चूलियदक्खिणभाए पच्छिमभायम्मि उत्तरविभागे। एक्केक्कं जिणभवणं पुव्वम्हि व वण्णणेहिं जुदं।।१९३५।।
एवं संखेवेणं पंडुगवणवण्णणाओ भणिदाओ। वित्थारवण्णणेसुं सक्को वि ण सक्कदे तस्स।।१९३६।।
पांडुकवन के जिनमन्दिर
उस पांडुकवन के मध्य में चूलिका से पूर्व की ओर सौ कोस प्रमाण उत्तर-दक्षिण दीर्घ और पचहत्तर कोस प्रमाण ऊँचा जिनेन्द्रप्रासाद है।।१८५५।। कोस १०० । ७५।। यह अकृत्रिम एवं अविनाशी (अनादिनिधन) जिनेन्द्रप्रासाद पूर्व-पश्चिम भागों में विस्तार में पचास योजन और अवगाह में अर्ध कोस मात्र है ।।१८५६।। को. ५० । अवगाह १/२ । यह जिनभवन पूर्वाभिमुख है । इसके ज्येष्ठ द्वार की ऊँचाई चार योजन, विस्तार दो योजन और प्रवेश भी विस्तार के समान दो योजन मात्र है ।।१८५७।। ४ । २ । २ । उत्तर-दक्षिण भाग में दो क्षुद्र द्वार स्थित हैं, जो ज्येष्ठ द्वार की अपेक्षा अर्धभागप्रमाण उँचाई आदि से सहित और उत्तम तोरणस्तम्भों से युक्त हैं ।।१८५८।। २ । १ । १ । शंख, चंद्रमा अथवा कुंदपुष्प के समान धवल और मणियों के किरणकलाप से अंधकार समूह को नष्ट करने वाले यह उत्तम जिनेन्द्रप्रासाद ‘त्रिभुवनतिलक’ नाम से विख्यात है ।।१८५९।। इन द्वारों में द्वारों के समान उचाई से सहित और विचित्र एवं विस्तीर्ण सब युगल वज्रकपाट जलकान्त, मरकत और कर्केतनादि मणिविशेषों से संयुक्त हैं ।।१८६०।। उस जिनेन्द्रप्रासाद में विस्मयजनक रूप वाली नाना प्रकार की शालभंजिकाओं से युक्त और पांच वर्ण के रत्नों से रचे गये स्तम्भ विराजमान हैं ।।१८६१।। निर्मल एवं उत्तम स्फटिक रत्नों से रची गई विविध प्रकार की भित्तियां विचित्र और विस्मयजनक चित्रों से युक्त हैं ।।१८६२।। खम्भों की मध्यभूमि चारों ओर पांच वर्ण के रत्नों से निर्मित, शरीर, मन एवं नेत्रों को आनन्ददायक, निर्मल और धूलि से रहित है।।१८६३।। वह जिनेन्द्रप्रासाद मोतियों की माला तथा चामरों से युक्त एवं उत्तम रत्नों से विभूषित बहुत प्रकार के वितानों से संयुक्त है।।१८६४।। वसतिका में गर्भगृह के भीतर दो योजन ऊंचा, एक योजन विस्तार वाला और चार योजन प्रमाण लम्बाई से संयुक्त देवच्छंद है ।। १८६५ ।। योजन २ । १ । ४ । लोकविनिश्चय के कर्ता [[देवच्छंद]] को समचतुष्कोण सोलह कोस ऊंचा और इससे आधे विस्तार से संयुक्त बतलाते हैं ।। १८६६ ।। को. १६ । ८ । पाठान्तर। यह रमणीय देवच्छंद लटकती हुई पुष्पमालाओं से सहित, कबूतर व मोर के कण्ठगत वर्ण के सदृश मरकत व प्रवाल जैसे वर्ण से संयुक्त, कर्केतन एवं इन्द्रनील मणियों से निर्मित, चौंसठ कमलमालाओं से शोभायमान, नाना प्रकार के चँवर व घंटाओें से रमणीय, गोशीर, मलयचन्दन एवं कालागरु धूप के गन्ध से व्याप्त, झारी, कलश, दर्पण व नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित और देदीप्यमान उत्तम रत्नदीपकों से युक्त है।।१८६७-१८६९।। जिनेन्द्रप्रासाद के मध्य भाग में पादपीठों से सहित स्फटिकमणिमय एक सौ आठ उन्नत सिंहासन हैं।।१८७०।। सिंहासनों के ऊपर पांच सौ धनुषप्रमाण ऊंची एक सौ आठ अनादिनिधन जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।।१८७१।। ये जिनेन्द्रप्रतिमायें भिन्न इन्द्रनीलमणि व मरकतमणिमय कुंतल तथा भृकुटियों के अग्रभाग से शोभा को प्रदान करने वाली, स्फटिकमणि और इन्द्रनीलमणि से निर्मित धवल व कृष्ण नेत्रयुगल से सहित, वज्रमय दन्तपंक्ति की प्रभा से संयुक्त, पल्लव के सदृश अधरोष्ठ से सुशोभित, हीरे से निर्मित उत्तम नखों से विभूषित, कमल के समान लाल हाथ-पैरों से विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजनसमूह से सहित और बत्तीस लक्षणों से युक्त हैं।।१८७२-१८७४।। जब सहस्रों युगलजिह्वाओं से युक्त धरणेन्द्रों की सहस्रों हजार कोड़ाकोड़ियां भी उन प्रतिमाओं के वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकतीं, तब मनुष्यों की तो शक्ति ही क्या है।।१८७५।। सब जिनेन्द्र प्रतिमाओं में से प्रत्येक प्रतिमा के समीप हाथ में उत्तम चँवरों को लिये हुए चौंसठ देवयुगलों की प्रतिमायें शोभायमान हैं।।१८७६।। तीन छत्रादि से सहित, पल्यंकासन से समन्वित और समचतुरस्र आकार वाली वे जिननाथ-प्रतिमायें नित्य जयवन्त होवें।।१८७७।। जिनके चरणयुगलों को विद्याधर और देवेन्द्र भक्ति से नमस्कार करते हैं, उन बहुत प्रकार से विभूषित जिनप्रतिमाओं को मैं नमस्कार करता हूँ।।१८७८।। घंटाप्रभृति वे सब उपकरण तथा दिव्य मंगलद्रव्य पृथक्-पृथक् जिनेन्द्रप्रतिमाओं के पास में सुशोभित होते हैं।।१८७९।। भृंगार, कलश, दर्पण, चँवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ, ये आठ मंगलद्रव्य हैं। इनमें से प्रत्येक वहां एक सौ आठ होते हैं।।१८८०।। प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां रहती हैं ।। १८८१ ।। देवच्छंद के सन्मुख नाना प्रकार के रत्न और पुष्पों की मालायें प्रकाशमान किरणसमूह से सहित लटकती हुई विराजमान हैं।।१८८२।। सुवर्ण एवं रजत से निर्मित और उत्तम रत्नसमूहों से खचित बत्तीस हजार प्रमाण विशाल पूर्ण कलश सुशोभित हैं।।१८८३।। कर्पूर, अगुरु और चन्दनादिक से उत्पन्न हुई धूप के गन्ध से व्याप्त और सुवर्ण एवं चांदी से निर्मित चौबीस हजार धूपघट हैं ।।१८८४।। झारी, रत्नदर्पण, बुद्बुद, उत्तम चमर और चत्र से शोभायमान तथा प्रचुर घंटा और पताकाओं से युक्त वह जिनेन्द्रभवन अनुपम है।।१८८५।। जिनप्रासाद के सन्मुख ज्येष्ठ द्वार के दोनों पाश्र्व भागों में पृथक्-पृथक् चार हजार रत्नमालाये लटकती हैं।।१८८६।। ४०००। इनके भी बीच में प्रकाशमान किरणादि से सहित बारह हजार अकृत्रिम सुवर्णमालायें लटकती हैं।।१८८७।। १२०००। द्वार की अग्रभूमियों में आठ—आठ हजार धूपघट और उन धूपघटों के आगे आठ-आठ हजार सुवर्णमालायें हैं।।१८८८।। ८०००। क्षुद्र द्वारों में पृथक्-पृथक् इससे आधी रत्नमालायें, कंचनमालायें, धूपघट तथा सुवर्णमालायें हैं।।१८८९।। जिनपुर के पृष्ठभाग में चौबीस हजार कनकमालायें और इनके बीच में आठ हजार रत्नमालायें हैं।।१८९०।। जिनेन्द्रभवन के अग्रभाग में सोलह कोस ऊंचा, सौ कोस लम्बा और पचास कोस प्रमाण विस्तार से युक्त रमणीय मुखमण्डप है।।१८९१।। वह मुखमण्डप आधे कोस अवगाह से युक्त, नाना प्रकार के उत्तम रत्नसमूहों से निर्मित और फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं से सहित है। बहुत वर्णन से क्या, वह मण्डप निरुपम है।।१८९२।। मुखमण्डप के आगे परम रमणीय अवलोकनमण्डप है, जो सोलह कोस से अधिक ऊंचा, सौ कोस विस्तृत और सौ कोस लंबा है।।१८९३।। १६।। १००। उसके आगे अपने योग्य उँचाई से युक्त [[अधिष्ठान]] स्थित है। इसका विस्तार अस्सी कोस और लम्बाई भी इतनी ही है।।१८९४।। ८० । उसके बहुमध्य भाग में उत्तम दिव्य रत्नों से रचा गया सभापुर है, जिसकी ऊँचाई सोलह कोस से अधिक और लम्बाई व विस्तार चौंसठ कोस प्रमाण है ।।१८९५।। १६ । ६४ । ६४। सभापुर में सिंहासन, भद्रासन और वेत्रासनप्रभृति विविध पीठ उत्तम रत्नों से निर्मित परम रमणीय हैं।।१८९६।। सभापुर के आगे चालीस कोस ऊंचा और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित पीठ है। इसके विस्तार का उपदेश नष्ट हो गया है।।१८९७।। ४० । पीठ के चारों ओर उत्तम गोपुरों से युक्त बारह वेदियां पृथ्वीतल पर और इतनी ही पीठ के ऊपर हैं।।१८९८।। पीठ के ऊपर बहुमध्य भाग में समवृत्त रत्नस्तूप स्थित है, जो क्रम से चौंसठ कोस प्रमाण विस्तार व ऊँचाई से सहित है।।१८९९।। को. ६४ । ६४ । इसके भी आगे छत्र से सहित, देदीप्यमान मणिकिरणों से विभूषित और जिन व सिद्ध प्रतिमाओं से परिपूर्ण अनादिनिधन सुवर्णमय स्तूप है ।।१९००।। इसके भी आगे समान विस्तारादि से सहित आठ स्तूप हैं। इन स्तूपों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ स्थित है।।१९०१।। इस पीठ का विस्तार व लंबाई दो सौ पचास योजन प्रमाण है। इसकी ऊँचाई के प्रमाण का उपदेश हमारे लिये नष्ट हो गया है।।१९०२।। २५० । २५० ।०। पीठ के चारों ओर उत्तम गोपुरों से युक्त बारह वेदियां भूमितल पर और इतनी ही पीठ के ऊपर हैं।।१९०३।। पीठ के उपरिम भाग पर सोलह कोस प्रमाण ऊंचा दिव्य व उत्तम तेज को धारण करने वाला सिद्धार्थ नामक चैत्यवृक्ष है ।। १९०४।। को. । १६ । चैत्यवृक्ष के स्कन्ध की ऊँचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस और शाखाओं की लम्बाई व अन्तराल बारह कोस प्रमाण है।।१९०५।। को. ४ । १। १२। १२। पीठ के ऊपर इसी प्रमाण को धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस इसके परिवार वृक्ष हैं।।१९०६।। १४०१२०। ये वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित शाखाओं, मरकत मणिमय पत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चाँदी से निर्मित पुष्पों से सदैव संयुक्त रहते हैं।।१९०७।। ये सब उत्तम दिव्य चैत्यवृक्ष अनादिनिधन और पृथ्वीरूप होते हुए जीवों की उत्पत्ति और विनाश के स्वयं कारण होते हैं।।१९०८।। इन वृक्षों में प्रत्येक वृक्ष के चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों से रचित चार-चार जिन और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें जयवन्त होवें।।१९०९।। चैत्यवृक्षों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है। इसकी ऊँचाई, लम्बाई और विस्तारादिक का उपदेश नष्ट हो गया है।।१९१०।। पीठ के चारों ओर भूमितल पर मार्ग व अट्टालिकाओं, गोपुरद्वारों और तोरणों से विचित्र बारह वेदियां हैं।।१९११।। पीठ के ऊपर विविध प्रकार के मणिसमूह से खचित और अनेक प्रकार के चमर व घंटाओं से युक्त चार योजन ऊंचे सुवर्णमय खम्भे हैं ।।१९१२।। सब खम्भों के ऊपर अनेक प्रकार के वर्णों से रमणीय और शिखररूप तीन छत्रों से सुशोभित महेन्द्र नामक महाध्वजायें हैं।।१९१३।। महाध्वजाओं के आगे मगर आदि जलजन्तुओं से रहित जल वाली और कमल, उत्पल व कुमुदों से व्याप्त चार वापिकायें हैं।।१९१४।। वेदिकादि से सहित वापिकायें प्रत्येक पचास कोस प्रमाण विस्तार से युक्त, इससे दुगुनी अर्थात् सौ कोस लम्बी और दश कोस गहरी हैं।।१९१५।। को. ५० । १०० । ग. १० । वापियों के बहुमध्य भाग में प्रकाशमान रत्नकिरणों से सहित एक जिनेन्द्रप्रासाद स्थित है। बहुत कथन से क्या, वह जिनेन्द्रप्रासाद निरुपम है।।१९१६।। अनन्तर वापियों के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के रत्नमय क्रीडाभवन हैं।।१९१७।। विविध वर्णों को धारण करने वाले वे भवन पचास कोस ऊंचे, क्रम से पच्चीस कोस विस्तृत और पच्चीस ही कोस लम्बे तथा धूपघटों से संयुक्त हैं।।१९१८।। को. ५० । २५ । २५ । उत्तम वेदिकाओं से रमणीय और उत्तम सुवर्णमय तोरणों से युक्त वे भवन उत्कृष्ट वङ्का, नीलमणि और मरकत मणियों से निर्मित भित्तियों से शोभायमान हैं।।१९१९।। उन भवनों के आगे इतने ही प्रमाण से संयुक्त फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं से सहित और प्रकाशमान उत्तम रत्नों के किरणसमूह से सुशोभित दो प्रासाद हैं।।१९२०।। ५० ।। २५ । २५ । इसके आगे सौ कोस ऊंचे, क्रम से पचास कोस लम्बे-चौड़े दिव्य रत्नों से निर्मित विचित्र रूप वाले प्रासाद हैं।।१९२१।। ज्येष्ठ द्वार के आगे जो दिव्य मुखमण्डपादिक कहे जा चुके हैं, वे आधे प्रमाण से सहित क्षुद्र द्वारों में भी हैं।।१९२२।। इसके आगे मार्ग, अट्टालिकाओं और गोपुरद्वारों से सहित सुवर्णमयी वेदी इन सबको वेष्टित करके स्थित है।।१९२३।। इस वेदी के आगे चारों दिशाओं में सुवर्ण एवं रत्नमय उन्नत खम्भों से सहित दश प्रकार की श्रेष्ठ ध्वजपंक्तियाँ स्थित हैं।।१९२४।। सिंह, हाथी, बैल, गरुड़, मोर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र, इन चिह्नों से युक्त ध्वजाओं में से प्रत्येक एक सौ आठ और इतनी ही क्षुद्रध्वजायें हैं।।१९२५।। प्रकाशमान रत्नकिरणों से संयुक्त और चार गोपुरद्वारों से रमणीय सुवर्णमय उत्तम वेदी इनको वेष्टित करके स्थित है।।१९२६।। यह वेदी दो कोस ऊंची, पांच सौ धनुष चौड़ी, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और स्फटिक मणिमय अनेक उत्तम भित्तियों से संयुक्त है।।१९२७।। को. २ । द. ५०० । इसके आगे जिनभवनों में चारों ओर तीनों लोकों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले स्वरूप से संयुक्त वे दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं।।१९२८।। सब प्रकार के कल्पवृक्ष गोमेदमणिमय स्कन्ध से सहित, सुवर्णमय कुसुमसमूह से रमणीय, मरकतमणिमय पत्तों को धारण करने वाले, मूंगा, नीलमणि एवं पद्मरागमणिमय फलों से संयुक्त, अकृत्रिम और अनादिनिधन हैं। इनके मूल में चारों ओर चार जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं।।१९२९-१९३०।। उन स्फटिकमणिमय वीथियों के मध्य में से प्रत्येक वीथी के प्रति विचित्र रूप वाले वैडूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित हैं।।१९३१।। चार वेदीद्वार और तोरणोें से युक्त ये मानस्तम्भ ऊपर चँवर, घंटा, किंकिणी और ध्वजा इत्यादि से संयुक्त होते हुए शोभायमान होते हैं ।।१९३२।। इन मानस्तम्भों के नीचे और चारों दिशाओं में विराजमान, उत्तम रत्नों से निर्मित और जग से कीर्तित चरित्र से संयुक्त जिनेन्द्रप्रतिमाएँ जयवन्त होवें।।१९३३।। मार्ग व अट्टालिकाओं से युक्त, नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं के आटोप से सुशोभित और श्रेष्ठ रत्न समूह से निर्मित कोट इस कल्पमही को वेष्टित करके स्थित हैं।।१९३४।। चूलिका के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भाग में भी पूर्वदिशावर्ती जिनभवन के समान वर्णनों से संयुक्त एक-एक जिनभवन हैं।।१९३५।। इस प्रकार यहां संक्षेप से पाण्डुकवन का वर्णन किया गया है । उसका विस्तार से वर्णन करने के लिये तो इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है।।१९३६।।