अति अन्याय रूप कार्य के बार-बार करने की प्रवृत्ति को व्यसन कहते हैं। ये व्यसन सात प्रकार के होते हैं— जुआ खेलना, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार। चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार।। अर्थात् १. जुआ खेलना , २. मांस खाना, ३. शराब पीना, ४. वेश्यासेवन करना, ५. शिकार खेलना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना। इन सात प्रकारों से मानव पाप मार्ग में प्रवृत्ति करता है उसके फलस्वरूप नरकगति के दुःख भोगता है। यहाँ पर क्रम-क्रम से एक-एक व्यसन का वर्णन किया जा रहा है। इन्हें पढ़कर निव्र्यसनी प्राणी दूसरों को प्रेरित कर [[व्यसन ]]का त्याग करावें तथा अंश मात्र भी जिनमें कोई व्यसन हैं वे उन्हें छोड़ने का सतत् प्रयास कर सद्गति के पात्र बनें—
पैसे से हार—जीत की बाजी लगाकर जो तास पत्तों के द्वारा खेल खेला जाता है, उसे जुआ कहते हैं। जिन पुरुषों को बिना परिश्रम किए हुए द्रव्य के प्राप्त होने की अधिक तृष्णा होती है ऐसे ही पुरुष विशेषतया जुआ खेलते हैं। यह जुआ सप्त व्यसनों का मूल और सब पापों की खान है। जुआरी मनुष्य नीच जाति के मनुष्यों के साथ भी उठने-बैठने का विचार नहीं करता और एकान्त स्थानों में सदा छुप-छुप कर जुआ खेलने के प्रयास में रहता है। जुआरी सब झूठों का सरदार होता है। अपने व्यसन में जीत जाने पर पापों में ही उसके धन का व्यय होता है, कोई भी दुष्कर्म से वह बच नहीं पाता है। आज भी दीपावली पर्व पर प्रायः अच्छे सभ्य पुरुष भी जुआ खेलते देखे जाते हैं किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बुरे कार्य यदि कभी हंसी—मजाक में भी किए जाते हैं तो उनका कुफल अवश्य भोगना पड़ता है पुनः भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण जैसे पावन दिवस पर खेला गया जुआ भला क्या शुभ का द्योतक हो सकता है? नहीं, प्रत्युत वह तो असंख्य पाप का संचय कराता है। जुआ का दूसरा नाम धृत भी है, इसके बारे में कविवर भूधरदास जी ने कहा है—
सकल पाप संकेत आप दाहेत कुलच्छन, कलह खेत दारिद्र देत दीसत निज अच्छन।
जुआ समान इहलोक में आन अनीति न पेखिए, इस विसनराय के लोक को कौतुक कूं निंह देखिए।।
अर्थात् जुआ व्यसन धर्म एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को भी भंग कर देता है तो भी जुआरी को तृप्ति नहीं होती है। इस व्यसन के कारण भीषण कष्ट उठाने वाले पांडवों का कथानक कौन नहीं जानता ? उनका ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है— ‘‘इतिहास कौरव पांडवों का’’ ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर का कथानक है। जब यहाँ कुरुवंश के राजा राज्य कर रहे थे, उनका नाम था धृत। इस न्यायप्रिय राजा के अम्बा, बालिका तथा अम्बिका नाम की तीन रानियाँ थीं । समयानुसार सांसारिक सुखों को भोगते हुए रानी अम्बा ने धृतराष्ट्र को, बालिका ने पांडु को और अम्बिका ने विदुर नामक पुत्र को जन्म दिया। सभी पुत्रों ने कुमारकाल प्राप्त कर विवाह बन्धन स्वीकार किया। तदनुरूप धृतराष्ट्र की स्त्री का नाम गान्धारी था तथा पांडु के दो स्त्रियाँ थीं कुन्ती और माद्री। इनमें से धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए और पांडु की कुन्ती नामक पत्नी से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा माद्री से नकुल-सहदेव ये दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए। कुन्ती की कन्या अवस्था में ही किसी कारण विशेष से पांडु के साथ संसर्ग होने से कर्ण नामक पुत्र का प्रसव पहले ही हो चुका था। एक बार महाराज धृत को शरदऋतु में बादलों को नष्ट होते देखकर संसार से वैराग्य हो गया अतः बड़े पुत्र धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राज्यभार सौंपकर पांडु को युवराज बनाकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उनके साथ ही छोटे भाई विदुर ने भी दीक्षा ले ली। काफी दिनों तक तपस्या करने के बाद धृत मुनि ने तो केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण सुख भोगा और विदुर मुनिराज धर्मोपदेश करते हुए देश-देश में विहार करने लगे। इसी प्रकार धृतराष्ट्र और पांडु को भी एक दिन वैराग्य का निमित्त मिला। उन्होंने एक भ्रमर को कमल के भीतर मरा हुए देखकर संसार की क्षणभंगुरता का विचार किया और राज्य को दो भागों में विभक्त कर युधिष्ठिर तथा दुर्योधन को उनका स्वामी बनाकर जैनेश्वरी दीक्षा स्वीकार कर ली। पांडव लोग कुशलतापूर्वक अपने राज्य संचालन में लगे थे, लेकिन कपटी दुर्योधन ने अपना षड्यंत्र रचना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन उसने पांचों पांडव भाइयों को अपने यहाँ आमंत्रित किया और उनका यथोचित आदर सत्कार किया। कुछ क्षण पश्चात् उसने धर्मात्मा युधिष्ठिर से स्नेहपूर्वक कहा—आइए, मनोरंजन के लिए थोड़ी देर द्यूत क्रीड़ा की जाए। युधिष्ठिर सरलचित्त थे, वे दुर्योधन के कपट को समझ न पाए अतः जुआ खेलने को राजी हो गए। द्यूतक्रीड़ा प्रारम्भ हुई, दोनों ओर से पासे फेके जाने लगे। सभी पासे कौरवों के अनुकूल पड़ने लगे। युधिष्ठिर की हार होती देखकर भीम ने एक क्रूर दृष्टि पासों पर डाली अतः अब पासे युधिष्ठिर के अनुकूल पड़ने लगे लेकिन दुर्योधन ने पुनः छल से भीम को किसी कार्यवश अन्यत्र भेज दिया तब कौरव फिर विजयी होने लगे। भाग्य का खेल देखो! भीम के वापस आने तक युधिष्ठिर उस जुए में अपना राजपाट सभी हार चुके थे। जब तक भीम उन्हें जुए की निकृष्टता के बारे में समझा ही रहे थे कि तब तक युधिष्ठिर ने अपना पूरा राज्य दांव पर लगा दिया और दुर्योधन द्वारा पराजित होकर विषण्णवदन अपने महल में लौट आए। दुर्योधन को तो अब मुंहमांगी मुराद ही मिल गई थी। पांडव महल में पहुंचे ही थे कि दुर्योधन का दूत सन्देश लेकर पहुंच गया और युधिष्ठिर से कहने लगा— महाराज दुर्योधन ने कहलाया है कि जब आप लोग बारह वर्ष का राज्य तथा समस्त ऐश्वर्य सहित अपने आपको भी हार गए हैं तो अब आपको इस राज्य में रहना उचित नहीं है। शर्त के अनुसार आप लोगों को राज्य से बाहर जाना होगा और छद्म वेश में रहना होगा ताकि कोई पहचान न पावे, यदि किसी ने आपको पहचान लिया तो पुनः बारह वर्ष का वनवास करना होगा। आज ही रात्रि में यहाँ से आप सब प्रस्थान कर जावें यही श्रेयस्कर है। दूत को विदाकर पांडव अपने वनवास की योजना बना ही रहे थे कि अकस्मात् वहाँ दुःशासन आया और द्रौपदी को बलपूर्वक बाहर निकालने लगा। जब द्रौपदी ने कुछ आनाकानी की तो दुष्ट उसके केशों को अपनी मुट्ठी से पकड़कर महल से बाहर ले आया। द्रौपदी की इस दयनीय स्थिति को देखकर भीष्म पितामह ने दुःशासन को बहुत बुरा कहा लेकिन इन दुष्टों के ऊपर भला क्या प्रभाव पड़ने वाला था। करुण विलाप करती हुई द्रौपदी पांडवों के पास पहुंची और उन लोगों की भत्र्सना करती हुई कहने लगी कि यदि आप लोग सचमुच में वीर पुरुष हैं तो दुर्योधन से मेरे अपमान का बदला क्यों नहीं लेते ? तब भीम और अर्जुन के हृदय में कौरवों को जड़मूल से नष्ट कर देने का पौरुष जागृत हुआ किन्तु युधिष्ठिर ने सबको शान्त करते हुए कहा—यह समय युद्ध का नहीं है। इस समय तो हम वचनबद्ध हैं अतः अनुवूâल समय आने पर बदला अवश्य लिया जाएगा। अभी तो वनगमन ही हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। इस प्रकार ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की आज्ञा सुनकर सभी लोग शान्त हो गए। वृद्धा माता कुन्ती को विदुर के घर छोड़कर पांचों भाई वन के लिए गमन कर गए। द्रौपदी की जिद के कारण उसे भी साथ में ले जाना पड़ा। अनेकों वन, उपवन, पर्वत, झरने आदि को पार करते हुए पैदल ही यात्रा चल रही थी, वे जहाँ भी थक जाते तो वन में ही विश्राम करते एवं फल-फूल खाकर पेट भरते थे। दीर्घकाल तक वनवास के कष्ट सहन करने के पश्चात् पांडवों ने युद्ध करके कौरवों पर विजय प्राप्त की, अन्त में दिगम्बर मुनि बनकर शत्रुंजय गिरि पर्वत पर तपस्या करके युधिष्ठिर-भीम-अर्जुन ने निर्वाण पद प्राप्त किया और नकुल सहदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। पांडवों ने अपने जीवन में एक जुआ व्यसन के कारण वनवास जैसे कष्ट सहे तथा लोकापवाद हुआ इसलिए आज तक उनका उदाहरण जुआ खेलने वालों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है अतः विज्ञ पुरुषों को यह व्यसन दूर से ही छोड़ देना चाहिए। इस भौतिकवादी युग में भी शेयर बाजार, लाटरी, सट्टेबाजी के कार्यों में अनेक महानुभाव लिप्त देखे जा रहे हैं। ये व्यापार भी जुआ व्यसन के अन्तर्गत ही आते हैं। भारी लाभ की आशा से मानव अपने व्यापार धन्धे को छोड़कर तेजी से शेयर बाजार की ओर भाग रहा है किन्तु भाग्य साथ न देने पर न जाने कितने युधिष्ठिर लुट रहे हैं और जीवन के मध्यम आनंद को भी तिलांजलि देकर उन्हें दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। व्यसन की ओर से मुख मोड़कर, बिना परिश्रम के करोड़पति, उद्योगपति बनने के सपने छोड़कर व्यापार करने वाले मध्यमवर्गीय परिवार आज भी मानसिक दृष्टि से अधिक सुखी देखे जा रहे हैं। अतएव जुए से होने वाली हानियों की ओर दृष्टि डालते हुए आप सभी को उसके त्याग का संकल्प अवश्य लेना चाहिए।