आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव का महान उपकार उनके द्वारा रचित ‘पुरुषार्थ ग्रंथ है जिससे व्यक्ति स्व-उत्थान की प्रेरणा पाता है, सदाचारी बनता और विशेष रूप से अहिंसादि व्रतों का पक्षधर बनता है । यह ग्रंथ ‘यथानाम तथागुण :’ की उक्ति को चरितार्थ करता है । यहाँ ‘पुरुष’ शब्द पुल्लिंग-पुरुष का प्रतीक न होकर आत्मा का प्रतीक है जिसका प्रकट रूप हमें पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक संख्या-9 में मिलता है । इसमें आया ‘अस्ति’ शब्द प्रारंभ में रखा गया जो आत्मा के अस्तित्व का सूचक है । यह श्लोक इस प्रकार है –
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जित: स्पर्शरसगन्धवणैं: । गुणपर्ययसमवेत: समाहित: समुदयव्ययधौव्यैः । ।पुरुषार्थसिद्धघुपाय : आचार्य अमृतचन्द्र, 9
अर्थात् जीव चैतन्यस्वरूप है, स्पर्शन-रस-गंध-वर्ण से रहित है, गुण-पर्याय से सहित है और उत्पाद-व्यय-ध्रौब्य से युक्त है । यहाँ जीव (आत्मा) की चार विशेषताएँ दिखाई गयी हैं – 1.इसमें आगत ‘पुरुष’ शब्द जीव या आत्मद्रव्य का सूचक है, मनुष्यार्थक नहीं । 2.चिदात्मा’ पद बता रहा है कि यह आत्मद्रव्य चेतनस्वरूप है, पुद्गलादि पाँच द्रव्यों की तरह जड़ नहीं है । ‘स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-विवर्जित’ से तात्पर्य है कि यह आत्मा पुद्गल की तरह मूर्तिक द्रव्य नहीं, अपितु आकाशवत् अमूर्तिक है । 3.’गुणपर्ययसमवेत: ‘ का अर्थ है कि यह गुण-पर्याय सहित है । यह हर समय अपने स्वभाव-विभाव रूप गुण-पर्यायों से युक्त रहता है, दूसरों के गुण-पर्यायों से कोई संबंध नहीं रखता । 4.समुदय-व्यय-ध्रौव्यैः ” से तात्पर्य है कि यह उत्पाद-व्यय-धौब्य से युक्त है । यह इसका स्वत: सिद्ध स्वभाव है । यहाँ विशेषता यह है कि संसार में रहने पर विभाव रूप उत्पाद-व्यय करता है और सिद्धपर्याय’ में? स्वभाव रूप उत्पाद-व्यय करता है । ‘धौब्य’ शब्द से आत्मा की अविनश्वर-ध्रुव सत्ता का पता चलता है । यह अपनी त्रैकालिक सत्ता को छोड्कर उत्पाद-व्यय नहीं करता है । पुरुष (आत्मा) की उक्त विशेषताओं की पुष्टि इस प्रकार की गई है
अर्थात् वह पुरुष-जीव सदा अनादि संतति से ज्ञान के विवर्तों से परिणमन करता हुआ,अपने परिणामो का करने वाला और भोगने वाला भी होता है ” जिस समय समस्त वैभाविक भावों से उत्तीर्ण या रहित होकर वह पुरुष निष्कंप (अचल ) चैतन्य स्वभाव को प्राप्त होता है, उस समय समीचीन पुरुषार्थसिद्धि _पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि को पाता हुआ वह कृतकृत्य (धन्य) हो जाता है ” पुरुष (आत्मा)के अर्थ ( प्रयोजन) की सिद्धि (सफलता), बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं है । हर पुरुप सफलता का स्वाद चखना चाहता है, किन्तु उपाय न सभी को मिलता है और न सभी उन उपायों को अपना पाते हैं । अत: आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव का यह महान उपकार माना जायेगा कि उन्होने पुरुषार्थसिद्धि के उपायों से हम संसारियों को परिचित कराया ।
गोम्मटसार जीवकांड’ में आया है कि –
पुरुगुणभोगेसेदे करेदि लोयम्मि पुरुगुण कम्मं । पुरु उत्तमो य जम्हा तष्टो सो वण्णिओ पुरिसो । गोम्मटसार जीवकांड आचार्य नेमिचन्द्र, गा० 273
अर्थात् पुरुष ही संसार में सर्वोत्तम कार्य कर सकता है, वही कर्म को नष्ट करके सर्वोत्तम गुणों का विकास कर सकता है । ‘पुरुष’ शब्द की सार्थकता वहीं होती है जहाँ आत्मा पुरुष पर्याय में रहकर, स्वकीय पौरुष से ध्येयरूप मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त होकर, शुद्ध वीतराग सर्वज्ञ-पुरुष-पद में पहुँच जाता है ” यदि परमपद में स्थित होना है तो जिनमार्ग ही शरण है; कहा भी है –
अन्यथा .शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर! । । दर्शनपाठ, श्लोक संख्या 8
आचार्य कहते हैं कि
जइ जिणमय पवज्जह ता मा घवहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिन्नइ तित्थं अज्येण उण तच्चं। । समयसार, गा० 12 की आत्मख्याति टीका में उद्धृत ।
अर्थात् यदि तू जिनमत में प्रवृत्ति करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय, इन दोनों नयों को मत छोड़ । यदि व्यवहार नय को छोड़ देगा, तो उसके बिना व्रत, संयम, दान, पूजा, तप, उघराधना, सामायिक आदि समस्त उत्तम एवं मोक्ष-साधक धर्म नष्ट हो जायेगा । तथा निश्चय नय छोड़ देने से शुद्ध तत्त्वस्वरूप का कभी बोध नहीं हो सकेगा । इसलिए साध्य-साधक दृष्टि से दोनों नयों का अवलम्बन वस्तुस्वरूप का परिचायक है । विवक्षावश दोनों में मुख्य-गौण विवेचना की जाती है! सन्मति सूत्र’ में छह मान्यताएं सम्यक्- रूप मानी गयी हैं –
अस्थि अविणासधम्मी करेइ बेएइ अत्थि निब्बाणं । अस्थि य मोक्खोवायो छस्समत्तस्स ठाणाइं । । सन्मतिसूत्र, 3755
अर्थात् वे छह मान्यताएं सम्यक रूप मानी गयी है – 1 आत्मा है, २:, अविनाशी स्वभाव वाला है, 3. कर्त्ता है, 4. वेदक (ज्ञान युक्त) है, 5. मोदा है, और- . मोक्ष को उपाय है । पुरुष के पुरुषार्थ में कैसा व्यवहार होना चाहिए, इस विषय में कहा गया है “
जं इच्छसि अन्यणतो जं च ण इकसि उप्पणतो । तं इच्छ परस्त. वि या एत्तियग जिणसास्मां । ।
अर्थात् जो तुम स्वयं के लिए चाहते हो, और जो कुछ नहीं चाहते हो, उसको तुम दूसरे केलिये र्भो (क्रमश:) चाहो, और न चाहो, इतना ही जिनशासन है ” जब तक पुरुष अंतिम लाला तक रहीं पहुंचता है तब तक उसे पुरुषार्थ करना चाहिए । मार्ग में विराम नहीं, विराम तो लक्ष्य पर पहुँचकर ही लेना चाहिए । किसी हिन्दी कवि ने ठीक ही कहा है –इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रान्त भवन में टिक रहना । बल्कि पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं है ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ के अनुसार –
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्ते5त्र पुतला: कर्ममावेन।। पुरुषार्थसिद्धधुपाय – 12
अर्थात् जीव द्वारा किये गये रागद्वेषादिक विभाव-भाव का निाइउमत्तमात्र पाकर जीव से भिन्न जो पुद्गल हैं वे इस आत्मा में अपने आप ही कर्म रूप से परिणमन करते हैं । अर्थात् पुद्गल द्रव्य की ही कर्मपर्याय होती है, जीव के विभाव भाव उसमें मात्र पडते है” कर्म और जीव में निमित्त-नैमित्तिक भाव – पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार-
परिणममानस्य चितस्विदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावै: । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि । ।वही – 13
अर्थात निश्चय करके अपने चेतनस्वरूप रागादिपरिणामों से अपने आप ही परिणमन करने वाले इस जीव के भी पुद्गल के विकाररूप कर्म निमित्त मात्र होते है ” संसार परिभ्रमण के कारण- यह आत्मा संसार में भटकती रहती है; इसका कारण क्या है? इस विषय में .पुरुपार्थसिद्धधुपाय’ में बताया है कि –
एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितो5पि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभास: स खलु भवबीजम् “”वही – 14
अर्थात् इस प्रकार यह जीव कर्मकृत रागादिक एवं शरीरादिक भावों से सहित नहीं है तो भी अज्ञानियों को उन भावों से सहित सरीखा मालूम होता है, वह प्रतिभास – समझ व प्रतीति निश्चय से संसार का कारण है पुरुष की सिद्धि पुरुषार्थ से होती है । हमारी संस्कृति में पुरुषार्थ चार माने गये हैं – 1? धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष । पुरुषार्थसिद्धशुपाय में इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन मिलता है, जो इस प्रकार है –
धर्म को प्रथम पुरुषार्थ माना गया है क्योंकि यह चतुर्थ मोक्ष-पुरुषार्थ की सिद्धि में सहायक बनता है । यद्यपि अर्थ और काम का संबंध संसार से है, – लेकिन यदि वे भी धर्म-सम्मत हैं तो पुरुषार्थ की श्रेणी में आते हैं; मोक्षप्राप्ति में सहायक बन जाते हैं । अत: यह मानना चाहिए कि बिना धर्म से सम्बन्ध हुए कोई भी कार्य पुरुषार्थ की श्रेणी में नहीं आयेगा । धर्म पुरुषार्थ के लिये मिथ्यात्व को छोड्कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए । सम्यग्दर्शन के उपरान्त जिसने समीचीन ज्ञान प्राप्त किया है, ऐसा पुरुष सम्बक्चारित्र पथ को अंगीकार करता है । वह मद्य, मांस, मधु एवं पंच उदुम्बर फलों को त्याग कर अष्टमूलगुणों का पालन करता है । जो अष्टमूलगुणों का पालन करता है, वही धर्मोपदेश का पात्र है –
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यभूनि परिवर्ज्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय: । ।वही – 74
अर्थात् इन आठ अनिष्ट, कठिनता से छूटने वाले और पापों की खान स्वरूप पदार्थों को छोड्कर ही शुद्ध बुद्धि वाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश को ग्रहण करने के पात्र होते हैं । धर्म पुरुषार्थी श्रावक त्रस हिंसा का त्याग करता है और निरर्थक स्थावर हिंसा का भी त्याग करता है । धर्म अहिंसामय है । धर्मार्थ हिंसा भी पाप है –
सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु आ शरीरिणो हिंस्या: । ।वही – 79
अर्थात् भगवान् का बताया हुआ धर्म सूक्ष्म है । ‘ धर्म के लिए हिंसा करने में दोष नहीं हैं’ इस प्रकार धर्म में छूबुद्धि रखने वाले हृदयसहित बनकर कभी प्राणी नहीं मारने चाहिए । इस प्रकार की विचारधारा के साथ वह हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पाँच पापों का त्याग करता हुआ व्रताचरण करता है । रात्रिभोजन एवं अनछने जल के सेवन का त्याग करता है । देवपूजा आदि छह आवश्यकों का पालन करता है और श्रावकोचित बारह व्रतों का पालन करता हुआ, कालान्तर में महाव्रतों को धारण कर 28 मूलगुणों का पालन करता हुआ, रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त होने पर मोक्ष को प्राप्त करता है । गृहस्थों को मुनिपद धारण करना चाहिए; इस विषय में ‘पुरुषार्थसिद्धधुपाय’ में कहा है हैं
बद्धोथमेन नित्य लब्जा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलन्स्प मुनीनां कर्त्तव्य सपदि परिपूर्णण् ।वही – 210
अर्थात् सदा प्रयत्नशील गृहस्थ के द्वारा रत्नत्रय की प्राप्ति का समय पाकर और मुनियों के पद को धारण करके शीघ्र ही परिपूर्ण (संपूर्ण) करना चाहिए अर्थात् अंतिम लक्ष्य मोक्ष पाना चाहिए
गृहस्थ बिना अर्थ के शोभा एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता है, अत: उसे न्याय-नीनिपूवक धन उपार्जन करना चाहिए । अर्थ को बाह्य प्राण माना गया है; इम विपय में आचार्य अमृतचन्द्रजी ने ‘पुरुषार्थसिद्धसुपाय’ में कहा है कि –
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चरा: पुंसामू । हरति स तस्य प्राणार यो यस्य जनो हरत्यर्थान् । ।वही – 103
अर्थात् जितने भी धन-धान्य आदि पदार्थ हैं ये पुरुषों के बाह्य प्राण हैं । जो पुरुष जिसके धन-धान्य आदि पदार्थों को हरण करता है वह उसके प्राणों का नाश करता है । अर्थ पुरुषार्थी को चोरी नहीं करना चाहिए । वह अचौर्यवती होता है । इस विषय में ‘पुरुषार्थसिद्धधुपाय’ में कहा है कि दूसरों के द्वारा स्वीकार किये गए द्रव्य के ग्रहण करने में प्रमादयोग अच्छी तरह घटता है, इसलिए वहाँ हिंसा होती ही है । वही – 104 इसलिये चोरी छोड़ना चाहिए –
असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरण विनिवृत्तिं । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्त परित्याज्य । ।वही – 106
अर्थात् जो पुरुष कूपजल आदि के हरण करने की निवृत्ति करने में असमर्थ हैं उन पुरुषों के द्वारा भी दूसरा समस्त बिना दिया हुआ द्रव्य सदा छोडू देना चाहिए । अर्थ पुरुषार्थी को सदृश वस्तुओं में उलटफेरकर मिला देना (मिलावट), चोरी का उपाय बताना, चोरी का अपहरण किया हुआ द्रव्य ग्रहण करना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, थोड़ा देना, अधिक लेना भी नहीं करना चाहिए । वही – 185 धनादि के सीमांकन द्वारा आसक्ति कम करना उचित है –
योउपि न शक्यस्यण्डं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सोपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् । ।वही – 128
अर्थात जो कोई भी धन, धान्य, मनुष्य, घर, द्रव्य आदि छोड़ने के लिए नहीं समर्थ हैं, उन्हें भी परिग्रह कम करना चाहिए क्योंकि तत्त्वस्वरूप निवृत्तिरूप है । अर्थ प्राप्ति के लिए जुआ खेलना उचित नहीं है । इसे अनर्थों में पहला, संतोषवृत्ति को नष्ट करने वाला, माया का घर, चोरी और झूठ का स्थान मानते हुए दूर से ही छोड देना चाहिए –
सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सप मायाया: । दूरात् परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं -तर । ।वही – 146
अर्थ के प्रति आसक्ति हटाने के लिए आचार्यों ने कहा है कि- अर्थमनर्थं भावय नित्य ।
राजवार्तिककार अकलंकदेव के अनुसार – ‘ ‘सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहनं कन्यावरण विवाह इत्याख्यायते’ ‘ । राजवार्तिक : अकलंकदेव; 7-28-1 अर्थात् सातावेदनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से कन्या का वरण करना विवाह कहा जाता है । यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि जिस कन्या का एक बार विवाह हो चुका है, वह चाहे परित्यक्ता हो या विधवा, उसका पुनर्विवाह जैनागमानुकूल नहीं है । काम का लक्ष्य भोग नहीं अपितु संतानोत्पत्ति मानी गयी है । गृहस्थों के लिए स्वस्त्री-परिमाण, स्वपति-परिमाण व्रत बताया गया है । जिस समय विवाह संस्कार सम्पन्न होता है उसी समय वर एवं कन्या से वचन लिया जाता है कि वे एक-दूसरे के अतिरिक्त सभी के प्रति माता-पुत्र, भाई-बहिन और पिता-पुत्रीवत् संबंध रखेंगे । इस तरह विवाह के समय ही स्वस्त्री-ब्रह्मचर्याणुव्रत की स्थिति बन जाती है । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने मैथुन में हिंसापुरुषार्थसिद्धधुपाय-108 मानी है । अत: ब्रह्मचर्य को श्रेयस्कर माना है । वे अनगरमण का निषेध करते हैं –
यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्रेकादनगरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागायुत्पत्तितन्त्रत्वात् ।वही-109
अर्थात जो भी कुछ काम के प्रकोप से अनगंक्रीडन आदि किया जाता है वहाँ पर भी रागादिक की उत्पत्ति प्रधान होने से हिंसा होती है, अत: कुशील का त्याग करना चाहिए ।
ये निजकलत्रमात्र परित शण्डवंति न हि मोहात् । निःशेषशेषयोषिन्निषेवण तैरपि न कार्यम् । ।वही-110
आचार्य उमास्वामी ने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में कहा है कि – सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: । तत्त्वार्थसूत्र : आचार्य उमास्वामी; 1/1 अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्बक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय से होती है; इस विषय में पुरुषार्थसिद्धधुपाय में बताया गया है कि-
इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्ग मोक्षस्य ये स्वहितकामा: । अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्तिमचिरेण ।पुरुषार्थसिद्धयुपाद-135
अर्थात् जो अपने हित के चाहने वाले पुरुष इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्बक्चारित्र; इन तीनों स्वरूप मोक्षमार्ग में निरन्तर प्रयत्न करते हैं वे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं । ‘पुरुषार्थसिद्धधुपाय’ के अनुसार ही –
सम्बक्लबोघचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येष: । मुख्योपचाररूप: प्रापयति परं पद पुरुषम् । ।
नित्यमपि निरुपलेप: स्वरूपसमवस्थितो निरुपघात: । गगननिव परमपुरुष: परमपदे स्कूरति विशदतम: । ।वही222,223
अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्बक्चारित्र लक्षण वाला, इस प्रकार रलत्रय रूप यह मोक्षमार्ग मुख्य और उपचार स्वरूप पुरुष-आत्मा को उकृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त करा देता है । सदा ही कर्मरज से रहित, अपने निजरूप में भले प्रकार ठहरा हुआ, उपघातरहित अर्थात् जो किसी से घाता न जाय, अत्यन्त निर्मल ऐसा उकृष्ट पुरुष परमात्मा आकाश के समान उत्कृष्ट पद में, लोक शिखर के अग्रतम स्थान में अथवा उकृष्ट स्थान जिनस्वरूप के पूर्ण विकास में स्कुरायमाण होता है । रत्नत्रय को मोक्ष का कारण बताते हुए कहा है कि – रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य “वही 220 अर्थात् इस लोक में अथवा इस आत्मा में रत्नत्रय निर्वाण का ही कारण होता है और किसी का – बंध का नहीं । पुरुषार्थसिद्धि का उपाय पुरुष के पुरुषार्थ का प्रारंभ मिथ्यात्व के निरसन से होता है । मिथ्यामार्ग को छोड़कर सन्मार्ग का अवलम्बन पुरुष कर सकता है क्योंकि उसके पास बुद्धि एवं विवेक होता है । आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धि का उपाय इस रूप में बताया है-
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्बग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलन सु एव पुरुषाथसिद्धघुपायो5यम् । ।वही-15
अर्थात् विपरीत श्रद्धान को दूरकर अपने स्वरूप को अच्छी तरह समझकर जो उस निज स्वरूप से चलायमान नहीं होना है; वह ही पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि का उपाय है । पं. टोडरमल जी ने संसाररूपी वृक्ष का मूल मिथ्यात्व मानकर उसका निर्मूलन करने की प्रेरणा दी है
इस भवतरु का मूल इक, जानहु मिथ्याभाव । ताको करि निर्मूल अब, ये ही मोक्ष उपाव । ।
मिथ्यात्व का भंजन होने पर रत्नत्रय-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । अत: ‘रत्नत्रय’ की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना पुरुष का कर्तव्य है । आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि –
एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेच्चो यथाशक्ति । ।
तत्रादौ सम्बज्जं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च । ।वही20-21
अर्थात् इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्बक्चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग सदा उस उपदेश ग्रहण करने वाले पात्र को भी अपनी शक्ति के अनुसार सेवन करने योग्य होता है । उन तीनों में पहले सम्पूर्ण प्रयत्नों से सम्यग्दर्शन भले प्रकार प्राप्त करना चाहिये क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्बक्चारित्र होता है । इस तरह पुरुषार्थसिद्धधुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र देव ने पुरुष (आत्मा) के उत्थान हेतु, उसे कर्मरज से रहित बनाने के लिये पुरुषार्थ की सम्यक् संसिद्धि की है । मनुष्य गति में आकर जो व्यक्ति इन पुरुषार्थो को करता हुआ धर्ममय जीवन जीता है, वह अंत में मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त करता है और संसार में रहते हुए भी अर्थ एवं काम पुरुषार्थ को प्राप्त होता है । अत: मानव जीवन में पुरुषार्थ चतुष्टय का होना आवश्यक है ।