आचार्य अमृतचन्द्र—जैन वाङ्मय में प्रखर भास्वर के समान दसवीं शताब्दी के ऐसे महान आचार्य हैं, जिनका नाम आ. कुन्दकुन्ददेव, उमास्वामी और समन्तभद्र के पश्चात् बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ‘‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’’ इनकी मौलिक रचना है, जिसे श्रावकों की ‘‘आचार—संहिता’’ कह सकते हैं। इस ग्रंथ में पुरुष के अर्थ की सिद्धि के उपाय को बताया गया है। पुरुष नाम है आत्मा का, जो चेतन स्वरूप है, स्पर्श रस गंध वर्ण से रहित अर्मूितक है। पुरुष पुर यानी उत्तम चैतन्य गुण उनमें जो + शेते यानी स्वामी होकर रहे, आनन्द लेवे, उसका नाम पुरुष है। दूसरे शब्दों में—ज्ञान दर्शन चेतना के स्वामी का नाम पुरुष है। चेतना—आत्मा का असाधारण लक्षण है, जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव इन तीन दोषों से रहित है। परिणामों की अपेक्षा चेतना तीन प्रकार की होती है— १. ज्ञान—चेतना, २. कर्म—चेतना, ३. कर्म—फल—चेतना। जब चेतना, शुद्ध ज्ञान स्वभाव रूप परिणमन करती है, तो ज्ञान—चेतना और जब यह सुख—दु:ख आदि भोगने रूप परिणामों को करती है तो कर्म—फल चेतना कहलाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि चैतन्य पुरुष के अशुद्धता कैसे और क्योंकर हो गई ? जिसके कारण इसको अपने अर्थ की सिद्धि करने की आवश्यकता पड़ी। समाधान है—इस आत्मा की अनादिकाल से ही रागादि परिणामों में परिणमन करने के कारण अशुद्ध दशा हो रही है। द्रव्य कर्म से रागादिभाव होते हैं और रागादि भावों से फिर नवीन द्रव्य कर्मो का बंध होता है—आचार्यश्री कहते हैं—
जीवकृतं परिणामं निमित्त मात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्रपुद्गला: कर्म—भावेन।।१२।।
जिस समय जीव, राग—द्वेष—मोह भाव रूप परिणमन करता है, उस समय उन भावों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य आप ही कर्म अवस्था को धारण कर लेते हैं यदि आत्मा धर्म—पूजन—अहिंसा आदि प्रशस्त रागादि परिणमन करता है तो शुभबंध होता है और यदि अप्रशस्त मोहादि करता है तो पाप बंध होता है। जिस प्रकार लाखों वर्षों तक भूगर्भ में दबा काला कोयला—कार्बन तत्त्व, अपनी कालिमा को दूर कर चमकता हुआ हीरा बन जाता है और फिर विशेष यंत्रों से घर्षण और मार्जन से उसकी अलौकिक आभा, कान्ति व पारर्दिशता आ जाती है। इसी प्रकार यह जीवात्मा अनादिकाल से निगोद में दवा पड़ा रहता है, वहाँ से निकलने पर एकेन्द्रियादि पर्यायों में इसका चैतन्य गुण प्रकाशित नहीं हो पाता। मनुष्य भाव पाकर, सद्गुरू से संसर्ग व सम्यक्चारित्र की रगड़ से इसका अनन्त ज्ञानादि स्व—चतुष्ट्य प्रकाश में आता है और तप आदि से कर्मों की कालिमा दूर होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है।
पुरुष (आत्मा) का अर्थ यानी प्रयोजन उस सर्वोच्च सिद्ध पद पाना है जहाँ शाश्वत—शान्ति है। आत्मा को वह पद किस उपाय से मिल सकता है, इस ग्रंथ में बताया है। पुरुषार्थ—चार बताये गये हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रारंभ के तीन पुरुषार्थ तो इस लोक के गृहस्थों (श्रावकों) के लिए बताये गये हैं। चौथा पुरुषार्थ संसार के दु:खों से सदा के लिए छूटने के लिए—मोक्ष पुरुषार्थ है। संसार के दु:खों से घूटने का उद्यम ही सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय—पूर्ण रत्नत्रय है जिसका उपदेश इस ग्रंथ में श्रावकों के लिए किया गया है। प्रत्येक प्राणी सुख—शान्ति चाहता है, परन्तु इसको पाने का उपाय भूले हुए हैं। आचार्य अमृतचन्द्र देव, जीवों को उस रत्नत्रय—धर्म का उपदेश कराना चाहते हैं। रत्नत्रय है—सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। यही आचार्य का अभिधेय है। यह रत्नत्रय धर्म—निश्चय व व्यवहार रूप नयाश्रित है। व्यवहार नय से धर्म—सम्यक्दर्शनज्ञान—चारित्र रूप तीन तरह का है, परन्तु निश्चय नय से धर्म वीतरागता रूप ही है। एक श्रावक अपनी योग्यता व क्षमता पूर्वक उक्त चारों पुरुषार्थों को साधता है। वह न्यायोचित ढंग से अर्थ का उपार्जन करता है। स्वदार संतोष व्रत को पालता हुआ, स्वपरिणीता के साथ संतान प्राप्ति के लिए कामेच्छा करता है अत: वह भी पुरूषार्थ में लिए गया है, क्योंकि उससे श्रावक—कुल परम्परा बनी रहती है। प्रमादवश यदि श्रावकोचित पथ से भटकता है, तो सम्यक्दर्शन के सहारे पुन: मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर अभ्यास को दुहराता है।
इसलिए नमस्कार किया कि वह जैनागम का प्राण है। अनेकान्त का वैशिष्टय है कि—‘‘यदि दृष्टि में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और आचरण में अिंहसा हो तो—लौकिक और विश्व के विवादों का शांतिपूर्ण ढंग से हल निकाला जा सकता है। ये ३ सूत्र पुरुषार्थसिद्धि के भी सशक्त साधन का उपाय हैं। बिना अनेकान्त दृष्टि के ज्ञान—अधूरा होता है। अनेकान्त में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का एक सार्थक समन्वय है। यदि लोक में जीना है तो लोक—व्यवहार बनाकर चलो। यदि लोकोन्तर होना चाहते हो तो शुद्ध सम्यक्दृष्टि बनकर लोक व्यवहार से ऊपर उठकर आत्मा की निश्चय दृष्टि अपनानी होगी। उक्त पुरुषार्थें से ‘मोक्ष—पुरुषार्थ’, जीव का अन्तिम व अभीष्ट लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से ही ग्रंथ में पुरुषार्थसिद्धि के उपायों का विवेचन है। जिसे प्रमुख पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है। (१) सम्यक्त्व—विवेचन (२) सम्यग्ज्ञान—व्याख्यान (३) सम्यक्—चारित्र व्याख्या (४) सल्लेखना व समाधिमरण तथा (५) सकल चारित्र व्याख्यान।
पहले मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिए और वह यदि मुनिधर्म ग्रहण करने के योग्य सामथ्र्य न रखता हो तो बाद में श्रावकधर्म का उपदेश देवें। मूल लक्ष्य श्रमण धर्म का पालन करते हुए मोक्षमार्गी बनाना है, जहाँ सकल चारित्र का पालन किया जाता है। वस्तुत: उपदेश तो महाव्रत धारण करने का दिया जाता है परन्तु जीव के कल्याण हेतु क्रमिक देशना का व्याख्यान कर श्रावक धर्म का उपदेश आचार्य ने किया। श्रावक धर्म का व्याख्यान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं—
एवं सम्यग्दर्शन बोध चारित्रत्रयात्मको नित्यम्। तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति:।।२०।।
मुनिराज तो मोक्षमार्ग का सेवन पूर्णरूप से करते ही हैं, किन्तु गृहस्थ को भी यथाशक्ति सम्यक्—दर्शन, सम्यक्—ज्ञान और सम्यक्—चारित्र की एकता जो मोक्षमार्ग है, का पालन करना चाहिए। अब यहाँ तीनों का स्वरूप संक्षेप में बताया जा रहा है।
इस जीव का परमहितकारी उपाय सम्यक्दर्शन है। अनादिकाल से भूले—गुमराह हुए शिष्य का पहला कत्र्तव्य मूलभूल मिथ्यात्व को हटाना है। अत: आचार्य सम्यक्त्व का विवेचन करते हुए कहते हैं कि संसार में भूल का मूल कारण—विपरीत बुद्धि का होना है और उसको हटाने का मुख्य उपाय—सम्यक्दर्शन हैं।विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम्। यत्तस्माद विचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम्।।१५।। पुरुषार्थ
विपरीताभिनिवेश हटाकर, सम्यक् निश्चय करता है,
और उसी में लीन होयकर, सम्यक्चारित धरता है।
वह ही एक उपाय जीव का, पुरुषारथ की सिद्धि का,
मोक्ष दशा का बीज वही है, संसारी जड़ कटने का।।
मेरा आत्मा पर से भिन्न है—ऐसा निश्चय कर जानना ‘सम्यक्ज्ञान’ है। तथा आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर व श्रद्धान कर उसमें स्थिर होना, लीन होना या तन्मय होना निश्चय से चारित्र है। आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम में चारित्र का लक्षण निरूपित करते हुए लिखा है—‘‘पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्—अर्थात् पाप क्रियाओं का छूटना ही चारित्र है। यहो पाप से तात्पर्य—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद व कषाय—ये चार पाप क्रियायें हैं इनके द्वारा ही घातिया कर्मो का आस्रव व बंध होता है।
सम्यक्दर्शन प्राप्त करने के बाद आत्म कल्याण के इच्छुक, आगम, अनुमान एवं प्रत्यक्ष, इन तीन प्रमाणों के द्वारा सम्यक्ज्ञान की पुरुषार्थ के साथ आराधना करना चाहिए। बिना सम्यक्ज्ञान के आत्म कल्याण की सिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक्ज्ञानी शुभोपयोग की भूमिका में रहते हुए, यही लक्ष्य रखता है कि जब तक शुद्धोपयोग प्राप्त नहीं होता, इसका आलम्बन लें। ‘
सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाने से चारित्र रूपी बीज की भूमिका तैयार हो पाती है, जिस बीज का फल, मोक्ष रूप कल्पवृक्ष का उत्पन्न हो जाना है। सम्यक्चारित्र की भूमिका में मुमुक्षु सम्पूर्ण कषायों से रहित, निर्मल परिणामी होता है। आचार्य श्री कहते हैं—
चारित्रं भवति यत: समस्त सावद्य योग परिहरणात्।
सकल कषाय विमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्।।३९।।
मोह कर्म से रहित योग जब, पाप रहित हो जाते हैं।
अरु कषाय के नष्ट हुए से, निर्मलता पा जाते हैं।।
स्थिरता आ जाती है तब, नाम उसी का है ‘चारित’।
वह है आत्म रूप का दर्शन, उदासीनता अवतारित।।
इस सम्यक्चारित्र को पाने के लिए श्रावक १२ व्रतों का पालन, ग्यारह प्रतिमाओं के माध्यम से करता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक के १२ व्रत बताये हैं।गृहीणा त्रेधा त्रिष्ठत्यणु—गुण—शिक्षा वृतात्मकं चरणं। पंच त्रि चतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यामाख्यातम्।।५१—रत्न.।। वे बारह व्रत—तीन प्रकार के चारित्र के रूप में उपदिष्ट हैं—पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। वे १२ व्रत इस प्रकार हैं—५ अणुव्रत हैं—अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण व्रत, ३ गुणव्रत हैं—दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ४ शिक्षाव्रत हैं—सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाणव्रत, अतिथिसंविभाग व्रत ये ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत सप्तशील के नाम से भी जाने जाते हैं। उक्त १२ व्रतों को धारण करता हुआ ग्यारहवीं प्रतिमा में वह उत्कृष्ट श्रावक का दर्जा प्राप्त कर लेता है जो श्रमण (साधु) बनने की पूर्व तैयारी है अर्थात् वह पांचवें गुणस्थान से छटवें—सातवें गुणस्थान में पहुँचने का पुरुषार्थ करता है।
मरण का काल निकट होने पर श्रावक शान्तभाव से अपने शरीर का त्याग करे, इसीलिये आहार और कषाय के त्याग रूप सल्लेखना की भावना करनी योग्य है। सम्यक् प्रकार से काय व कषाय के क्षीण करने को सल्लेखना कहते हैं।मरणेऽवश्यंभाविनि कषाय सल्लेखना तनूकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्मि।।१७७-पुरुषा. इससे अहिंसा व्रत का पालन भी हो जाता है। सल्लेखना करने में आत्मघात का दोष नहीं लगता है। धर्मात्मा श्रावक—पुरुष को जब शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न हो जाती है, तो उसे दूर करने के लिए औषधादिक का सेवन करता है। परन्तु यदि रोग असाध्य हो, बचना सम्भव नहीं हो तो, तो सल्लेखना धारण कर धर्म की रक्षा करता है।
पंचम गुणस्थान से ऊपर जाने का होता है। वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव करके, प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रमश: अभाव करता हुआ ग्यारह प्रतिमाओं के एकदेश चारित्र का पालन करता है और आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाता जाता है। जब वह प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव कर लेता है, तब मुनिपद को ग्रहण करने की शक्ति या योग्यता आ जाती है और उसका पुरुषार्थ एकदेश—चारित्र से सकल चारित्र के पालन में लग जाता है। सकल चारित्र में बारह प्रकार के तप (छह आभ्यन्तर तप व छह बाह्य तप) षट्आवश्यक, पाँच समिति, तीन गुप्ति और दस धर्म का पालन करते हुए श्रमणाचार्य बनता है तथा निरन्तर २२ परीषहों को समतापूर्वक सहता हुआ बारह भावनाओं का चिन्तवन करता रहता है।
मोक्ष के अभिलाषी श्रावकों का कत्र्तव्य है कि वे मोक्ष का उपाय अपनावें तभी उसकी प्राप्ति हो सकती है। ऐसी स्थिति में पहले अपूर्ण या विकल रत्नत्रय ही सही, उसे प्राप्त करें, धारण करें। पश्चात् वह समग्रता को प्राप्त होता है।
इति रत्नत्रयमेतत प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन।
परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिताा।।२०९।।
जो श्रावक यह चाह करत है, मुक्ति मुझे प्राप्त होवै।
उसका यह कर्तव्य कहा है, रत्नत्रय को वह सैवे।।
चाहे वह अपूर्ण ही होवे, तो भी धारण है करना।
क्रम—क्रम से पूरण होता है, मुक्ति रमा अन्तिम वरना।।