जैन परम्परा में श्रावक और श्रमण ये शब्द संज्ञाएँ तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत धर्म का आचरण करने के कारण सार्थक हैं। दान एवं पूजा श्रावकधर्म हैं और ध्यान तथा अध्ययन श्रमण धर्म हैं। षडावश्यकों में भी श्रावकों के लिए पूजन आवश्यक मानी गई है। आचार्य वीरसेन के अनुसार दान, पूजा, शील और उपवास श्रावकधर्म माने गये हैं।
आचार्यों ने लिखा है कि जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान् का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, उनका जीवन निष्फल है।पद्मनन्दि पञ्चविशंतिका, ६.१५—१६ आचार्य समन्तभद्र ने बताया है कि इच्छित फल प्रदान करने वाले तथा काम बाण को ध्वस्त करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पूजन करना समस्त दु:खों का नाश करने वाला है।रत्नकरण्डश्रावकाचार, ११९ द्रव्य पूजा और भावपूजा ये दो पूजा के प्रकार हैं। द्रव्यपूजा भावपूर्वक ही फल प्रदान करती है। पूजा की मंत्रों के साथ अन्वय व्याप्ति है। जहाँ—जहाँ पूजा होगी, वहां वहां मंत्र अवश्य होंगे। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि मंत्र जहाँ हों, वहाँ पूजा भी अवश्य हो। बिना द्रव्य के भी पूजन हो सकती है, परन्तु मंत्रों के बिना पूजा संभव नहीं है। द्रव्य पूजा में जो भी द्रव्य अर्पण किया जाता है, वह भी मंत्रित होता है, अकेला द्रव्य अर्पण पूजा नहीं कहला सकता। अन्यथा दुकानदार मंदिर में िंक्वटलों द्रव्य पहुँचाता है, जिससे पूजा का सभी फल उसी के खाते में चला जाये, परन्तु ऐसा नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जब भावपूर्वक मंत्राश्रित पूजा होगी तब उसका फल भी अवश्य प्राप्त होगा। यह संभव है कि परिस्थिति भिन्नता के कारण पूजकों के फल प्राप्ति में भिन्नता हो सकती है तथा भावों की स्थिति के अनुसार फल भी तात्कालिक अथवा कालान्तरभावी हो सकता है। यह निश्चित है कि पूजा का फल प्राप्त अवश्य होगा। पूजा में प्रयुक्त मंत्रों में अक्षर—शब्दात्मक मंत्रों को चित्रित किया जाता है, जिसके कारण ही वे मंत्र कहलाते हैं। मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों ही पौद्गालिक हैं, परन्तु वे चेतन के भावों के सहकार से कार्यकारी बनते हैं। यहाँ यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि पूजा में पंचपरमेष्ठी का आश्रय लेकर ही सामान्य मंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिसका परम लक्ष्य उन जैसे बनने के लिए मोक्षमार्ग ही होता है। पूजा में प्रयुक्त होने वाले अन्य विशेष मंत्र मोक्षमार्ग प्राप्त कराने वाले मंत्रों के सहयोगी मात्र हैं। भाव सहित मंत्रों से युक्त पूजा से पूजक की असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती रहती है। याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये पूजा के पर्याय हैं।
महापुराण, ६७, १९३ पूजा चार प्रकर की मानी गयी है—सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख, (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और आष्टाह्निक। इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी हैं, जिसे इन्द्र किया करता है।वही, ३८.२६ एवं सागारधर्मामृत, १.१८, २.२५ —२९ आदि निक्षेपों की अपेक्षा भी पूजा के चार भेद किये गये हैं।वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८१ समाधिशतक में निश्चय पूजा का भी उल्लेख किया गया है। स. श. ३१ वैदिक परंपरा में नित्य, नैमित्तिक और काम्य के रूप में तीन प्रकार की पूजाओं के उल्लेख हैं।वेदान्तसार, पृष्ठ ४ मंत्रों से युक्त सभी पूजाएं अभिषेक—प्रक्षाल, आह्वान, स्थापन और सन्निधिकरण पूर्वक अष्ट द्रव्यों—जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल से भाव सहित करने पर असीम फल को प्रदान करती हैं। मंत्रों के बिना पूजन के लिए एक कदम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है। अभिषेक के पूर्व की जाने वाली जलशुद्धि, अमृत स्नान, दिग्बन्धन, परिणामशुद्धि, तिलक, रक्षा बन्धन, यज्ञोपवीत, रक्षा, शान्ति, दीप स्थापन, सिद्धयंत्र स्थापन आदि समस्त क्रियाएँ मंत्रोच्चारणपूर्वक ही पूर्ण होती हैं। अभिषेक में प्रत्येक कलश की जलधारा मंत्रपूर्वक छोड़ी जाने पर फलवती होती है। शान्तिधारा में लौकिक एवं पारलौकिक समस्त दु:खों के निवारणार्थ तथा विश्व, देश, समाज और समस्त प्राणियों के कल्याणार्थ मंत्रों के माध्यम से भावनाएँ सम्प्रेषित की जाती हैं। पूजा का प्रारंभ महामंत्र ‘नवकार’ से होता है। जितने भी मंत्र हैं, सभी मंत्र णमोकार मंत्र से निकले हैं। द्वादशांग जिनवाणी का सार भी यही है। समस्त श्रुतज्ञान की अक्षरसंख्या इसमें निहित है। जैनदर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप, आश्रव, बन्ध आदि इस मंत्र में विद्यमान हैं। समस्त मंत्रों की मूलभूत मातृकाएं इस महामंत्र में अन्तर्निहित हैं।
डॉ. ने. च. शास्त्री, मंगलमंत्र णमोकार एक अनुिंचतन आमुख, पृष्ठ १० ‘अ’ से ‘क्ष’ पर्यन्त मातृका वर्ण कहे जाते हैं।अकारादिाक्षकारान्ता वर्णा: प्रोक्तास्तु मातृका:।
सृष्टि न्यासस्थितिन्याससंहतिन्यासमास्त्रिधा। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ, ३७६ इनका सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम रूप से तीन प्रकार का क्रम है। संहारक्रम से कर्म विनाश तथा सृष्टि और स्थिति क्रम से आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति में निमित्त हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। ‘क’ से ‘ह’ तक व्यंजन वर्ण बीज कहलाते हैं। और अ, आ, इ आदि स्वर शक्ति स्वरूप माने गये हैं।हलो बीजानि चोक्तानि स्वरा: शक्त्य: इंरिता:। —वही, ३७७ जिन मंत्रों में बीज और शक्ति के संयोग रूप जो वर्ण होते हैं। उनमें उन वर्णों की ध्वनियों की शक्ति के अनुसार शक्ति होती है। प्राच्य और पाश्चात्य सभी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि श्रद्धा और विश्वासपूर्वक मंत्रोच्चार अवश्य ही फल प्रदान करते हैं।डॉ. ने. च. शास्त्री, मं. ण. एक अनुिंचतन, प्रस्तावना, पृष्ठ १८ वस्तुत: विश्वास आध्यात्मिक जीवन का आधार है। विश्वास के बिना अनन्तपथ सिद्धत्व की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। श्रद्धा से सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है। ज्ञान का द्वार श्रद्धा से ही खुलता है। श्रद्धा और विश्वास परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। मंत्रों के मूल में भी श्रद्धा और विश्वास प्रमुख हैं। इनके होने पर ही ध्यान की स्थिति बन सकती है और मंत्रों से फल की प्राप्ति हो सकती है। पं. दौलतराम जी ने मोक्षमहल पर चढ़ने के लिए श्रद्धा को प्रथम सीढ़ी कहा है।छहढाला, ढाल, ३/१७ जब तक मुक्ति के समीप नहीं पहुँच जाते तब तक वीतरागी देवों के मंत्रों का श्रद्धा से स्मरण करना आवश्यक है क्योंकि उन्हीं मंत्रों के िंचतन और मनन से कर्मों का नाश संभव है। सभी मंत्रों में णमोकार मंत्र अनादि है। इसी मंत्र से सभी मंत्र प्रसूत हैं। पूजा के प्रारंभ में न केवल णमोकार मंत्र की आराधना की जाती है, बल्कि अनिवार्य रूप से पूजा के आवश्यक अंग के रूप में उसका गुणगान, महत्त्व एवं उपयोगिता निम्न प्रकार से बतायी जाती है—‘जो मनुष्य पवित्र या अपवित्र यहां तक कि सुस्थित या दुस्थित भी नमस्कार मंत्र का ध्यान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह अंतरंग और बहिरंग से पवित्र हो जाता है। नवकार मंत्र अजेय है, सभी विघ्नों तथा पापों का विनाश करने वाला है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है। ‘अर्हम्’ ये अक्षर परमब्रह्म, परमेष्ठी के वाचक हैं और सिद्ध समूह के बीजाक्षर हैं।ज्ञानपीठ—पूजाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवां संस्कारण १९९७, पृष्ठ २६ मंगल स्वस्ति वाचन के पश्चात् अष्टद्रव्य से पूजन की जाती है। जिसमें सर्वप्रथम मंत्रोच्चारण पूर्वक श्रावक पीले चावलों से ठौना पर वीतराग जिनिंबब के समक्ष जिनेन्द्र भगवान् का आह्वान किया जाता है और मन, वचन, काय की एकाग्रता के लिए उसी ठोने पर स्थापना करता है।
वैदिक परंपरा में इसे न्यास कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस तरह पूज्य पवित्र है, उसी तरह पवित्र होने की भावना उत्पन्न हो जाये, सन्निधिकरण में पूजक अपने भावों को जिनदेव की तरह बनाने का प्रयत्न करता है। तदनन्तर पूजक अष्टद्रव्यों के माध्यम से जन्म—जरा, मृत्यु, संसारताप, कामताप, क्षुधारोग, मोहान्धकार और अष्टकर्म के रूप में जो संसार में दु:ख के कारणभूत मोक्षमार्ग में बाधकतत्त्व हैं, उनके निवारणार्थ संगीतमय भक्ति के रस में तल्लीन होकर मंत्र पढ़ते हुए स्थापित जिनिंबब के समक्ष जल, चन्दन, अक्षत आदि द्रव्यों को चढ़ाता है। अन्त में फल चढ़ाकर मोक्षफल प्राप्ति की कामना करता है। इस तरह पूजन में मंत्रों की अपरिहार्य महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मंत्रों के विषय में अनेक भ्रांतियाँ श्रावकों में प्रचलित हैं। जिसके निराकरण के लिए मंत्र का अर्थ जानना नितांत आवश्यक है। ‘मंत्र शब्द ‘मन्’ धातु–दिवादि ज्ञान से निष्पन्न है। इसमें ‘ष्ट्रन्’—त्र—प्रत्यय संयुक्त कर बनाया जाता है। व्युत्पत्तिपरक इसका अर्थ होता है—‘मन्यते जायते आत्मादेशोऽनेन इति मंत्र:’ अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश—निजानुभाव जाना जाये, वह मंत्र है। दूसरी तरह से तनादिगणीय ‘मन्’ धातु से ‘तनादि अवबोधे’ में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय लगाकर मंत्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार ‘मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स: मंत्र:’ अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाये, वह मंत्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक ‘मन्’ धातु से ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति ‘मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थित: आत्मान: वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मंत्र:’ अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित पञ्च उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जाये, वह मंत्र हैं।. डॉ. ने च. शास्त्री, मं. ण. एक अनुिंचतन, आमुख, पृष्ठ ९ ’मननात् मंत्र:’ भी मंत्र शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है अर्थात् मनन के कारण ही मंत्र कहा जाता है। मनन से व्यक्ति की ऊर्जा की शक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ती है। मंत्रों के प्रभाव के लिए उनका प्रवाह साततिक होना आवश्यक है। ‘मंत्र’ शब्द का अर्थ कुछ विद्वान् गुप्त, परामर्श भी करते हैं। उनके अनुसार गुरु से प्राप्त मंत्र को अनुष्ठान पूर्वक सविधि पुरश्चरण करके उसे सिद्ध किया जाता है। तब ही उसका पूर्ण लाभ प्राप्त होता है। विधिपूर्वक श्रद्धाभक्ति से किये गये मंत्रजाप से जीव की प्रमुख चेतना जागृत होती है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि ‘जिस शब्द समूह का किसी अलौकिक सिद्धि के लिए प्रयोग किया जाये, वह शब्द या शब्दसमूह मंत्र होता है।
मंत्रों का वर्गीकरण
महापुराण के आधा पर ‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश’ में पूजाविधानादि के लिए सामान्य रूप से जिन मंत्रों का प्रयोग किया जाता है, उनको निम्नलिखितानुसार वर्गीकृत किया गया है— (१) भूमि शुद्धि विषयक मंत्र (२) विघ्न शान्ति (३) भूमि संस्कार (४) पीठिका मंत्र (५) काम्य मंत्र (६) जाति मंत्र (७) निस्तारक मंत्र (८) ऋषि मंत्र (९) सुरेन्द्र मंत्र (१०) परमराजादि मंत्र (११) परमेष्ठी मंत्र।
क्षुल्लक जैनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग—३, पृष्ठ २४६ गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए गर्भाधान क्रिया, प्रीति क्रिया, सुप्रीति क्रिया आदि सोलह विशेष मंत्रों का उल्लेख किया गया है। उससे आगे की क्रियाओं के मंत्र शास्त्र परम्परा से समझ लेने का निर्देश दिया गया है।१७ मातृकाओं से बने मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य के लिए विचार शक्ति के साथ—साथ उत्कृष्ट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि संचालन की आवश्यकता होती है। प्रत्येक बीजाक्षर, शक्ति बीज की शक्ति स्वतंत्र है, जैसे ऊँ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजो बीज हैं, क्ष्वीं भोग बीज है, रं ज्वलन वाचक है आदि। वांछित कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यकतानुसार जिन बीजाक्षरों के संयोजन की कला जिसके पास होती है वह वैसा मंत्र निर्माण करता है और साधक तदनुसार फल प्राप्त करता है। यदि इन बीजाक्षरों के संयोजन में विपरीतता आ जाये, संयोजन विकृत हो जायें, आंशिक संयोजन ठीक हो आदि के रूप में साधित मन्त्र विपरीत—विकृत या आंशिक या शून्य फल प्रदान करते हैं। जैसे—बिजली के तारों का धनात्मक एवं ऋणात्मक आवेशों में जुड़ना। यदि तार ठीक से जुड़े हैं, तब अंधकार दूर होकर प्रकाश हो जायेगा। गलत जुड़ने पर प्रकाश नहीं होगा, यह भी हो सकता है, आग लग जाये। इसी तरह साधक, उसकी विचार शक्ति, मंत्र और मंत्र की शक्ति अलग—अलग स्थितियाँ हैं। विचार शक्ति स्विच का कार्य करती है और मंत्र शक्ति विद्युत् प्रवाह का। जैन मंत्रों के इतिहास में मंत्रों की विपरीतता के पुष्पदंत, भूतबली आदि के अनेक उदाहरण दृष्टव्य हैं। उचित दिशा में संयोजित बीजाक्षरों—मंत्रों की साधना सुफल प्राप्त कराती है। जैसे—आचार्य समन्तभद्र, आचार्य मानतुंग, आचार्य अकलंक, भट्टारक प्रभाचन्द्र आदि की मंत्रों की शक्ति से कौन परिचित नहीं है। किसी का अनर्थ करने के लिए किया गया मंत्र प्रयोग एक बार सफल तो हो जाता है, परन्तु उसके बाद उस साधक की मंत्र शक्ति नष्ट हो जाती है एवं वह दुर्गति को प्राप्त होता है। जैसे—द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारका का दहन। अत: मातृका वर्णो के संयोजन—वियोजन से प्रसूत बीजमंत्रों की ध्वनियों के घर्षण से तदनुसार शक्ति प्रस्फुटित होती है। इस दृष्टि से सुख, शान्ति और अध्यात्म—शिवपथ की ओर ले जाने वाले मंत्रों के साथ—साथ शास्त्रों में ऐसे मंत्रों का भी उल्लेख है, जिनका संबंध लोक एवं भौतिकता से है। जैसे—स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन, वश्याकर्षण, जृम्भण, विद्वेषण, मारण, शाक्तिक, पौष्टिक आदि अनेक मंत्रों की रचनाएँ हुई हैं। मंत्रशास्त्र पर श्रमण परंपा मे अपेक्षित प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर विश्लेषण पूर्वक प्रामाणिक निष्कर्ष दिये जा सके। आगमिक साहित्य में दशवें पूर्व के रूप में विद्यानुवाद पूर्व ग्रंथ का उल्लेख प्राप्त होता है। जिसके ज्ञाता केवली और श्रुतकेवली ही माने जाते हैं। उस ग्रंथ में ७०० विद्याएँ और १२०० लघु विद्याओं का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु यह ग्रंथ अनुलब्ध है।
आचार्य धरसेन मंत्र, तंत्र के विशेष ज्ञाता माने जाते हैं। धवला टीका में उनके द्वारा मंत्रशास्त्र पर ‘योनिप्राभृत’ नामक ग्रंथ लिखे जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। वर्तमान में मंत्रशास्त्र पर विद्यानुवाद—विद्यानुशासन, मन्त्रानुशासन आदि ग्रंथ लिखे गये हैं। भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती कल्प, ज्वालिनी कल्प आदि अनेक कल्पग्रंथ भी रचे गये हैं जिनमें मंत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। भक्तामर स्तोत्र विषयक मंत्र, कल्याणमन्दिर स्तोत्र के मंत्र, पाश्र्वनाथ स्तोत्र के मंत्र, गणधरवलय, भूवलय, पुण्याहवाचन, सकलीकरण आदि और भी मंत्र विषयक साहित्य उपलब्ध होता है। पूजक की यह भावना होती है कि वह प्रभु को अपना यथेष्ट पदार्थ सर्मिपत कर लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, परन्तु समस्या यह है कि वह हो कैसे, किस माध्यम से यह कार्यकारी बने ? समीपस्थ उपलब्ध सभी माध्यमों में ध्वनि ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके स्पन्दन से उच्चारणकर्ता के भाव का तथा भावान्तर्गत क्रिया का परिवर्तन हो जाता है और उससे अलौकिक उपलब्धि के अवरोध दूर होते हैं, जिससे लक्ष्य सुगम होता जाता है। इसलिए पूजक को चाहिए कि वह पूजन को उस तरह हृदयंगम कर बोले कि मंत्रोच्चारण मंत्रध्वनिपूर्वक सर्मिपत की जाने वाली द्रव्य के पूर्व वह पात्रता को प्राप्त कर ले। अवगत हो कि द्रव्य और बोली जाने वाली पूजा मंत्र नहीं है अपितु मंत्र के प्रयोग के पूर्व की तैयारी है। सम्बन्धित मंत्र लक्ष्यभूत शक्ति से संपन्न मातृकाओं से संश्लिष्ट पिण्ड है, जिसकी ध्वनि के स्पन्दन के माध्यम से क्रियात्मकता उत्पन्न होती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूजा में मंत्रों की उसी तरह उपयोगिता है जिस तरह शरीर में आत्मा की। मंत्रों के बिना पूजा, पूजा नहीं कही जा सकती। मंत्रों से ही पूजा में दिव्यता प्रगट होती है। मंत्राश्रित पूजा के माध्यम से चैतन्य की ओर बढ़ा जा सकता है। पूजा में वीतरागी देवों के आश्रित मंत्रों की साधना से सभी लौकिक एवं पारलौकिक कार्यों की सिद्धि हो जाती है। पूजा में प्रयुक्त मंत्रों की शक्ति अचिन्त्य है। पूजा में हम भक्तिवश प्रवृत्तिपरक कुछ भी बोल लें, परन्तु मंत्रों के माध्यम से द्रव्य का समर्पण अलौकिक उपलब्धि के लिए ही होता है। शास्त्रों में लौकिक उपलब्धि के लिए मंत्रों का प्रयोग र्विजत माना गया है। पूजा बोलते हुए भक्त भटक न जाये इसलिए पूजा के मंत्र मुक्तिपथ की ओर बढ़ने के लिए उसमें संकल्पशक्ति को जागृत करते हैं। इस प्रकार पूजा में मंत्रों की अत्यधिक उपयोगिता है।
डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन
एसोसिएट प्रोफेसर संस्कृत घ्घ्—ए—७८, नेहरूनगर, गाजियाबाद (उ. प्र.)