प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति तथा पुरातत्व विभाग-
डाॅ० हरिसिंह ग़ौर विश्वविद्यालय,सागर- म० प्र०)
सारांश
सागर जिले में जैन पुरासम्पदा समृद्ध स्थिति में है।इस जिले के पजनारी, ईशरवारा, पटनागंज, बीना बारहा एवं खिमलासा की जैन कला पर शोध कार्य हुए हैं। लेकिन बण्डा तहसील के पाटन एवं पिडरूआ का जैन शिल्प अभी तक शोधकत्र्ताओं की दृष्टि ओझल ही रहा, इसलिए अभी तक अप्रकाशित भी हैं। पाटन एवं पिडरूआ में क्रमश: १५वीं एवं १६वीं शती ईसवी का जैन शिल्प विद्यमान है। पाटन एवं पिड़रुआ का लेखक के क्रमश: १५वीं एवं १६वीं शती ईसवीं का जैन शिल्प विद्यमान है।पाटन एवं पिडरूआ का लेखक ने सर्वेक्षण किया। जिसका यथातथ्य विवरण यहाँ प्रस्तुत है।
पाटन-
पाटन को स्थानीय स्तर (सागर) पर बिनैका पाटन कहते हैं।बिनैका चार-पाँच दशक पहले तहसील हुआ करती थी। बाद में बण्डा को तहसील बनाया गया। बिनैका में मराठा स्थापत्य आज भी विद्यमान है। बिनैका से ५ कि.मी. आगे पाटन है। बिनैका बण्डा से पश् िचम दिशा की ओर २० कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस प्रकार पाटन बण्डा तहसील मुख्यालय से २५ कि.मी. की दूरी पर है।पाटन में दो जैन मंदिर है। पहला जैन मंदिर जी प्राचीन है लेकिन उपेक्षित एवं वीरान है। दूसरा जैन मंदिर भव्य है यहाँ पूजा अर्चना भी होती है।
मंदिर क्रमांक-१
यह मंदिर पुरातत्व एवं जैन कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह मंदिर एवं इसकी प्रतिमाएँ स्थानीय पत्थर से निर्मित हैं। मंदिर धरातल से ५ फीट ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है। मंदिर लगभग ८ फीट चौड़ाई ३० फीट लम्बाई एवं २५ फीट ऊँचाई के क्षेत्रफल में बना हुआ है। मंदिर में गुम्मदनुमा शिखर है। चारों कोनों में छोटे-छोटे गुम्मद बने हुए थे। पीछे का एक गुम्मद टूट गया है।आगे मण्डप के ऊपर बुर्जी की छोटी-छोटी आकृतियाँ हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों के पत्थरों में जुड़ाई के लिए किसी मसाले का इस्तेमाल नहीं हैं। मंदिर का आधार पाँच स्तरों में दिखाई देताद है। बाहरी दीवार पर ज्यामितीय पच्चीकारी इस्लामिक शैली से प्रवाभित है। मंदिर इण्डोइस्लामिक शैली में निर्मित है। मंदिर उत्तराभिमुख है। मण्डप चार स्तम्भों पर आधारित हैं। स्तम्भ घट पल्लव से अलंकृत हैं। दायी व बायीं दोनों शिलापट्टों पर तीन जिन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मध्य में पद्मासन एवं दायीं बायीं और कायोत्सर्ग जिन प्रतिमाएँ हैं। मण्डप के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी जो अब टूट चुकी हैं। गर्भगृह के द्वारा स्तम्भ पर ऊपर सिरदल पर पद्मानस्थ जिन प्रतिमा उत्कीर्ण है जो यह स्पष्ट करती कि यह जैन मंदिर ही था। द्वार स्तम्भ के नीचे दोनों ओर दिभुजी भैरव एवं देवी बनी है।दायीं ओर की देवी गोद में बालक को लिए है। भैरव एवं अम्बिका लोकप्रिय शासन देवी देवता थे।अत: उनका अंकन किया गया।
प्रतिमाएँ-
मण्डप से चार फीट नीचे गर्भगृह हैं। छह सीढ़ियों से नीचे जाना पड़ता है।गर्भगृह पाँच फीट के वर्गाकार क्षेत्र में है। गर्भगृह में दीवाल से सटी हुई तीन कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ हैं। यह प्रतिमाएँ स्थापित की गई थी। तीनों प्रतिमाएं स्थानीय पाषाण पर निर्मित हैं। प्रतिमाएँ पालिशयुक्त व चमकदार हैं। मध्य में तीर्थंकर कुन्थुनाथ की प्रतिमा है। प्रतिमा लगभग सात फीट ऊँची है। पाठपीठ पर बकरे का चिन्ह उत्कीर्ण है। प्रतिमा के दोनों हाथ कन्धे से ही तोड़ दिये गए हैं। वक्ष स्थल भी क्षतिग्रस्त कर दिया गया। इस प्रतिमा के नीचे नागरी लिपी में लेख है जो जगह-जगह क्षत विक्षत है एवं अस्पष्ट है। बायीं प्रतिमा तीर्थंकर अरहनाथ की हैं। पादपीठ पर मच्छी का चिन्ह हैं। इस प्रतिमा के भी दोनों हाथ तोड़ दिये गये हैं। दायीं प्रतिमा तीर्थंकर शांतिनाथ की है। पादपीठ पर हिरण उत्कीर्ण है। तीनों प्रतिमाआ के पाश्र्व में चमरधारी खड़े है। पाटन की उक्त कला उत्कृष्ट स्तर की नहीं कही जा सकती। पाषाण एवं वास्तु साधारण ही है पाटन के इस क्षतिग्रस्त मंदिर एवं प्रतिमाएँ लगभग १५वीं शती ईसवीं के समय की प्रतीत होती है।प्रतिमाएँ जिस प्रकार खण्डित की गई है उससे अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रतिमाएँ किसी तथाकथित गाजी का दुष्कृत्य नहीं है बल्कि किसी कट्टर आततायी का दुस्साहस था। क्योंकि मुस्लिम आक्रान्ता आमतौर पर सिर अवश्य तोड़ा करते थे। जबकि यह प्रतिमाएं इस प्रकार खण्डित की गई है जैसे कि किसी जागीरदार को दिगम्बर (नग्न) वेश पर आपत्ति हो।
मंदिर क्रमांक-२
पाटन गाँव में प्रवेश करते ही एक भव्य जैन मंदिर है। मंदिर लगभग १०० वर्ग फुट के क्षेत्रफल में बना है। मंदिर में भव्य शिखर हैं।(चित्र-५) शिखर की ऊँचाई लगभग ८० फीट है। मंदिर में मेहरावनुमा आकृतियाँ जगह-जगह विद्यमान है। छत की चहार दीवारी में बुर्ज की डियाजन है। मंदिर लगभग १७-१८वीं शताब्दी का है। मंदिर के अन्दर प्रतिष्ठित प्रतिमाओं का अवलोकन मैं दूर से ही कर पाया। सुरक्षा की दृष्टि प्रतिमाओं को चैनल एवं काँच से बंद किया हुआ है। सभी प्रतिमाएँ संगमरमर की हैं। संभव है यहां लेख युक्त प्रतिमाएँ अवश्य ही विराजमान होगी । क्योंकि पिडरूआ में १५-१६शती ईसवी की लेख युक्त संगमरमर की प्रतिमाएँ है। पिडरूआ यहाँ से नजदीक ही है। मंदिर की शैली भी एक जैसी ही है। पाटन में जैन समाज निवास नहीं करती है। मंदिर के प्रांगड़ में क्षतिग्रस्त व ध्वस्त अवस्था में जैन शिल्प बिखरा हुआ है। एक प्रतिमा तीर्थंकर संभव नाथ की सुरक्षित रखी हुई है। (चित्र-६) प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है। सिर के ऊपर त्रिछा है, गज अभिषेक कर रहा हैं। हाथ क्षतिग्रस्त हैं पाश्र्व में चामर धारी हैं। नीचे पादपीठ पर अश्व स्पष्ट रूप से उत्कीर्ण है। पाटन मध्यकाल में जैनधर्म संस्कृति का अवश्य ही गढ़ रहा होगा। यहाँ का शिल्प बाहरी व्यापारियों द्वारा निर्माण नहीं कराया गया होगा। बल्कि स्थानीय जैन अनुयायी ही निर्माता होंगे। जनश्रुति के अनुसार यहाँ मठ हुआ करते थे।
पिडरूआ:-
पिडरूआ सागर जिले का मध्यकालीन जैन अतिशय तीर्थ है। पिडरूआ, सागर जिला मुख्यालय से लगभग ३० कि.मी. की दूरी पर स्थित है। सागर-झाँसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर बहरोल चौराहे से ८ कि.मी.उत्तर की ओर घने जंगलों पर पिडरूआ गाँव है। बहरोल चौराहे से जो मार्ग धामोनी के प्रसिद्ध मुगलकालीन दुर्ग की ओर जाता है उसी मार्ग पर दो किमी. दूरी बांये मोड़ से ६ किमी. की दूरी पर पिडरूआ है पिड़रुआ बण्डा (सागर) तहसील के राजस्व क्षेत्र में है। बण्डा तहसील का जो क्षेत्र खुरई तहसील की सीमा से लगा हुआ है उसमें जैन पुरावैभव समृद्ध है। यहाँ पाटन, पजनारी पड़वार नामक स्थानों पर पूर्वमध्य एवं मध्यकालीन जैन पुरातत्व मौजूद है। संभवत: जैन व्यापारियों का यह व्यापारिक मार्ग था, क्योकि पजनारी से तो पाणाशाह का उल्लेख करने वाला अभिलेख भी प्राप्त हुआ है यहाँ पिडरूआ में व्यापारी संगठनों द्वारा ही संगमरमर की प्रतिमाएँ लाकर प्रतिष्ठित की गई होगी। पिडरूआ का जैन मंदिर लगभग १० फीट ऊँचे चबूतरे पर बना है। मंदिर में पांच खिखर नागर शैली में हैं। शिखर की ऊँचाई ८० फीट के लग्भग है। मंदिर १७-१८ वी.शती ईसवी का प्रतीत होता है। मंदिर में लगभग १०० प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित है कुछ प्रतिमाएँ १९४८ संवत् में प्रतिष्ठित हुई है। कुछ प्रतिमाएँ हैं १७९९ संवत की है । कुछ प्रतिमाएँ १५४८ संवत की है। लेख में यह स्पष्ट नहीं है कि संवत कौन—सा है? शक या विक्रम। पिडरूआ का संबंध भट्टारक कीर्तिदेव से माना जाता है भट्टारक कीर्तिदेव १५ शती ईसवी मे पिडरूआ आये थे।
पिडरूआ में छह प्रतिमाएँ मध्यकालीन हैं जो संगमरमर पत्थर से निर्मित हैं। यह प्रतिमाएँ संगमरमर की वेदी में प्रतिष्ठित है। इन अमूल्य प्रतिमाओं को लोहे के चैनल व काँच से सुरक्षित किया गया है। इन्हीं कारणों से छायाचित्रण सहजता से नहीं हो पाया है। मंदिर में सहस्रफणी तीर्थंकर पाश् र्वनाथ की तीन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठत है। तीनों प्रतिमाऐं काले संगमरमर से निर्मित हैं। तीनों प्रतिमाएँ एक जैसी है। यह प्रतिमाएँ ५० सेमी. के लगभग ऊँची है। तीनों प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा में हैं। तीनों पाश्र्वनाथ प्रतिमाओं की पादपीठ पर नागरी लिपि में लेख हुआ है। लेख में १५४८ की तिथि अंकित है जो संवत में है; कौन सा संवत् स्पष्ट नहीं है। तीन अन्य प्रतिमाएँ श्वेत संगममर से निर्मित हैं श्वेत संगमरमर की दो प्रतिमाएँ तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की सप्तफणी प्रतिमा हैं। यह दो प्रतिमाएँ भी पद्मासन अवस्था में है। यह प्रतिमाएँ सहसफणी प्रतिमाओं से कुछ ज्यादा ऊँची हैं दोनों प्रतिमाएँ लगभग ८० सेमी. की होगी। तीसरी श्वेत संगमरमर की प्रतिमा तीर्थंकर मुनिसुव्रत की है यह प्रतिमा अतिशयकारी है। इनके अतिशय सागर क्षेत्र में चर्चित हैं। इन तीनों प्रतिमाओं की पादपीठ पर भी १५४८ संवत् तिथि दी हुई है। एक अन्य ५ इंच की स्फिटिक की प्रतिमा हैं। स्थानीय जानकारी के अनुसार यह प्रतिमा लगभग १२०९ संवत की है। इस जानकारी के पक्ष में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सका। पिडरूआ की अधिकांश प्रतिमाएँ संगमरमर की है। कुछ प्रतिमाएँ पीतल व अष्टधातु की है जो अर्वाचीन है। मंदिर का जीर्णोद्धार आवश्यक है। अन्दर से व्यवस्थित सुन्दर व सुदृढ़ बनाया जा सकता है। अमूल्य व अतिशयकारी प्रतिमाओं के इस मंदिर के लिए काफी कुछ किया जा सकता है।