प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर परम्परा के प्रति स्वस्तिश्री स्वामी जी के उद्गार
सच्चे गुरु को तलाशना, परखना और फिर आँख मूंदकर उनकी हर बात को अपने जीवन में उतारना, यह एक शिष्य का परम कर्तव्य होता है। हमने प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज को देखा नहीं, न उनके वचनों को साक्षात् सुना।
लेकिन हमने अपनी गुरु पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी को तलाशा, परखा और उसके बाद सदा के लिए आँखें मूंदकर उनके मुख से निकली हर बात का अक्षरश: पालन किया, इसी का परिणाम है कि आज हमारी आत्मा को सच्चा मार्ग मिला, समाज में उचित स्थान प्राप्त हुआ और धर्म व समाज की विशेष सेवा का अवसर प्राप्त हो सका।
पुन: जब हम पूज्य माताजी के हृदय में व्याप्त प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज एवं उनकी परम्परा के संस्कारों की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो स्वत: ही उन महामना गुरुवर्य श्री शांतिसागर जी महाराज की छवि हमारे मन को भी आल्हादित करने लगती है।
इसी प्रकार हमारे भी प्रत्येक मनन-चिंतन एवं रग-रग में बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का स्वरूप, उनकी चर्या, उनकी शिक्षाएँ और उनका आगम तलस्पर्शी ज्ञान वैभव हमें भी छूने लगता है। इसीलिए हम प्रारंभ से ही प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर परम्परा के संरक्षण, संवर्धन और विकास हेतु सदा कटिबद्ध रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
आचार्य महाराज ने अपने जीवनकाल में जो कुछ भी किया, बताया अथवा जाना, वह सब कुछ जैनधर्म के मूल आगम ग्रंथों के आधार पर ही प्रस्टिफुत हुआ।
आचार्य महाराज द्वारा दिया गया सज्जातित्व का संदेश, भगवन्तों के पंचामृताभिषेक का संदेश, मुनियों को श्रावकों द्वारा आहारदान देने हेतु विशुद्ध वस्त्रशुद्धि एवं भोजन शुद्धि की परम्परा, पूजा-अभिषेक-अनुष्ठान आदि में श्रावकों को जनेऊ धारण करने का श्रावकाचार, खानदान शुद्धि तथा खानपान शुद्धि का पालन, विजातीय शादी-विवाहों के संबंधों का पूर्णत: खण्डन आदि ऐसी अनेक शिक्षाएँ प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के जीवन से हमने पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त की है।
हम सदैव आचार्य महाराज के प्रति नतमस्तक रहते हुए कभी उनके उपकारों को भूल नहीं पायेंगे।