अभी कल की ही बात लगती है कि राजधानी दिल्ली में भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक को मनाने के लिए रूपरेखा बन रही थी। बड़े हर्षोल्लास के साथ अनेक योजनाओं को बनाया गया। इसी क्रम में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने भी जन्मभूमि कुण्डलपुर में एक कीर्ति स्तंभ बनाने की प्रेरणा प्रदान की तब तक माताजी को भी नहीं पता था कि वहाँ और क्या-क्या होने वाला है? कीर्तिस्तंभ तो मात्र बीजरूप ही था। देखते ही देखते माताजी के कदम कुण्डलपुर की ओर बढ़ गये। लोगों का विरोध भी रहा लेकिन माताजी की दृढ़ता देखकर किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि माताजी से सामने आकर कह सके। उलटे विरोधी माताजी के पहुँचने पर मैदान को छोड़कर चले जाते थे। एक कहावत है कि जिस कार्य को बनना है, उसको कोई रोक नहीं सकता है। मैंने बहुत समीप में रहकर माताजी की क्रियाओं को देखा, कि माताजी का विहार गर्मी में हो रहा था।
शायद भगवान भी परीक्षा ले रहा था, गर्मी बहुत थी मैं रूट बना रहा था। मार्ग में कोई स्थान अच्छा मिल जाये और मैं एक-दो दिन रूकने का प्रोग्राम बना दूँ तो माताजी कहने लगतीं-विजय! आज यहाँ पूरा दिन क्यों दिया है? मैंने कहा-माताजी यह स्थान अच्छा है, यहाँ रूक जाइये, माताजी कहने लगीं यदि अच्छा ही देखना था तो जम्बूद्वीप के डीलक्स कमरे छोड़कर यहाँ क्यों आते? सुनकर लगता कि माताजी कह तो सही ही रही हैं लेकिन यदि थोड़ा आराम मिल जाएगा तो यात्रा सुलभ हो जायेगी। लेकिन माताजी को तो शायद हर वक्त कुण्डलपुर का ही दृश्य दिखता था। आखिर माताजी २९ दिसम्बर २००२ को कुण्डलपुर पहुँचीं, चारों तरफ खुशहाली थी, देखने में लगता था कि भगवान महावीर भी मुस्करा रहे हों और खुश हों। माताजी संयम की साधना करते हुए निरन्तर क्षेत्र विकास के कार्यों की प्रेरणा प्रदान करती रहीं और विकास कार्य तेजी से होने लगे। दिन-प्रतिदिन क्षेत्र का रूप सजने-संवरने लगा लेकिन शायद माताजी के मन में संतुष्टि नहीं थी। माताजी शिखर जी यात्रा के मध्य बार-बार यही कहतीं कि यदि कुण्डलपुर का रथ शुरू हो जाये तो जन-जन को कुण्डलपुर के विकास कार्यों की सूचना मिलेगी एवं प्रचार-प्रसार भी हो जायेगा लेकिन कार्य कठिन लगता था।
वैâसे शुरू हो? कहाँ से प्रवर्तन हो? माताजी शिखर जी से लौटकर आयी और वह शुभ दिन आ गया, जब रथ प्रवर्तन शुरू होना था। १५ अप्रैल २००३ महावीर जयंती के शुभ दिन कुण्डलपुर से पूज्य माताजी का मंगल आशीर्वाद लेकर प्रवर्तन शुरू हुआ सर्वप्रथम मध्यप्रदेश को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। ४ मई, अक्षय तृतीया के पावन दिन आचार्य श्री अभिनंदन सागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य में सुदामानगर (इंदौर) पंचकल्याणक के मंच पर सभा प्रारंभ हुई एवं इंदौर नगर के व सारे देश के विद्वानों व श्रेष्ठियों की उपस्थिति में आचार्यश्री ने रथ पर स्वस्तिक बनाकर प्रवर्तन कर दिया। निरंतर एक नगर से दूसरे नगर प्रवर्तन करती हुई रथयात्रा आगे बढ़ने लगी। छोेटे-बड़े सभी नगरों में धर्म की ध्वजा को लहराते हुए भगवान महावीर ज्योति रथ का स्वागत होने लगा। लगभग सभी स्थानों पर वहाँ के गणमान्य महानुभावों ने रथ का खूब स्वागत किया। सभी संतों ने पूज्य माताजी की इस योजना को सराहा, सागर में सभी संस्थाओं ने रथ का स्वागत किया, शिवपुरी वालों ने कुण्डलपुर विकास के लिए १०१ नाम देने का लक्ष्य रखा एवं अपने नगर में भव्य शोभायात्रा निकाली।
गंजबासौदा में नगर पालिकाध्यक्ष कन्छेदीलाल जी जैन एवं जैन समाज बासौदा ने सबको पीछे छोड़ दिया स्वागत में। मध्यप्रदेश के पूरे अंचलों में प्रवर्तन करते हुए लगभग २५१ नगरों में भ्रमण किया। शुरू-शुरू में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन उसके उपरान्त आशातीत सफलता के साथ प्रवर्तन सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् राजस्थान प्रवर्तन १७ अक्टूबर को कोटा से शुरू हुआ। राजस्थान प्रवर्तन का शुभारंभ कोटा के गीताभवन से श्री शांतिलाल धारीलाल (कला एवं सांस्कृतिक मंत्री राजस्थान सरकार) ने किया। निरंतर एक नगर से दूसरे नगर रथ का प्रवर्तन करते हुए लगभग २२५ नगरों का भ्रमण अब तक सम्पन्न हो चुका है। राजस्थान के १२ जिलों में प्रवर्तन सम्पन्न हो चुका है। इस प्रवर्तन के मध्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज तक किसी ने भी यह नहीं कहा कि आप जन्मभूमि कुण्डलपुर का गलत प्रचार कर रहे हैं। जिसने सुना उसने ही कहा कि यह माताजी उचित कार्य कर रही हैं। मैं यह सोचता हूँ कि माताजी के पास कुण्डलपुर तो वही जाएगा जो माताजी के विचारों से सहमत होगा, लेकिन हमें तो सबके पास जाना पड़ता है।
आज तक कोई ये कहता नहींं मिला कि आप गलत प्रचार कर रहे हैं। खैर…मैं सैद्धान्तिक विषयों को नहीं जानता, आगम भी नहीं जानता लेकिन मैंने प्रारंभ से ही एक बात जानी कि माताजी २५० ग्रंथों की रचयित्री आगम की प्रतिमूर्ति हैं, वे गलत नहीं कहेंगी। हर व्यक्ति कुण्डलपुर से जुड़ने को तैयार है। अब तक के प्रवर्तन के माध्मय से कई लाख लोगों ने अपनी आकांक्षाओं को तीर्थंकर जन्मभूमि से जोड़ा है। सबसे बड़ी बात सांच को आंच नहीं है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।