देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने—दिने।।
पद्मनन्दि पंचिंवशतिका, ४०३
गृहस्थ को अपने जीवन में देवपूजा, गुरु उपसना, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप और दान—इन छह कत्र्तव्यों का पालन प्रतिदिन करना चाहिए। इन छह कत्र्तव्यों में प्रथम देवपूजा को स्थान दिया जाता है क्योंकि देवपूजा के साथ बाकी के पाँच कर्तव्य भी कड़ी की भाँति जुड़े हुए हैं। ये देवपूजा आदि आराधना/भक्ति के ही अंग हैं। परमात्मा का पूजन, गुरु की उपासना, शास्त्र—अध्ययन, संयम तप और दान—इन छह कर्तव्यों के पालन से मानव का हृदय, वचन, और काय शुद्ध हो जाता है। इन तीन योगों की शुद्धि होने से संपूर्ण मानव जीवन पवित्र हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन पावन होने से क्रमश: पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन पवित्र हो जाता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन शुद्ध, पवित्र होने से क्रमश: पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन पवित्र हो जाता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन शुद्ध, पवित्र होने से राष्ट्र की मानसिकता/विचारधारा कल्याणकारी हो। लौकिक कल्याण होने पर परंपरा से आध्यात्मिक कल्याण भी संभव है। अत: आध्यात्मिक सुख—अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हेतु देवपूजा या भक्ति आवश्यक है।आप्तेनोत्सन्नदोषण, सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।५।।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक ५, आचार्य समन्तभद्र स्वामी। नियमपूर्वक आप्त (देव) को दोष रहित—वीतराग, सर्वचराचर जगत् को जानने वाला सर्वज्ञ और वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक आगम का स्वामी—मोक्षमार्ग का प्रणेता—हितोपदेशी होना चाहिए; क्योंकि अन्य प्रकार से आप्तपना नहीं हो सकता अर्थात् जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी नहीं है, वह पुरुष कभी सच्चा या पूज्यदेव नहीं हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘बोधपाहुड’ में सच्चे देव के बारे में लिखा है—लोका—लोका—लोकित, करते पूर्ण ज्ञान से सहित रहें, विरागता से भारित रहे हैं दोष अठारह रहित रहें। जगहित के उपदेशक ये ही नियम रूप से आप्त रहें, यही आप्तता नहीं अन्यथा, जिन—पद में मम माथ रहे।रमण मंजूषा आचार्य विद्यासागर पद्यानुवाद छन्द संख्या ५
शिरोमणि ज्ञानमती माताजी ने महामंत्र—णमोकार पूजन में पूज्य देव के स्वरूप का वर्णन किया है—छयालिस सुगुण को धरैं अरिहंत जिनेशा, सर्व दोष अठारह से रहित त्रिजग हमेशा।
ये घातिया को घात के परमात्मा हुए। सर्वज्ञ, वीतराग और निर्दोष गुरु हुए।।
णमोकार मंत्र पूजन र्आियका ज्ञानमती माताजी
स्वामी र्काितकेय के अनुसार ‘‘जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञदेव ही आराधना के योग्य है’’ जो परमसुख (मोक्ष) में क्रीड़ा करते हैं, या कर्मों को जीतने की इच्छा करते हैं, जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेल से दैदीप्यमान है जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, जो लोक–अलोक को जानता है, जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है, ऐसे विशेषणों (गुणों) से युक्त आचार्य, उपाध्याय, और साधु ही सच्चे देव हो सकते हैं।’’ रागादि का सद्भाव रूप दोष, प्रसिद्ध ज्ञानावरणादि कर्म—इन दोनों का जिसमें सर्वथा अभाव पाया जाता है वह देव ही पूज्य है। ऐसे सच्चे देव केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनंतवीर्य (शक्ति) के स्वामी होने से पूज्य हैं।क्षुत्पिपासा—जरातंक—जन्मान्तमक—भयस्मय:।
न रागद्वेष मोहाश्च, यस्याप्त: स: प्रकीत्र्यते।।६।।
र. क. कारिका—६
जिस आत्मा ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्म—दोष का नाश कर क्रमश: केवलज्ञान, केवलदर्शन, अक्षय—अनंत—सुख और अक्षय अनन्तशक्ति—बल के स्वामी हो गये हैं। वे ही सर्वज्ञ कहलाने योग्य हैं। ऐसे सर्वज्ञदेव को आप्त, परमेष्ठी, परमज्योति, केवलज्ञानी, विरागी, वीतरागी, विमल, कृतकृत्य आदि मध्य, अन्त में रहित, सर्वहित कत्र्ता, शास्त्र—हितोपदेशक, अर्हंत, जिन, जिनेन्द्र, जीवन्मुक्त, सकल परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है। सच्चे देव की तीसरी पहचान यह है कि—वह हितोपदेशी होता है। वह हितोपदेशी जीवन्मुक्त परमात्मा होता है, केवलज्ञान यानी संपूर्ण ज्ञान का धारी—स्वामी होता है, कर्मरूपी मल/दोष से रहित होता है, कृतकृत्य या सिद्ध साध्य प्राप्त होता है, अनंत चतुष्टय का भण्डार होता है, विश्व के प्राणियों का कल्याण करने वाला होता है। रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का भव्य जीवों के लिए बिना किसी इच्छा से कल्याण का उपदेश देने वाले परमात्मा हितोपदेशी कहलाते हैं। ऐसे हितोपदेशी भगवान रागद्वेष आदि के बिना अपना प्रयोजन न होने पर भी समीचीन—भव्यजीवों को हित का उपदेश देते हैं क्योंकि बजाने वाले—शिल्पि के हाथ के स्पर्श से ध्वनि—शब्द करता हुआ मृदंग क्या अपेक्षा रखता है? अर्थात् नहीं।सूक्ष्मान्तरित दूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद् यथा।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति:।।५।।
सूक्ष्म पदार्थ—परमाणु आदि, अन्तरित पदार्थ—काल के अन्त से सहित राम, आदि महापुरुष, दूरवर्ती पदार्थ—मेरु, हिमवन पर्वत आदि, किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं। क्योंकि वे पदार्थ हमारे अनुमेय होते हैं। जो पदार्थ अनुमेय होता है वह किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे हम पर्वत में अग्नि को अनुमान से जानते हैं, किन्तु पर्वत पर स्थित पुरुष उसे प्रत्यक्ष से जानता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो पदार्थ किसी के अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते हैं। अत: हम लोग सूक्ष्म, अन्तरित और दूवर्ती पदार्थों को अनुमान से जानते हैं अत: उनको प्रत्यक्ष से जानने वाला भी कोई अवश्य होना चाहिए और जो पुरुष उनको प्रत्यक्ष से जानता है वही सर्वज्ञ है। इस प्रकार ‘सूक्ष्मान्तरित दूरार्था: कस्यचित् , प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् , इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। लेकिन वह सर्वज्ञ अर्हन्त देव ही है इसकी सिद्धि के लिए आचार्य लिखते हैं—स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्राविरोधिकवाक्।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।।६।।
हे भगवान् ! पहिले जिसे सामान्य से वीतराग तथा सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है, वह आप अर्हन्त ही हैं। आपके निर्दोष वीतराग होने में प्रमाण यह है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। आपके इष्ट तत्त्व मोक्षादि में किसी प्रमाण से बाधा नहीं आने के कारण यह निश्चित है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। अर्हंत ने जिन मोक्ष आदि तत्त्वों का उपदेश दिया है उनमें किसी प्रमाण से विरोध न आने के कारण अर्हन्त के वचन युक्ति और आगम से अविरोधी सिद्ध होते हैं और अविरोधी वचन अर्हन्त की निर्दोषता को घोषित करते हैं। इसलिए स्वभाव, देश और काल विप्रकृष्ट परमाणु आदि पदार्थों को जानने वाले अर्हंत ही हैं। अर्हंत के अतिरिक्त अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि अन्य सब सदोष हैं। सदोष होने का कारण यह है कि उनके वचन युक्ति और आगम से विरु हैं। जिन्होंने जिन तत्त्वों का उपदेश दिया है वह प्रमाण से बाधित है।आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घय—मदृष्टेविरोधकं।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट टनं।।९।।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार गाथा ९ (आ. समन्तभद्र स्वामी)
अर्थात् जो वीतरागी—आप्त द्वारा कहा जाता है, इन्द्रादिक देवों के द्वारा अनुलंघनीय है अर्थात् ग्रहण करने योग्य है अथवा अन्य वादियों के द्वारा अखण्डनीय है, प्रत्यक्ष—परोक्ष आदि प्रमाणों से जो आधिक नहीं है, जो वस्तु स्वरूप प्रतिपादक है, जो सबका हितकारक है और मिथ्यात्व को नष्ट करने वाला है, वही सच्चा शास्त्र कहलाता है। इस स्वरूप का समर्थन करते हुए आचार्य विद्यासागर जी महाराज ‘रयणमंजूषा’ में लिखते हैं—सो स्याद्वाद—सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सु अंग। रवि शशि न हरै सो तम हराय सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय।देव, शास्त्र, गुरु (समुच्चय) पूजा, द्यानतराय कविवर
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपिपुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।४३।।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४३ (आ. समन्तभद्र स्वामी)
यह प्रथमानुयोग तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवन आदर्शों के साथ पुण्य—पाप के फल का दिग्दर्शन कराता है। इसके अध्ययन से व्यक्ति के शुभ अशुभ परिणामों के अनुसार उसके उत्थान और पतन की भी स्पष्ट झलक होती है। यह कथा—उपकथा के माध्यम से गूढ़ तत्त्वों का अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से बोध कराता है। प्राथमिक जन भी इससे तत्त्वबोध सरलता से ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए यह प्रथमानुयोग कहलाता है। देवशास्त्र गुरु की पूजा, भक्ति, उपासना से पुण्यानुबन्धी पुण्य कमाकर सद्गति का भागीदार बनाना इस अनुयोग का कार्य है। सत्पात्रों को दान देना, चैत्य—चैत्यालयों का निर्माण करना आदि, व्रत संयम नियमों को पालन करना, स्वाध्याय, तप धारण करना आदि शुभ कार्यो में उपयोग लगाने आदि का अनुयोग देता है। जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म में दृढ़ श्रद्धान करना, उनके द्वारा बताये गये सप्त तत्त्वों एवं नव पदार्थों को ज्ञानकर उनमें प्रगाढ़ विश्वास रखना आदि का ज्ञान प्रथमानुयोग के अध्ययन से प्राप्त होता है। यह अनुयोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चार पुरुषार्थों का स्वरूप ज्ञान बतलाने वाला अनुयोग ग्रंथ है।लोकालोकविभक्तेर्युगनरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।
आदर्शमिव तथामति रवैति करणानुयोगं च।।
. रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४४ (आ. समन्तभद्र स्वामी)
प्रथमानुयोग की तरह मनन रूप श्रुतज्ञान, लोक—अलोक के विभाग को युगों के परिवर्तन और चारों गतियों के लिए आदर्श दर्पण के समान करणानुयोग जानता है। गणितसार, पण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीप—पण्णत्ति आदि करणानुयोग के प्रमुख ग्रंथ है।गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धि रक्षांगम्।
चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४५ (आ. समन्तभद्र स्वामी)
गृहस्थों और साधुओं के चरित्र के उद्भव, उसके विकास और उसकी रक्षा के अंग स्वरूप/कारणभूत अथवा इन तीन अंगों को लिए हुए जो शास्त्र आत्मानुसंधान की दिशा में प्रवृत्त है उसे चरणानुयोग कहते हैं। मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार धर्मामृत, सागार—धर्मामृत, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि चरणानुयोग के ग्रंथ हैं। ४. द्रव्यानुयोग—जिस शास्त्र में जीव, अजीव, पुण्य—पाप, बंध—मोक्ष, आत्मा आदि विश्व के सभी तत्त्वों का कथन हो वह शास्त्र द्रव्यानुयोग कहलाता है। द्रव्य का निरूपक—द्रव्यानुयोग में प्रमाण, नय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, आदि विषयों का प्रतिपादन किया जाता है। यह अनुयोग आत्मा की बंध और मुक्त अवस्था का सम्यक् अवबोध कराता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार—