रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
भरतस्य भारतम्- भरतस्य भारतम्
जय भारतं जय भारतं जय भारतं जय भारतं
भरतस्य भारतम्-२
जयति जय जय चक्रवर्ती भरत जिन का भारतम्।
जयति जय जय ऋषभप्रभु के पुत्र भरत का भारतम्।।
रत जहाँ तल्लीन तन्मय भा-प्रभा अध्यात्म में।
ऋषि मुनी तीर्थेश भी तन्मय रहें निज आत्म में।।
भरत के वैराग्य से सार्थक सुनाम है भारतम्।।
जब भरत को पितु ऋषभ ने
अपना मुकुट पहना दिया
तब
राजा अयोध्या के बने
अनुकूल सबको बना लिया
सारी प्रजा सुख मग्न थी
भरतेश की वह भक्त थी
फिर एक दिन क्या होता है ?
वनमाली दौड़ा दौड़ा आया
बोला-
राजन्! ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ है
आकाश में समवसरण का निर्माण हुआ है
पीछे पीछे सेनापति आये
कहा उन्होंने स्वामी सुन लो
चक्ररत्न की महिमा लख लो
आयुधशाला चमक उठी है
अब आपके चक्रवर्ती बनने की
शुभ सूचना मिल चुकी है
तुरन्त आ गई दासी अन्त:पुर से
बोली, राजन्! सूरज से पुत्र का जन्म हुआ है
भाग्य आपका धन्य हुआ है
भेंट मुझे अब देनी होगी
नगर सूचना करनी होगी
सबकी बधाई लेनी होगी
एक साथ में तीन सूचना
मिली भरत जी का क्या कहना
चिन्तन करें भरत क्या करना ?
तभी याद आए पुरुषारथ
चार प्रकार कहे हैं ये सब
धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष
पहले पालन किया धर्म का
वन्दन जाकर किया प्रभु को
पूजन करके लौटे घर को
गये पुन: आयुधशाला में
चक्ररत्न की चमक देखने
उसकी यथायोग्य पूजन कर
आये अन्त:पुर में राजन
पुत्र का मुख देखा प्रसन्न मन
सबको दान दिया मुंह मांगा
खुशियों का अम्बार लगा था
अर्थात् तीनों पुरुषार्थों का क्रम से पालन कर
चतुर्थ मोक्ष को साकार किया था
मोक्षमार्ग में चलकर गृहस्थ धर्म को सार्थक किया था
फिर चक्ररत्न को आगे करके
छह खण्डों पर चले विजय प्राप्त करने
जीता सभी को बने चमक्रवर्त
नहीं उनके मन में अहंकार तब भी
घर में भी रहकर भरत जी विरागी
शासन चलाकर भी थी आत्मदृष्टी
यही तो खटकती थी बातें सभी को
हम कैसे मानें वैरागी भरत को
हैं उनके छियानवे हज्जार रानी
नवनिधि व चौदह रतन हैं जिनकी निशानी
चौरासी लाख हाथी
अठारह करोड़ घोड़े
असंख्यों सैनिक थे उनके किंकर बने
बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा नमित थे
अयोध्या थी छह खण्डों की राजधानी
सब मिलकर बोलें-
प्रभु ऋषभदेव के पुत्र भरत से, भारतदेश सनाथ हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।। टेक.।।
यहाँ तीर्थंकर प्रभु लार्ड गॉड, साधूजन सेन्ट कहाते हैं। हो……
गुलदस्ते की भांति कई, जाती व पंथ आ जाते हैं।। हो……
तत्त्व की प्राप्ती का-२, संचालित यहाँ से पाठ हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।१।।
भारत को भारत रहने दो, इण्डिया न यह बनने पाए। हो……
आध्यात्मिक संस्कृति का, अपमान नहीं होने पाए।। हो……
ऋषभ, राम, महावीर, बुद्ध-२, का अमर सदा सिद्धान्त हुआ।
आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।२।।
की सीता सम नारी पर, छाया न किसी की पड़ पाए। हो……
जन्मीं ब्राह्मी माता सम, माँ ज्ञानमती के गुण गायें।। हो……
भारत की संस्कृति-२, का तब ही उत्थान हुआ।
आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।३।।
Religious Gentlemen!
You have known now that who was king bharat. In short you should know here Bharat was the eldest son of Lord Rishabhdev and queen Yashaswati. He was the king of Ayodhya firstly and after some time He conquered six Khandas of Bharat region of Jambudweep, then He became Chakravarti Emperor by his Chakra Ratna. The name of our Nation is-BHARAT on the name of Samrat Chakravarti Bharat.
You know this freequently that all of us are very lucky, because we have born in Bharat, You don’t call this country as India, but call only Bharat Varsh.
जय हो जय हो-भरत का भारत (३ बार सब मिलकर बोलें)
भरतस्य भारतम्
जय भारतम् जय भारतम् जय भारतम् जय भारतम्
भरतस्य भारतम्
-गीत-
हम भारत के भरत में है, अभिमान करो रे।
इस सोने की चिड़िया पे, स्वाभिमान करो रे।।
आम्ही भरताच्या भारत मधे, अभिमान करायचे।
ही स्वर्ण चिड़िया आहे, स्वाभिमान करायचे।।
जिकड़े भरतां ने कठिन तपस्या केली होती।
जिकड़े ऋषि मुनि ने आत्म प्रभा रति केली होती।।
तिकड़े आम्ही जन्म घेतो, हे अभिमान करायचे।
आम्ही भरताच्या भारत मधे अभिमान करायचे।
What He used to think about his Soul & Wordly pleasures or sorrows, you know in Kannad also-
गेहवुनन्नदु देहवु नन्नदु येन्नु वेया वरमरुळेला।
नेहव माडिद वस्तु गळाववु निन्नोड नेन्दुगु वरलिल्ला।।
नीरू हालू सेरिद परियलि जीव शरीर बगेयुतिरू।
नीर निळुद वर हालु नेळव चिरु चिन्मय हंस निनागुतिरु।।
भव्यात्माओं! क्या कहा है इस कन्नड़ बारह भावना की अन्यत्व भावना में-गेहवु नन्नदु अर्थात् घर-मकान-कोठी-बंगला-कार-मोटर सब कुछ आत्मा से भिन्न है।
भरत चक्रवर्ती यही तो चिन्तन करते थे कि मेरा यह छह खण्ड का विशाल राज्य-हाथी-घोड़े-नवनिधि-चौदह रत्न सब कुछ मेरे नहीं है-मेरी आत्मा से इनका कोई संबंध नहीं है, ये सर्वथा मुझसे भिन्न हैं-पर हैं-पुद्गल हैं-नश्वर हैं…….आदि।
आगे और क्या कहा है कि भरत जी क्या चिन्तन करते हैं-देहव नन्नदु अर्थात् मेरा शरीर भी मेरा अपना नहीं है, एक दिन यह भी नष्ट होने वाला है यदि अक्षय-अविनश्वर शरीर पाना है तो तपस्या करना पड़ेगा, इस नश्वर शरीर से मोह छोड़कर अनन्तकाल तक रहने वाले शरीर को पाना होगा। वह शरीर कौन सा है ? ‘‘ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता’’ अर्थात् द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म इन तीन प्रकार के कर्ममलों से रहित ज्ञानशरीरी हैं सिद्ध भगवान्! वैसा ही ज्ञानशरीर भरत जी प्राप्त करने के लिए आत्मतत्त्व का सदैव चिंतन करते थे।
‘‘भरत जी घर में वैरागी’’ की बात सुन-सुन कर एक बार अयोध्या के एक नागरिक ने राजसभा में भरत चक्रवर्ती से प्रसन्न किया-
महाराज! गलती की माफी चाहता हूँ।
एक प्रश्न का उत्तर आपसे जानना चाहता हूँ।
पूछो, मेरे बंधुवर! भरतराज ने कहा,
तब कहने लगा वह नागरिक सहृदयता से-
राजन्! आपके पास इतनी सम्पत्ति
छियानवे हजार रानियाँ हैं,
अतुल्य सेना और ३२ हजार मुकुटबद्ध
राजाओं की ३२ हजार राजधानियाँ हैं।
और जाने क्या-क्या है ?
मैं नहीं जानता, आपके मन में क्या है ?
लेकिन जनता का प्रश्न है कि-
आप कैसे हो सकते हैं घर में वैरागी?
भगवान आत्मा के प्रति कैसे हो सकते हैं रागी ?
स्वामी! हम भी आपसे शिक्षा चाहते हैं।
आप बताएं, तो आप जैसी दीक्षा चाहते हैं।
बोले चक्रवर्ती भरत जी!
छह खण्ड के अधिप जी!
मैं आपके प्रश्न का उत्तर बताऊँगा
बिल्कुल सच सच समझाऊँगा।
किन्तु उससे पहले
आप मेरी बात सुनो
पहली बार मेरे महल में आए हो
आपका यहाँ स्वागत है
पहले पूरा महल घूमो, देखो और मन में गुनो
खुश हुआ वह अयोध्या का नागरिक
बोला, राजन्! आप भेजें मेरे साथ एक नागरिक
फिर भेजा भरत ने उसके साथ एक सिपाही
नागरिक के हाथों में दिया कटोरा पूरा तेल भर के
सिपाही चला हाथ में नंगी तलवार ले करके
बोले भरतराज
हे मेरे बंधुवर! अयोध्या के प्रिय नागरिक!
आप घूमें पूरा महल
तेल की एक बूंद गिरे ना
यदि गिर गई तो
आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा
बस, इतना ही कहना है तुमसे मेरे बंधुवर!
महल में घूमकर वापस आओ,
मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूँगा
चला नागरिक सुनो मेरे भाई,
केवल उसने दृष्टि तेल के कटोरे पर लगाई।
पूरा महल घूमकर राजसभा में वो आया,
राजन ने पूछा-क्या क्या देख पाया,
वह बोला-मैं कुछ भी न देख पाया,
क्योंकि आपने मुझ पर तलवार लटाकाया।
मैं तो देखता रहा कटोरा,
वह भरा है या अधूरा।
मुझे तो चिंता है अपनी जान की,
नहीं है चाह अपने मान सम्मान की।
यह दृश्य देखकर बोले राजा भरत जी,
ओ मेरे बंधुवर!
मिल गया तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर
सुनो! मेरे राज की बात,
चूँकि मेरे सर पर सदा लटक रही है काल की तलवार
मैं अपनी आत्मा के प्रति सजगता के लिए रहता हूँ सदा तैयार
न जाने कब काल आ जाएगा,
मुझे मेरा राज्य छुड़ा कर ले जाएगा।
इसीलिए मैं अपने कर्तव्य में लीन रहता हूँ,
गृहस्थ धर्म के पालन में तल्लीन रहता हूँ।
झुक गया मस्तक अयोध्या के नागरिक का
बोला राजन्! अब मिल गया हम सबके प्रश्न का।
बंधुओं! आपने अब जान लिया,
एक नागरिक के माध्यम से
सारी अयोध्या और छह खण्ड वसुधा ने जाना था सब युग में
तब से ही पुराणों ने घोषित कर दिया
भरत जी घर में वैरागी, भरत जी घर में वैरागी
जय हो वैरागी भरत भगवान की-२
इस प्रकार का इतिहास
भरत का वैराग्य,
अमर हो गया भारत में
देश का नाम भारत पड़ गया,
उन्हीं के नाम से
सुनो भाई-बहनों!
यहीं यह इतिहास खतम नहीं हो जाता है,
आगे उनके महाव्रतरूप त्याग से जुड़ जाता है।
एक दिन दर्पण में मुख देखते हुए सिर पर सफेद बाल को देखकर
भरत जी को हो गया राज्य से पूर्ण वैराग्य
छोड़ दिया रानियाँ और छोड़ दिया पूरा छह खण्ड का साम्राज्य
जीर्णतृण के समान सब कुछ छोड़कर पीछे मुड़कर कभी देखा नहीं,
जाकर वैâलाश पर्वत पर जैनेश्वरी मुनि दीक्षा लेकर
केशलोंच करने लगे
बस देखते ही देखते
केशलोंच के मध्य ही उन्हें हो गया केवलज्ञान
उन्हें प्राप्त हो गया आतमज्ञान
ना ही किया आहार
ना गये किसी के द्वार
वे तो गये उस गिरि पर, कैलाश पर्वत पर
जहाँ गये उनके पिता ऋषभदेव भगवान
वे कर्म नष्ट कर वहीं से गये थे शिवधाम
प्रभु के मोक्ष जाने पर जहाँ दुखी हुए थे कभी भरत
पुत्र ऋषभसेन गणधर जी के सम्बोधन से
बोध को प्राप्त हुए थे यही भरत
आज वे भरत वहीं जाकर
पर्वत के पवित्र परमाणु पाकर
सारे दु:खों से छूटकर
आत्मसुख में निमग्न हो गये
इधर माता यशस्वती अपने पौत्र अर्ककीर्ति से कहती हैं-
अर्ककीर्ति सुन मेरो लाडलो!
कद म्हारा भरत जी घर आसी
कद म्हारा भरत जी घर आसी
अर्ककीर्ति कहता है-
सुन म्हारी दादी यशस्वती माँ!
पुत्र न अब धारे घर आसी
पुत्र न अब थारे घर आसी
दादी माँ और पोते का संवाद अयोध्या में चलता है
संसार का यह चक्र तो टाले नहीं टलता है
होनहार ही क्या कभी कभी
अनहोनी भी होकर ही रहती है
तो फिर इन मोक्षगामी पुत्रों की
होनहार कैसे टल सकती है
महानुभावों!
यह है कहानी भरतराज की
युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् की
इन भरत जी की भी आयु पिता के समान ही
थी चौरासी लाख पूर्व वर्ष की
उसी में से अन्त में एक लाख पूर्व वर्ष की आयु
भरत भगवान की केवलीकाल में बीती
पुन: योग निरोध कर लिया कैलाशपर्वत पर जाकर
मोक्ष प्राप्त कर लिया अघाति कर्म नशाकर
जो घर में भी वैरागी थे
एवं शिव नारी के प्रति अनुरागी थे
उन भरत राज के भारत का
आज भी गौरव है सारे संसार में
अध्यात्म और अहिंसा के रूप में
बंधुओं! यदि आपको भरत के भारत से प्यार है
तो भरत जी की वीतरागी प्रतिमा विराजमान करो
भरत के भारत का पुनर्निमाण करो
तभी जानेगा सारा संसार है
चक्रयुक्त भरत का स्टेचू बनाओ
मंदिर में उनकी मूर्ति पधराओ
उनके परिचय के शिलालेख लगाओ
उनके त्याग-वैराग्य का संदेश
जन जन तक पहुँचाओ
युग के प्रथम चक्रवर्ती
इक्ष्वाकुवंशी
उन्होंने राज्य भी किया
सब कुछ त्याग भी किया
उन भरत के भारत से
हमें अध्यात्म और अहिंसा का निर्यात करना है
यहाँ के तीर्थ-सन्त और भगवन्तों के साथ रहना है
जय हो भरत के भारत की जय
आदि ऋषभ के पुत्र भरत का भारत देश महान,
मेरा भारत देश महान-२।।
पहले भरतराज बने चक्री।
जीत लिया छह खण्ड की धरती।।
आत्म प्रभा में रत होकर फिर पाया केवलज्ञान,
मेरा भारत देश महान।
ऋषभजयंती सब मनाओ, भरत राज के गुणों को भी गाओ।
तीर्थंकर की महिमा बताओ, भरतराज के गुणों को भी गाओ।।
धरा पर यहाँ कर्मभूमि व्यवस्था, ऋषभदेव प्रभु ने बताई सभी को।
असि-मसि-कृषि-विद्या-वाणिज्य-शिल्प से जीवन कला भी सिखाई है सभी को।
अयोध्या की महिमा बताओ, भरतराज के गुणों को भी गाओ।।