। सल्लेखना एक विधिपूर्वक शरीर को बाह्य एवं अन्त:रूप में कृश करने की पद्धति विशेष है। इसे आत्महत्या की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कष्टों से घबराकर आवेशवश अपने शरीर को समाप्त करना आत्महत्या है। सल्लेखना में आत्मशुद्धि का लक्ष्य है तथा उसमें आत्मा की साक्षी है। सल्लेखना एक विशुद्ध साध्य के प्रति अपने आपको सर्मिपत करने के भावों से ओत—प्रोत होती है। सल्लेखना में औदारिक शरीर के साथ—साथ कषायों को (कर्म शरीर को) कृश किया जाता है। सल्लेखना में कषायों को क्षीण कर समभाव की स्थिति प्राप्ति करने का लक्ष्य होता है। यह मृत्यु से पूर्व की तैयारी है। इसे इच्छा मृत्यु वरण की वैज्ञानिक पद्धति कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का दबाव व परवशता नहीं हैं। आत्महत्या में कष्ट व आवेश का दबाव होता है।
आत्महत्या जीवन में ऊबकर अविवेकपूर्ण लिया गया निर्णय है। सल्लेखना अत्यन्त सोच समझकर प्रसन्नता से लिया गया निर्णय है। जब साधु या श्रावक अपने औदारिक शरीर की स्थिति को तोल लेता है। कि अब शरीर कारण विशेष से इतना कृश हो गया है कि इसका जिन्दा रहना मुश्किल है। तब साधक अपने मनोबल से धीरे—धीरे अनशन के माध्यम से इसको पोषण देना बिल्कुल बंद कर देता है। यहीं से सल्लेखना प्रारंभ होती है। सल्लेखना परीषहजय एवं उपसर्गजय का सर्वोत्तम उदाहरण है। सल्लेखना से होने वाले कष्टों में अपने आपको साधक सम बना देता है उस स्थिति में पूर्ण समभाव में रहता है। वह समभाव की स्थिति परीषहजय की स्थिति है। समभाव व परीषहजय एक दूसरे के पूरक है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू है। परीषहजय का दूसरा नाम समभाव है। इसी प्रकार सल्लेखना परीषहजय की पूरक है। परीषहजय व सल्लेखना भी एक सिक्के के दो पहलू है। परीषहजय व सल्लेखना दोनों समभाव को बढ़ाते हैं। सल्लेखना एक तप है। भले ही समाज स्तर पर इसे स्वीकार न करना या मान्यता न देना, ऐसी भावनाएँ काम कर रही हों, फिर भी परम्परा में इसे तपस्या/साधना का प्रयोग कहा जाता है। इसे न तो प्रथा, न दिखावा अथवा न ही आत्महत्या की परिधि में लिया जा सकता है क्योंकि इसका उद्देश्य मात्र अनासक्ति के क्षण में जीना है। शरीर के प्रति अनासक्त हो समाधिपूर्वक तप करना, ऐसे में मृत्यु आ जाये तो समतापूर्वक उसे स्वीकार करना संथारा है। अन्त समय में साधक संस्तारक (संथारा) मात्र का आश्रय लेकर देह त्याग करता है, इसे ही सल्लेखना कहते हैं। सल्लेखना मरण पूर्व की जाने वाली अनासक्तपूर्ण पद्धति का नाम है।
मरण के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों ने अपने—अपने मत व्यक्त किए हैं, जिसका अर्थ ‘मरण’ या ‘मृत्यु’ ही किया है। अर्थात् मरण को समस्त शरीरधारी जीवों का स्वभाव (प्रकृति) माना है।८ ‘मरण’ शब्द मृ धातु से बना है, जो भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय लगाकर बनाया गया है।९ जिसका अर्थ है—प्राणी का परित्याग१०। मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये सभी एकार्थ वाचक है।११ इसका दूसरा अर्थ एक प्रकार का विष भी किया गया है।१२ जैन दर्शन में मरण के सम्बन्ध में कहा गया है कि ‘‘प्रस्तुत आयु से भिन्न अन्य आयु का उदय आने पर पूर्व आयु का नाश होना मरण है।१३ अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ विनष्ट (वियोग—पृथकत्व) होना मरण है। धवला में आयुकर्म को मरण का कारण माना है।१४ अपने प्राणों से प्राप्त हुए आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन व काय इन तीनों बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है।१५ मरण के दो रूप हमें मिलते हैं—प्रथम लोक प्रसिद्ध मरण, जो सामान्य व्यवहार में देखा जाता है। तथा दूसरा प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना भी मरण ही है। जिसे क्रमश: तद्भव मरण (लोक प्रसिद्ध मरण) एवं नित्य मरण (प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना) कहते हैं।१६ अत: आत्मा का शरीर से अलग हो जाना ही मरण है। जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे पर्याय या शरीर को धारण करता है, तो जिस शरीर पर्याय को आत्मा छोड़ती है, वह मरण है। गीता१७ में मरण का अर्थ अर्कीित किया गया है। सज्जन (सदाचारी) की अर्कीित ही उसका मरण है। जिसके यश गौरव सम्मान, प्रतिष्ठा आदि न रहे। वह मरण से अधिक होती है। आत्मा के सम्बन्ध में कहा गया है कि ‘‘जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करती रहती है।१८ यहां पर जीवात्मा द्वारा जो पुराने शरीर को छोड़ने की बात कही गई है, वही मरण है। जैन दर्शन में सात प्रकार के भय१९ का उल्लेख किया गया है, उनमें से एक मरण भय भी है। अत: यह शाश्वत सत्य है कि सभी जीव मरणधर्मा है।
जैसा सल्लेखना का परीषहजय एवं उपसर्गजय के साथ गहरा सम्बन्ध है। ठीक उसी प्रकार सल्लेखना का मरण के साथ अन्त: सम्बन्ध है, क्योंकि सल्लेखना एक व्रत है, जिसकी साधक पद्धतिपूर्ण पालन करता है। भगवती आराधना में र्विणत परम्परा में मान्य १७ प्रकार२० के मरणों में से पांच प्रकार२१ के मरणों का उल्लेख किया जा रहा है—
१. बाल—बाल मरण २. बालमरण ३. बाल—पंडित मरण ४. पंडित मरण ५. पंडित पंडित मरण
यह संसार समुद्र है जिसमें अनादि अनन्तकाल से जीव अज्ञान के वशीभूत चारों गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। आत्मा की अवस्था का पहला सोपान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। दर्शन मोहनीय कर्म संसार को विस्तार देने वाला कर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती है वह मिथ्यादृष्टि जीव कहलाता है।२२ आत्मोत्थान के लिए सबसे पहले, दर्शन को सम्यक् करना होता है, अपनी दृष्टि को सम्यक् बनाना होता है। जिस जीव में मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, व योग पांचों आस्रव मौजूद होते हैं वह पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में रहता है। ऐसा जीव जब मरता है तो उसे बाल—बाल मरण कहते हैं।२३ ‘‘जैसी दृष्टि—वैसी सृष्टि’’ सुन्दर सृष्टि बनाने के लिए दृष्टि (िंचतन, दिशा, सोच) को सम्यक् बनाना होता है। जब दृष्टि अविधायक होती है तब भव भ्रमण की सीमा नहीं रहती है। ऐसा जीव पुन: पुन: बाल—बाल मरण को प्राप्त होता है। इसे अज्ञान—अज्ञान मरण भी कहा जाता है।
जब सोच विधायक होती है तो आत्मशुद्धि प्रारंभ होने लगती है। यह आत्मविकास की पहली सीढ़ी है। इसे ‘‘अपूर्वकरण’’ कहते हैं। आत्मा को ऐसा चिंतामणि रत्न मिलता है जो पहले कभी नहीं मिला हो। वह चिंतामणि रत्न सम्यक् दर्शन है। जिसने एक बार सम्यकत्व (सम्यक् दर्शन) को प्राप्त कर लिया, उसने अपने भवों की सीमा तय कर ली यानि वह मोक्ष का अधिकारी बन गया। कभी न कभी वह मोक्ष (निर्वाण) को जरूर प्राप्त करेगा। यह आत्मा का चौथा गुणस्थान ‘‘अविरत सम्यक् दृष्टि’’ कहलाता है। आत्मा का मिथ्यात्व समाप्त हो गया लेकिन अज्ञान (अविरति) बाकी है। चौथे गुणस्थान में अविरति, प्रमाद, कषाय, योग चार आस्रव रहते हैं। इस गुणस्थान का जीव सम्यक् दर्शन को जानता है लेकिन संसार के भोगों के प्रति बहुत लालायित रहता है। इस स्थिति के जीव के मरण को बाल मरण कहते हैं।२४ बाल का अर्थ अज्ञान है। ऐसे प्राणी के मरण को अज्ञान मरण कहते हैं।
ज्यों—ज्यों व्यक्ति अनासक्ति, साधना की ओर अग्रसर होता है तब व्रतों को धारण करता है। व्रत साधना है जिसकी निष्पति संवर है। यह जीव की क्रमिक उन्नति का पांचवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान के प्राणी को श्रावक की संज्ञा दी जाती है। जिसे व्रताव्रती कहते हैं। इस गुणस्थान को ‘‘देशविरति सम्यक्दृष्टि गुणस्थान’’ कहते हैं। इस गुणस्थान में व्रत व अव्रत दोनों साथ होते हैं तभी व्रताव्रती कहा जाता है। इस गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव व अविरति की आंशिक विद्यमानता पाई जाती है। प्रमाद, कषाय व योग आस्रव विद्यमान होते हैं। ऐसा जीव जब मरण को प्राप्त होता है तो उसे बाल—पण्डित मरण कहते हैं२५, यानि आंशिक अज्ञान की विद्यमानता। बाल व पण्डित दोनों की प्राप्ति के कारण इसमें आंशिक अज्ञान और स्थूल हिंसा आदि से विरति रूप चारित्र व दर्शन दोनों होते हैं। यह सल्लेखना पूर्ण मरण विरतावितर चारित्रधारी जीव के होता है।
छठें व सातवें गुणस्थान में जिनका सल्लेखना पूर्वक मरण होता है उसे पण्डित मरण कहते हैं। पण्डित—पण्डित के प्रकर्ष रहित जिसका पाण्डित्य होता है, उसे पाण्डित कहते हैं तथा उनका सल्लेखना पूर्ण मरण पण्डित—मरण हैं यह मरण उन साधुओं को होता है जो अपने आचरण या चारित्र को शास्त्र सम्मत या आप्तपुरुषों के कहे अनुसार बना पाते हैं। भगवती आराधना में कहा गया है कि पण्डित मरण के तीन प्रकार हैं२६ अ. प्रादोपगमन ब. भक्त प्रतिज्ञा स. इंगिणी मरण
पाद और उपगनम अर्थात् पैरों से उपगमन पूर्वक होने वाले मरण को प्रादोपगमन मरण कहते हैं। अपने पैरों से चलकर अर्थात् संघ से निकलकर योग्य देश में आश्रय लेना प्रादोपगमन है। इसमें साधु न स्वयं अपनी सेवा करता है और न दूसरों से कराता है। जिसमें अस्थिमात्र शेष रहता है, वह प्रादोपगमन करता है। प्राद का अर्थ संन्यास है। अत: सन्यासियों (साधुओं) के मरण का एक भेद इसे कहा गया है।
भक्त का अर्थ— जिसका सेवन किया जाए और पइण्णा का अर्थ है—त्याग। अर्थात् जिसमें भोजन का त्याग किया जाये, वह भक्त प्रतिज्ञा है। यह दो प्रकार से किया जाता है—
(क) सविचार भक्त प्रतिज्ञा
(ख) अविचार भक्त प्रतिज्ञा
यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्त प्रत्याख्यान किया जाता है। तब कि सविचार भक्त प्रत्याख्यान अर्हम, लिंग आदि चालीस पदों२७ द्वारा लिए जाने का विधान किया गया है।
इंगिणी मरण का अर्थ है अपने अभिप्राय के अनुसार रहकर होने वाला मरण। इंगिणी शब्द का तात्पर्य इंगित अर्थात् संकेत से है। इंगिणी मरण का इच्छुक साधु संघ से निकलकर या अलग होकर गुफा में एकाकी आश्रय लेता है। इसमें वह अपनी सेवा स्वयं तो करता है, लेकिन दूसरे से नहीं कराता। इसका कोई सहयोगी साधु नहीं होता। स्वयं अपना संस्तारक बनाता है और स्वयं अपनी परिचर्या करता है।
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की उत्कृष्टतम स्थिति में जीव पण्डित—पण्डित मरण को प्राप्त होता है। गुणस्थान की अपेक्षा से जीव जब बारहवें गुणस्थान को स्पर्श कर लेता है तो वह वीतराग हो जाता है, उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय आस्रव पूर्ण रूप से क्षीण हो जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान में मात्र योग आस्रव रहता है इस कारण वह सयोगी केवली कहलाता है तथा जब जीव आत्मशुद्धि की उत्कृष्टतम स्थिति चौदहवां गुणस्थान को प्राप्त करता है तो योग आस्रव भी समाप्त हो जाता है तथा जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी शुद्ध आत्मा का मरण पण्डित—पण्डित मरण कहलाता है। आठवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर अगर जीव क्षपक श्रेणी ले लेता है तो वह मोक्ष को प्राप्त होता है और आठवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर अगर जीव क्षपक श्रेणी ले लेता है तो वह मोक्ष को प्राप्त होता है और आठवें गुणस्थान में जीव उपशम श्रेणी ले लेता है तो ग्यारहवें गुणस्थान उपशांत मोह को प्राप्त कर नीचे गिर जाता है तथा पहले गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी गिर सकता है। पण्डित—पण्डित मरण सर्वोत्तम मरण है।२८ इस प्रकार परीषहजय, उपसर्गजय संयम साधना के मुख्य सूत्र हैं। इनसे समभाव फलित होता है। सल्लेखना व्रत संयम साधना का सहयोगी तत्व है। अत: परीषहजय एवं उपसर्गजय सल्लेखना व्रत की साधना के पूरक है। इनके पुष्ट होने पर सल्लेखना व्रत प्राणवान बनता है। वर्तमान युग घोर अज्ञान का युग है। मानव भौतिकता की चकाचौंध में लुप्त है। घोर अज्ञान के कारण अनैतिकता, अशांति, कुदाग्रह, आतंकवाद, संग्रहवृति, असंवेदनशीलता अमानवीय गुणों का विस्तार हो रहा है। इस कारण प्रकृति (पर्यावरण) को दूषित किया जा रहा है तथा उसका अंधाधुंध दोहन हो रहा है। इसके बदले में प्रकृति हमें असाध्य बीमारियों, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, पानी की कमी आदि दण्ड के रूप में प्रदान कर रही है। अगर हम वर्तमान युग में मानवीय एकता, सदाचार, भाईचारा, शांति, अनाग्रह, संवेदनशीलता, नैतिकता आदि मानवीय गुणों को बढ़ाना चाहें तो हमें परीषहजय, उपसर्गजय के सिद्धान्त को आत्मसात करना होगा। परीषहजय से इच्छा—परिमाण, अनासक्ति, वैराग्य व मैत्री भावना की वृद्धि होतीहै। परीषहजय मानव कल्याण का अमोधमंत्र है। परीषहजय, उपसर्गजय के निरन्तर अभ्यास से जीवन की अन्तिम सर्वोत्तम अवस्था सल्लेखना को प्राप्त किया जा सकता है।
१. जैन सिद्धान्त दीपिका, आचार्य श्री तुलसी, ७/२३ पृ. सं. ५२
२. तत्वार्थ सूत्र, ९/२३
३. आगम वाणी, भगवान महावीर
४. तत्वार्थ सूत्र-९/८
५. उत्तराध्ययन सूत्र-३०/२७
६. समवायांग सूत्र—समवाय २२
७. तत्त्वार्थसूत्र-९/१०-२२
८. मरणं प्रकृति: शरीरियाण—रघुवंश (कालिदास), ८/८७
९. आप्टे—संस्कृत हिन्दी कोश,(मृ +भावे ल्यूट) पृ. ७७७
१०. भगवती आराधना (विजयोदया टीका), पृ. ४९ गाथा २५ की टीका, प्रकाशक—जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
११. वही पृ. ४९
१२. आप्टे—संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ७७७
१३. ‘अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे का’ भगवती आराधना (विजयोदया टीका), पृ. ५०
१४. आयुष: क्षयस्य मरणहेतुत्वात्—धवला टीका।
१५. स्वपणिामोपातस्यायुष इन्द्रियाणां बालानां च कारणंवशात्संक्षयो मरणम्, सवार्थ सिद्धि, पृ. २८०
१६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग—३, पृ. २७८
१७. संभावितस्य चार्कीितर्मरणादतिरिच्यते।। भगवद्गीता, २/३४
१८. वही, २/२२
१९. दूहयरलोपतां अगुत्तिमरणं च वेयाणाकस्मि, भया।
मूलाचार, ५३
२०. भगवती आराधना की टीका में र्विण १७ मरण
२१. पंडिदपंडिदमरण पंडिदयं बालंपडिदं चेव।
बालमरणं चउत्यं पंचमयं बालबालं च।।२।।
भगवती आराधना।
२२. मिच्छादिठ्ठी य पुणो पंचमऐ बालबालीम्म च।।२९।।
भगवती आराधना।
२३. सुत्तोदो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहिद।
सो चेव हवइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि।।३२।।
भगवती आराधना।
२४. अविरदसम्मादिठ्ठी भरंति बालमरणे चउत्थम्मि।।२९।।
भगवती आराधना।
२५. भगवती आराधना, गाथा २७ (विरदाविरदा जीव मरन्ति तदियेण मरणेण)
२६. पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव।
तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस।।२८।।
भगवती आराधना
२७. भगवती आराधना, गाथा ६६-६९
२८. पण्डिदपण्डितमरणे खीणकसायो मरन्ति केवलिणो।।२७।।
भगवती आराधना