तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर माता के आँगन में त्रिकाल में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा प्रतिदिन करता है। इस प्रकार छह महीने पहले से लेकर नौ महीने पर्यंत पन्द्रह महीने तक रत्न और सुवर्ण की वर्षा होती रहती है। अनन्तर गर्भावतरण के प्रसंग में रात्रि के पिछले प्रहर में माता को सोलह स्वप्न दिखते हैं। वह माता प्रातःकाल राजसभा में आकर अपने पतिदेव से उन स्वप्नों का फल पूछती हैं और वे राजा उन स्वप्नों का फल अपने अवधिज्ञान से बतलाते हैं।
सोलह स्वप्न
वे कहते हैं कि हे देवि! सबसे प्रथम ऐरावत हाथी के देखने से तुम्हें उत्तम पुत्र प्राप्त होगा। धवल, उत्तम बैल को देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा। सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त होगा। मालाओं के देखने से समीचीन धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा। लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा। चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा। सूर्य के देखने से दैदीप्यमान प्रभा का धारक होगा। दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा। मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा। सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा। समुद्र के देखने से केवली होगा। सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा। देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा। नागेन्द्र का भवन देखने से वह अवधिज्ञान लोचन से सहित होगा। चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी र्इंधन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर भगवान अपना शरीर धारण करेंगे। इस प्रकार पतिदेव के वचन सुनकर रानी हर्ष से रोमांचित हो जाती हैं। उस समय भगवान स्वर्ग से अवतीर्ण होकर माता के गर्भ में सीप के सम्पुट में मोती की तरह सब बाधाओं से निर्मुक्त होकर स्थित हो जाते हैं। उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आते हैं और नगर की प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिता को नमस्कार करके संगीत, नृत्य, महोत्सव आदि से अनेकों उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थानों पर वापस चले जाते हैं, उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये षट्कुमारियाँ और दिक्कुमारियाँ माता के समीप रहकर माता की सेवा, स्तुति और तत्त्व गोष्ठियों से माता का मन अनुरंजित करने लगती हैं। तीर्थंकर का जन्म होेते ही इन्द्रों के आसन कम्पित हो जाते हैं, देवों के मुकुट स्वयं झुक जाते हैं, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगती है। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से अपने आप ही घंटा, सिंहनाद, भेरी और शंखों के शब्द होने लगते हैं। इन चिन्ह विशेषों से देवगण भगवान के जन्म को समझ लेते हैं। तीन लोक के नाथ का जन्म होते ही सर्वत्र सुख की लहर दौड़ जाती है। इन्द्र की आज्ञा पाकर सभी चतुर्निकाय के देवगण और देवों की सेनाएँ स्वर्ग से निकलती हैं। सौधर्म इन्द्र इन्द्राणी सहित एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी पर चढ़कर आकर नगरी की त्रिप्रदक्षिणा देकर अयोध्या नगरी में पहुँच जाता है। इन्द्राणी द्वारा प्रसूति गृह से लाये गये जिन बालक का दर्शन कर सौधर्म इन्द्र उसे गोद में लेकर हाथी पर बैठकर सुमेरुपर्वत की ओर प्रस्थान कर देता है। उस समय करोड़ों बाजों की ध्वनि से, नृत्यगीत महोत्सव से सर्वत्र आनंद मंगल हो जाता है। सुमेरु पर्वत पर ईशान कोण की पांडुक शिला पर सिंहासन पर भगवान को विराजमान करके इन्द्र अपनी हजारों भुजाओं के द्वारा हजारों कलशों को एक साथ लेकर जिन बालक का अभिषेक करता है। सभी इन्द्र-देवगण अभिषेक, पूजा, स्तुति आदि से महान् सातिशय पुण्य का बंध कर लेते हैं। अनन्तर इन्द्राणियाँ भी भगवान का अभिषेक कर भगवान को वस्त्राभरणों से अलंकृत करती हैं। इन्द्र वहीं पर तीर्थंकर का नामकरण कर देते हैं पुनः वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर तांडव नृत्य आदि करके माता-पिता की पूजा करके भगवान की सेवा के लिए समान अवस्था और समान वेष वाले देवकुमारों को निश्चित कर अपने-अपने स्वर्ग को चले जाते हैं। भगवान माता का दूध नहीं पीते हैं किन्तु इन्द्र के द्वारा हाथ के अँगूठे में स्थापित अमृत को पीते हुए-अँगूठे को चूसते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं। भगवान अपनी पहली अवस्था में मन्द-मन्द हँसते हुए, देव बालकों के साथ रत्नधूलि में क्रीड़ा करते हुए माता-पिता के आनन्द को बढ़ाते रहते हैं। मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान के धारी होने से समस्त वाङ्मय को प्रत्यक्ष करने वाले सरस्वती के एकमात्र स्वामी भगवान समस्त लोक के स्वयं गुरु कहलाते हैं अतः वे किसी को गुरु नहीं बनाते हैं। भगवान के जन्म से ही दश अतिशय विशेष होते हैं। भगवान के लिए स्वर्ग के रत्न पिटारों से लाई गई भोगोपभोग सामग्री का गृहस्थाश्रम में भगवान उपभोग करते हैं। किसी निमित्त से या स्वभाव से ही तीर्थंकर को जब वैराग्य होता है तब लौकांतिक देव आकर भगवान के वैराग्य की स्तुति करते हुए अपनी भक्ति प्रगट करते हैं। देवों द्वारा लाई गई पालकी पर भगवान आरूढ़ होते हैं और पहले राजागण अनन्तर विद्याधर मनुष्य उस पालकी को ले जाते हैं पश्चात् देवगण पालकी को दीक्षावन तक ले जाते हैं। वहाँ शुद्ध शिला पर भगवान विराजमान होकर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्वपरिग्रह त्याग करके ‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः’ कहते हुए दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भगवान के केशों को इन्द्रगण रत्नपिटारे में रखकर बड़े आदर से क्षीरसमुद्र में क्षेपण करते हैं। भगवान केवलज्ञान प्रकट होने तक छद्मस्थ अवस्था में मौन रखते हैं। जब भगवान के ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाश हो जाता है, तब उन्हें तीनलोक और अलोक को स्पष्ट एक समय में प्रत्यक्ष दिखलाने वाला ऐसा केवलज्ञान-पूर्णज्ञान प्रकट हो जाता है। उस समय भगवान का आकाश में पाँच हजार धनुष ऊपर गमन हो जाता है। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। इस भूमि से एक हाथ ऊँचाई से समवसरण की सीढ़ियाँ प्रारंभ हो जाती हैं जो कि एक-एक हाथ प्रमाण की बीस हजार रहती हैं। इन सीढ़ियों को सभी अंधे, लंगड़े, बालक, वृद्ध, रोगी एक अन्तर्मुहूर्त में पार कर लेते हैं। संक्षेप में समवसरण की रचना इस प्रकार है- सबसे पहले धूलिसाल कोट है, उसके बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जल से भरी हुई परिखा है, फिर पुष्पवाटिका-लतावन है, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे और दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएं हैं, उसके आगे दूसरा अशोक आदि का वन है, उसके आगे वेदिका है, तदनंतर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके आगे स्तूप और स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएं हैं, तदनन्तर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान अरहंत देव विराजमान रहते हैं। अरहंत देव स्वभाव से ही पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुखकर जिस समवसरण भूमि में विराजमान होते हैं, उसके चारों ओर प्रदक्षिणारूप से क्रमपूर्वक बारह१ गणों के बैठने योग्य बारह सभाएँ होती हैं। केवलज्ञान प्रकट होने पर तीर्थंकर भगवान को दश अतिशय और प्रकट हो जाते हैं तथा देवों द्वारा किये गये १४ अतिशय प्रकट हो जाते हैं। भगवान के आठ प्रातिहार्य होते हैं तथा चार अनन्त चतुष्टय भी प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान बहुत काल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते हैं। अनन्तर योग निरोध कर शेष अघातिया कर्मों का भी नाश कर मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। वहाँ अनन्तानन्तकाल तक स्वात्मजन्य सुख का अनुभव करते रहते हैं।
प्रथम तीर्थंकर
भगवान ऋषभदेव कैसे बने?
इसी जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में एक ‘गंधिल’ नाम का देश है जो की स्वर्ग के समान शोभायमान है । उस देश में हमेशा श्री जिनेन्द्र रूपी सूर्य का उदय रहता है इसलिए वहाँ मिथ्यादृष्टियों का उदय कभी नहीं होता । इस देश के मध्य भाग में रजतमय एक विजयार्ध नाम का बड़ा भारी पर्वत है । उस विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक अलका नाम की श्रेष्ठपुरी है । उस अलकापुरी का राजा अतिबल नाम का विद्याधर था, जिसकी मनोहरा नाम की पतिव्रता रानी थी । उन दोनों के अतिशय भाग्यशाली महाबल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । किसी समय भोगों से विरक्त हुए महाराज अतिबल ने राज्याभिषेक पूर्वक अपना समस्त राज्य महाबल पुत्र को सौंप दिया और आप अनेक विद्याधरों के साथ वन में जाकर दीक्षा ले ली । महाबल राजा के चार मंत्री थे जो महाबुद्धिमान, स्नेही और दीर्घदर्शी थे, उनके नाम – महामति, संभिन्न्मति, शतमति और स्वयंबुद्ध थे । इनमें स्वयंबुद्ध सम्यग्दृष्टि व शेष तीनों मिथ्यादृष्टि थे । किसी समय अपनी जन्म गाँठ के उत्सव में राजा महाबल सिंहासन पर विराजमान थे। उस समय अनेकों उत्सव, नृत्य, गान और विद्वद्गोष्ठियाँ हो रही थीं। उस समय अवसर पाकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने स्वामी के हित की इच्छा से जैनधर्म का मार्मिक उपदेश दिया। उसके वचनों को सुनने के लिए असमर्थ भूतवादी महामति मंत्री ने नास्तिक मत को सिद्ध करते हुए जीव तत्त्व का अभाव सिद्ध कर दिया। संभिन्नमति मंत्री ने विज्ञानवाद का आश्रय लेकर जीव का अभाव करना चाहा, उसने कहा ज्ञानमात्र ही तत्त्व है और सब भ्रममात्र है। इसके बाद शतमति मंत्री ने शून्यवाद का अवलम्बन लेकर सकल जगत् को शून्यमात्र सिद्ध कर दिया। वर्तमान में ये दोनों बौद्धमत से जाने जाते हैं। इन तीनों की बातें सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने तीनों के एकान्त दुराग्रह का न्याय और आगम के द्वारा खंडन करके सच्चे स्याद्वादमय अहिंसा धर्म की सिद्धि करके उन्हें निरुत्तर कर दिया और राजा को प्रसन्न कर लया। इसके बाद किसी एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री अकृत्रिम चैत्यालय की वन्दना के लिए सुमेरु पर्वत पर गया, वहाँ पहुँचकर उसने पहले प्रदक्षिणा दी फिर भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार किया और पूजा की, यथाक्रम से भद्रसाल वन आदि के समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वंदना की और सौमनसवन के चैत्यालय में बैठ गया। इतने में ही विदेह क्षेत्र से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनि अकस्मात् देखे। वे दोनों ही मुनि ‘युगमंधर’ भगवान के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंस थे। मंत्री ने उठकर उन्हें प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम करके पूजा और स्तुति की। अनन्तर प्रश्न किया-हे स्वामिन्! विद्याधर का राजा महाबल हमारा स्वामी है, वह भव्य है या अभव्य? मेरे द्वारा सन्मार्ग प्रदर्शक जैनधर्म के उपदेश को जैसा प्रमाण मानता है वैसे श्रद्धान भी करेगा या नहीं? इस प्रश्न के बाद आदित्यगति नामक अवधिज्ञानी मुनि कहने लगे-हे भव्य! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है, वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और आज से दशवें भव में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगा, इसके पूर्वभव को तुम सुनो। जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहाँ के श्रीषेण राजा की सुन्दरी रानी से जयवर्मा और श्रीवर्मा ऐसे दो पुत्र हुए थे। पिता ने योग्यता और स्नेह के निमित्त से छोटे पुत्र श्रीवर्मा को राज्य दे दिया तब जयवर्मा विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा और किसी समय आकाशमार्ग में जाते हुए महीधर विद्याधर को देखकर ‘विद्याधर’ होने का निदान कर लिया, इतने में ही सर्प के डसने से मरकर यहाँ पर तुम्हारा स्वामी महाबल हुआ है। आज रात्रि में उसने दो स्वप्न देखे हैं तुम जाकर उनका फल कहकर उसके पूर्वभव सुनाओ, उसका कल्याण होने वाला है। गुरु के वचन से मंत्री वहाँ शीघ्र ही आकर बोले-राजन्! आपने जो स्वप्न देखा है कि तीनों मंत्रियों ने आपको कीचड़ में डाल दिया और मैंने उठाकर सिंहासन पर बैठाया, सो यह मिथ्यात्व के कुफल से आप निकलकर जिनधर्म में आ गये हैं। दूसरे स्वप्न में जो आपने अग्नि की ज्वाला क्षीण होते देखी उसका फल आपकी आयु एक माह की शेष रही है। आप इस भव से दसवें भव में प्रथम तीर्थंकर होंगे, इत्यादि सारी बातें मंत्री को सुना दीं। राजा महाबल ने भी अपने पुत्र अतिबल को राज्यभार सौंपकर सिद्धवूâट चैत्यालय में जाकर सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा करके गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्त के लिए चतुराहार त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और धर्मध्यानपूर्वक मरण करके ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नाम का उत्तम देव हो गया। जब उसकी आयु पृथक्त्व पल्य के बराबर रह गई तब उसे स्वयंप्रभा नाम की एक और देवी प्राप्त हुई। अन्य देवियों की अपेक्षा ललितांग देव को यह देवी विशेष प्यारी थी। जब इस देव की माला आदि मुरझाई तब मृत्यु निकट जानकर शोक करते हुए इसको अनेकों देवों ने सम्बोधन प्रदान किया जिसके फलस्वरूप इस देव ने पन्द्रह दिन तक जिन चैत्यालयों की पूजा की और अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करके वहीं पर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठकर उच्चस्वर से महामंत्र का उच्चारण करते हुए सल्लेखना से मरण को प्राप्त हो गया। जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश है, उसके उत्पलखेटक नगर के राजा वङ्काबाहु और रानी वसुन्धरा से वह ललितांग देव ‘वङ्काजंघ’ नाम का पुत्र उत्पन्न हो गया। उधर अपने पति के अभाव में वह पतिव्रता स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिन पूजा में तत्पर रही पश्चात् सौमनसवन संबंधी पूर्व दिशा के जिन मंदिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग किये और विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वङ्कादंत की महारानी लक्ष्मीमती से ‘‘श्रीमती’’ नाम की कन्या हो गई। कालांतर में निमित्तवश इन वङ्काजंघ और श्रीमती का विवाह हो गया, इनके उनंचास युगल पुत्र अर्थात् अट्ठानवे पुत्र उत्पन्न हुए। किसी समय वे सभी अपने बाबा के साथ दीक्षित हो गये। एक समय श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वङ्कादन्त ने छोटे से पोते पुंडरीक का राज्याभिषेक कर दिया और विरक्त होकर पुत्र के साथ दीक्षा ले ली। उस समय लक्ष्मीमती माता ने अपनी पुत्री और जमाई को बुलाया। ये दोनों वैभव के साथ पुंडरीकिणी नगरी की ओर आ रहे थे, मार्ग में किसी वन में पड़ाव डाला। वहाँ पर आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर और सागरसेन मुनियुगल वङ्काजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों मुनियों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की थी। वहाँ वङ्काजंघ ने श्रीमती सहित भक्ति से नवधाभक्ति सहित विधिवत् आहार दान दिया और पंचाश्चर्य को प्राप्त हुए। अनन्तर उन्हें वंâचुकी से विदित हुआ कि ये दोनों मुनि हमारे ही अंतिम पुत्रयुगल हैं। राजा वङ्काजंघ और श्रीमती ने उनसे अपने पूर्वभव सुने और धर्म के मर्म को भी समझा। अनन्तर पास में बैठे हुए नकुल, सिंह, वानर और सूकर के पूर्वभव सुने। उन मुनियों ने यह भी बताया कि आप आठवें भव में ऋषभ तीर्थंकर होवोगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांसकुमार होगा। किसी समय वङ्काजंघ महाराज रानी सहित अपने शयनागार में सोये हुए थे। उसमें नौकरों ने कृष्ण, अगुरु आदि से निर्मित धूप खेई थी, वे नौकर रात में खिड़कियाँ खोलना भूल गये, जिसके निमित्त से धुएँ से कण्ठ रुंधकर वे पति-पत्नी दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। आश्चर्य है कि भोग सामग्री प्राणघातक बन गई थी। वे दोनों दान के प्रभाव से मरकर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में भोगभूमियाँ हो गये। वे नकुल आदि भी दान की अनुमोदना से भोगभूमि को प्राप्त हो गये। किसी समय दो चारण मुनि आकाशमार्ग से वहाँ भोगभूमि में उतरे और इन वङ्काजंघ आर्य और श्रीमती आर्या को सम्यग्दर्शन का उपदेश देने लगे। ज्येष्ठ मुनि बोले-हे आर्य! तुम मुझे स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव समझो, मैंने तुम्हें महाबल पर्याय में जैनधर्म ग्रहण कराया था। उन दोनों दम्पत्तियों ने मुनियों के प्रसाद से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और आयु के अंत में च्युत होकर ऐशान स्वर्ग में ‘‘श्रीधर’’ देव और ‘‘स्वयंप्रभ’’ नाम के देव हुए अर्थात् श्रीमती का जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्रीपर्याय को छोड़कर देव पद को प्राप्त हो गया। एक दिन श्रीधर देव ने अपने गुरु (स्वयंबुद्ध मंत्री के जीव) प्रीतिंकर मुनिराज के समवसरण में जाकर पूछा-भगवन्! मेरे महाबल के भव में जो तीन और मंत्री थे, वे इस समय कहाँ हैं? भगवान ने बताया कि उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो तो निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं और शतमति नरक गया है। तब श्रीधर देव ने नरक में जाकर शतमति के जीव को सम्बोधित किया था तथा निगोद के जीवों को सम्बोधन का सवाल ही नहीं है। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में महावत्स देश है, उसकी सुसीमा नगरी के सुदृष्टि राजा की सुन्दरनन्दा रानी से वह श्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर ‘सुविधि’ नाम का पुत्र हुआ था। कालान्तर में सुविधि की रानी मनोरमा से स्वयंप्रभदेव (श्रीमती का जीव) स्वर्ग से च्युत होकर केशव नाम का पुत्र हो गया अर्थात् वङ्काजंघ का जीव सुविधि राजा हुआ और श्रीमती का जीव उसका पुत्र हुआ है। कदाचित् सुविधि महाराज दैगम्बरी दीक्षा लेकर अन्त में मरकर अच्युतेन्द्र हुए, केशव ने भी निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया। यह अच्युतेन्द्र, जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में वङ्कासेन राजा और श्रीकान्ता रानी से ‘वङ्कानाभि’ नाम का चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रीमतीे का जीव केशव, जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था, वह भी वहाँ से च्युत होकर इसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् की अनन्तमती पत्नी से धनदेव नाम का पुत्र हुआ। वङ्कानाभि के पिता तीर्थंकर थे और वह स्वयं चक्रवर्ती था। चक्ररत्न से षट्खण्ड वसुधा को जीतकर चिरकाल तक साम्राज्य सुख का अनुभव किया। किसी समय पिता से दुर्लभ रत्नत्रय के स्वरूप को समझकर अपने पुत्र वङ्कादन्त को राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाईयों और धनदेव के साथ-साथ पिता वङ्कासेन तीर्थंकर के समवसरण में जिन दीक्षा धारण कर ली और कुछ दिन बाद तीर्थंकर के ही निकट सोलह कारण भावनाओं का चिंतवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। ध्यान की विशुद्धि से ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच गये और वहाँ का अन्तर्मुहूर्तकाल पूर्ण कर नीचे उतरे, पुनरपि कदाचित् उपशम श्रेणी में चढ़ गये और वहाँ की आयु समाप्त होते ही मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। ये अहमिन्द्र ही अपनी आयु पूर्ण कर भगवान ‘ऋषभदेव’ नाम के प्रथम तीर्थंकर होवेंगे।
भगवान ऋषभदेव
श्री महाराज नाभिराज की मरुदेवी नाम की रानी थी जो कि अपने रूप, सौंदर्य, कांति, शोभा, द्युति और विभूति आदि गुणों से इन्द्राणी के समान थी। उस मरुदेवी के विवाह के समय इन्द्र के द्वारा प्रेरित हुए उत्तम देवों ने बड़ी विभूति के साथ उनका विवाहोत्सव मनाया था। उस समय संसार में महाराज नाभिराज ही सबसे अधिक पुण्यवान् थे और मरुदेवी ही सबसे अधिक पुण्यवती थी क्योंकि जिनके स्वयंभू भगवान ऋषभदेव पुत्र होंगे उनके समान पुण्यशाली और कौन हो सकता है? उस समय उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए वे दोनों दम्पत्ति ऐसे जान पड़ते थे मानों भोगभूमि की नष्ट हुई लक्ष्मी को ही साक्षात् दिखला रहे हों।
अयोध्या की रचना
जब सर्वत्र कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब नाभिराज और मरुदेवी से अलंकृत स्थान में उनके पुण्य के द्वारा बुलाये हुए इन्द्र ने अयोध्या नगरी की रचना की। उस समय जो मनुष्य जहाँ-तहाँ बिखरे हुए रहते थे, देवों ने उन सबको लाकर उस नगरी में बसाया और सबकी सुविधा के लिए अनेक प्रकार के उपयोगी स्थानों की रचना की। उस नगरी के मध्य में देवों ने राजमहल बनाया था। वह राजमहल इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला था और बहुमूल्य अनेक विभूतियों से सहित था। इस भवन के विषय में अन्यत्र भी लिखा है- उस समय दक्षिण भरतक्षेत्र में कल्पवृक्षरूप प्रासाद था, वही पृथ्वीनिर्मित प्रासाद बन गया था। राजा नाभिराज के उस प्रासाद का नाम ‘सर्वतोभद्र’ था, उसके खम्भे स्वर्णमय थे, दीवालें नाना प्रकार की मणियों से निर्मित थीं। वह पुखराज, मूँगा तथा मोती आदि की मालाओं से सुशोभित था, इक्यासी खण्ड से युक्त था और कोट, वापिका तथा बाग-बगीचों से अलंकृत था। वह अधिष्ठाता श्री नाभिराज के प्रभाव से अकेला ही अनेक कल्पवृक्षों से आवृत्त था तथा पृथ्वी के मध्य अपने स्थान पर अधिष्ठित था। राजा नाभिराज की मरुदेवी नाम की पट्टरानी थी। वह शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई थी तथा जिस प्रकार इन्द्र को इन्द्राणी प्रिय होती है, उसी प्रकार राजा नाभिराज को मरुदेवी प्रिय थीं। वह अयोध्या नगरी सुकौशल देश में थी इसलिए देश के नाम से ‘सुकौशल’ इस प्रसिद्धि को भी प्राप्त हुई थी तथा वह नगरी अनेक विनीत, शिक्षित-पढ़े-लिखे विनयवान् या सभ्य मनुष्यों से व्याप्त थी इसलिए वह ‘विनीता’ भी मानी गई थी। वह अयोध्या नाम की राजधानी अत्यन्त प्रसिद्ध थी और होने वाले बड़े भारी देश की नाभि-मध्यभाग की शोभा धारण करती हुई सुशोभित होती थी। राजभवन, वप्र, कोट और खाई से सहित वह नगरी ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे कर्मभूमि के समय में होने वाले नगरों की रचना प्रारंभ करने के लिए एक प्रतिबिंब-नक्शा ही बनाया गया हो। अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभयोग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया। जिन्हें अनेक संपदाओं की परम्परा प्राप्त हुई थी, ऐसे महाराज नाभिराज ने मरुदेवी के साथ आनन्दित होकर पुण्याहवाचन के समय ही उस अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारंभ किया था। ‘‘इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’’ यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।
भगवान ऋषभदेव का गर्भावतार
छह महीने बाद ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेेंगे, ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की थी। इन्द्र की आज्ञा से नियुक्त हुए कुबेर ने हरिन्मणि, इन्द्रनील मणि, पद्मराग मणि आदि उत्तम-उत्तम रत्नों की धारा को नाभिराज के आंगन में वर्षाया था। इस प्रकार स्वामी ऋषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर पीछे भी नौ महीने तक अर्थात् पन्द्रह महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी।
माता के सोलह स्वप्न
किसी दिन महारानी मरुदेवी ने राजमहल में सोते समय रात्रि के पिछले प्रहर में जिनेन्द्रदेव के जन्मसूचक सोलह स्वप्न देखे। ऐरावत हाथी , शुभ्रबैल , सिंह , हाथी के द्वारा स्वर्णमय कलशों से अभिषिक्त होती हुई कमलासन पर बैठी लक्ष्मी , दो पुष्पमालाएँ , पूर्ण चन्द्र मंडल , उदित होता हुआ सूर्य , कमल पत्र से आवृत स्वर्ण के दो कलश , सरोवर में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ , कमलयुक्त सुन्दर तालाब , लहरों से युक्त गंभीर समुद्र , रत्न निर्मित उत्कृष्ट सिंहासन , रत्नों से दैदीप्यमान स्वर्ग का विमान , नागेन्द्र भवन , किरणों से शोभित रत्नों की राशि , निर्धूम अग्नि इस प्रकार सोलह स्वप्नों को देखने के बाद मरुदेवी ने देखा कि स्वर्ण के समान पीली कांति का धारक, उन्नत कंधों वाला बैल हमारे मुख कमल में प्रवेश कर रहा है। अनंतर मंगलवाद्यों की ध्वनि और सुप्रभात आदि मंगल स्तोत्रों से प्रबोध को प्राप्त हुई वह रानी उठकर बैठ गई। यद्यपि वह स्वप्न देखने के कारण मंगलवाद्य आदि के पहले ही जागृत हो चुकी थी, तो भी उन बंदीजनों ने अनेकों स्तुतियों से माता को जगाते हुए के समान ही आनंदित किया था। अनंतर हर्षित हुई वह मरुदेवी मंगल स्नान कर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो अपने पति के पास पहुँची और विनय से महाराज नाभिराज के दर्शन कर अर्धासन पर सुखपूर्वक बैठकर, राज्य सिंहासन पर विराजमान महाराज नाभिराज से इस प्रकार निवेदन किया-हे देव! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं और उन स्वप्नों को क्रमशः सुनाकर कहा कि हे देव! आप इन स्वप्नों का फल कहिये। महाराज नाभिराज भी अवधिज्ञान से इन स्वप्नों का फल जानकर कहने लगे-हे देवि! सुनो, ऐरावत हाथी के देखने से तुम्हारे उत्तम पुत्र होगा, उत्तम बैल देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा, सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त होगा, मालाओं के देखने से समीचीन धर्म के तीर्थ का चलाने वाला होगा, लक्ष्मी के देखने से सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा, पूर्ण चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा, सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा, दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा, मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा, सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा, समुद्र को देखने से केवली होगा, सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा, देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा, नागेन्द्र का भवन देखने से वह अवधिज्ञानरूपी लोचनों से सहित होगा, चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी र्इंधन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अपना शरीर धारण करेेंंगे। इस प्रकार महाराजा नाभिराज के वचनों को सुनकर रानी मरुदेवी परमानन्द से रोमांच को प्राप्त हो गई थी। जब अवसर्पिणी के तीसरे सुषमादुःषमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ मास और एक पक्ष बाकी रह गया था, तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि नाम के अहमिंद्र देव-देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए और वहाँ सीप के संपुट में मोती की तरह सब बाधाओं से रहित होकर स्थित हो गये। उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आये और सभी ने नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिता को नमस्कार किया। महाराज नाभिराज का आंगन देवों से खचाखच भर गया। सौधर्म इन्द्र देवोंं के साथ संगीत, नृत्य आदि अनेकों उत्सवों से गर्भकल्याणक उत्सव मनाकर माता-पिता की पूजा कर अपने-अपने स्थानों पर चले गये। उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान माता मरुदेवी की सेवा करने लगीं। परिचर्या करते समय सबसे पहले देवियों ने स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थों के द्वारा माता का गर्भ शोधन किया था। यद्यपि वह माता स्वभाव से ही निर्मल थी, रजस्वला और मल, मूत्र आदि दोषों से रहित थी, फिर भी देवियों ने उसे विशुद्ध किया था। उन देवियों में कोई तो माता के आगे अष्टमंगल द्रव्य धारण करती थी, कोई ताम्बूल देती थी, कोई स्नान कराती थी, कोई आभूषणों से अलंकृत करती थी, कोई चौक पूरतीं, कोई चन्दन से पृथ्वी का सिंचन करती, कोई आरती उतारती और कितनी ही देवियाँ मन्त्राक्षरों के द्वारा उसका रक्षा बन्धन करती थीं। वे देवियाँ विशिष्ट-विशिष्ट काव्य गोष्ठियों से, तत्त्व गोष्ठियों से बड़े आदर के साथ गर्भवती मरुदेवी को प्रसन्न करने लगी थीं और अनेकों गूढ़ प्रश्न, पहेलिकाएं भी करती रहती थीं। माता मरुदेवी भी भगवान के प्रसाद से ही कठिन से कठिन पदों का, पहेलियों का अर्थ भी निमिषमात्र में करके देवियों को आश्चर्यचकित कर देती थीं। वे भगवान ऋषभदेव माता के उदर में स्थित होकर भी उसे किसी प्रकार का कष्ट उत्पन्न नहीं करते थे। यद्यपि माता मरुदेवी का कृश उदर पहले के समान ही त्रिवलियों से सुशोभित बना रहा तथापि गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता गया सो यह भगवान के तेज का ही प्रभाव था। न तो माता के उदर में कोई विकार हुआ था, न उनके स्तनों के अग्रभाग ही काले हुए थे, न उनका मुख ही सपेâद हुआ था यह एक आश्चर्य की बात है। मरुदेवी के निर्मल गर्भ में स्थित तथा मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानों से विशुद्ध अन्तःकरण को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे जैसे कि स्फटिकमणि के बने हुए घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है। अपने समस्त पापों का नाश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी गई इन्द्राणी भी अप्सराओं के साथ-साथ गुप्तरूप से महासती मरुदेवी की सेवा किया करती थीं। जिस प्रकार अतिशय शोभायमान चन्द्रमा की कला और सरस्वती देवी किसी को नमस्कार नहीं करतीं किन्तु सब लोग उन्हें नमस्कार करते हैं, उसी प्रकार वह मरुदेवी भी किसी को नमस्कार नहीं करती थीं किन्तु संसार के अन्य समस्त लोग स्वयं उसे ही नमस्कार करते थे। इस विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है? इतना ही कहना बस है कि वह जगत् के स्रष्टा अर्थात् भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने वाले श्री ऋषभदेव की जननी थीं इसलिए कहना चाहिए कि वह समस्त लोक की जननी थीं।
भगवान ऋषभदेव का जन्म
नव महीने व्यतीत होने पर श्री, ह्री आदि देवियों से सेवित माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान, बालक होने पर भी गुणों से वृद्ध तथा तीनों लोगों के एकमात्र स्वामी दैदीप्यमान पुत्र श्री ऋषभदेव को उत्पन्न किया। उस समय समस्त दिशाएँ निर्मल हो गर्इं, प्रजा का हर्ष बढ़ गया, कल्पवृक्षों से स्वयं ही पुष्प बरसने लगे, देवों के स्थानों में बिना बजाये स्वयं ही दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे एवं शीतल तथा सुगन्धित वायु मन्द-मन्द बहने लगी, अकस्मात् सभी देवों के आसन कम्पित होने लगे एवं देवों के मस्तक में लगे हुए मुकुट स्वयमेव नम्रीभूत हो गये। कल्पवासी देवों के घरों में घंटा, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद, व्यन्तर देवों के यहाँ भेरी शब्द एवं भवनवासी देवों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी। आसन के कम्पित होने से इन्द्र ने भी अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर सूर्य के उदय को जानकर आसन से उतर कर भक्तिभाव से परोक्ष में ही भगवान को नमस्कार किया।
इन्द्र का आगमन
तदनन्तर सौधर्म स्वर्ग के सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी पर चढ़कर अनेक देवों से परिवृत हो प्रस्थान किया। इन्द्र की आज्ञा पाकर स्वर्गों से हाथी, घोड़े आदि की सात प्रकार की सेनाएँ, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद आदि सभी प्रकार के देव, इन्द्र को चारों ओर से घेर कर चलने लगे। सभी देव-देवेन्द्र अपने-अपने विमानों और पृथक्-पृथक् वाहनों पर चढ़कर जय-जय शब्दोच्चारण करते हुए समस्त आकाशरूपी आंगन को व्याप्त कर आ रहे थे। देवों से घिरे हुए सौधर्म इन्द्र अयोध्या नगरी की प्रदक्षिणा देकर अयोध्यापुरी में पहुँच गये।
प्रसूतिगृह से जिनबालक का लाना
इन्द्राणी ने बड़े ही उत्सव से प्रसूतिगृह में प्रवेश किया और वहीं जिन बालक के साथ-साथ माता मरुदेवी के दर्शन किये। पहले कई बार प्रदक्षिणा देकर जगद्गुरु जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया और अपने को गुप्त रखते हुए ही अनेक प्रकार से जिनमाता की स्तुति की और उसे मायामयी नींद से युक्त कर दिया। उसके आगे मायामयी दूसरा बालक रखकर तेजपुंज जगद्गुरु भगवान को दोनों हाथों से उठाकर वह परम आनन्द को प्राप्त हुई और भगवान के शरीर का बार-बार स्पर्श करते हुए महान् पुण्यबंध करके अपनी स्त्रीपर्याय का छेद कर दिया। जिनबालकरूपी सूर्य को लेकर जाती हुई उस इन्द्राणी के आगे-आगे अष्ट मंगल द्रव्य धारण करने वाली दिक्कुमारी देवियाँ चल रही थीं और वे ऐसी मालूम पड़ती थीं कि मानों भगवान की ऋद्धियाँ ही हों। अपने को कृतकृत्य मानती हुई इन्द्राणी ने आदर सहित जिन सूर्य को इन्द्र के हाथों में विराजमान कर दिया।
इन्द्र का भगवान को गोद में लेकर मेरु पर्वत पर गमन
भगवान को गोद में लेकर सौधर्म इन्द्र हर्ष से नेत्रों को प्रपुâल्लित करते हुए भगवान के सुन्दर रूप को देखते हुए और अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए भी तृप्त नहीं हुआ, तब उसने अपने एक हजार नेत्र और बना लिये पुनः शीघ्रता से मेरु पर्वत पर चलने का इशारा करने के लिए इन्द्र ने अपना हाथ ऊँचा उठाया। उस समय हे ईश! आपकी जय हो! आप समृद्धिमान हो! इत्यादि मंगल शब्दों को जोर-जोर से कहते हुए देवों ने इतना अधिक कोलाहल किया था कि समस्त दिशाएँ बहरी हो गई थीं। आकाश मार्ग से जाते हुए देवगण स्तुति, नृत्य, संगीत आदि से मार्ग में करोड़ों उत्सव मना रहे थे। भगवान सौधर्म इन्द्र की गोद में बैठे हुए थे। ऐशान इन्द्र सपेâद छत्र लगाकर उनकी सेवा कर रहा था और सानत्कुमार तथा माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र प्रभु के दोनों ओर क्षीरसागर की लहरों के समान सपेâद चमर ढोर रहे थे। उस समय की विभूति देखकर अन्य मिथ्यादृष्टि देव इन्द्र को प्रमाण मानकर समीचीन जैनमार्ग में श्रद्धा करने लगे थे। मेरुपर्वतपर्यन्त नीलमणियों से बनाई गई सीढ़ियाँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो आकाश ही भक्ति से सीढ़ीरूप पर्याय को प्राप्त हो गया हो। क्रम-क्रम से वे इन्द्रगण ज्योतिष पटल को उल्लंघन कर निन्यानवे हजार योजन ऊँचे उस सुमेरु पर्वत पर जा पहुँचे।
पांडुकशिला पर जिन बालक का जन्म महोत्सव
इन्द्र ने बड़े प्रेम से देवों के साथ-साथ उस गिरिराज सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दी और पांडुक वन में ऐशान दिशा में स्थित पांडुक नामक शिला पर जिनेन्द्र भगवानरूपी सूर्य को विराजमान किया। वह शिला अत्यन्त पवित्र है, सौ योजन लम्बी पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊँची है और अर्ध चन्द्राकार है। इस शिला के मध्य में जिनेन्द्र भगवान को विराजमान करने के लिए श्रेष्ठ सिंहासन है और आजू-बाजू में सौधर्म-ईशान इन्द्र के लिए दो भद्रासन हैं। जिनेन्द्र भगवान के जन्म कल्याणक की विभूति को देखने के लिए देवगण उस पांडुक शिला को घेरकर सभी दिशाओं में क्रम-क्रम से यथा योग्य रूप में बैठ गये और देवों की सेना भी उस पांडुक वन में आकाशरूपी आंगन को रोककर मेरु पर्वत के ऊपरी भाग में व्याप्त होकर जा ठहरी। सौधर्म इन्द्र भगवान को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके पांडुकशिला पर रखे हुए सिंहासन पर विराजमान कर उनका अभिषेक करने के लिए तत्पर हुआ। उस समय समस्त आकाश को व्याप्त कर देवो के ददुभि बाजे बजने लगे, अप्सरायें नृत्य करनी लगीं। इन्द्रों ने वहीं पर एक ऐसे बड़े भारी मण्डप की रचना की थी जिसमें तीनों लोकों के समस्त प्राणी परस्पर में बाधा न देते हुए बैठ सकते थे, उस मण्डप में कल्पवृक्ष के पुष्पों से निर्मित अनेक प्रकार की मालाएँ लटक रही थीं। सौधर्म इन्द्र ने उस अवसर की प्रस्तावनाविधिरूप समस्त विधि करके भगवान के अभिषेक के लिए चन्दन से चर्चित प्रथम कलश उठाया और कलश को उठाने के मंत्र को जानने वाले ऐशान इन्द्र ने दूसरा कलश उठाया। ये कलश आठ योजन गहरे, मुख पर एक योजन चौड़े और उदर में चार योजन चौड़े, सुवर्णमय होते हैं। देवों के द्वारा हाथों-हाथ क्षीरसमुद्र से लाये गये क्षीर जल से पूर्ण भरे हुए हैं। इनके कण्ठों में मोतियों की मालाएं लटक रही हैं और चन्दन से चर्चित अशोक पल्लव आदि से सुशोभित हो गये हैं। उन सभी कलशों को एक साथ उठाने के लिए इन्द्र ने विक्रिया से एक हजार भुजाएँ बना लीं और सभी कलशों से एक साथ अभिषेक प्रारंभ कर दिया। जब सौधर्मेन्द्र ने जय-जय शब्द करते हुए पहली जलधारा भगवान के मस्तक पर छोड़ी, उसी समय जय-जय बोलते हुए अन्य करोड़ों देवों ने भी बड़ा भारी कोलाहल किया था। अन्य सभी इन्द्रों ने भी बहुत से जल से भरे हुए सुवर्ण कलशों से एक साथ अभिषेक किया। वह अभिषेक उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि मानों एक साथ बहुत सी गंगा-सिंध्वादि नदियाँ ही भगवान के मस्तक पर पड़ रही हों। यद्यपि भगवान तत्काल जन्मे बालक थे, फिर भी वे मेरु के समान अचल, अकम्प थे। भगवान के अभिषेक से उछला हुआ जलप्रवाह से मेरुपर्वत से नीचे भूमि तक पड़ता हुआ ऐसा मालूम पड़ता कि मानों यह क्षीरसागर का जलप्रवाह मेरु पर्वत को खड़े नाप से ही नाप रहा हो। ऊपर से लेकर नीचे पृथ्वीतल तक सभी ओर से जलप्रवाह से तर हो रहा यह मेरुपर्वत ‘यह स्फटिक मणि का पर्वत है? यह अमृत की राशि ही है?’ इत्यादि कल्पनाओं को उत्पन्न कर रहा था। जब शुद्ध जल से अभिषेक समाप्त हो गया था, तब इन्द्र ने शुभ सुगंधित द्रव्यों के जल से भगवान का अभिषेक करना प्रारंभ किया था तत्पश्चात् इन्द्र सुगंधित जल से भगवान का अभिषेक कर जगत की शांति के लिए उच्च स्वर से शांति मंत्र पढ़ने लगे। देवों ने उस गंधोदक को पहले अपने मस्तकों पर लगाया, फिर सारे शरीर में लगाया और फिर बाकी बचे हुए को स्वर्ग ले जाने के लिए रख लिया। अभिषेक समाप्त होने पर देवों ने त्रिलोकपूज्य उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप भगवान की प्रदक्षिणा देकर मंत्रों से पवित्र हुए जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अघ्र्य के द्वारा पूजा की। जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र था, मेरु पर्वत पर स्नान करने का सिंहासन था, देवियाँ नृत्य करने वाली थीं, देव विंâकर थे और क्षीर-समुद्र स्नान करने का कटाह था, इस प्रकार अतिशय प्रशंसनीय मेरुपर्वत पर जिनका स्नपन महोत्सव समाप्त हुआ था, वे पवित्र आत्मा वाले भगवान समस्त जगत् को पवित्र करें। अनन्तर इन्द्राणी ने बड़े भक्तिभाव से भगवान को अलंकार पहनाना प्रारंभ किया, भगवान के जल कणों को वस्त्र से पोंछकर ललाट पर तिलक लगाया तथा माला, मुकुट, मुद्रिका, बाजूबंद, वंâकण, करधनी आदि से और दिव्य वस्त्रों से विभूषित किया था। उस समय के भगवान के रूप को देखते हुए इन्द्र तृप्त नहीं हुआ, तब उसने एक हजार नेत्र बना लिये थे। सभी देवों ने, असुरों ने भी भगवान के रूप को टिमकार रहित नेत्रों से एकटक देखते हुए अपनी देवपर्याय को सफल माना था पुनः इन्द्र ने और सभी देवों ने भी अनेक प्रकार से भगवान की स्तुति की थी। तत्पश्चात् इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव को लेकर देवों के साथ उत्कृष्ट लक्ष्मी से सुशोभित महाराज नाभिराज के घर में प्रवेश किया और देवों द्वारा रचित श्रीगृह के आंगन में बालकरूपधारी भगवान को िंसहासन पर विराजमान किया तथा माता-पिता को प्रसन्न करते हुए इन्द्र ने आभूषण, माला और बहुमूल्य वस्त्रों से इन जगत्पूज्य माता-पिता की पूजा की पुनः नाना प्रकार के स्तोत्रों से उनकी स्तुति करने लगे। हे पूज्य! आज आपका यह घर हम लोगों के लिए जिनालय के समान पूज्य है और तीन लोक के नाथ प्रथम तीर्थंकर के आप माता-पिता हैं, इसलिए तीन जगत् के ही माता-पिता हैं, इस प्रकार इन्द्र ने अनेक प्रकार से स्तुति करके उनके हाथों में भगवान को सौंप दिया। माता-पिता ने अनेक उत्सव करने वाले पुरवासियों के साथ-साथ बड़ी विभूति से पुनरपि जन्म महोत्सव किया। सारे संसार को आनन्दित करने वाला यह महोत्सव जैसा मेरुपर्वत पर हुआ था, वैसा ही अन्तःपुर सहित इस अयोध्या नगर में हुआ। उन नगरवासियों का आनन्द देखकर अपने आनन्द को प्रकाशित करते हुए इन्द्र ने ‘आनन्द’ नाम नाटक प्रारंभ किया। तीनों लोकों में पैâली हुई कुलाचलों सहित पृथ्वी ही उसकी रंगभूमि थी। स्वयं इन्द्र प्रधान नृत्य करने वाले थे, नाभिराज आदि उत्तम-उत्तम पुरुष उस नृत्य के दर्शक थे, जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव उसके आराध्य (प्रसन्न करने योग्य) देव थे और धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि तथा परमानन्द रूप मोक्ष की प्राप्ति होना ही उसका फल था। उस समय इन्द्र ने पहले त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, कामरूप फल को सिद्ध करने वाला गर्भावतार सबंधी नाटक किया और फिर जन्माभिषेक संबंधी नाटक प्रारंभ किया। अनन्तर भगवान के महाबल आदि दशावतार संबंधी वृत्तांत को लेकर अनेक रूप दिखलाने वाले अन्य अनेकों नाटक किये। पूर्व में मंगलाचरण करके इन्द्र ने पुष्पांजलि क्षेपण कर तांडव नृत्य करना प्रारंभ किया, तब उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए देवों ने आकाश से पुष्पवर्षा की, करोड़ों बाजे एक साथ बजने लगे, किन्नर देवियाँ मंगल गीत गाने लगीं। महाराज नाभिराज मरुदेवी के साथ-साथ वह आश्चर्यकारी नृत्य देखकर बहुत ही चकित हुए और इन्द्रों द्वारा की हुई प्रशंसा को प्राप्त हुए।
नामकरण
ये भगवान जगत भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, इसलिए ही इन्द्रों ने उनका ‘ऋषभदेव’ यह सार्थक नाम रखा था तथा ‘पुरुदेव’, ‘आदिनाथ’ ‘ऋषभदेव’ आदि नाम भी प्रसिद्ध किये। अनन्तर भगवान की सेवा के लिए समान अवस्था, समान रूप और समान वेष वाले देवकुमारों को भगवान के साथ क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया तथा स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, शरीर संस्कार करने और क्रीड़ा कराने के लिए अनेक देवियों को धाय बनाकर नियुक्त करके वे इन्द्रादि अपने-अपने स्थान को चले गये।
भगवान ऋषभदेव की बाल्यावस्था
भगवान ऋषभदेव अपनी पहली शैशव अवस्था में कभी मन्द-मन्द हँसते थे, कभी मणिमयी पृथ्वी पर धीरे-धीरे गिरते पड़ते पैरों से चलते हुए देव बालकों के साथ-साथ रत्नों की धूलि में क्रीड़ा करते हुए माता-पिता का हर्ष बढ़ा रहे थे। जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के धारी होने से वे संसार की स्थिति को समझने वाले और समस्त वाङ्मय को प्रत्यक्ष करने वाले, सरस्वती के एकमात्र स्वामी थे, इसलिए समस्त लोक के गुरु हो गये थे। उनका शरीर असाधारण, मल, मूत्र, पसीना से रहित, तपाये हुए सुवर्ण के सदृश था, उनके शरीर में दूध के समान रुधिर, समचतुरस्र नामक उत्तम संस्थान, वङ्कावृषभनाराच नामक उत्तम संहनन था, सुन्दरता और सुगंधि की परम सीमा को पहुँच चुका था, एक हजार आठ लक्षणों से अलंकृत, अप्रमेय महाशक्तिशाली था, वे भगवान प्रिय तथा हितकारी वचन बोलने वाले थे, वे माता का दूध नहीं पीते थे किन्तु इन्द्र के द्वारा हाथ के अँगूठे में स्थापित अमृत को पीते थे अर्थात् अँगूठे को चूसते हुए वृद्धि को प्राप्त होते थे। चरम शरीर को धारण करने वाले भगवान की आयु चौरासी लाख पूर्व वर्ष की थी। श्री वृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यंजन भगवान के शरीर में विद्यमान थे अर्थात् एक सौ आठ लक्षण और नौ सौ व्यंजन इस प्रकार एक हजार आठ शुभ लक्षण भगवान के शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। इस प्रकार देवों द्वारा लाये गये उत्तमोत्तम भोगों का उपभोग करते हुए सुख से भगवान का शैशव काल व्यतीत हो गया था।
भगवान के लिए देवोपनीत भोजन-वस्त्र आदि
भगवान का कोमल बिस्तर, कोमल आसन, वस्त्र, आभूषण, अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान आदि सभी वस्तुएँ देवनिर्मित थीं। ‘‘सौधर्म१ स्वर्ग में इन्द्र के रहने के भवन की ईशान दिशा में ‘सुधर्मा’ नामक सभामंडप है, इसके मध्य इन्द्र का सिंहासन है, इस आस्थान मण्डप के आगे मानस्तंभ हैं, ये मानस्तंभ एक योजन चौड़े, छत्तीस योजन ऊँचे पीठकर सहित वङ्कामयी एक-एक कोश विस्तार वाले हैं और बारह धारा-पहलू सहित गोल हैं। इन मानस्तंभों में रत्नों की सांकल से लटकते ‘करंडक’ हैं। इनमें तीर्थंकरों के पहनने आदि के वस्त्र, आभरण आदि हैं। भगवान के लिए भोग-उपभोग योग्य वस्तुओं को इन्द्रादि देवगण, इन्हीं पिटारे से लाते हैं।
भगवान ऋषभदेव का विवाह-महोत्सव
भगवान की यौवन अवस्था का प्रारंभ देखकर महाराज नाभिराज मन में विचार करने लगे कि चूँकि इनका धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने में भारी उद्योग है, ये नियम से सब परिग्रह छोड़कर वन में जाकर दीक्षा ग्रहण करेंगे तथापि तपस्या करने के लिए जब तक इनकी काललब्धि आती है, तब तक इनके लिए लोक-व्यवहार के अनुरोध से योग्य पत्नी का विचार करना चाहिए। यह निश्चित कर महाराज नाभिराज बड़े ही आदर के साथ भगवान के पास जाकर भगवान से कहने लगे कि हे देव! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ सो आप सावधान होकर सुनिये। आप जगत् के अधिपति हैं, इसलिए आपको जगत् का उपकार करना चाहिए। आप जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं-अपने आप उत्पन्न हुए हैं। आपकी उत्पत्ति में हम माता-पिता केवल निमित्तमात्र हैं। यह प्रजा महापुरुषों का ही अनुगमन करती है इसलिए हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की सन्तति का उच्छेद नहीं होगा और उसी से धर्म की सन्तति बढ़ेगी, इसलिए हे देव! मनुष्यों के अविनाशीक इस विवाहरूपी धर्म को अवश्य ही स्वीकार कीजिए। यदि आप मुझे किसी भी तरह गुरु मानते हैं तो आपको मेरे वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार धीर-वीर महाराज नाभिराज के वचन सुनकर भगवान ने हँसते हुए ‘ओम्’ कहकर उनके वचन स्वीकार कर लिये। इन्द्रियों को वश में करने वाले भगवान ने जो विवाह कराने की स्वीकृति दी थी सो क्या पिता के वचनों की चतुराई थी अथवा प्रजा के उपकार की इच्छा थी या वैसा कोई कर्मों का ही नियोग था। भगवान की अनुमति जानकर राजा नाभिराज ने इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती यशस्वती और सुनन्दा नाम की दो कन्याओं के साथ भगवान का पाणिग्रहण किया था। ये दोनों कन्यायें राजा कच्छ और महाकच्छ की बहनें थीं। भगवान के विवाह के समय इन्द्र ने देवोें सहित अनेकों उत्सव मनाये थे।
भगवान ऋषभदेव को पुत्र-पुत्रियों की प्राप्ति
किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थीं, उस समय रात्रि के पिछले भाग में उन्होंने स्वप्न में ग्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरु पर्वत, चन्द्रमा सहित सूर्य, हंस सहित सरोवर तथा चंंचल लहरों वाला समुद्र देखा। अनन्तर मंगल वाद्य गीतों के साथ प्रबोध को प्राप्त हुई रानी ने अपने पतिदेव भगवान ऋषभदेव के मुख से ‘देवि! तुम्हें चक्रवर्ती पुत्र होगा’ इस फल को सुनकर अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हो गर्इं। क्रमशः नौ महीने व्यतीत होने पर उन यशस्वती महादेवी ने महापुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया। उस समय उत्तम शुभ नक्षत्र आदि थे और चैत्र कृष्णा नवमी का दिन था। ये ही पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज हुए थे। अनन्तर यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले ऋषभसेन, अनन्तवीर्य आदि निन्यानवे पुत्र हुए। वे सभी चरम शरीरी, महाप्रतापी थे तथा ‘ब्राह्मी’ नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई थी। भगवान ऋषभदेव की दूसरी पत्नी ‘सुनन्दा’ से भगवान ‘बाहुबली’ पुत्र हुए और ‘सुन्दरी’ नाम की पुत्री हुई थी। ये बाहुबली स्वामी चौबीस कामदेवों में से पहले कामदेव हुए थे। इन एक सौ एक पुत्र और दो पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव अतिशय शोभायमान हो रहे थे और महाराज नाभिराज तथा महारानी मरुदेवी अत्यन्त प्रसन्न थे। जब ये पुत्र-पुत्रियाँ योग्य अवस्था को प्राप्त हो गये, तब भगवान ऋषभदेव ने इन्हें सम्पूर्ण गुणों से और संस्कारों से संस्कारित कर दिया। कर्मयुग के प्रारंभ में भगवान ने अपने पुत्रों के वंठ, वक्षःस्थल आदि को विभूषित करने वाले ऐसे हार, वंकण, मुद्रिका आदि अनेकों आभूषण बनवाकर पुत्रों को विभूषित किया था।
ब्राह्मी-सुन्दरी का विद्याध्ययन
किसी समय भगवान ऋषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश में लगाया। उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियाँ मांगलिक वेषभूषा धारण कर पिता के पास पहुँची और विनय से भगवान को प्रणाम किया। भगवान ने भी उन दोनों कन्याओं को आशीर्वाद देकर बड़े प्रेम से उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया, उनके मस्तक पर हाथ पेâरा और पुत्रियों के साथ कुछ विनोद करने लगे, अनन्तर बोले-हे पुत्रियों! तुम दोनों विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि विद्या ग्रहण करने का यही काल है। ऐसा कहकर बराबर उन्हें आशीर्वाद देकर भगवान ने अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर भगवान ने ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक अपने दाहिने हाथ से ‘ अ आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी को शुद्ध अक्षरावली लिखने का उपदेश दिया, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर-व्यंजन के भेद से दो भेदरूप है और समस्त विद्याओं में पाई जाती है तथा भगवान ने अपने बायें हाथ से ‘इकाई दहाई’ आदि संख्या को लिखते हुए सुन्दरी को अंकगणित लिखने का उपदेश दिया। वाङ्मय के बिना न कोई शास्त्र है और न कोई कला है, इसलिए भगवान ने सबसे पहले उन पुत्रियों को वाङ्मय का उपदेश दिया था। व्याकरणशास्त्र, छंदशास्त्र और अलंकारशास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं। भगवान के द्वारा बनाया गया व्याकरणशास्त्र बहुत विस्तृत था, जिसमें सौ से अधिक अध्याय थे। भगवान ने सबसे प्रथम ब्राह्मी कन्या को वर्णमालाएं पढ़ाई थीं, यही कारण है कि आज भी इसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। पिता के अनुग्रह से ये दोनों कन्यायें समस्त विद्याओं को पढ़कर सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हो गई थीं।
भरत आदि पुत्रों का विद्याध्ययन
जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये। बड़े-बड़े अध्यायों सहित अर्थशास्त्र, नृत्यशास्त्र, चित्रकला संंबंधी शास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, आयुर्वेद, तंत्र परीक्षा, रत्न परीक्षा आदि अनेकों विषयों को पढ़ाया और अधिक कहने से क्या? लोक का उपकार करने वाले जो शास्त्र थे, भगवान ने उन सभी को अपने पुत्रों को पढ़ाया था। इस प्रकार अपने इष्ट-स्त्री पुत्र और पुत्रियों से घिरे हुए सुखों का अनुभव करते हुए भगवान का गृहस्थाश्रम में बहुत कुछ काल व्यतीत हो चुका था अर्थात् बीस लाख पूर्व वर्षों का कुमार काल पूर्ण हो गया था। इसी बीच में काल प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गयी थीं। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोए उत्पन्न होने वाले धान्य थे, वे भी काल के प्रभाव से प्रायः विरलता को प्राप्त हो गये थे। कल्पवृक्षों के रस, वीर्य आदि के नष्ट होने से व्याकुल हुुई प्रजा जीवित रहने की इच्छा से महाराज नाभिराज के समीप गयी पुनः नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के समीप गयी और उन्हें नमस्कार करके निवेदन करने लगी कि हे तीन लोक के स्वामी! हम लोग जीविका प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आये हैं अतः उपाय को बतलाकर हम लोगों की रक्षा कीजिए। इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर हृदय दया से प्रेरित हो रहा है, ऐसे भगवान आदिनाथ अपने मन में विचार करने लगे- ‘‘पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है, वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है, उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है, उसी प्रकार यहाँ पर भी होना चाहिए, इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है, इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषि आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है।’’ अनन्तर भगवान के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान के हर प्रकार की अनुवूâलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक काम किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की, इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमंदिरों की रचना की। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित ग्राम तथा खेड़ों आदि की रचना की थी। देशों के मध्य भाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी सुशोभित हो रही थी। उस समय इन्द्र बड़े अच्छे ढंग से नगर, गाँवों आदि का विभाग कर ‘पुरन्दर’ इस सार्थक नाम को प्राप्त हुआ था, अनन्तर भगवान की आज्ञा से नगर, गाँव आदि में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ वह इन्द्र प्रभु की आज्ञा लेकर स्वर्ग को चला गया।
भगवान द्वारा प्रजा को षट्कर्म का उपदेश
असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं। भगवान ऋषभदेव ने अपनी बुद्धिकुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा आजीविका करने का उपदेश दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान सरागी ही थे, वीतरागी नहीं थे अर्थात् सांसारिक कार्यों का उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है। उन छह कर्मों में तलवार आदि शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म कहलाता है, लिखकर आजीविका करना मसिकर्म है, जमीन को जोतना, बोना कृषि कर्म है, शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य, गान आदि द्वारा आजीविका करना विद्या कर्म है, व्यापार करना वाणिज्य है और हस्त की कुशलता से चित्र खींचना आदि करना शिल्पकर्म है। उसी समय आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के द्वारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते हैं। त्रैवर्णिकों के विवाह, जातिसंंबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे। उस समय संसार में जितने भी पाप रहित आजीविका के उपाय थे, वे सब भगवान की सम्मति से प्रवृत्त हुए थे। इस प्रकार से भगवान ऋषभदेव कर्मयुग का प्रारंभ करने से ‘कृतयुग’ कहलाये और आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन कृतयुग को प्रारंभ करने से ‘प्रजापति’ कहलाये थे। भगवान ने मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए जगत् के लोग उन्हें ‘इक्ष्वाकु’ कहने लगे। काश्य-तेज के रक्षक होने से ‘काश्यप’ कहलाये। प्रजा की आजीविका के उपायों का भी मनन करने से ‘मनु’ और कुलों की व्यवस्था करने से ‘कुलकर’ और ‘कुलधर’ भी कहलाये। उस समय प्रजा तीनों जगत् के स्वामी भगवान ऋषभदेव को ‘विधाता’, ‘विश्वकर्मा’ और ‘स्रष्टा’ आदि अनेक नामों से पुकारती थी।
भगवान का सम्राट पट्टाभिषेक महोत्सव
सुखपूर्वक प्रजा का अनुपालन करते हुए कितना ही समय व्यतीत हो जाने पर देवों ने आकर भगवान का सम्राट पद पर अभिषेक करके महान् उत्सव मनाया। अभिषेक के लिए शुद्ध पवित्र गंगा-सिंधु आदि नदियों का, नन्दा-नन्दोत्तरा आदि वापियों का एवं क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्र आदि का भी जल लाया गया था और सुवर्ण घटों से गीत, नृत्य, वाद्य आदि महोत्सवपूर्वक अभिषेक प्रारंभ किया गया था। नाभिराज को आदि लेकर जो बड़े-बड़े राजा थे, उन सभी ने ‘सब राजाओं में श्रेष्ठ ये ऋषभदेव वास्तव में राजा के योग्य हैं’ ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक प्रारंभ किया। नगर-निवासीजनों ने भी, किसी ने कमलपत्र के दोने से, किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणों का अभिषेक किया। तदनन्तर भगवान की आरती उतारकर स्वर्ग से लाये गये वस्त्र-आभूषण आदि से भगवान को अलंकृत किया। ‘महामुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति भगवान ऋषभदेव ही हैं’ ऐसा कहते हुए महाराज नाभिराज ने अपने मस्तक का मुकुट अपने हाथ से उतारकर भगवान के मस्तक पर धारण कराया था तदनन्तर इन्द्रगण पूर्ववत् ‘आनन्द’ नामक नाटक को करके देवों के साथ अपने स्थान को चले गये। भगवान का यह राज्यकाल तिरेसठ लाख पूर्व वर्षों का था जो कि पुत्र-पौत्रों के साथ सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था।
भगवान ऋषभदेव का वैराग्य
किसी समय भगवान ऋषभदेव सभा-मंडप के मध्य भाग में स्थित सिंहासन पर विराजमान थे, उस समय भगवान की सेवा करने के लिए सौधर्म इन्द्र देवों और अप्सराओं के साथ पूजा की सामग्री लेकर भगवान के यहाँ आया और भगवान की आराधना करने की इच्छा से अप्सराओं और गन्धर्वों का नृत्य कराना प्रारंभ कर दिया। भगवान राज्य और भोगों से किस प्रकार विरक्त होंगे? यह विचार कर इन्द्र ने उस समय नृत्य करने के लिए एक ऐसे पात्र को नियुक्त किया, जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो गई थी। वह अत्यन्त सुन्दरी ‘नीलांजना’ नाम की देवनर्तकी रस, भाव और लय सहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही आयुरूपी दीपक के क्षय होने से वह बिजली के समान क्षणभर में अदृश्य हो गई। उसके नष्ट होते ही इन्द्र ने रसभंग के भय से उस स्थान पर उसी के समान शरीर वाली दूसरी देवी खड़ी कर दी जिससे नृत्य ज्यों का त्यों चलता रहा। यद्यपि दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी वही नृत्य का परिक्रम था तथापि भगवान ने उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर जान लिया था। तत्क्षण ही भोगों से विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुए भगवान मन में चिन्तवन करने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि यह जगत् विनश्वर है, लक्ष्मी बिजलीरूपी लता के समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी चलाचल हैं। उस समय विशुद्धियों ने भगवान के हृदय में अपना स्थान जमा लिया था और वे ऐसी मालूम होती थीं कि मानों मुक्तिलक्ष्मी के द्वारा प्रेरित हुई उसकी सखियाँ ही द्वादश अनुप्रेक्षारूप से सामने आकर उपस्थित हुई हों। जगद्गुरु भगवान के अन्त:करण की समस्त चेष्टाएं इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जान ली थीं। उसी समय भगवान के वैराग्य की प्रशंसा करने के लिए और उनके तप कल्याणक की पूजा करने के लिए ‘लौकांतिक देव’ ब्रह्मलोक से उतरे। ये लौकांतिक देव सारस्वत, आदित्यवह्रि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकार के हैं। ये सभी देवों में उत्तम देवर्षि कहलाते हैं। पूर्व भव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के अभ्यास से ग्यारह अंग, चौदह पूर्व के पारंगत, विरक्त और बालब्रह्मचारी होते हैं, पाँचवे स्वर्ग के अन्तभाग में निवास करने वाले हैं और नियम से एक भवावतारी होते हैं। उन देवों ने प्रथम ही कल्पवृक्ष के पुष्पों से भगवान् के चरणों की पूजा की और फिर अनेकों अर्थों से भरे हुए स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करने लगे। वे देव अपने इतने ही नियोग से कृतार्थ होकर अपने स्वर्ग को चले गये। इतने में ही आसनों के कम्पायमान होने से समस्त इन्द्र अपने वाहनोें और अपने-अपने निकाय के देवों के साथ आये और अयोध्यापुरी को चारों ओर से घेरकर आकाश में ही अपने-अपने निकाय के अनुसार ठहर गये। अनन्तर इन्द्रों ने क्षीरसागर के जल से उनका महाभिषेक किया और दिव्य आभूषण-वस्त्र आदि से उन्हें अलंकृत किया। भगवान ऋषभदेव ने साम्राज्यपद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया और युवराज पद पर बाहुबली को स्थापित किया। उस समय भगवान ऋषभदेव का तप कल्याणक महोत्सव और भरत का राज्याभिषेक हो रहा था, इन दोनों प्रकार के उत्सवों के समय स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक दोनों ही हर्ष से विभोर हो रहे थे। भगवान ने दोनों ही पुत्रों को राज्य समर्पित करके अपने शेष पुत्रों के लिए यह पृथ्वी विभक्त कर बाँट दी थी।
भगवान का दीक्षा के लिए वनगमन
भगवान ऋषभदेव, महाराज नाभिराज आदि परिवार के लोगों से पूछकर इन्द्र के द्वारा बनाई गई ‘सुदर्शन’ नामक पालकी पर आरूढ़ हुए। उस समय भगवान की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैंड तक ले चले और फिर विद्याधर लोग आकाश में सात पैंड तक ले चले अनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देवों ने अत्यन्त हर्षित होकर वह पालकी अपनी वंधों पर रखी और शीघ्र ही उसे आकाश में ले गये। भगवान ऋषभदेव के माहात्म्य की प्रशंसा करना इतना ही पर्याप्त है कि उस समय देवों के अधिपति इन्द्र भी स्वयं उनकी पालकी ढो रहे थे। यक्ष जाति के देव सुगंधित पुष्पों की वर्षा कर रहे थे, शीतल पवन चल रही थी और करोड़ों मंगल वाद्य बज रहे थे। भगवान के प्रस्थान करने पर यशस्वती आदि रानियाँ मंत्रियों सहित भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं, उस समय शोक से उनके नेत्रों में आँसू भर रहे थे। यशस्वती और सुनन्दा महादेवियाँ अन्त:पुर की मुख्य-मुख्य स्त्रियों से परिवृत्त होकर पूजा की सामग्री लेकर भगवान के पीछे-पीछे जा रही थीं। उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवी तथा सैकड़ों राजाओं से परिवृत्त होकर भगवान के तप कल्याणक का उत्सव देखने के लिए उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। सम्राट् भरत भी नगरनिवासी, मंत्री, उच्चवंश में उत्पन्न हुए राजा और अपने छोटे-छोटे भाइयों के साथ-साथ बड़ी भारी विभूति लेकर भगवान के पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव अत्यन्त विस्तृत ‘सिद्धार्थक’ नामक वन में जा पहुँचे। वह वन अयोध्यापुरी से न तो बहुत दूर था और न बहुत निकट था। इन्द्रों की सेना भी आकाश और पृथ्वी को व्याप्त करती हुई उस सिद्धार्थक वन में जा पहुँची। यह वन अशोक, चंपक, सप्तपर्ण, आम्र और वटवृक्षों से व्याप्त अनेक पक्षियों के कलकल रवों से मनोहर था। उस वन में देवों ने पहले से ही चन्द्रकान्तमणि से निर्मित, घिसे हुए चन्दन द्वारा दिये गये मांगलिक छींटों से चर्चित विस्तृत एक शिला स्थापित कर रखी थी। उस पर इन्द्राणियों ने अपने हाथों से रत्नों के चूर्ण के चौक बनाये थे। उस शिला पर बड़े-बड़े वस्त्रों से आश्चर्यकारी मण्डप बनाया गया जो कि धूपघट, मंगल द्रव्य और ध्वजाओं से मनोहर था। पालकी से उतरकर उस शिला पर विराजमान होकर भगवान ने देवेन्द्रों, मनुष्यों से भरी हुई उस सभा को उपदेश दिया और शोकातुर प्रजा को समझाया कि हे प्रजाजनों! तुम लोग शोक छोड़ो क्योंकि जब प्राणियों का शरीर से वियोग निश्चित है, तब अन्य वस्तुओं के वियोग की बात ही क्या? अतिशय चतुर भरत को मैंने आप लोगों की रक्षा करने में नियुक्त किया है, आप लोग निरन्तर धर्म में स्थिर रहते हुए उनकी सेवा करें। भगवान के ऐसा कहने के बाद प्रजा ने उनकी पूजा की। प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थान आगे चलकर पूजा के कारण १‘प्रयाग’ नाम को प्राप्त हुआ।’ प्रभु ने कुटुम्ब के लोगों तथा नम्रीभूत राजाओं से पूछकर अन्तरङ्ग-बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिया। भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ इस मंत्र के द्वारा सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्ठियों से केशलोंच किया। चैत्र कृष्णा नवमी के दिन शुभमुहूर्त, शुभलग्न और उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सायंकाल के समय भगवान ने दीक्षा धारण की थी। भगवान के मस्तक पर निवास करने से पवित्र हुए केशों को इन्द्र ने रत्न के पिटारे में रखकर आदरपूर्वक उन्हें क्षीर समुद्र में क्षेपण किया। उसी समय इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र तथा भोज आदि वंशों के चार हजार राजाओं ने भी स्वामिभक्तिवश नग्न दीक्षा धारण कर ली। ‘जो हमारे स्वामी को अच्छा लगता है, वही हम लोगों को भी विशेषरूप से अच्छा लगना चाहिए’ बस यही सोचकर वे राजा द्रव्यिंलगी साधु हो गये थे, भावों से नहीं। उन राजाओं में कितने ही स्नेह से, कितने ही मोह से और कितने ही भय से भगवान को दीक्षित हुआ देखकर दीक्षित हो गये थे। दीक्षा लेने के पश्चात् इन्द्र भगवान के रूप को एक हजार नेत्रों से देखकर भी तृप्त नहीं हुआ और बहुत देर तक अनेकों स्तोत्रों से स्तुति करता रहा तत्पश्चात् भरत महाराज ने बड़ी भारी शक्ति से सुगंधित जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अघ्र्य विशेष से जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा की। आम, जामुन, अनार, सुपारी के गुच्छे और नारियल आदि फलों से भगवान के चरणों की पूजा की और बारम्बार नमस्कार करने लगे।
मिथ्यात्व की प्रवृत्ति
भगवान को दीक्षा लेते ही मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो चुका था। समस्त लोक के अधिपति ऋषभदेव शरीर से ममत्व छोड़कर छह महीने के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर मौन से निश्चल ध्यान में लीन हो गये थे। भगवान ऋषभदेव जब परम निस्पृह होकर विराजमान थे, तब बिना विचारे दीक्षित हुए कच्छ, महाकच्छ आदि राजाओं का धैर्य छूटने लगा, दीक्षा धारण किये हुए दो-तीन माह भी नहीं हुए थे कि अपने को मुनि मानने वाले द्रव्यलिंगी साधुओं ने परीषहों से, क्षुधा, तृषा आदि बाधाओं से घबराकर धैर्य छोड़ दिया और भगवान से प्रार्थना करने लगे कि हे भगवन्! हमें क्या करना चाहिए? भगवान प्राय: प्राणों से विरक्त होकर शरीर को छोड़ने की चेष्टा कर रहे हैं परन्तु हम लोग प्राणहरण करने वाले इस तप से ही खिन्न हो गये, इसलिए जब तक भगवान का ध्यान समाप्त नहीं होता, तब तक हम लोग वन में उत्पन्न हुए कन्दमूल, फल् ाादि द्वारा ही अपना जीवन निर्वाह करेंगे। इस प्रकार कितने ही कातर पुरुष तपस्या से उदासीन होकर अत्यन्त दीन वचन कहते हुए दीनवृत्ति धारण करने के लिए तैयार हो गये और फल लाने की इच्छा से वनखण्डों में फैलने लगे और प्यास से पीड़ित होकर तालाबों पर जाने लगे। उन लोगों को अपने हाथ से फल ग्रहण करते और पानी पीते देखकर वन देवताओं ने उन्हें मना किया और कहा कि ऐसा मत करो। अरे मूर्खों! यह दिगम्बररूप सर्वश्रेष्ठ अरिहंत तथा चक्रवर्ती आदि के द्वारा भी धारण करने योग्य है, इसे तुम लोग कातरता का स्थान मत बनाओ अर्थात् इस उत्कृष्ट वेश को धारण कर दीनों की तरह अपने हाथ से फल मत तोड़ो और न तालाब आदि का अप्रासुक पानी ही पीवो। वन देवताओं के ऐसे वचन सुनकर वे लोग दिगम्बर वेश में वैसा करने से डर गये, इसलिए उन दीन चेष्टा वाले भ्रष्ट तपस्वियों ने अनेकों वेष धारण कर लिए। उनमें से कितने ही लोग वृक्षों के वल्कल धारण कर फल खाने लगे और पानी पीने लगे, कितने ही जीर्ण-शीर्ण लंगोटी लगाकर अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे, कितने ही लोग शरीर को भस्म से लपेटकर जटाधारी हो गये, कितने ही एक दण्ड को धारण करने वाले और कितने ही तीन दण्ड को धारण करने वाले साधु बन गये। वे लोग भरत महाराज के डर से अपने-अपने नगरों में नहीं गये किन्तु झोंपड़े बनाकर उसी वन में रहने लगे थे, उनमें कितने ही पारिव्राजक हो गये थे। मोहोदय से दूषित होकर पाखण्डियों में प्रमुख हो गये थे। वे लोग जल और पूâलों के उपहार से भगवान ऋषभदेव के चरणों की पूजा करते थे। स्वयंभू ऋषभदेव भगवान को छोड़कर उनके अन्य कोई देवता नहीं था। भगवान ऋषभदेव का पौत्र, भरत का पुत्र मरीचि कुमार भी पारिव्राजक होकर उन पाखण्डियों में अग्रणी हो गया था। योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र प्रारंभ में उसी के द्वारा कहे गये थे।
भगवान की तपश्चर्या
भगवान ऋषभदेव मेरुपर्वत के समान निष्कम्प ध्यान में लीन थे। उस समय भगवान के केश संस्कार रहित होने के कारण जटाओं के समान हो गये थे। वे जटाएँ वायु से उड़कर महामुनि भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर दूर तक गई थीं, सो ऐसी जान पड़ती थीं मानों ध्यानरूपी अग्नि से तपाये हुए जीवरूपी स्वर्ण से निकली हुई कालिमा ही हो। भगवान के तपश्चरण के अतिशय से वहाँ वन में दिन-रात के विभाग से रहित तेज व्याप्त हो गया था, सभी ऋतु के फल, पुष्प आदि वन की शोभा बढ़ा रहे थे। जन्मजात वैरभाव को छोड़कर सिंह, हरिण आदि एक साथ भगवान के चरणों की उपासना कर रहे थे। इसी बीच में महाराज कच्छ, महाकच्छ के दो पुत्र भगवान के समीप आये। इनका नाम नमि और विनमि था। ये दोनों भक्ति से विभोर होकर भगवान के चरणों में नमस्कार करके बोले-हे भगवन्! आप हम पर प्रसन्न होइये। आपने अपना यह साम्राज्य पुत्र तथा पौत्रों के लिए बांट दिया है और बाँटते समय हम दोनों को भुला ही दिया, इसलिए अब हमें भी कुछ भोग सामग्री दीजिए। ध्यान रहे कि ये नमि-विनमि भगवान के भतीजे लगते थे अर्थात् कच्छ-महाकच्छ राजाओं की बहनें यशस्वती और सुनन्दा भगवान की पत्नी थीं और ये कच्छ महाकच्छ राजाओं के पुत्र थे। उस समय इन दोनों के द्वारा भगवान के ध्यान में विघ्न होने के निमित्त से धरणेन्द्र देव का आसन कम्पित हुआ और वह आकर इन दोनों को समझाने लगा कि आप लोग भरत के पास जाइये। ये भगवान तो सर्वथा भोगों से निस्पृह हो चुके हैं, भोगों की इच्छा करने वाले तुम दोनों को भोग वैâसे दे सकते हैं? ये केवल मोक्ष का उद्योग कर रहे हैं, तुम्हें इनके पास धरना देना व्यर्थ है। धरणेन्द्र के वचन सुनकर वे दोनों भाई बोले कि हमारे बीच में आपको अनधिकारी चेष्टा करना गलत है, हम त्रैलोक्यनाथ भगवान को छोड़कर भरत के पास नहीं जायेंगे। धरणेन्द्र इनका हठवाद, स्वाभिमान और भगवान के प्रति भक्ति देखकर प्रसन्न हो गया। तब उसने कहा कि मैं पाताल लोक का इन्द्र धरणराज हूूँ, भगवान तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हैं। उन्होंने तुम्हें भोगोपभोग सामग्री देने के लिए मुझे यहाँ भेजा है। तुम मेरे साथ शीघ्र ही चलो। ऐसा सुनकर वे दोनों भगवान की प्रसन्नता तथा आज्ञा समझकर शीघ्र ही धरणेन्द्र के साथ चले पड़े। धरणेन्द्र देव दोनों कुमारों को विमान में बैठाकर आकाशमार्ग से शीघ्र ही विजयार्ध पर्वत पर पहुँचा। यह विजयार्ध पर्वत पचास योजन चौड़ा, पचीस योजन ऊँचा, पूर्वापर लवण समुद्र को स्पर्श करते हुए लम्बा है। यह भरत क्षेत्र के बीच में है। इसकी पहली श्रेणी में दक्षिण में पचास एवं उत्तर दिशा में साठ नगरियाँ हैं। इनमें विद्याधर मनुष्य निवास करते हैंं। यहाँ पर आर्यखण्डों की तरह षट्काल का परिवर्तन नहीं होता है किन्तु चतुर्थ काल के आदि-अंत के समान परिवर्तन होता है। यहाँ ईति, भीति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि नहीं होते हैं। ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित ‘रथनूपुरचक्रवाल’ नाम के नगर में धरणेन्द्र ने इन दोनों को लेकर प्रवेश किया और वहाँ दोनों को सिंहासन पर बैठाकर विद्याधरों से कहा कि ये तुम्हारे स्वामी हैं और फिर उस धरणेन्द्र ने विद्याधरियों के हाथों से उठाये हुए सुवर्ण के बड़े-बड़े कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक कर दिया। बाद में धरणेन्द्र ने विद्याधरों से कहा कि जिस प्रकार इन्द्र स्वर्ग का अधिपति है, उसी तरह ये नमि महाराज अब दक्षिण श्रेणी के अधिपति हैं और ये विनमि महाराज उत्तर श्रेणी के अधिपति हैं। कर्मभूमिरूपी जगत् को उत्पन्न करने वाले जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहाँ भेजा है। इसलिए सब विद्याधर राजा प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा धारण करें। धरणेन्द्र के उपदेश से समस्त विद्याधरों ने उन्हें अपना राजा स्वीकृत कर लिया।
भगवान ऋषभदेव का आहार
जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव को योग धारण किये हुए जब छह माह पूर्ण हो गये, तब यतियों की चर्या-आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के अर्थ निर्दोष आहार ढूंढने के लिए वे ऐसा विचार करने लगे कि बड़े दु:ख की बात है कि बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए ये नव-दीक्षित साधु समीचीन मार्ग का परिज्ञान न होने के कारण इन क्षुधा, तृषा आदि परीषहों से शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये, इसलिए अब मोक्षमार्ग बतलाने के लिए सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिए आहार लेने की विधि बतलाता हूँ। मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिए और न रसीले मनचाहे तथा मधुर भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिए। जिस प्रकार ये इन्द्रियाँ अपने वश में रहें और कुमार्ग की ओर न दौड़ें, उस प्रकार मध्यमवृत्ति का आश्रय लेकर प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार निश्चय करके धीर-वीर भगवान योग समाप्त कर अपने चरण निक्षेपों से इस पृथ्वी तल पर विहार करने लगे। ईर्यापथ से चलते हुए भगवान जिस ओर जाते थे, वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर बड़े संभ्रम से आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उस समय सभी लोग आहारदान की विधि से अनभिज्ञ थे। भगवान क्यों विहार कर रहे हैं? ये भी नहीं समझते थे। कितने ही लोग भगवान के पीछे-पीछे चलने लगते थे, तो कितने ही लोग महान् अनघ्र्य रत्नों को भेंट में लाकर प्रार्थना करते कि हे देव! प्रसन्न होइये और हमारी तुच्छ पूजा स्वीकार कीजिए, कितने ही लोग करोड़ों पदार्थ, करोड़ों वाहन समीप में ले आते किन्तु भगवान को उनसे कुछ प्रयोजन न होने से वे चुपचाप आगे चले जाते। कितने ही गन्ध, वस्त्र, आभरण आदि ले आते और कितने ही अज्ञानी नवयौवन कन्याओं को ले आते और उनसे विवाह करने की प्रार्थना करने लगते कितने ही भोजन सामग्री ले आते थे। इस प्रकार जगत् को आश्चर्य करने वाली गूढ़चर्र्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान के छह महीने और भी व्यतीत हो गये। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान ऋषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे। वहाँ के स्वामी राजा सोमप्रभ कुरुवंश के शिखामणि थे और उनके छोटे भाई राजा ‘श्रेयांस कुमार’ थे। उन श्रेयांस कुमार को रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ उत्तम-उत्तम स्वप्न हुए जिसका फल पुरोहित के वचनों से सुनकर दोनों भाई भगवान की कथा करते हुए बैठी ही थे कि इतने में भगवान ऋषभदेव अकेले ही विहार करते हुए हस्तिनापुर में आ गये। सिद्धार्थ नामक द्वारपाल से प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर दोनों भाई राजमहल के आँगन तक बाहर और दूर से ही नम्रीभूत होकर भगवान के चरणों को भक्ति से नमस्कार किया, प्रदक्षिणाएँ दीं और जल से चरणों का प्रक्षालन कर पूजा करके अर्घ समर्पण करने लगे । भगवान् के रूप को देखकर राजा ‘श्रेयांस कुमार’ को जातिस्मरण हो गया, जिससे उन्हें अपने पूर्व भव संबंधी श्रीमती और वङ्काजंघ का समस्त वृत्तांत याद हो आया अर्थात् इससे पूर्व आठवें भव में भगवान आदिनाथ का जीव राजा वङ्काजंघ था और राजा श्रेयांस कुमार का जीव रानी श्रीमती था। इन युगल दम्पत्तियों ने बड़ी भक्ति से चारण ऋद्धिधारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था। उसका राजा श्रेयांस को इस समय स्मरण हो गया। इससे मुनियों के आहारदान की सारी विधि को समझकर राजा श्रेयांस शीघ्र ही भगवान को आहारदान देने में तत्पर हो गये थे। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की शुद्धि का निवेदन करना, ये दान देने वाले की नवधा भक्ति कहलाती है। ‘‘इस प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक राजा सोमप्रभ, उनकी रानी लक्ष्मीमती और श्रेयांस कुमार आदरपूर्वक भगवान के हाथ की अंजलि में इक्षुरस का आहार दे रहे थे।’’ उस समय इस महादान के प्रभाव से आकाश से देवों के द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई थी। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था। यही कारण है कि आज भी उस दिन को ‘अक्षय तृतीया’ कहते हैं। तदनन्तर देवों से समीचीन दान और उसके फल की घोषणा सुनकर महाराज भरत भी वहाँ आकर श्रेयांस को दानतीर्थ प्रवर्तक मानकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। चार ज्ञान के धारक भगवान इस प्रकार से एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करते रहे।
भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान का उदय
किसी समय विचार करते हुए भगवान ‘पुरिमतालपुर’ नामक नगर के ‘शकटास्य’ नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पर्यंकासन से विराजमान हो गये। इस नगर के राजा वृषभसेन भगवान के पुत्र और भरत के छोटे भाई थे। उस समय भगवान ने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी र्इंधन को जला दिया और उन्हें लोक-परलोक प्रकाशी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान को केवलज्ञान प्रगट होते ही तीनों लोकों में एक प्रकार का क्षोभ उत्पन्न हो गया था। उस समय अपने आप कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगा, ज्योतिषी देवों के यहाँ बड़ा भारी सिंहनाद होने लगा, व्यन्तर देवों के यहाँ नगाड़ों की ध्वनि होने लगी और भवनवासी देवों के भवनों में शंखनाद शुरू हो गया। समस्त इन्द्रों के आसन एक साथ कम्पित हो उठे और कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगी। अवधिज्ञानी इन्द्र ने इन सब चिन्हों से भगवान के केवलज्ञानरूपी वैभव को जान लिया और भक्ति से मस्तक झुकाकर नमस्कार किया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने तत्क्षण ही देव कारीगरों के साथ सुन्दर समवसरण बना दिया। इन्द्रनीलमणि से निर्मित गोल यह समवसरण बारह योजन विस्तृत कमल के आकार का होता है। इसके मध्य में गंधकुटी कर्णिका के आकार की ऊँची उठी हुई होती है। समवसरण की दिव्यभूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है। केवलज्ञान होने के बाद भगवान इस पृथ्वी तल से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चले जाते हैं। एक धनुष चार हाथ का होता है। समवसरण में बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं जो कि एक हाथ प्रमाण ऊँची रहती हैं। समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वथा प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। समवसरण की चार महावीथियों में चार मानस्तंभ होते हैं, जिनके दर्शन से ही मिथ्यादृष्टि भव्यों के मानगलित हो जाते हैं। समवसरण में बाहरी भाग में सबसे पहले रत्नों के चूर्ण से निर्मित धूलिसाल नाम का कोट (परकोट) है अनन्तर मानस्तंभ, परिखाभूमि और लता भूमि हैं। आगे सुवर्णमय कोट है जिसके चारों गोपुर द्वारों पर व्यंतर देव गदा आदि हाथ में लेकर पहरेदार बने हुए हैं। अनन्तर अशोक, चंपक आदि वन भूमि, वन वेदिका, ध्वज भूमि हैंं। इनके बाद रजतमय द्वितीय कोट है जिस पर भवनवासी देव पहरा देते हैं। इसके बाद कल्पवृक्ष भूमि, वनवेदिका स्तूप आदि हैं अनन्तर स्फटिक मणि से निर्मित तृतीय कोट है। इनके गोपर द्वारों पर कल्पवासी देव गदा आदि हाथ में लेकर पहरेदार बने हुए हैं। इस स्फटिक मणि के कोट को लेकर पीठ पर्यंत लम्बी और महावीथियों के आश्रित सोलह दीवालें हैं। ये दीवालें स्फटिक कोट से लेकर पीठ पर्यंत लम्बी हैं और बारह सभाओं का विभाग कर रही हैं। उन दीवालों के ऊपर रत्नमय खम्भों से खड़ा हुआ और आकाश स्फटिक मणि का बना हुआ बहुत बड़ा अतिशय शोभायुक्त ‘‘श्रीमण्डप’’ बना हुआ है, उस श्रीमण्डप का ऐसा अतिशय है कि वह अपने में एक साथ तीनों लोकों के समस्त जीवों को स्थान दे सकता है। वह महान् ऊँचा तथा स्वच्छ है और द्वितीय आकाश के समान मालूम पड़ता है। उस श्रीमण्डप से घिरे क्षेत्र के मध्य भाग में पहले पीठिका स्थित है, जो वैडूर्यमणि निर्मित है। इस पीठिका पर सुवर्ण निर्मित दूसरी पीठिका है तथा इसके ऊपर सर्वरत्नों से निर्मित तृतीय पीठिका है। यह पीठ तीन कटनियों से युक्त है, धर्म चक्रों से सुशोभित है। तृतीय पीठ के सिंहासन पर चार अंगुल अधर भगवान श्री ऋषभदेव विराजमान हो रहे हैं। समवसरण में बारह सभाएँ होती हैं, उनमें भगवान के दाहिनाँ ओर से लेकर मुनि कल्पवासिनी देवियाँ आर्यिकाएं ज्योतिषी देवों की देवियाँ व्यंतर देवों की देवियाँ भवनवासी देवों की देवियाँ भवनवासी देव व्यंतर देव ज्योतिषी देव कल्पवासी देव मनुष्य और तिर्यंच ये बारह गण पृथक् – पृथक् अपने-अपने विस्तृत स्थानों पर बैठते हैं।
संक्षेप में समवसरण की रचना
सबसे पहले धूलिसाल के बाद चार दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जल से भरी हुई परिखा हैं, फिर पुष्पवाटिका (लतावन) हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएं हैं, उसके आगे दूसरा अशोक, आम्र आदि का वन है, उसके आगे वेदिका है, तदनन्तर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप और स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है, उसके भीतर मनुष्य, तिर्यंच, देव और मुनियों की बाहर सभाएँ हैं, तदनन्तर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर स्वयंभू भगवान अरिहन्त देव विराजमान हैं।
भगवान के आठ प्रातिहार्य
अशोक वृक्ष, रत्नमय सिंहासन, छत्रत्रय, भामंडल, दिव्यध्वनि (वाणी) पुष्पवृष्टि, चौंसठ चँवरों का ढुरना और दुंदुभि बाजे बजना ये आठ महाप्रातिहार्य होते हैं। तीर्थंकर अर्हंतों के आठ प्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय और चार अनन्त चतुष्टय ये ४६ गुण माने गये हैं।
जन्म के दस अतिशय
स्वेदरहितता, निर्मल शरीरता, दूध के समान धवल रुधिर आदि का होना, वङ्कावृषभनाराच संहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अनुपम रूप, चंपक पुष्प की उत्तम गंध के समान सुगंधि धारण करना, अनन्त बलवीर्य और हित-मित एवं मधुर भाषण तथा १००८ लक्षणों का होना ये दश अतिशय तीर्थंकर के जन्मकाल से ही होते हैं।
केवलज्ञान के दश अतिशय
अपने पास की चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता, आकाशगमन, हिंसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, चारों तरफ मुख का दिखना, छायारहितता, निर्निमेषदृष्टि, सब विद्याओं की ईश्वरता, नख और केशों का न बढ़ना, ये दश अतिशय घातिकर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं।
विशेष चौदह अतिशय या देवकृत चौदह अतिशय
अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की अक्षरात्मक अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु, दंत, ओष्ठ और वंâठ के व्यापार से रहित होकर एक साथ भव्य जनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है और एक योजन पर्यंत जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। तीर्थंकरों के माहात्म्य से असमय में संख्यात योजनों तक षट्ऋतु के फल-फूलों का फलना कटंक, धूलि आदि को दूर करते हुए मंद सुगंध वायु का चलना सभी जीवों का परस्पर में मैत्रीभाव दर्पणतल सदृश भूमि का स्वच्छ रत्नमय होना # इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार द्वारा सुगंधित जल की वर्षा का होना फलों के भार से नम्रीभूत शालि आदि खेती का होना सब जीवों को नित्य आनन्द का उत्पन्न होना वायुकुमार द्वारा शीतल पवन का चलना कूंप और तालाब आदि का शीतल जल से पूर्ण होना आकाश का स्वच्छ होना सम्पूर्ण जीवों को रोगादि बाधाओं का नहीं होना # धर्मचक्रों का आगे-आगे चलना # तीर्थंकरों के विहार में चरण कमलों के तले दिव्यसुवर्ण कमलों की रचना का होना ये चौदह अतिशय देवकृत माने गये हैं, ऐसे चौंतीस अतिशय भगवान के होते हैं।
अनन्तचतुष्टय
अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये चार अनन्तचतुष्टय कहलाते हैं।
प्रथम गणधरदेव
उसी समय अनेक राजाओं से परिवृत्त राजा ऋषभसेन भगवान के पास आये और संयम धारण करते ही मन:पर्ययज्ञान तथा सप्तऋद्धियों से सहित होकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। राजा श्रेयांस कुमार और सोमप्रभ ने भी दीक्षा ले ली और गणधर हो गये। ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कन्याएं भी अनेक स्त्रियों के साथ आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं की स्वामिनी बन गईं।
भरत का आगमन
उसी समय भरत महाराज को पुत्रोत्पत्ति, चक्ररत्न प्राप्ति और भगवान को केवलज्ञान का लाभ ये तीनों समाचार एक साथ मिले। तब भरत महाराज ने धर्म के माहात्म्य को समझकर सर्वप्रथम समवसरण में जिनेन्द्र भगवान की पूजा की और अन्त में पुत्र जन्मोत्सव मनाया।
भगवान के पुत्र अनन्तवीर्य का प्रथम ही मोक्षगमन
भरत के भाई अनन्तवीर्य ने भी संबोधन पाकर भगवान से दीक्षा प्राप्त की थी, देवों ने उनकी भी पूजा की। वह इस अवसर्पिणी युग में मोक्ष प्राप्त करने के लिए सबमें अग्रगामी हुए अर्थात् इस युग में अनन्तवीर्य ने सबसे पहले मोक्ष प्राप्त किया था। जो तपस्वी पहले भ्रष्ट हो गये थे, उनमें से मरीचिकुमार को छोड़कर बाकी सब तपस्वी लोग भगवान के समीप संबोधन पाकर तत्त्वों का यथार्थस्वरूप समझकर फिर से दीक्षित हो तपस्या करने लगे और अपने-अपने परिणामों के अनुसार उत्तमगति को प्राप्त हो गये।
भगवान ने एक हजार वर्ष बाद मौन खोला था अर्थात् दीक्षा लेने के बाद भगवान ने मौन रखा था और एक हजार वर्ष बाद केवलज्ञान होने पर उनकी दिव्यध्वनि खिरी थी, इसलिए ऐसा कथन है।
चतुर्विधसंघ
भगवान ऋषभदेव के समवसरण में ८४ गणधर, ८४००० ऋषिगण, ३५०००० आर्यिकाएँ, ३००००० श्रावक और ५००००० श्राविकाएँ थीं। प्रत्येक तीर्थंकरों के तीर्थ में असंख्यात देव-देवियाँ, असंख्यात मनुष्य एवं असंख्यात तिर्यंच जीव उपदेश का लाभ लेते हैं।
तीर्थ प्रवर्तन काल
भगवान ऋषभदेव का तीर्थ प्रवर्तन काल एक पूर्वांग अधिक पचास लाख करोड़ सागर प्रमाण कहा गया है।
भगवान का उपदेश
सौधर्म इन्द्र ने चतुर्निकाय देवों के साथ समवसरण में आकर भगवान की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, सैकड़ों स्तुतियों से स्तुति की और उपदेश सुनने के इच्छुक होते हुए अपनी सभा में बैठ गये, वैसे ही महाराज भरत भी भगवान की दिव्य वस्तुओं से पूजा और स्तुति करके मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। भगवान की अनक्षरी दिव्यध्वनि खिरी। इस दिव्यध्वनि में आचारांग आदि बारह अंगों का उपदेश हुआ और प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे चार अनुयोगों का भी उपदेश हुआ है।
ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति
यह पहले बताया जा चुका है कि भगवान ऋषभदेव जब गृहस्थाश्रम में थे, तब अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की स्थिति को समझकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण स्थापित किये थे। किसी समय भरत चक्रवर्ती अनेक राजाओं के साथ भारतवर्ष को जीतकर साठ हजार वर्ष में दिग्विजय से वापस लौटे। तब उनके मन में एक विचार उत्पन्न हुआ कि हम भगवान की पूजा को चाहे जितने विशेष रूप से कर सकते हैं किन्तु दान लेने में निःस्पृह रहने वाले दिगम्बर मुनि हम लोगों से धन लेते नहीं हैं परन्तु ऐसा गृहस्थ कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजा करने योग्य है। चक्रवर्ती ने ऐसे अणुव्रत धारी श्रावकों की परीक्षा करके उन्हें दान-मान आदि सत्कार से सम्मानित किया, पद्म नाम की निधि से ब्रह्मसूत्र लेकर इन व्रतिकों को यज्ञोपवीत प्रदान किये, उपासकाध्ययन अंग से उन्हें इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शास्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवा कर्म करने से शूद्र कहलाते हैं। जो एक बार गर्भ से, दूसरी बार क्रिया से ऐसे दो बार जन्म लेते हैं वे द्विजन्मा या द्विज कहलाते हैं। महाराज भरत ने इन्हें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कत्र्रन्वय क्रिया का भी उपदेश दिया था। किसी समय भरत महाराज ने पूछा कि हे भगवन्! मैंने यह ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति की है सो इसमें गुण हैं या दोष? कृपा कर कहिए। भगवान ने कहा कि हे भरत! जो तुमने धर्र्मात्मा द्विजों की पूजा की है सो अच्छा किया है किन्तु इसमें कुछ दोष हैं उसे तुम सुनो। जब तक चतुर्थ काल की स्थिति रहेगी, तब तक तो प्राय: ये उचित आचार का पालन करते रहेंगे परन्तु जब कलियुग निकट आ जायेगा, तब ये जातिवाद के अभिमान से सदाचार से भ्रष्ट होकर समीचीन मोक्षमार्ग के विरोधी बन जायेंगे। यद्यपि यह ब्राह्मणों की सृष्टि कालान्तर में दोष का बीजरूप है तथापि धर्म सृष्टि का उल्लंघन न हो, इसलिए इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है। वर्णाश्रम की रक्षा करने वाले भरत ने गुरुदेव के वचन सुनकर संदेह दूर कर अपना चित्त निर्मल किया।
भगवान ऋषभदेव का निर्वाण गमन
इस प्रकार सज्जनों को मोक्षरूपी उत्तम फल की प्राप्ति कराने के लिए भगवान ने अपने गणधरों के साथ-साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्षों तक विहार किया और जब आयु के चौदह दिन बाकी रह गये, तब योगों का निरोध कर पौषमास की पूर्णमासी के दिन श्रीशिखर और सिद्धशिखर के बीच में वैâलाशपर्वत पर जाकर विराजमान हो गये। उसी रात्रि में भरत महाराज ने स्वप्न में देखा कि महामेरुपर्वत अपनी लम्बाई से सिद्धक्षेत्र तक पहुँच गया है। अर्वâकीर्ति, गृहपति, प्रधानमंत्री आदि ने भी कुछ-कुछ स्वप्न देखे। सभी ने प्रात: निर्णय किया कि भगवान ऋषभदेव का मोक्ष होने वाला है। भरत महाराज उसी दिन वहाँ कैलाशपर्वत पर आ गये और चौदह दिन बराबर अखंड पूजा करते रहे। माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्र में भगवान ऋषभदेव पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ पर्यंकासन से विराजमान थे, उन्होंने तीसरे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नाम के शुक्लध्यान से तीनों योगों का निरोध किया और फिर अंतिम गुणस्थान में ठहरकर पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल में चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के शुक्लध्यान से अघातिया कर्मों का नाश किया। औदारिक, तैजस और कार्माण इन तीनों शरीरों के नाश से सिद्धत्व पर्याय प्राप्तकर वे सम्यक्त्व आदि निज के आठ गुणों से युक्त हो क्षणभर में ही तनुवातवलय में जा पहुँचे तथा वहाँ पर नित्य, निरंजन अपने अंतिम शरीर से कुछ न्यून, अमूर्त, आत्मसुख में तल्लीन और निरन्तर संसार को देखते हुए विराजमान हो गये। उसी समय मोक्षकल्याणक की पूजा करने की इच्छा से सब देवगणों ने ‘‘यह भगवान का शरीर पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्ष का साधन, स्वच्छ और निर्मल है’’ यह विचार कर उसे बहुमूल्य पालकी में विराजमान किया। तदनन्तर जो अग्निकुमार देवों के इन्द्र के रत्नों की कान्ति से दैदीप्यमान उन्नत मुकुट से उत्पन्न हुई है तथा चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगंधित पदार्थों और घी, दूध आदि से बढ़ाई गई है, ऐसी अग्नि से जगत् की अभूतपूर्व सुगंधि प्रगट कर उसका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी। तदनन्तर उन्हीं इन्द्रों ने पंचकल्याणक को प्राप्त होने वाली श्री ऋषभदेव के शरीर की भस्म उठाई और हम लोग भी ऐसे ही हों, यही सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर, दोनों भुजाओं में, गले में और वक्षस्थल में लगाई। उधर भरत महाराज पिता के वियोग से विह्वल हुए शोकरूपी अग्नि से पीड़ित हो गये, तब श्री वृषभसेन गणधर ने उन्हें बहुत समझाया और उनके संतप्त चित्त को धर्मामृत वचनों से शान्त किया। जब चतुर्थकाल के प्रारंभ होने में तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष थे, तब भगवान ऋषभदेव ने मोक्षपद प्राप्त किया था। अनन्तर चतुर्थकाल में अजितनाथ से लेकर पाश्र्वनाथ पर्यंत २२ तीर्थंकर और हुए हैं तत्पश्चात भगवान महावीर हुए हैं।