जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वी एकेन्द्रिय जीव है और पृथ्वीकाय के नाम से जाना जाता है। जैन ग्रंथों में इसके लिए पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीजीव जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। यद्यपि ये सभी शब्द पृथ्वीजीव से ही संबंधित हैं परन्तु इनमें कुछ अंतर है, जिसे प्रस्तुत निबंध में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकाय का भी उल्लेख किया गया है। बादर पृथ्वीकाय के दो भेदों— १. श्लक्षण और २. रूक्ष को स्पष्ट करते हुए इनके भेदों पर भी प्रकाश डाला गया है। श्लक्षण के सात भेद हैं तथा रूक्ष के ४०.। रूक्ष बादर की संख्या कहीं ३६ तो कहीं ४० बताई गई है। मूलाचार, पंचसंग्रह, आचारांग नियुक्ति, उत्तराध्ययनसूत्र में इसके ३६ भेद बताए गऐ हैं; जबकि सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना तथा उत्तराध्यन में ४० भेदों का उल्लेख मिलता है। यह अंतर क्यों है ? इस पर विचार किया गया है। तथा यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि किसे सही माना जाए, ३६ या ४० संख्या को। शोध के अनंतर इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि संख्या तो दोनों ही सही हैं। क्योंकि आगमों में इनका उल्लेख है अत: कौन सही है कौन गलत है इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता है। मुख्य समस्या इन दोनों की प्राचीनता के निर्धारण की रह जाती है। तो इस विषय में आगमों के उद्धरण के आधार पर तथा कुछ अन्य विद्वानों के तर्कों के आधार पर और स्वयं के शोध के आधार पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि ३६ संख्या ४० की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। जैन परम्परा में पृथ्वी को एक जीव माना गया है और प्राय: जीव की चर्चा का प्रारम्भ भी पृथ्वीजीव से ही किया जाता है। जैनाचार्यों ने जीवों को इन्द्रिय के आधार पर वर्गीकृत किया है। उनके अनुसार इस संसार में एक इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय को धारण करने वाले जीव पाये जाते हैं। जिन जीवों को एक इन्द्रिय होती है उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है। एकेन्द्रिय जीवों के पाँच भेद हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति। पुन: इन सबके भी भेद—प्रभेद किए गए हैं। प्रस्तुत निबंध में पृथ्वीकाय जीव के प्रभेदों पर प्रकाश डाला गया है। जैन ग्रंथोंमूलाचार, गाथा टीका, २०५, सर्वार्थसिद्धि, २/१३/३/१७२, राजर्वितक, २/१३/१/१२७/२६ गोम्मटसार (जीवकांड), जीवप्रबोधिनी, १८२/४१६/९ में पृथ्वीकाय के लिए पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक और पृथ्वीजीव जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है, लेकिन इन सबके अर्थों में कुछ अंतर परिलक्षित होता है, जिसे निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट किया जा रहा है।
पृथ्वी— सामान्य रूप से पृथ्वी का अर्थ जमीन या धरती से ही है, जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुण वाली है। अचेतन तथा विस्तार गुणवाली होने के कारण ही यह पृथ्वी कहलाती है। पृथ्वी का एक अर्थ यह भी किया गया है कि जिसमें अभी जीवत्व नहीं है, परन्तु भविष्य में उसमें जीवत्व आने की संभावना है। मार्गादि में पड़ी हुई धूलादि ही को पृथ्वी कहा जाता है। जब धूल नमी आदि से मुक्त रहती है, तब इसमें किसी भी तरह के जीव की उत्पत्ति संभव नहीं है, लेकिन जब यह नही आदि से पूर्ण होती है, तब जीवों की उत्पत्ति का कारण भी बन सकती है। संभवत: किसी अचेतन में जीवत्व की संभावना उसमें उत्पन्न होने वाले जीवों के आधार पर ही की जा सकती है।
पृथ्वीकायिक— जिस जीव की पृथ्वी रूप शरीर विद्यमान है, उसे पृथ्वीकायिक जीव कहते हैं। दूसरे शब्दों में पृथ्वीकायिक उसे कहा जाता है जो पृथ्वीकायिक नामकर्म के उदय से पृथ्वीकायिक जीव का जो शरीर है, वह मृत शरीर न होकर उसका अपना मौलिक शरीर होता है। उदाहरणस्वरूप भूगर्भ में स्थित पत्थर तथा र्इंट के द्वारा इसे समझा जा सकता है। भूगर्भ में जो पत्थर है, वह मूल रूप में पत्थर है। उसका निर्माण र्इंट की तरह मिट्टी जलादि की सहायता से नहीं हुआ है। यह स्वयं प्रकृति द्वारा र्नििमत होता है।
पृथ्वीकाय— ‘पृथ्वी’ और ‘काय’ इन दो शब्दों के मिलने से पृथ्वीकाय शब्द बना है। काय का अर्थ होता है। शरीर। संभवत; इसीलिए ‘मूलाचार’ में ‘पृथ्वीकाय की जगह ‘पृथ्वीशरीर’ शब्द का उल्लेख किया गया है। पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर त्याग किया जाता है, उसे ही पृथ्वीकाय कहते हैं। जिस तरह से मरे हुए मनुष्य, पशु आदि के शरीर को उक्त मनुष्य या पशु आदि का शरीर कहा जाता है ठीक उसी तरह से पृथ्वीकाय को जानना चाहिए। तात्पर्य यह हैं कि पृथ्वीकाय उसे कहा जाता है, जिसके शरीर से जीव निकल चुका होता है और पुन: उसमें जीव के वापस आने की संभावना नहीं हैं पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त र्इंट आदि पृथ्वीकाय के उदाहरण हैं।
पृथ्वीजीव— कार्मणकाय योग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथ्वीरूप शरीर को ग्रहण नहीं किया है, तब तक वह पृथ्वीजीव है। पृथ्वी में उत्पन्न होने के पूर्व विग्रहगति में रहते हुए एक, दो या तीन समय तक जीव पृथ्वीजीव है। एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करते समय जीव की गति में कोई मोड़ लेना होता है तो उसकी गति विग्रह गति कहलाती है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक और पृथ्वीजीव के अंतर को स्पष्ट करना आसान है। सामान्य पृथ्वी को पृथ्वी कहा जाता है, जीव से मुक्त शरीर (इत्यादि) को पृथ्वीकाय, जीव से युक्त पृथ्वी को पृथ्वीकायिक तथा पृथ्वी रूपी जीव को ग्रहण करने के पूर्व अर्थात् शीघ्र ही पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक जीवत्व को प्राप्त करने वाला जीव पृथ्वीजीव कहलाता है। ये सभी सूक्ष्म अंतर हैं, परन्तु प्राय: पृथ्वी के लिए जैनागमों में ‘पृथ्वीकाय’ या ‘पृथ्वीकायिक’ शब्द का प्रयोग किया जाता है क्योंकि यही नाम प्रचलन में है। अत: प्रस्तुत निबंध में भी ‘पृथ्वीजीव’ या ‘पृथ्वी’ के लिए पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक शब्द का ही उल्लेख किया गया है। जैनागमों में पृथ्वीकाय के दो भेदों का उल्लेख मिलता है—आचारांग निर्युक्ति, १/१/२/७१, ठाणं २/१२३, प्रज्ञापना, १/१३, जीवाभिगम, १/१८, उत्तराध्ययन सूत्र, ३६/७०. १. सूक्ष्म और २ बादर। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस जीव की उत्पत्ति होती है उसे सूक्ष्म जीव कहा जाता है। ये सूक्ष्म जीव अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। इनका प्रत्यक्ष इन्द्रियों के द्वारा संभव नहीं है, क्योंकि ये इन्द्रियों के विषय नहीं बन सकते हैं। सूक्ष्मजीव संपूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। इनका इस लोक में अपना कोई स्थान निश्चित नहीं होता है। ये घात—प्रतिघात से रहित होते हैं। ये सभी गुण सूक्ष्म पृथ्वीकाय में भी वयक्त होते हैं, क्योंकि इनकी भी उत्पत्ति सूक्ष्म नामकर्म के उदय से ही होती है। बादर नाम कर्म के उदय से जिस जीव की उत्पत्ति होती है उसे बादर जीव कहते हैं। ये इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष भी किए जा सकते हैं तथा इनका घात एवं प्रतिघात भी संभव है। बादर पृथ्वीकाय के दो भेद हैंआचारांग निर्युक्ति, १/१/२/७२, उत्तराध्ययनसूत्र, ३६/७१—श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय और २. रूक्ष बादर पृथ्वीकाय।
१. श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय— मृदु मृत्तिका ही जिन जीवों की काया है, उन्हें श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय कहा जाता है। ये पृथ्वीकाय जीव कई प्रकार के होते हैं। आचारांग निर्युक्ति में इनके पाँच भेदों का उल्लेख मिलता है सण्ट्टा य पंचवण्णा—कृष्ण नील लोहितपीत शुक्लभेढ़ाटपञ्चधा। —आचारांग निर्युक्ति, १/१/२/७२ एवं टीका १. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त, ४. पीत और ५. शुक्ल। परन्तु प्रज्ञापना१. किण्हमत्यिा, २. नीलमत्तिया, ३. लोहियमत्तिया ४. हालिद्दमत्तिया, ५. सुक्किलमत्तिया, ६. पाण्डुमत्तिया, ७. पण्णमत्तिया १—प्रज्ञापना, १/१६. में और उत्तराध्ययनसूत्र में सात प्रकार के श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय का वर्णन मिलता है— १. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त, ४. पीत, ५. शुक्ल, ६. पाण्डु और ७. पनक। जैसा कि हम देख रहे हैं, पृथ्वीकाय का यह विभाजन विभिन्न वर्णों पर ही आधारित है। जैनधर्म में मुख्य रूप से पाँच प्रकार के रंगों का उल्लेख किया गया है। ये है—कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल। आचारांग निर्युक्ति में जो पाँच प्रकार के पृथ्वीकाय का भेद उल्लिखित है, वह इन वर्णों से अलग नहीं है। लेकिन प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में पाण्डु और पनक रंगों वाले पृथ्वीकाय का जो विवरण मिलता है, उसका क्या कारण हो सकता है। पाण्डु आक अर्थ अगर पीलिया रोग से ग्रसित व्यक्ति के शरीर के रंग के समान माना जाए तो पीत और पाण्डु में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। क्योंकि दोनों का ही वर्ण पीला होता है। अगर ऐसी बात नहीं है तो फिर पीत और पाण्डु के पीलेपन में भेद को मानना पड़ेगा। पीत के लिए पीला वर्ण तथा पाण्डु के लिए पीला एवं सफेद रंग द्वारा निर्मित हल्का मटमैला रंग मानना होगा। इस तरह की मिट्टी नदी के मुहाने आदि पानी वाली जगहों पर मिलती है। पनक का अर्थ हरे रंग से है। इस तरह की मिट्टी काई, शैवाल आदि के जमने से मृत्तिका के हरे रंग में बदल जाने से प्राप्त होती है। परन्तु यहाँ एक शंका रह ही जाती है और वह यह कि एक ही परम्परा के ग्रंथों में एक ही वस्तु के भेदों के विवरण में यह अंतर क्यों पाया जाता है ? शंका के सम्यक् समाधान के लिए अपेक्षित िंचतन एवं शोध की आवश्यकता है। यहाँ यह संभावना भी व्यक्त की जा सकती है कि यह कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है, क्योंकि प्राय: ऐसा देखा गया है कि एक ही परम्परा के ग्रंथों में विषयों का विवरण रचयिताओं के स्वविवेक एवं उसके पसंद पर भी निर्भर करता है एवं कभी—कभी मानवीय भूल के कारण कोई उद्धरण छूट भी जाता है। लेकिन ये सभी बातें सामान्य मनुष्य के साथ घटित हो सकती है और आगम रूपी ग्रंथों के संकलनकर्ता सामान्य मानव नहीं हो सकते हैं। इसलिए उनसे ऐसी भूल की संभावना नहीं हो सकती है। अत: इस विषय पर अपेक्षित चिंतन आवश्यक प्रतीत होता है। क्योंकि आगे जब हम रूक्ष बादर पृथ्वीकाय की चर्चा करेंगे तो इस बात को भलीभाँति समझ सकेगें।
२. रूक्ष बादर पृथ्वीकाय— किसी विशेष परिस्थिति या कारणवश जिन पृथ्वीकाय जीवों का शरीर कठोर हो जाता है, उन्हें रूक्ष बादर पृथ्वीकाय कहा जाता है। इसे खर बादर पृथ्वीकाय के नाम से भी जाना जाता है। इसके विभिन्न भेदों और प्रभेदों की पर्याप्त चर्चा जैन ग्रंथों में की गई है। इसके कुल भेदों की संख्या किसी ग्रंथों में ३६ मानी गई है। कहीं—कहीं इसके ४० भेद गिनाए गए हैं। किसी ग्रंथ में ३६ और ४० दोनों ही संख्याओं का उल्लेख किया गया है। संख्या का यह भेद अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं चिंतनीय है। आचारांग निर्युक्ति में पृथ्वीकाय के ३६ भेदों पर प्रकाश डाला गया है। इनके नाम हैआचारांग निर्युक्ति, १/१/२/७३-७६— १.पृथ्वी, २. शर्करा, ३. बालू, ४. उपल, ५. शिला, ६. लवण, ७. उष, ८. अयस (लोहा), ९. तांबा, १०. त्रपुक, ११. सीसा, १२. रूप्य (चाँदी), १३. स्वर्ण, १४. वङ्का या हीरा १५. हड़ताल, १६. हिगुल, १७. मैनसिल, १८. सस्यक, १९. अंजन २०. प्रवाल (मूंगा), २१. अभ्रक, २२. अभ्रक बालू, २३. गोमेद, २४. रूचक, २५. अंक, २६. स्फटिक, २७. लोहिताक्ष २८. चंदन, २९. गेरू, ३०. हंसगर्भ, ३१. भुचमोचक, ३२. मसारगल्ल, ३३. चंदप्रभ, ३४. वेरूल या वैडूर्य, ३५. जलकांत और ३६. सूर्यकांत । मूलाचार में भी पृथ्वीकाय के ३६ भेदों का उल्लेख मिलता है मूलाचार, २०५—२०९— १. मिट्टी, २. बालू, ३. शर्करा, ४. उपल, ५. शिला, ६. लवण, ७. लोहा, ८. ताँबा, ९. रांगा, १०. सीसक, ११. चाँदी, १२. सोना, १३. हीरा, १४. हरिताल, १५. हिगुल, १६. मैमंसिल, १७. सस्यक, १८. अंजन, १९. प्रवाल, २०. अभ्रटल, २१. अभ्रबालू, २२. गोमेद, २३. रूचक, २४. अंक, २५. लोहिताक्ष, २६. स्फटिक २७. चंद्रप्रभु, २८. वैडूर्य, २९. जलकांत, ३०. सूर्यकांत, ३१. गेरू, ३२. चंदन, ३३. वक, ३४. वप्पक ३५. मोच, ३६. मसारगल्ल पंचसंग्रह ग्रंथ में भी पृथ्वीकाय के ३६ भेदों का ही विवरण मिलता है। लेकिन इस ग्रंथ में पृथ्वीकाय के ३६ भेदों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया है, मात्र संकेत भर ही किया गया है। पुढवी य सक्कारा बालुया य उवले सिलाइछत्तीसा। —पंचसंग्रह, जीवसमास, १६ पृथ्वीकाय के पृथ्वी, शर्करा, बालूका के रूप में ३६ भेद होते हैं। सूत्रकृतांग सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कंध, ३/६ (१, २, ३, ४), एवं प्रज्ञापनासूत्रप्रज्ञापना पद १. सूत्र १७ में पृथ्वीकाय के ४० भेदों का वर्णन मिलता १. पृथ्वी, २. शर्करा, ३. बालू, ४. उपल, ५. शिला, ६. लवण, ७. उष, ८. लौह, ९. ताँबा, १०. त्रपुक, ११. सीसा, १२. चाँदी, १३. स्वर्ण, १४. हीरा, १५. हड़ताल, १६. हिगुल, १७. मैनसिल, १८. सस्यक, १९. अंजन, २०. प्रवाल, २१. अभ्रक पटल, २२. अभ्रक बालू, २३. गोमेद, २४. रूचक, २५. अंक, २६. स्फटिक, २७. लोहिताक्ष २८. मरकत, २९. मसारगल्ल, ३०. भुजमोचक, ३१. इंद्रनील, ३२. चंदन, ३३. गेरू, ३४. हंसगर्भ, ३५. पुलक, ३६. सौगंधिक, ३७. चंदप्रभ, ३८. वैडूर्य ३९. जलकांत, और ४०. सूर्यकांत। उत्तराध्ययनसूत्रउत्तराध्ययनसूत्र, ३६/७२-७७ में ३६ और ४० दोनों ही संख्याओं का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथ की मूल गाथा में पृथ्वीकाय के ३६ भेद होते हैं ऐसा बताया गया है, लेकिन जब भेदों के नामों की चर्चा की जाती है तो इनके कुल ४० प्रकार हो जाते हैं। अत: यहाँ एक समस्या उत्पन्न हो जाती है कि उत्तराध्ययन ने पृथ्वीकाय के कुल भेद ४० है या ३६। उपर्युक्त ग्रंथों के इस विवरण के आधार पर हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। हमारे समक्ष मुख्य समस्या यह रह जाती है कि हम ३६ भेद को सही माने या ४० भेद को या दोनों को ही। अगर दोनों को सही मानते हैं, तो फिर भी एक समस्या रह जाती है कि प्राचीन किसे माना जाए ३६ को या ४० को। जहाँ तक प्राचीनता के निर्धारण की बात तो इस संबंध में मुनि पुण्यविजयजी, पं. दलसुख मालवणिया तथा पं. अमृतलालजी द्वारा सम्पादित पन्नवणासुत्तम को देखना होगा। प्रस्तुत ग्रंथ की प्रस्तावना में इन विद्वानों ने श्वेताम्बर मान्य साहित्य, आचारांग निर्युक्ति, सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में से आचारांग निर्युक्ति को प्राचीनतम माना हैपत्रवणासुत्तम, भाग—२, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, पृ. २३३.। आचारांग निर्युक्ति में ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय का उल्लेख हुआ है, अत: श्वेताम्बर मान्य साहित्य में ३६ संख्या को ही प्राचीनतम मानना पड़ेगा। परन्तु यहाँ एक प्रश्न रह जाता है, वह यह कि निर्युक्ति की रचना अंग, उपांग, मूलसूत्र के बाद हुई है, फिर उसमें उद्धृत बातें इनसे प्राचीन कैसे हो सकती है ? इस संबंध में भी हम विचार कर सकते हैं। यद्यपि सूत्रकृतांग का स्थान अंगसाहित्य में द्वितीय है, फिर भी विद्वानों ने इसके प्रत्येक अध्याय को इतना प्राचीन नहीं माना है। उनकी ऐसी धारणा है कि सूत्रकृतांग के कुछ अध्याय बाद में किसी और स्थानों को उद्धरण को आधार बनाकर रचे गए हैं। अगर विद्वानों के इस शोध पर विश्वास करना संभव है तो ऐसा माना जा सकता है कि सूत्रकृतांग में पृथ्वीकाय के जो ४० भेद बताए गए हैं, वे उस समय जोड़े गए होंगे जब यह भेद परम्परा में आ गया हो। मुनि पुण्यविजयजी ने तो स्पष्ट से यह लिखा है कि सूत्रकृतांग की यह गाथा (४० पृथ्वीकाय का उल्लेख करने वाली) कहीं और से लेकर जोड़ी गयी है, लेकिन यह संभावना व्यक्त की है कि संभवत: यह गाथा प्रज्ञापना की गाथा के आधार पर रची गई हो। इस हेतु दोनों ही आगमों की गाथा की समीक्षा भी की गई हैवहीं, पृ. २३३। जहाँ तक प्रज्ञापना की बात है तो यह एक उपांग ग्रंथ है। उस संबंध में आचार्य मलयगिरि का कहना है कि प्रज्ञापना चतुर्थ अंग समवायांग का उपांग हैइयं च समवायाख्यस्य चतुथङ्गिस्योपांगम्—प्रज्ञापना टीका, पत्र—१। अत: ऐसी संभावना व्यक्त की जा सकती है कि प्रज्ञापना का पृथ्वीकाय का यह विवेचन कहीं और से उद्धृत किया गया हो, क्योंकि उपांग ग्रंथों में विषय का विवेचन किसी अन्य के विषय को आधार बनाकर करने की परम्परा रही है। कारण प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचार्य का कहना है कि उन्होंने प्रज्ञापना की रचना ‘दृष्टिवाद’ को आधार बनाकर की है। अच्झयणमिणं चित्तं सुयश्यणं दिट्ठिवायणीसंदं। — उद्धृत प्रज्ञापना (संपा.—मधुकरमुनि) की प्रस्तावना, पृ. १३, व्यावर, (राजस्थान) अगर हम आचार्य मलयगिरि के मत को मानते हैं तो प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग मान सकते हैं अर्थात्, यह समवायांग की विषय वस्तु पर आधारित ग्रंथ है, परन्तु यदि श्यामाचार्य के वचन पर विश्वास करते हैं, तो इसे दृष्टिवाद पर आधारित ग्रंथ मानना होगा। सत्य जो भी हो, लेकिन यह र्नििववाद रूप से मानना पड़ेगा कि प्रज्ञापना किसी ग्रंथ की विषय वस्तु पर आधारित एक स्वतंत्र ग्रंथ है। अत: यहाँ यह विश्वास किया जा सकता है कि पृथ्वी की चर्चा के अनुक्रम में प्रज्ञापना के रचयिता ने ३६ संख्या को सुधार कर ४० संख्या का उपयोग किया हो। अत: ३६ संख्या को प्राचीन मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आनी चाहिए।
उत्तराध्ययन अत्यंत प्राचीन ग्रंथ
उत्तराध्ययन अत्यंत प्राचीन ग्रंथ होने के साथ—साथ एक संग्राहक ग्रंथ भी है। संग्राहक से तात्पर्य यह है कि यह किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि उत्तराध्ययनसूत्र के कुछ अध्ययन अंग साहित्य के लिए गए हैं, कुछ जिनभाषित हैं और कुछ प्रत्येक बुद्ध श्रमणों के संवाद है।उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ४, इसकी पुष्टि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन भी करते हैं। पृथ्वीकाय के प्रभेदों की चर्चा के प्रसंग में प्रारंभ में ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय का उल्लेख किया गया हैखरा छत्तीसईबिहा, उत्तराध्ययन, ३६/७२ तथा इनके नाम गिनाए गए है, जो ३६ नहीं ४० हैं। इसके बाद पुन: ३६ प्रकार के ही पृथ्वीकाय होते हैं ऐसा उल्लेख किया गया है।…… भेया छत्तीसमाहिया। उत्ताराध्ययन, ३६/७७ उत्तराध्ययन के इस विवरण का यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पृथ्वीकाय का विवेचन करने वाला यह अध्ययन किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं रचा गया है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जो प्रारंभ में और अंत में दोनों ही स्थिति में ३६ संख्या का उल्लेख करे और भेदों की चर्चा करते समय ४० नामों का विवरण दे, समीचीन नहीं जान पड़ता है। इस संबंध में यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि बीच की यह गाथा किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखी है अथवा और कहीं से उद्धृत की गई है। हम ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि पहले प्रचलन में ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय जीव आए होंगे, इसीलिए उत्तराध्ययन में भी ३६ प्रकार के जीवों का उल्लेख किया गया होगा तथा बाद में जब ४० प्रकार के पृथ्वीकाय का पता चल गया होगा तो उन चालीसों का नाम गिनवा दिया गया होगा। लेकिन अभी भी प्रारंभ, अंत और बीच का जो भेद है, वह नहीं सुलझ पाता है। इस समस्या का जो भी कारण रहा हो, लेकिन इससे तो इतना अवश्य सिद्ध हो जाता है कि ३६ संख्या ४० की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। क्योंकि प्रारंभ और अंत में ३६ संख्या का उल्लेख यह दर्शाता है कि उत्तराध्ययन के रचयिताओं को प्राचीन परम्परा से बेहद लगाव था।
मूलाचार दिगम्बर परम्परा में मान्य
मूलाचार दिगम्बर परम्परा में मान्य एक अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। पं. कैलाचंद्र सिद्धांतशास्त्री के अनुसार यह ईस्वी—सन् के प्रारंभ की रचना है, चूंकि इस ग्रंथ में ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय का उल्लेख हुआ है तथा आचारांग निर्युक्ति में भी पृथ्वीकाय के ३६ भेद ही गिनाए गऐ हैं और जैसा कि पूर्व में ही बता दिया गया है कि आचारांग निर्युक्ति की गाथा सूत्रकृतांग, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन से अधिक प्राचीन है। अत: हमें यह मानना होगा कि पृथ्वीकाय के ३६ भेद ही प्राचीन हैं। पृथ्वीकाय की इस चर्चा के बाद हम यही कह सकते हैं कि जैनागमों में उल्लिखित इसके ३६ और ४० दोनों भेद सही हैं। जहाँ तक प्राचीनता के निर्धारण का प्रश्न है तो ३६ संख्या ही प्राचीन है तथा ४० संख्या बाद में, ३६ में ४ और जोड़ने से प्राप्त हुई। अब एक शंका मन में उठती है कि जब जैनाचार्यों ने ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय का उल्लेख कर दिया था तो बाद में ४० प्रकार के पृथ्वीकाय के उल्लेख की आवश्यकता क्यों पड़ी ? समाधान के रूप में तो यही कही जा सकता है कि जब किसी वस्तु की खोज की जाती है तो समय के अनंतर उसमें संशोधन, परिवर्धन होते रहते हैं और प्राय: उसमें विकास की ही प्रक्रिया होती है। यही बात ३६ और ४० प्रकार के पृथ्वीकाय के संबंध में भी घटित हुई होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि पहले ३६ प्रकार के पृथ्वीकाय प्रकाश में आए होंगे तत्पश्चात् जैनाचार्यों ने इसके संबंध में अधिक खोजबीन करना प्रारंभ किया होगा फलस्वरूप इसके और अधिक प्रभेदों की जानकारी प्राप्त हुई होगी।