परम पवित्र पर्यूषण पर्व के शुभावसर पर हमारे पाठकों का हम हार्दिक अभिनन्दन करते है। आत्म शुद्धि के इस पर्व पर हम श्रावकों का क्या कर्तव्य है— इस प्रश्न पर हम इस लेख में विचार करेंगे। आत्मशुद्धि जैन पर्वों की प्रमुख विशेषता है। इसके लिए क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप कषायों को हटाकर सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और आचरण को जीवन में उतारा जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के द्वारा अपनी शुद्धि की जाती है। वाणी में स्याद्वाद, विचारों में अनेकान्तवाद और आचार में प्रतिष्ठापना की जाती है। आत्म साधना करते समय उत्तम क्षमा,उत्तम मार्दव आदि सदगुणों का विकास तथा क्रोधादि विकारों के शमन हेतु व्रत, उपवास, एकाशन, दर्शन, पूजन, भक्ति, स्वाध्याय, संयम पालन, इच्छा निरोध, तत्व चिन्तन, तत्वाभ्यास, उपदेश श्रवण आदि प्रधान कृत्य किये जाते हैं। इन्हीं के द्वारा आत्मा के अन्दर राग—द्वेषादिक विकारों को शान्त कर आत्मा से उत्तरोत्तर समता की ही अभिवृद्धि की जाती है। आत्मा को शोधन कर इसे पवित्र और निर्मल बनाया जाता है। आज चारों तरफ अनैतिकता का कडुआ विष व्याप्त है। ईमानदार बनने की बात हास्यास्पद प्रतीत होता है। जो लोग एक विशुद्ध जीवन जीना चाहते हैं, निष्काम, निर्लिप्त रहना चाहते हैं, उनके लिये कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। मूल्यों पर भयावह संकट है, पुराने मूल्य लगभग समाप्त है, नये मूल्यों के लिये कोई राह नहीं है। हिंसा, झूठ तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला है। विज्ञान के आविष्कारों ने और भौतिकवाद ने लोभ, लालच औ मिथ्याकर्षणों को भरपूर पनपा दिया है।ऐसी स्थिति में आशा की कोई किरण है तो वह धर्म है। जब संसार के सारे द्वार किसी के लिए बन्द हो जाते हैं तब एक दरवाजा फिर भी खुला रहता है। और वह है धर्म का। धर्म के विषय में धार्मिक पर्व हमें अधिक जागरूक बनाते हैं। ये नास्तिकता को हर लेते है और डावाडोल मनुष्य में उज्ज्वल प्रकाश भर देते है। धर्म के विषय में कोई दर्शन या संप्रदाय एक मत नहीं है।
अधिकांश संप्रदाय ब्राह्य क्रिया काण्ड को ही धर्म मानते हैं। नहाना, थोना किसी को छूना न छूना आदि बाह्याचार में धर्म को इतना उलझा दिया है कि उसका वास्तविक स्वरूप गौण या दृष्टि से बिल्कुल ही ओझल हो गया है। आश्चर्य और खेद की बात तो यह है कि अपने देवी—देवताओं के सामने बकरे, भैंसे, भेड़ आदि पशुओं एवं मुर्गे आदि पक्षियों का बलिदान करना भी धर्म मान लिया गया है। बहुत से भोले भाई बहिन तो अपनी संतान को मारकर अपने इष्ट देवता के सामने चढ़ा देना भी धर्म समझते हैं। यह सब अंधविश्वास तो है ही, एक भयंकर पापाचार भी है। इस बौद्धिक युग में भी कभी—कभी इस प्रकार के समाचार सार्वजनिक समाचार पत्रों में पढ़कर बहुत ही वेदना होती है। रूढियों का संस्कार मनुष्य के मन पर इस तरह जम जाता है कि वह यो ही दूर नहीं हो सकता । उसे दूर करने के लिए घोर प्रयत्न की जरूरत है। वास्तव में तो धर्म उसे कहा जाना चाहिए जो मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति का साधन हो। जो इसके आध्यात्मिक और भौतिक उत्थान का साधन नहीं कहा जा सकता । सच तो यह है कि मनुष्य का आध्यात्मिक उत्थान ही वास्तविक उत्थान है। भौतिक सुविधाएं तो उनका आनुषंगिक अंग हैं, इसलिए धर्म की सार्थकता का मापदण्ड भौतिक उत्थान कभी नहीं हो सकता।‘‘धरतीति धर्म:, थ्रियन्ते तिष्ठन्ति नरकादि गतिभ्यो निवृत्ता जीवास्तेन सुगतिभ्यां धरति आत्मानं सुगतौ इति वा धर्म:, रत्नत्रयलक्षण—मोह क्षोभ विवर्जितात्म परणिमों वा, वस्तु याथात्म्यस्वभावो वा उत्तम क्षमादि दशलक्षणों वा धर्म: इति।’’ धर्म शब्द की निरूक्तियां अथवा परिभाषाओं का तात्पर्यार्थ भी यही है। इसे थोड़ा विकसित करके कहा जाय तो कह सकते हैं कि सच्ची, श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा चारित्र ही धर्म है। सच्ची श्रद्धा को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य केवल परम्पराओं से प्रभावित न हो तथा लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता एवं गुरु मूढ़ता आदि को कभी महत्व न दे और जाति कुल—प्रतिष्ठा आदि का अहंकार कभी अपने मन में न लावें और न कभी किसी प्रकार का आग्रह करें। मनुष्य की सारी परेशानियों का कारण उसका आग्रह ही है। किसी से घृणा करना, रूढियों का विवेकहीन समर्थन करना,दूसरों के दोषों को देखकर उनको प्रकट करना, दूसरों के दोषों को देखकर उनको प्रकट करना, गिरते हुए को न बचाना आदि सभी सच्ची श्रद्धा के विरोधी तत्व है। जब तक इन्हें दूर नहीं किया जाय सच्ची, श्रद्धा की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी सच्ची श्रद्धा से ही ज्ञान की सार्थकता है नहीं तो सारा ज्ञान निरर्थक है। जो ज्ञान न्यूनता रहित, अधिकता—रहित, विपर्यय और संदेह—रहित पदार्थ का जैसा स्वरूप है उसे वैसा ही जानता है वही सच्चा ज्ञान है। किन्तु इस सच्चे ज्ञान की सार्थकता ही तभी है जबकि वह मनुष्य के आचरण में भी उतरे। केवल इतना जान लेना ही धर्म नहीं है और न यह पर्याय ही है कि झूठ बोलना पाप है। उसकी सार्थकता तो तभी है जब इस प्रवृत्ति का वह त्याग कर दें। हिंसा, झूठ, चारी, तृष्णा, ईष्र्या, दंभ, आदि अनेकानेक राक्षसी का त्याग करना ही सच्चा चारित्र है। मूलत: आत्मा का स्वभाव ज्ञान और दर्शन है। इन्हीं की उपलब्धि के लिए चारित्र की उपयोगिता है । यही मोक्षमार्ग है। इस मोक्षमार्ग की दश निश्रेणी है जिन पर चढ़कर भव्य मानव पूर्व ज्ञान और दर्शन को प्राप्त करता है। ये दश सीढ़ियां धर्म के दशलक्षण हैं— ‘‘उत्तमक्षमामार्दवार्जव शौच सत्य संयम तप त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म:’’(मोक्षशास्त्र) अर्थात उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव शौच, सत्य, सयंम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा कर्म प्रदेश रूप पुद्गल से आबद्ध है और वह अपने को शरीर से अभिन्न समझती हुई क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषायों से कषायित होकर संसार में परिभ्रमण कर रही है। इनसे वह इतनी आच्छन्न है कि निज सच्चिदानन्द स्वरूप को भूल गई है।
अत: अपने स्वरूप को जानने के लिए इनका परित्याग अनिवार्य है। इन कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में लिखते हैं कि क्रोध क्षमा से, मान मार्दव से, माया आर्जव से तथा लोभ सन्तोष से पराजित किया जाता है। इस प्रकार आत्म—दर्शन के लिए इन कषायों के विपरीत इन चार धर्मों का पालन अत्यावश्यक है—उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच। क्रोधादि के उद्दीपक अनेक कारणों के विद्यमान रहते हुए भी शान्त भावों में लीन रहना क्षमा है। क्षमा के अस्त्र से जब क्रोध कुठिंत हो जाता है तो मान मर्दित होने लगता है और मृदु या मार्दव भाव जाग्रत हो जाता है जिससे विनय, विनम्रता, प्रेम एवं कोमलता आदि अनुभव आत्म प्रदेशों पर छाने लगते हैं। इन भावों के अभिव्यक्त होते ही आत्मा में मायावी प्रवृत्ति दूर होने लगती है और आर्जव भाव जग जाता है जिससे सरलता, शालीनता और निष्कपटता , निश्छलता आदि अनुभव आत्मा को उज्ज्वलता प्रदान करने लगते हैं। ऐसा होने पर इष्ट पदार्थ के प्रति लोभ की भावना क्षीण होने लगती है और आत्मा प्रदेशों में शोच या शुचिता भाव व्याप्त हो जाता है तथा वे निर्मल होने लगते हैं। इन निर्मल भावों के कारण आत्मा उस स्थिति पर पहुंचती है जहां उसे सत्य या वास्तविकता से परिचय होता है। यह पांचवी सीढ़ी है तथा पांचवा धर्म है। अब आत्म संयम की भूमि में पग रखती है और मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण करने लगती है। संयम की साधना से चित्तवृत्तियां शांत होने लगती है, यही तप सप्तम धर्म है। जब मनोकामनाएं या वासनाऐं क्षीण या शान्त होने लगती है तो त्याग की भावना जागृत हो जाती है। यही भावना अष्टम धर्म हैं। त्याग के साथ ही आकिंचन्य भाव व्यक्त हो जाता है। वह पर पदार्थों से नाता तोड़ता है और यही नहीं स्व शरीर से भी निस्पृह हो जाता है। भावना में अपरिग्रहत्व का पराकाष्टा होती है । इस स्थिति के साथ ही आत्मा स्वयं में रमण करने लगती है। यही ब्रह्मचर्य नामक दशक धर्म है—अन्तिम सीढ़ी है। ब्राह्मणि चरणम् इति ब्रह्मचर्यम् —अर्थात आत्मा में विचरण करना अथवा रमण करना ही ब्रह्म है। अन्तिम सीढ़ी से हमारा तात्पर्य यह नहीं कि आत्मा पूर्ण सिद्धि को प्राप्त कर लेती है। तात्पर्य यह है कि उसे वह भावस्थिति प्राप्त हो गई जहाँ वह पूर्ण सिद्धि को प्राप्त कर लेती है। तात्पर्य यह है कि अब उसे वह भावस्थिति प्राप्त हो गई जहाँ वह पूर्ण आत्म—विश्वास कर सकती है। ऊपर लिखित विवेचन से हमें ज्ञात होता है कि इन धर्म लक्षणों अथवा धर्मों में विकास का उत्तरोत्तर एक क्रम है। हमें मुक्ति के लिए इनकी आराधना प्रतिक्षण करनी चाहिए तभी हम अपने गंतव्य तक पहुंच सकते हैं।