संसार में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो पुण्य कमाता नहीं चाहता हो ? प्रतिदिन हम मनुष्यों। करने की आकांक्षा में तरह-तरह को पुण्य अर्जित के यत्न करते हुए देखते हैं। इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए भारतीय सनातन संस्कृति में सङ्क्रमों के साथ विविध धार्मिक विधि-विधान व अनुष्ठानों में मन, कर्म व वचन से संलग्नता के अनेक मार्ग बताए गए हैं।
यथा पूजा- अर्चना, स्नान-दान, अप-तप और यज्ञ-हवन आदि। धार्मिक अनुष्ठानों के साथ हमारे ऋषि-मुनि व काको अक्षम व सुलभ मार्ग बताया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में परोपकार की महत्ता बखूबी समझाई है। प्रकृति भी हमें सर्वत्र परोपकार के ही दर्शन कराती है। सूर्य द्वारा प्रकाश, ऊर्जा एवं ऊष्मा प्रदान करना, चंद्रमा द्वारा शीतलता प्रदान करना, मेघों द्वारा वर्षा से अभिसिंचित करना, पेड़-पौधों द्वारा पुष्प-फल, सुगंध व प्राणवायु प्रदान करना, नदी-सरोवरों द्वारा अमृत तुल्य जल से तृप्ति प्रदान करने जैसे उपक्रमों में परोपकार की उदार भावना के ही दर्शन होते हैं। परोपकार का शाब्दिक अर्थ है दूसरों की भलाई।