भगवान कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि-
पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया।
मोहादीहिं विरहिया तह्मा सा खाइग त्ति मदा।।४५।।
अर्थ- अर्हंत भगवान पुण्य प्रकृति के फल हैं और उनकी क्रिया निश्चय से औदयिकी है फिर भी वह मोहादिक से रहित है अत: क्षायिक मानी गई है। श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं- ‘‘अर्हंत: खलु सकलसम्यक्परिपक्वपुण्यकल्पपादपफला एव भवंति।’’ अर्हंत भगवान सचमुच में अच्छी तरह से पके हुये समस्त पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं अर्थात् संपूर्ण पुण्य यदि एक साथ अच्छी तरह से कहीं फलते हैं तो वे अरिहंत भगवान में ही फलते हैं, अन्यत्र नहीं। उन अर्हंत देव की जो क्रियायें हैं वे विहार करते हैं, समवसरण में आसन पर विराजते हैं, खड़े होते हैं और उपदेश करते हैं ये जो कुछ भी उनकी क्रियायें हैं वे सब उस तीर्थंकर प्रकृति आदि पुण्य के उदय से ही उत्पन्न होती हैं अत: वे औदयिक कहलाती हैं। ऐसा होने पर भी महामोह राजा के सर्वथा क्षय हो जाने से उनके समस्त मोह, राग और द्वेष का सर्वनाश हो चुका है अत: वे क्रियायें अरिहंतदेव के चैतन्य में विकार उत्पन्न नहीं कर सकती हैं। यही कारण है कि उन्हें औदयिकी होते हुए भी क्षायिकी कह दिया है चूूँकि वे कर्म बंध के लिये कारण नहीं होती हैं प्रत्युत वे क्रियायें उन प्रभु के मोक्ष के लिए कारणभूत हैं। यही हेतु है कि कर्मों का उदय भी अर्हंत भगवान के स्वभाव का विघात नहीं कर सकता है। अब प्रश्न यह उठता है कि जैसे केवलियों के उपदेश, विहार आदि क्रियायें होते हुये भी उनके कर्म का बंध न होने से उनके स्वभाव का घात नहीं होता। वैसे ही हम लोग सम्यग्दृष्टि क्रियाएँ करते रहें, हमारे भी कर्मबंध न होने से स्वभाव का विघात नहीं हो सकता है अर्थात् कर्र्मादय हमारा भी कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता है ऐसा मान लेवें तो क्या बाधा है ? भगवान कुंदकुंद देव स्वयं उसका समाधान करते हैं-
जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण।
संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं।।४६।।
अर्थ-जो यह माना जाय कि वह आत्मा अपने भाव से शुभ या अशुभरूप नहीं होता है अर्थात् शुभ-अशुभ भाव में परिणत ही नहीं होता है तो समस्त जीव समूह के संसार भी नहीं रहेगा। टीकाकार भी इसका स्पष्टीकरण करते हैं- यदि एकांत से यह मान लिया जाय कि शुभ, अशुभरूप स्वभाव से निजीभाव से यह आत्मा स्वयं उस रूप परिणत नहीं होता है, तब तो वह हमेशा ही सर्वथा विघातरहित शुद्ध स्वभाव से ही अवस्थित रहेगा और ऐसा होने पर सभी जीव समूह समस्त कर्मबंध कारणों से रहित सिद्ध हो जाएंगे पुन: कोई भी जीव अशुद्ध संसारी न रहने से संसार का ही अभाव हो जाएगा तथा सभी जीव सर्वथा नित्यमुक्त ही हो जाएंगे। परन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आत्मा के परिणमनशील होने के कारण उसके शुभ या अशुभरूप निजभाव प्रकट ही दिख रहे हैं जैसे कि स्फटिक मणि के पीछे लाल फूल या काला फूल रख दो तो वह लाल या काली दिखने लगती है। श्री कुंदकुंद देव की इस गाथा से उस एकांत का सर्वथा निराकरण हो जाता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में रंचमात्र में परिवर्तन नहीं कर सकता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का उपादानरूप से कर्ता नहीं है किन्तु निमित्तरूप से कर्ता है। जैसे कि मिट्टी घट का उपादान है और कुम्भकार, चाक, दंड आदि निमित्त हैं। जैसे-उपादान के बिना घड़ा नहीं बन सकता वैसे निमित्त के बिना भी अपने आप घड़ा कभी नहीं बन सकता है। दूसरी बात यह है कि निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने-अपने में परिणमन कर रहे हैं किन्तु व्यवहार नय से जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों का आपस में संयोग संबंध चला आ रहा है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो संसार में आप और सभी जीव अपने स्वभावरूप केवलज्ञान, दर्शन आदि को छोड़कर विभावरूप राग, द्वेष से परिणमन क्यों कर रहे हैं ? हमारा ज्ञान मति, श्रुत आदि रूप अल्प क्यों हो रहा है ? अत: मानना पड़ेगा कि परद्रव्य के निमित्त से हमारे स्वाभाविक गुणों का आवरण पड़ा हुआ है तथा हमारे सम्यक्त्व और सुख आदि गुण विपरीत-मिथ्यात्व और दु:ख आदि रूप परिणमन कर रहे हैं इसलिये केवली भगवान के समान हमारे क्रियाओं के होते हुए भी कर्मबंध न हो ऐेसी बात नहीं है। ‘‘तो हमें क्या करना चाहिये ?’’ हमें अशुभ क्रियाओं से बचने का प्रयत्न बलपूर्वक करना चाहिए और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति रुचि- पूर्वक करनी चाहिये। जब तक हम शुद्ध, निष्क्रिय, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक एक स्वभाव अपनी शुद्ध आत्मा में स्थित नहीं हो सकते हैं तब तक हमें उस र्निवकल्प समाधि को करने के लिए साधन सामग्रीभूत अपने पद के अनुरूप दान, पूजन, तीर्थयात्रा, स्वाध्याय, जिनमंदिर निर्माण आदि कार्यों में अपना तन-मन-धन लगाते रहना चाहिये। शक्य हो तो आर्त-रौद्र ध्यान से बचना चाहिये और शुक्लध्यान के नहीं होने तक धर्मध्यान में ही प्रवृत्ति रखनी चाहिए।’’