वात्सल्य की अविरल धारा, जिनमें बहती नित है, गुरुभक्ति की प्रबल भावना, जिनमें सदा निहित है, सामंजस्य प्रेम मैत्री जो, सिखलाती नित-प्रति हैं, ऐसी माँ ‘‘चंदनामती’ जी, नित ही अभिवंदित हैं।’’अनंतानंत जीवों से परिपूरित संसार सागर में जो विरले जीव जन्म-मरण के कुचक्र से छूटकर शाश्वत सुख की प्राप्ति के प्रयास में संलग्न होते हैं, वे ही अपने जीवन को भी सफल करते हैं और अन्य जीवन रूपी दीपकों को प्रकाशित करने में भी निमित्त बनते हैं। ऐसा ही एक मधुरिम व्यक्तित्व है-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी का, जो जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की अनन्य समर्पित शिष्या होने के साथ-साथ अपेन वात्सल्यमयी व्यवहार से सभी पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। किसी भव्य जीव को जिनेन्द्र भगवान प्रणीत शाश्वत मोक्षमार्ग के प्रति आसक्त करने में जो प्रयासरत रहे, वास्तव में वह स्तुत्य है, क्योंकि अनादिकाल से जीव ने न जाने किन-किन भौतिकताओं में बंधकर स्वयं को कल्याण के पथ से वंचित रखा है।
जन्म, शिक्षा एवं वैराग्य पथ पर बढ़े बाल कदम
बाराबंकी जिले के टिकैतनगर ग्राम में १८ मई सन् १९५८, ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या को गणिनी ज्ञानमती माताजी जैसे महान रत्न को प्रसूत करने वाली माता मोहिनी की कोख से १२वीं संतान के रूप में जन्म लेने वाली ‘‘कु. माधुरी’’ बालपन से ही पिता श्री छोटेलाल जी सहित समस्त परिवार एवं परिजनों की लाडली बिटिया के रूप में सर्वप्रिय थीं। माँ ने दूध पिलाने से लेकर पालन-पोषण करने तक प्रत्येक संतान पर अभिन्न धर्मिक संस्कार तो डाले ही थे, जिससे कु. माधुरी भी अछूती नहीं रहीं। तीक्ष्ण बुद्धि वाली इस बालिका ने लौकिक शिक्षा की ओर कदम बढ़ाये तो सदैव अपनी सहपाठियों सहित समस्त शिक्षक वर्ग को भी विशेष प्रभावित करते हुए क्रमश: मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। अकादमिक उपलब्धियाँ कु. माधुरी की प्रतिभा से कहीं भी परे नहीं थीं, तथापि शाश्वत उन्नति का मार्ग इस कन्यारत्न के भविष्य का निर्माता बनकर समक्ष खड़ा था अत: उसी होनहार के अनुरूप अपनी बड़ी बहन कु. मैना के ‘‘आर्यिका ज्ञानमती माताजी’’ के रूप में दर्शन प्राप्त कर वैराग्य को प्राप्त इस बालिका ने मात्र १३ वर्ष की अल्प आयु में सन् १९७१ मेें सुगंधदशमी के दिन अजमेर में उनसे आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। जिस आयु में बालक-बालिकाएँ खाने-खेलने में ही संलग्न रहते हैं, उस अल्पवय में बालब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना कु. माधुरी के स्वर्णिम भविष्य का ही परिचायक था। माता मोहिनी की सन्तानों ने ये विशिष्ट धार्मिक संस्कार मानों विरासत में ही पाये थे।
धार्मिक अध्ययन एवं गुरुसेवा को बनाया जीवन
वैराग्यपथ पर बढ़ चली इस बाला ने अब धार्मिक अध्ययन एवं गुरु सेवा को ही अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया। शास्त्री, विद्यावाचस्पति इत्यादि धार्मिक शिक्षा को प्राप्त करते हुए आपने जैनागम संबंधी हजारों गाथाएँ, श्लोक इत्यादि कंठाग्र करके अपनी मेधा शक्ति का परिचय प्रदान किया। वस्तुत: इस क्षयोपशम विशेष के अतिरिक्त अविरल सेवा भावना, पूर्ण अनुकूलता, वैयावृत्ति, परिपूर्ण समर्पण, संघ में सभी के प्रति वात्सल्यमयी सौहार्दभाव इत्यादि गुणों से आपने पूज्य माताजी को विशेष प्रभावित किया था। ‘गुरु यदि दिन को रात कहें तो रात, यदि रात को दिन कहें तो दिन’ इस भावना का परिपालन करने वाली कु. माधुरी शास्त्री ने क्रमश: १८ वर्षों तक ब्रह्मचारिणी अवस्था में रहकर पूज्य माताजी की भरपूर सेवा की। विशेष बात यह थी कि अध्ययन के साथ-साथ भजन, पूजन, चालीसा, लेख इत्यादि लिखने का प्रवाह भी निरंतर चलता रहा।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की गुरु परम्परा में प्रविष्ट भव्य जीव संयम धारण करना अपना आभूषण समझते हैं, तद्नुसार राजधानी दिल्ली में पूज्य ज्ञानमती माताजी से सन् १९८२ में दो प्रतिमा के व्रत एवं हस्तिनापुर में सन् १९८७ में सप्तम प्रतिमा के व्रतों को क्रमश: धारण करते हुए आपने नारी जीवन के सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति के क्रम में जम्बूद्वीप–हस्तिनापुर में श्रावण शुक्ला ग्यारस, १३ अगस्त १९८९ को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के करकमलों से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर ‘‘आर्यिका चन्दनामती’’ नाम प्राप्त किया। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी एवं आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी रूप शिल्पियों से सुसंस्कारित, व्यवहार में माधुर्य गुण की धनी ‘माधुरी’ जी को अपने शिष्ट आचरण के अनुरूप ही नाम प्राप्त हुआ था।
आपकी लेखनी बाल्यकाल से ही अत्यंत प्रभावी, ओजपूर्ण एवं सारगर्भित रही है, पद्य लेखन आपके लिए क्षणों का काम रहता है अत: अब तक आप सैकड़ों भजन, आरती, चालीसा, पूजन, स्तुति, मुक्तक इत्यादि का लेखन कर चुकी हैं। समयसार के कलश काव्यों का पद्यानुवाद, भक्तामर विधान, नवग्रहशांति विधान, मनोकामना सिद्धि महावीर विधान, तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, महावीर स्तोत्र की संस्कृत-हिन्दी टीका, ज्ञानज्योति की भारत यात्रा, अवध की अनमोल मणि, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, ज्ञान रश्मि (पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रवचनों का संकलन) इत्यादि कितनी ही कृतियाँ आपके ज्ञानगुण को प्रदर्शित करने में सक्षम हैं। आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, आचार्यश्री वीरसागर स्मृति ग्रंथ, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिनंदन ग्रंथ, कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ, भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश इत्यादि ग्रंथों का समायोजन आपके कठोर परिश्रम का ही सुफल है। आपका सृजनात्मक मस्तिष्क धर्मप्रभावना के नये-नये आयामों को साकार धरातल देते हुए सदैव उत्साहपूर्ण होकर पठन-पाठन-लेखन में ही दत्तचित्त रहता है, यह गुण आपने अपनी महान गुरु पूज्य ज्ञानमती माताजी से विरासत में ही प्राप्त किया है। आप मात्र वार्तालाप के स्थान पर सदैव कार्यरत रहने की नीति में ही विश्वास रखती हैं, जो विशेष अनुकरणीय है। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के मुखपत्र ‘सम्यग्ज्ञान’ का समायोजन भी प्रतिमाह आपके द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। वर्तमान में आप महान सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित सिद्धांतचिंतामणि टीका के हिंदी अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं, हिन्दी टीका सहित दो पुस्तकों का प्रकाशन भी सम्पन्न हो चुका है। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं की विद्वान पूज्य माताजी द्वारा जिनवाणी की जो विशिष्ट सेवा की जा रही है, वह नि:संदेह ही सभी के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करेगी।
वक्तृत्व कला की धनी पूज्य माताजी
पूज्य चंदनामती माताजी के विशिष्ट गुण के रूप में अवस्थित है उनकी वत्तृत्व एवं गायन क्षमता। आपकी ओजपूर्ण एवं प्रभावक प्रवचन शैली से श्रोता प्रभावित हुए बिना रह नहीं पाता है और जिन संस्कृति तथा गुरु परम्परा के प्रति अनुरक्त होकर ही प्रवचनसभा से उठता है। पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित भक्ति विधानों की पूजा को जब आप अपनी मधुर आवाज में सम्पन्न कराती हैं तो सभी भक्तगण जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के रस का वास्तविक आस्वादन कर हर्ष विभोर हो उठते हैं।
गुरुभक्ति की विशिष्ट भावना
पूज्य चंदनामती माताजी छाया की भाँति पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ रहते हुए उनकी प्रत्येक कार्ययोजना में सहभागी बनकर अपना सौभाग्य समझती हैं, अयोध्या-मांगीतुंगी-प्रयाग-कुण्डलपुर (नालंदा) इत्यादि तीर्थों के विकास एवं सभी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों को अपनी गुरु की भावना के अनुरूप सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचाने हेतु आप हर क्षण प्रयत्नशील रही हैं, वस्तुत: ऐसे शिष्यरत्न ही अपने भविष्य को भी उज्ज्वल बना लेते हैं। स्वयं में प्रतिभा की परिपूर्णता होते हुए भी ख्याति-पूजा-लाभ की कामना से अपना अलग व्यक्तित्व बनाने की किसी आकांक्षा ने आपको स्पर्श नहीं किया है, यह विशेष अनुकरणीय बात है। वरन् जैसे-जैसे आपकी प्रतिभा में निखार आया है, वैसे-वैसे पूज्य माताजी के प्रति आपके समर्पण की भावना में अभिवृद्धि ही हुई है। संघस्थ सभी शिष्य-शिष्याओं को पूज्य ज्ञानमती माताजी की ज्ञान एवं चारित्र रश्मियों के प्रति अधिकाधिक समर्पित होने की शिक्षा ही आपसे सर्वदा प्राप्त हुआ करती है, जो उनकी अनन्य गुरुभक्ति का ही परिचायक है। सभी के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित हो, सभी लोग प्रसन्नचित्त होकर गुरुआज्ञा के पालन में कैसे निरत रह सके, यही प्रयास वह सदैव किया करती हैं। यही कारण है कि हृदय के समस्त मनोभावों को आपके समक्ष व्यक्त करके सभी को विशेष संतुष्टि की अनुभूति होती है।
गुरु परम्परा की कट्टर पोषक
पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ हजारों कि.मी. की पदयात्रा करके आपने जनमानस में अहिंसा, शाकाहार, सदाचार की भावनाओं को आरोपित करने का विशेष पुरुषार्थ किया है, जो कि आज के समाज की प्रमुख आवश्यकता है। जैन युवावर्ग को मांसाहार से सर्वदा दूर रहने एवं रात्रि भोजन के त्याग की विशेष प्रेरणाएँ आपसे सदैव प्राप्त हुआ करती हैं। चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की गुरु परम्परा के प्रति आपका विशेष समर्पण सदा से रहा है, अत: अपने सानिध्य में आने वाले प्रत्येक बालक-बालिका पर इस गुरु परम्परा के संस्कार डालने में आपको विशेष आनंद की प्राप्ति होती है। वास्तव में भौतिकता की होड़ में नेत्र बंद कर दौड़ रहे युवावर्ग को यदि कोई वात्सल्यपूर्ण भव्य जीव शाश्वत धर्म के मार्ग के प्रति अनुरक्त करता है, तो इसे विशेष सौभाग्य ही मानना चाहिए।
आपकी प्रखर मेधा एवं इस गुण-विभूषित व्यक्तित्व के सम्मानार्थ पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली में आयोजित विशाल कल्पद्रुम महामण्डल विधान के समापन अवसर पर आपको ‘प्रज्ञाश्रमणी’ की उपाधि से अलंकृत किया। पुनश्च आप सदा यही कहा करती हैं कि पूज्य ज्ञानमती माताजी का वात्सल्यमयी वरदहस्त ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी सौगात है और इन्हीं गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञानामृत ने ही मेरा शृँगार किया है अत: इस महान जिन संस्कृति, तीर्थ संरक्षण एवं गुरुसेवा में मेरे शरीर का रोम-रोम भी समर्पित होकर काम आ जाये, तो वह ही मेरे लिए सर्वाधिक आनंददायी अनुभूति है। ऐसे आदर्श व्यक्तित्व को धारण करने वाली पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी प्रतिक्षण साधना के उच्च सोपानों पर आरोहण करते हुए कतिपय ही भवों में रत्नत्रय की पूर्ण विशुद्धि के साथ मोक्षलक्ष्मी का वरण करें, यही मंगलभावना है। साथ ही जिनेन्द्र प्रभु से यह प्रार्थना भी है कि जिन परमपूज्य प्रात:स्मरणीय राष्ट्रगौरव गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी एवं परमपूज्य श्री चंदनामती माताजी की जो महान उपकारी छत्रछाया मुझे प्राप्त हुई है, वह मोक्षप्राप्ति तक रक्षाकवच की भाँति मुझे सांसारिक विषय भोगों से पूर्णतया रक्षित करते हुए जिनशासन में अवगाहन के योग्य बनाएँ, ताकि एक दिन ऐसा आ सके कि अपने अनंत चतुष्टय में निमग्न होकर सदैव के लिए मेरे चतुर्गति परिभ्रमण की भी निवृत्ति हो सके।