व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात्”
केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद् भ्रश्यति स्वार्थात्।।
व्यंजन ककार आदि अक्षरों को भी कहते हैं और दाल-शाक वगैरह को भी कहते हैँ। जैसे स्वर रहित व्यंजन का उच्चारण करने चाला अपनी बात दूसरे को नहीं समझा सकता, अत: स्वार्थ से भ्रष्ट होता है या जैसै घी, चावल आदि के बिना केवल दाल-शाक खाने वाला स्वस्थ नहीं रह सकता अत: वह स्वार्थ-पुष्टि के भ्रष्ट होता है। वैसे ही निश्चय नय से विमुख बहिर्दृष्टि वाले मनुष्यों के सम्पर्क से होने वाले अज्ञानवश अधिकतर अभूतार्थ व्यवहार को ही भावना करने वाला अपने मोक्ष सुखदायी स्वार्थ से भ्रष्ट होता है। कभी भी मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे निश्चय से शून्य व्यवहार व्यर्थ है, वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय भी सिद्ध नहीं होता, यह व्यतिरेक के द्वारा कहते है-