तीर्थ शब्द की व्याख्या करते हुए जैनाचार्यों ने लिखा है-
‘‘तीर्यते संसार सागरो येनासौ तीर्थः’’
अर्थात् जिसके द्वारा संसाररूपी महासमुद्र को तिरा जावे.पार किया जावे उसे तीर्थ कहा जाता है।
तीर्थ के भेद (Types of Teerth)- उस तीर्थ के प्रथमतः दो भेद किये हैं-भावतीर्थ, द्रव्यतीर्थ
भावतीर्थ (Bhavteerth)-आत्मा के परमशुद्ध परिणाम को भावतीर्थ कहते हैं क्योंकि शुद्ध भावों से ही जीव परमात्मपद को प्राप्त करता है।
द्रव्यतीर्थ (Dravyateerth)-महापुरुषों की चरणरज से पवित्र भूमियाँ द्रव्यतीर्थ के रूप में मानी जाती हैं। इनकी यात्रा को समाप्त करने की भावना भाते हैं।
एक गीत में तीर्थयात्रा का फल संजोया गया है-
तर्ज- जरा सामने तो………….
तीरथयात्रा का पुण्य विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।टेक।।
कोई गंगा को तीरथ कह, उसमें डुबकी लगाते हैं।
कोई संगम तट पर जाकर, निज को शुद्ध बनाते हैं।।
सच्चे तीरथ की कीरत विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।।१।।
सत्य अहिंसा करुणा की, नदियाँ जहां कल कल बहती हैं।
उनमें पापों के क्षालन को, जनता आतुर रहती है।।
वही तीरथ अलौकिक विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।२।।
कहीं किसी पर्वत पर जाकर, महामुनी तप करते हैं।
वृक्षों के नीचे भी तपकर, केवलज्ञानी बनते हैं।
वे ही तीरथ कहाते विशाल हैं, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा भवसागर से होकर पार हैं।।३।।
ये सब द्रव्य तीर्थ हैं चेतन भाव तीर्थ कहलाता है।
चलते फिरते तीर्थ साधुगण जिनका मोक्ष से नाता है।।
‘‘चंदनामति’’ ये तीरथ विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।४।।
इस प्रकार से तीर्थों की महिमा को बतलाने जो पुण्यस्थल हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं। उन तीर्थों को तीन भागों में विभक्त किया गया है-तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र, अतिशयक्षेत्र।
तीर्थक्षेत्र (Teerthkshetra)- तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान कल्याणकों से पवित्र स्थल वास्तविक तीर्थक्षेत्र की श्रेणी में आते हैं तथा अन्य महापुरुषों के भी जन्म अथवा दीक्षा आदि से पावन भूमि को भी तीर्थ की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। जैसे-अयोध्या, पावापुर, गिरनारजी, सोनागिरी, मांगीतुंगी, कुंथलगिरि आदि।
सिद्धक्षेत्र (Siddhkshetra)- जहाँ से तीर्थंकर भगवान अथवा कोई महामुनि आदि मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे स्थान सिद्धक्षेत्र कहे जाते हैं। जैसे-सम्मेद शिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनारजी, सोनागिरी, मांगीतुंगी, गजपंथा इत्यादि।
अतिशय क्षेत्र (Atishayakshetra)- जहाँ पर किसी प्रकार के अतिशय. चमत्कार प्रकट हो जाते हैं वे स्थल अतिशय क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं । जैसे-महावीर जी, तिजारा जी, चांदखेड़ी आदि ।
शाश्वततीर्थ (Eternal Teerths)- प्रकार के तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र वर्तमान में भारत की धरती पर सैकड़ों की संख्या में हैं। उनमें से अयोध्या और सम्मेदशिखरजी ये दो तीर्थ शाश्वततीर्थ के रूप में जैन आगम ग्रंथों में माने गये हैं, क्योंकि अनादिकाल से हमेशा इस धरती पर चतुर्थकाल में होने वाले २४-२४ तीर्थंकर अयोध्या में ही जन्मे हैं और आगे अनन्तकाल तक अयोध्या में ही जन्मेंगे।
इसी प्रकार से सभी तीर्थंकरों ने सम्मेदशिखर पर्वत से ही निर्वाणधाम को प्राप्त किया है और आगे भी वहीं से निर्वाण प्राप्त करेंगे।
वर्तमान युग में भी सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की वन्दना का महत्व जैन समाज में अत्यधिक माना जाता है।
परन्तु यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि वर्तमान युग हुण्डावसर्पिणी काल के नाम से जाना जाता है। यह असंख्यातों कल्पकालों के बाद एक बार आता है और इसमें कई प्रकार के अनहोने कार्य होते हैं। जैसे-
(१) हमेशा तो चतुर्थकाल में तीर्थंकर जन्म लेते थे किन्तु इस बार तीसरे काल में ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) का जन्म हो गया और तृतीयकाल के अन्त में ही उनका निर्वाण भी हो गया। पुनः चतुर्थ काल में भगवान अजितनाथ से महावीर तक २३ तीर्थंकर हुए।
(२) चौबीस तीर्थंकर में से पाँच तीर्थंकर (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ) भगवान ही अयोध्या में जन्मे हैं तथा अन्य १९ तीर्थंकरों ने अन्यत्र स्थानों पर जन्म ले लिया। इसलिए वर्तमान में २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियाँ हैं।
(३) इसी प्रकार शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र से वर्तमान चौबीसों के २० तीर्थंकर भगवान मोक्ष गये हैं, शेष ४ तीर्थंकर कैलाशपर्वत, चम्पापुर, गिरनार और पावापुर से मोक्ष चले गये। इसलिए आज २४ भगवान की ५ निर्वाण भूमियाँ मानी जाती है।
(४) प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्रों में से भरत प्रथम चक्रवर्ती बने, बाहुबली प्रथम कामदेव बने, वृषभसेन प्रथम गणधर मुनिराज बने, अनंतवीर्य मोक्षगामी हुए ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याएँ प्रथम आर्यिका बनीं।
किन्तु बाहुबली के द्वारा चक्रवर्ती भ्ारत का पराभव-अपमान हुआ यह हुण्डावसार्पिणी काल का दोष समझना चाहिए।
इसी प्रकार के कुछ दोष इस युग में उत्पन्न हो गये हैं, फिर भी अनेकानेक धर्म तीर्थों एवं धर्मगुरुओं के कारण जिनधर्म की प्रभावना आज भी निर्बाधरूप से हो रही है और आगे पंचमकाल के अन्त तक होती रहेगी।
तीन प्रकार के भेदों में विभक्त तीर्थ वर्तमान में लगभग ३५० की संख्या में पाये जा रहे हैं। इन्दौर से प्रकाशित ‘‘तीर्थक्षेत्र निर्देशिका’’ पुस्तक में लगभग इन सभी तीर्थों के पते और फोन नं० उपलब्ध हो जाते हैं अतः तीर्थयात्रियों को काफी सुविधा हो जाती है।
इस जैन इनसाइक्लोपीडिया में इन तीर्थों के सचित्र वर्णन आपको प्राप्त होंगे। कि प्रत्येक तीर्थ पर जितने जिनमंदिर हैं उनके चित्र एवं मंदिर में जितनी वेदियाँ हैं उनके चित्र, वेदी में विराजमान प्रतिमाओं की संख्या भी उसमें समाविष्ट करने का भी प्रयास चल रहा है।
दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों के अनुसार जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, क्योंकि जब-जब तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म होने से पूर्व स्वर्ग से इन्द्र धरती पर आते थे तब वे अयोध्या नगरी में सर्वप्रथम चारों दिशाओं में और नगर के मध्यभाग में इस प्रकार पाँच जिनालयों की स्थापना करके ही महल की रचना करते थे एवं उसमें होने वाले तीर्थंकर के माता-पिता का मंगल प्रवेश कराते थे तथा समय-समय पर आकर तीर्थंकर के कल्याणक मनाना, रत्नवृष्टि करना आदि अपने कर्तव्य की पूर्ति करते थे।
श्री जिनसेनाचार्य जी द्वारा (By Shri Jinsenacharya)- श्रीजिनसेनाचार्य रचित महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण में भी वर्णन आया है-
इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की चारों दिशाओं में और नगर के मध्य में पाँच देवालयों या जिनायतनों की रचना करके जिनायतनों का निर्माण करने और उसमें मूति-र्स्थापना करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
एक बार जब सम्राट भरत कैलाश गिरि पर भगवान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका मन भगवान की भक्ति से ओतप्रोत था। उन्होंने भगवान के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराया। ये घण्टे नगर के चतुष्पथों, गोपुरो,ए राजप्रासाद के द्वारों और ड्यौढ़ियों में लटकवाये।
किन्तु इतने से सम्राट भरत के मन को सन्तुष्टि नहीं हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता था। तब उन्होंने इन्द्र द्वारा बनाये गए जिनायतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनायतनों का निर्माण कराया और उनमें अनर्ध्य रत्नों की प्रतिमायें विराजमान कराई। अतः साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक सभ्यता के विकास-काल को उषा-वेला में ही मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था।
पौराणिक जैन साहित्य में मन्दिरों और मूर्तियों के उल्लेख विभिन्न स्थलों पर प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये हुए इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीरथी के जल से उसे पूर्ण कर दिया था। लंकाधिपति रावण इन मन्दिरों के दर्शनों के लिए कई बार आया था। लंका में एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमें रावण पूजन किया करता था और लंका विजय के पश्चात् रामचन्द्र, लक्ष्मण आदि ने भी उसके दर्शन किये थे।
पं. श्री बलभद्र जी ने ‘‘जैनधर्म का प्राचीन इतिहास’’ (भाग १) में उल्लेख किया है कि-
साहित्य में ईसा पूर्व ६०० से पहले के मन्दिरों के उल्लेख मिलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के काल में किसी कुवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवनिर्मित बौद्ध स्तूप कहा जाने लगा। यह सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग इसका सोना निकाल कर ले जाने लगे तब कुवेरा देवी ने इस प्रस्तर खण्डों और ईंटों से ढंक दिया। (विविध तीर्थ कल्प-मथुरापुरी कल्प)। स्थापना की इस अनुपम कलाकृति का उल्लेख कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरण-चौकी पर अंकित मिलता है।
भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उड़ीसा) नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफाओं में गुहा-मन्दिर (लयण) बनवाये और उनमें पार्श्वनाथ की पाषाण प्रतिमा विराजमान कराई। ये लयण और प्रतिमा अबतक विद्यमान है। करकण्डु चरिउ आदि ग्रन्थों के अनुसार तो ये लयण और पार्श्वनाथ-प्रतिमा करकण्डु नरेश से भी पूर्ववर्ती थे।
पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में लोहानीपुर (पटना का एक मुहल्ला) में नाला खोदते समय जो तीर्थंकर-प्रतिमा उपलब्ध हुई है, वह भारत की मूर्तियों में प्राचीनतम है। यह आजकल पटना म्यूजियम में सुरक्षित है। इसका सिर नहीं है। कुहनियों और घुटनों से भी खण्डित है। किन्तु कन्धों और बाहों की मुद्रा से यह खड्गासन सिद्ध होती है तथा इसकी चमकीली पालिश से इसे मौर्यकाल (३२०-१८५ ई० पू०) की माना गया है। हड़प्पा में जो खिण्डत जिनप्रतिमा मिली है, उससे लोहानीपुर की इस जिन-प्रतिमा में एक अद्भुत सादृश्य परिलक्षित होता है। और इसी सदृश्य के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय मूर्ति-कला का इतिहास वर्तमान मान्यता से कहीं अधिक प्राचीन है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि देव-मूर्तियों के निर्माण का प्रारम्भ जैनों ने किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम तीर्थकर-मूर्तियों का निर्माण करके धार्मिक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया। एक अन्य मूर्ति के सम्बन्ध में उदयगिरि की हाथीगुफा में एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख के अनुसार कलिंग नरेश खारवेल मगध नरेश वहसतिमित्र को परास्त करके छत्र-भृगांरादि के साथ ‘कलिंग जिन ऋषभदेव’ की मूर्ति वापिस कलिंग लाये थे जिसे नन्द सम्राट कलिंग से पाटलिपुत्र ले गये थे। सम्राट् खारवेल ने इस प्राचीन मूर्ति को कुमारी पर्वत पर अर्हत्प्रासाद बनवाकर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। इसके अनुसार मौय-र्काल से पूर्व में भी एक मूर्ति थी, जिसे ‘कलिंगजिन’ कहा जाता था।
मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार जैन मन्दिरों का निर्माण काल जैन प्रतिमाओं के निर्माणकाल से प्राचीन प्रतीत नहीं होता। लोहानीपुर, श्रावस्ती, मथुरा आदि में जैन मन्दिरों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं, किन्तु अब तक सम्पूर्ण मन्दिर कहीं पर भी नहीं मिला। इसलिये प्राचीन जैन मन्दिरों का रूप क्या था, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।
किन्तु गुहा-मन्दिर और लयण ईसा पूर्व सातवीं-आठवीं शताब्दी तक के मिलते हैं। तेरापुर के लयणए उदयगिरि-खण्डगिरि के गुहामन्दिर, अजन्ता-एलोरा और बादामी की गुफाओं मे उत्कीर्ण जैन मूर्तियाँ इस बात के प्रमाण हैं कि गुफाओं को मन्दिरों का रूप प्रदान कर उनका धार्मिक उपयोग ईसा पूर्व से होने लगा था। इन गुहामन्दिरों का विकास भी हुआ। विकास का यह रूप मात्र इतना ही था कि कहीं-कहीं गुफाओं में भित्ति-चित्रों का अंकन किया गया। ऐसे कलापूर्ण भित्ति चित्र सित्तन्नवासन आदि गुफाओं में अब भी मिलते हैं। गुहा मन्दिरों का सामान्य मन्दिरों की अपेक्षा स्थायित्व अधिक रहा। इसीलिये हम देखते हैं कि ईसा पूर्व का कोई मन्दिर आज विद्यमान नहीं है, जबकि गुहा-मन्दिर अब भी मिलते हैं। इस प्रकार दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि के प्रारम्भिक काल में इन्द्र ने अयोध्या में पाँच मन्दिरों का निर्माण किया भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय बनवाये शत्रुघ्न ने मथुरा में अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराया। जैन मान्यतानुसार तो तीन लोकों की रचना में कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयों का पूजा-विधान जैन परम्परा में अब तक सुरक्षित है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में जिन चैत्यालयों की कल्पना बहुत प्राचीन है।
किन्तु पुरातत्व को ज्ञात जैन मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप-विधान कैसा थाद्ध इसमें अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर होता है। लगता है, प्रारम्भ में मन्दिर सादे बनाये जाते थे। उन पर शिखर का विधान पश्चात्काल में विकसित हुआ। शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने। अनेक प्राचीन सिक्कों पर मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप माना है। ई० पू० द्वितीय और प्रथम शताब्दी के मथुरा-जिनालयों में दो विशेषतायें दिखाई देती हैं-प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर। इस सम्बन्ध में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी का अभिमत है कि मन्दिर के चारों ओर वृक्षों की वेष्टनी बनाई जाती थी। इसे ही वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनों प्रस्तरनिर्मित होने लगी।
मौर्या और शुंग काल में जैन मन्दिरों का निर्माण अच्छी संख्या में होने लगा था। उस समय ऊचें स्थान पर स्तम्भों के ऊपर छत बनाकर मन्दिर बनाये जाते थे। छत गोलाकार होती थी, पश्चात् अण्डाकार बनने लगी। शक-सातवाहन-काल (ई० पू० १०० से २०० ई०) में मन्दिरों का निर्माण और अधिक संख्या में होने लगा। इस काल में जैन मन्दिरों, उनके स्तम्भों और ध्वजाओं पर तीर्थकर की मूर्ति बनाई जाने लगी। इस काल में प्रदक्षिणा-पथ भी बनने लगे जो प्रायः काष्ठ की वेष्टनी से बनाये जाते थे। कुषाण काल में ये पाषाण के बनने लगे। कुषाण काल में जैन मन्दिर और भी अधिक बनने लगे। इस काल में मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, कम्पिला और हस्तिनापुर प्रमुख जैन केन्द्र थे।
गुप्त काल (ई० चैथी से छटी शताब्दी) में मन्दिरों का निर्माण प्रचुरता से होने लगा। सौन्दर्य और मन्दिरों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। इस काल में स्तम्भों को पत्रावली और मांगलिक चिन्हों से अलंकृत किया जाने लगा। तोरण और सिरदल के उपर तीर्थंकर मूर्ति बनाई जाने लगी। गर्भगृह के ऊपर शिखर बनने लगा। बाहर स्तम्भों पर आधारित मण्डप की रचना होने लगी। बाह्य भित्तियों पर मूतिर्यों का अंकन होने लगा।
ईसवी सन् ६०० के बाद उत्तर भारत में नागर शैली और दक्षिण भारत में द्रविड़ शैली का विशेष रूप से विकास हुआ। शिखर के अलंकरण की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इस प्रकार विभिन्न कालों में मन्दिरों के रूप और कला में विभिन्न परिवर्तन होते रहे। कला एकरूप होकर कभी स्थिर नहीं रही। समय के प्रभाव से वह अपने आपको मुक्त भी नहीं कर सकी। एक समय थाए जब तीर्थंकर प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाई जाती थी किन्तु आज तो तीर्थकरों के साथ अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन ही समाप्त सा हो गया है जबकि शास्त्रीय दृष्टि से यह आवश्यक है।
यह प्रकरण इसलिये दिया गया है जिससे विभिन्न शैलियों के प्राचीन मन्दिरों के काल-निर्णय करने में पाठकों को मार्गदर्शक तत्वों की जानकारी हो सके।
तीर्थकर चौबीस हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक चिन्ह है, जिसे लांछन कहा जाता है। तीर्थंकर-मूर्तियां प्रायः समान होती हैं। केवल ऋषभदेव की कुछ मूर्तियों के सिर पर जटायें पाई जाती हैं तथा पार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर सर्प का फण होता है। सुपार्श्वनाथ की कुछ मूतिर्यों के सिर के उपर भी सर्प का फण मिलते हैं। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के सर्प-फणों में साधारण सा अन्तर मिलता है। सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर पाँच फण होते हैं और पार्श्वनाथ की मूर्तियों के सिर के ऊपर सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्र सर्प-फण पाये जाते हैं। इन तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष सभी तीर्थकरों की मूर्तियों में कोई अन्तर नहीं होता। उनकी पहचान चरण-चौकी पर अंकित उनके चिन्हों से ही होती है। चिन्ह न हो तो दर्शक को पहचानने में बड़ा भ्रम हो जाता है। कभी-कभी तो लांछनरहित मूर्ति को साधारण जन चतुर्थकाल की मान बैठते हैं, जबकि वस्तुतः श्रीवत्स लांछन और अष्ट प्रातिहार्य से रहित मूर्ति सिद्धों की कही जाती है। इसलिये मूर्ति के द्वारा तीर्थंकर की पहचान करने का एकमात्र साधन तीर्थकर-प्रतिमा की चरण-चैकी पर अंकित उसका चिन्ह ही है। इसलिये तीर्थकर-मूर्ति-विज्ञान में चिन्ह या लांछन का अपना विशेष महत्व है।
इन चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह निम्न प्रकार हैं-
नाम | चिन्ह | नाम | चिन्ह |
(१ )श्री ऋषभदेव जी | बैल | (२) श्री अजितनाथ जी | हाथी |
(३) श्री संभवनाथ जी | घोड़ा | (४) श्री अभिनन्दननाथ जी | बंदर |
(५) श्री सुमतिनाथ जी | चकवा | (६) श्री पद्मप्रभ जी | कमल |
(७) श्री सुपार्श्वनाथ जी | साथिया | (८) श्री चन्द्रप्रभ जी | चन्द्रमा |
(९) श्री पुष्पदन्तजी | मगर | (१०) श्री शीतलनाथ जी | कल्पवृक्ष |
(११) श्री श्रेयांसनाथ जी | गैंडा | (१२) श्री वासुपूज्य जी | भैसा |
(१३) श्री विमलनाथ जी | शूकर | (१४) श्री अनन्तनाथ जी | सेही |
(१५) श्री धर्मनाथ जी | वङ्कादंड | (१६) श्री शान्तिनाथ जी | हिरण |
(१७) श्री कुंथुनाथ जी | बकरा | (१८) श्री अरनाथ जी | मछली |
१९) श्री मल्लिनाथ जी | कलश | (२०) श्री मुनिसुव्रतनाथ जी | कछुवा |
(२१) श्री नमिनाथ जी | नीलकमल | (२२) श्री नेमिनाथ जी | शंख |
(२३) श्री पार्श्वनाथ जी | सर्प | (२४) श्री महावीरस्वामी जी | सिंह |
यहाँ पर यह थोड़ा सा प्राचीन परिचय जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रदान किया गया है। वर्तमान में भी पूरे देश के अन्दर अतिशय सुन्दर शिल्पकलायुक्त मंदिरों के निर्माण हो रहे हैं और जिनमूर्तियों का शिल्प भी अब पूर्व काल की अपेक्षा काफी अच्छे रूप में निखर कर आया है। मूर्ति निर्माण के संदर्भ में जयपुर की मूलचन्द रामचन्द्र नाठा फर्म भी अति प्रसिद्ध हुई है। इनके द्वारा बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ निर्मित करवाकर अनेक स्थान पर विराजमान की गई हैं। उनमें से हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में सूरजनारायण नाठा की देखरेख में एक इंच की अष्ट धातु प्रतिमा से लेकर (तेरहद्वीप एवं तीनलोक रचना में विराजमान) ३१-३१ फुट उत्तुंग (भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरनाथ की) खड़गासन प्रतिमाएँ विशेष दर्शनीय हैं। मंदिर एवं मूर्तियों की संख्या-अकृत्रिम जिनमंदिरों की गणना जो तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में कही है वह तीनों लोकों की अपेक्षा आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी (८,५६,९७,४८१) है तथा उन सबमें १०८.१०८ प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं अतः सब मिलाकर कुल नौ सौ पच्चीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार, नौ सौ अड़तालिस (९२५ ५३, २७, ९४८) प्रतिमाओं की संख्या मानी है। इसके अलावा भवन-व्यंतर और ज्योतिर्वासी देवों के भवनों की अपेक्षा असंख्यातों जिनमंदिर तथा असंख्यातों जिन प्रतिमाएँ जानना चाहिए।
वर्तमान में हम सभी को इन अकृत्रिम मंदिरों के दर्शन उपलब्ध नहीं हैं किन्तु कृत्रिम मंदिर बनाने की परम्परा भी जो प्राचीन काल से धरती पर चली आ रही है उन्हीं के विषय में यहाँ आप सभी को जानना है। भारतदेश की सीमा जो आज उपलब्ध हो रही है उसमें विभिन्न प्रदेशों के अन्दर दिगम्बर जैन तीर्थों की संख्या लगभग ३०० है और दिगम्बर जैन मंदिर लगभग १२००० की संख्या में हैं।
पदमपुराण (जैनरामायण) में श्री रविषेणाचार्य ने ३२ वें पर्व में कहा है-
भवनं यस्तु जैनेन्द्रं, निर्मापयति मानवः।
तस्य भोगोत्सवः शक्यः केन वक्तुं सुचेतसः।।१७२।।
प्रतिमां यो जिनेन्द्राणां, कारयत्यचिरादसौ।
सुरासुरोत्तमसुखं, प्राप्य याति परं पदम्।।१७३।।
व्रतज्ञान तपोदानैर्यान्युपात्तानि देहिनः।
सर्वैस्त्रिष्वपिकालेषु, पुण्यानि भुवनत्रये।।१७४।।
एकस्मादपि जैनेन्द्र बिम्बान् भावेन कारितान्।
यत्पुण्यं जायते तस्य न संमान्त्यतिमात्रतः।।१७५।।
अर्थ- जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस शुद्ध चित्तवाले मनुष्य के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है अर्थात् उसको संसार के इतने भोगोपभोग के साधन प्राप्त होते हैं जिनका वर्णन करना भी अशक्य है।।१७२।।
जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है। अर्थात् वह कुछ भवों में ही मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है।।१७३।।
तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत.ज्ञान.तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक जिनेन्द्र प्रतिमा बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं।।१७४-१७५।।
इसी प्रकार से आचार्य श्रीवसुनंदि स्वामी ;बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं, ने अपने श्रावकाचार ग्रंथ में कहा है-
कुत्थुंभरिदलमत्तं जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं।
सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं।।४८१।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुणणयं परिहि.तोरणसमग्गं।
णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वणिणउं सयलं।।४८२।।
अर्थ- जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापन करता है, वह तीर्थकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त् वर्णन करने के लिए कोन समर्थ हो सकता है।।४८१-४८२।।
आप सभी पाठकों एवं श्रद्धालु भक्तों के लिए यह मंगल प्रेरणा है कि उपलब्ध तीर्थ एवं मंदिरों के दर्शन करके असीम पुण्य का संचय करें तथा मंदिर-मूर्तियों के निर्माण में उनके जीर्णोद्धार विकास में अपने तन मन धन का सदुपयोग करें एवं जैन संस्कृति की सुरक्षा में अपना योगदान देकर कर्तव्य का पालन करें।
जैनों के तीर्थों की संख्या बहुत है। यहाँ सबको बतला सकना शक्य नहीं है, क्योंकि जैन धर्म की अवनति के कारण अनेक प्राचीन तीर्थ आज विस्मृत हो चुके हैं, अनेक स्थान दूसरों के द्वारा अपहृत कर लिये गये हैं। कई प्रसिद्ध स्थानों पर जैनमूर्तियाँ दूसरे देवताओं के रूप में पूजी जा रही हैं।
जैनधर्म में दिगम्बर ही नहीं श्वेताम्बर आदि सम्प्रदायों के भी तीर्थस्थान हैं। उनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्हें दोनों ही मानते पूजते हैं और बहुत से ऐसे हैं जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते हैं या केवल श्वेताम्बर अथवा एक सम्प्रदाय एक स्थान में मानता है तो दूसरा दूसरे स्थान में। वैâलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुञ्जय और सम्मेदशिखर आदि ऐसे तीर्थ हैं जिनको दोनों ही मानते हैं। गजपंथा, मांगीतुंगी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेढ़ागिरि, सिद्धवरकूट, बड़वानी आदि तीर्थ ऐसे हैं, जिन्हें केवल दिगम्बर परम्परा ही मानती है और इसी तरह आबूगिरि, शंखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ हैं जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही मानता है। यहाँ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्रों का सामान्य परिचय प्रान्तवार कराया जाता है।
सम्मेदशिखर (Sammed Shikhar)- झारखण्ड प्रदेश में जैनों का यह एक अतिप्रसिद्ध और अत्यन्त पूज्य शाश्वत सिद्धक्षेत्र है। इसे दिगम्बर और श्वेताम्बर समान रूप से मानते और पूजते हैं। श्री ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिमाथ और महावीर के सिवाय शेष बीस तीर्थंकरों ने इसी पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया था। २३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के नाम के ऊपर से आज यह पर्वत ‘पारसनाथ हिल’ के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वीय रेलवे पर इसके रेलवे स्टेशन का नाम भी कुछ वर्षों से पारसनाथ हो गया है। इस पर्वत की चोटियों पर बने अनेक मंदिरों का दर्शन करने के लिए प्रतिवर्ष हजारों तीर्थयात्री आते हैं। इसकी यात्रा में १८ मील की पर्वत वंदना है और ८ घंटे लगते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इसे शाश्वत तीर्थ कहा गया है क्योंकि इस पर्वत से भूतकाल में अनंत तीर्थंकरों ने निर्वाण की प्राप्ति की है तथा भविष्य काल में भी अनन्तों तीर्थंकर इसी पर्वत से मोक्ष जाएंगे। शास्त्र कहते हैं कि इस पर्वत की वंदना करने वाले को नरक व तिर्यंचगति में जन्म नहीं लेना पड़ता। भव्य जीव ही इस पर्वत की यात्रा कर सकते हैं। वर्तमान में पर्वत के अलावा तलहटी में भी अनेक दिगम्बर जैन मंदिर यहाँ निर्मित हो गये हैं।
कुलुआ पहाड़ (Kuluaa Mountain)- यह पहाड़ जंगल में है। गया से वहाँ जाने की पूरी सुविधा है। इसकी चढ़ाई २ मील है। इस पर सैकड़ों जैन प्रतिमाएँ खण्डित पड़ी हैं। अनेक जैन मंदिरों के भग्नावशेष भी पड़े हैं। कुछ जैन मंदिर और प्रतिमाएँ खण्डित भी हैं। कहा जाता है कि इस पहाड़ पर १०वें तीर्थंकर शीतलनाथ ने तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया था। इण्डियन एन्टीक्वायरी (मार्च १९०१) में एक अंग्रेज लेखक ने इसके संबंध में लिखा था-पूर्वकाल में यह पहाड़ अवश्य जैनियों का एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा, क्योंकि सिवाय दुर्गादेवी की नवीन मूर्ति के और बौद्ध मूर्ति के एक खण्ड के अन्य सब चिन्ह जो पहाड़ पर हैं, ये सब जैन तीर्थंकरों को प्रकट करते हैं।
गुणावां (Gunawa)- यह भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी का निर्वाण क्षेत्र है। गया-पटना (ई. आर.) लाइन में स्थित नवादा स्टेशन से डेढ़ मील है। यहाँ दिगम्बर जैन मंदिर तथा जल के मध्य में भी एक मंदिर है। ईसवी सन् २००४ में यहाँ कमलाकार एक मंदिर का निर्माण करके उसमें गौतम स्वामी की खड्गासन सवा पाँच फीट की प्रतिमा विराजमान की गई, जो अत्यन्त मनोहारी है।
पावापुर (Pawapur)- गुणावां से १३ मील पर अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का यह निर्वाणक्षेत्र है। उसके स्मारकस्वरूप तालाब के मध्य में एक विशाल मंदिर है, जिसको जलमंदिर कहते हैं। जलमंदिर में महावीर स्वामी, गौतम स्वामी और सुधर्मा स्वामी के चरण स्थापित हैं। कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में यहाँ बहुत बड़ा मेला भरता है। देश के कोने-कोने से जैन यात्री आते हैं। दिगम्बर परम्परा के हजारों श्रद्धालु यात्री दीपावली के दिन यहाँ निर्वाण लड्डू चढ़ाने आते हैं। यहाँ एक दिगम्बर मंदिर व उसके प्रांगण में मानस्तंभ स्थापित है।
भगवान महावीर स्वामी के निर्वाणगमन से पावन पावापुरी सिद्धक्षेत्र बिहार प्रान्त के नालंदा जिले में स्थित है। पावापुरी के मनोहर नामक उद्यान में कमलों से व्याप्त सरोवर के मध्य मणिमयी शिला पर भगवान महावीर विराजमान हुए थे, उस समय समवसरण विघटित हो चुका था। दो दिन तक ध्यान में लीन हुए महावीर स्वामी ने कार्तिक कृष्णा अमावस के दिन प्रात: उषाकाल के समय शुक्लध्यान के द्वारा सर्वकर्म नाशकर निर्वाण प्राप्त कर लिया था। उस समय देवों ने देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावापुर नगरी को सब ओर से जगमगा दिया था। तभी से आज तक संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष कार्तिक कृ. अमावस्या को दीपावली पर्व मनाने लगे।
भगवान महावीर के निर्वाण के दिन ही सायंकाल में उनके प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी को भी पावापुर में ही केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
वर्तमान में पावापुर नगरी में जलमंदिर के निकट स्थित पांडुकशिला परिसर में भगवान महावीर स्वामी की खड्गासन प्रतिमा (दिसम्बर २००३ में) स्थापित की गई हैं।
राजगृही या पंचपहाड़ी (Rajgrahi or Panch Pahari)- पावापुरी से लगभग २० किमी. की दूरी पर राजगृही है। एक समय यह मगध देश की राजधानी थी। यहाँ २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हुआ था। राजगृही तीर्थ पर पाँच पर्वत हैं। इसी से इसे पंचपहाड़ी भी कहते हैं। महावीर भगवान का प्रथम उपदेश (दिव्यध्वनि रूप) इसी नगरी के विपुलाचल पर्वत पर हुआ था। पाँचों पहाड़ों के ऊपर जैन मंदिर बने हैं। इन सभी की वंदना करने में १५-१६ मील की यात्रा हो जाती है।
यहाँ तलहटी में भी तीन मंदिर हैं। जिनमें से एक लाल मंदिर के नाम से जाना जाता है।
अनेकों पौराणिक घटनाओं से परिपूर्ण इस नगरी में दिसम्बर २००३ में भगवान मुनिसुव्रतनाथ का कमल मंदिर निर्मित करके उसमें भगवान की सवा बारह फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान हुई हैं तथा विपुलाचल पर्वत की तलहटी मेंं गौतमस्वामी के मानभंग के प्रतीक में एक उत्तुंग मानस्तंभ का निर्माण भी किया गया है।
कुण्डलपुर (Kundalpur)- यह राजगृही से १३ किमी. पर है। यह भगवान महावीर का वास्तविक जन्मस्थान है। यहाँ सैकड़ों वर्ष प्राचीन भगवान महावीर का मंदिर एवं प्राचीन चरण विराजमान हैं। भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक के अवसर पर सन् २००३-२००४ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से इसका अद्भुत विकास किया गया। यहाँ सात मंजिल का नंद्यावर्त महल, त्रिकाल चौबीसी मंदिर, भगवान ऋषभदेव मंदिर, भगवान महावीर मंदिर, नवग्रहशांति जिनमंदिर का निर्माण हुआ तथा यात्रियों के ठहरने की भी उत्तम व्यवस्था है।
पुराने मंदिर परिसर में ३६ फुट ऊँचे इस कीर्तिस्तंभ का निर्माण कराया गया है। इसमें ऊपर दो मंजिलों के चैत्यालयों में भगवान महावीर की ८ प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा नीचे की मंजिल में महावीर स्वामी का जीवनचरित्र आदि उत्कीर्ण है।
उपर्युक्त धार्मिक एवं ऐतिहासिक निर्माण के साथ कुण्डलपुर के इस नवविकसित तीर्थ स्थल पर भगवान महावीर की दीक्षामुद्रा वाली (पिच्छी-कमण्डलु सहित ६ फुट खड्गासन) प्रतिमा एवं उनके कौशाम्बी में हुए ऐतिहासिक आहार वाली प्रतिमा (महावीर स्वामी की आहार लेते हुए एवं आहार देते हुए सती चन्दना की) स्थापित हैं तथा अतिथि भवन (तीन मंजिली दो धर्मशाला), पानी की टंकी, तीर्थ परिसर का मुख्य द्वार आदि निर्माण से सहित तीर्थ परिसर अत्यन्त सुसज्जित रूप से निर्मित हैं।
चम्पापुर एवं मन्दारगिरि(Champapur and Mandargiri)- बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के पाँचों कल्याणक से पवित्र चम्पापुर तीर्थ है। भागलपुर चम्पापुर से ३० मील पर मन्दारगिरि नामक एक छोटा सा पहाड़ है। इसको बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी का मोक्ष स्थान माना जाता है। किन्तु वर्तमान में चम्पापुर को ही पाँचों कल्याणकों का स्थान माना जाता है। चम्पापुर में बीसपंथी व तेरहपंथी कोठी के नाम से प्रचलित स्थान पर जिनालय हैं तथा तेरहपंथी कोठी के परिसर में ३१ फुट ऊँची भगवान वासुपूज्य की खड्गासन प्रतिमा ईसवी सन् २०१४ में विराजमान की गयी हैं।
पटना (Patna)- यह बिहार प्रान्त की राजधानी है। पटना सिटी में गुलजारबाग स्टेशन के पास में ही एक छोटी सी टीकरी पर चरण पादुकाएं स्थापित हैं। यहाँ से सेठ सुदर्शन ने मुक्तिलाभ किया था। इनकी जीवन कथा अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है।
बनारस (Varanasi)- इस नगर के भदैनी घाट मुहाल में गंगा के किनारे पर दो विशाल दिगम्बर जैन मंदिर हैं जो सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ के जन्मस्थान के रूप में माने जाते हैं। यहाँ पर जैनों का अतिप्रसिद्ध स्याद्वाद महाविद्यालय स्थापित है जिसमें संस्कृति और जैनधर्म की ऊँची शिक्षा दी जाती है। भेलूपुर मोहल्ले में दिगम्बर सम्प्रदाय व श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अलग-अलग दो जिनमंदिर हैं। दिगम्बर जैनों का अति विशाल सुंदर मंदिर है, जिसमें काले पाषाण की सुंदर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान हैं। इस मंदिर में देवी पद्मावती की भी प्राचीन व चमत्कारी प्रतिमा है, जिसकी बहुत मान्यता है। यात्रियों के लिए भी आवास की सुन्दर व्यवस्था है। यह स्थान तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की गर्भ-जन्म एवं दीक्षा भूमि होने से परम पूज्यनीय है। इस प्रकार बनारस दो तीर्थंकरों का जन्मस्थान है। शहर में अन्य भी कई जैन मंदिर हैं।
सिंहपुरी (Simhpuri)-बनारस से १० किमी. की दूरी पर सारनाथ नाम का स्थान है जो बौद्ध पुरातत्व की दृष्टि से अतिप्रसिद्ध है। यहीं पर किसी समय सिंहपुर नाम का महानगर बसा था, जिसमें ११वें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ ने जन्म लिया था। यहाँ पर जैन मंदिर और जैन धर्मशाला है। दिगम्बर जैनों का मंदिर तो बौद्ध मंदिर के ही पास में है यहीं एक विशाल परिसर में भगवान श्रेयांसनाथ की सवा ग्यारह फुट पद्मासन प्रतिमा सन् २००५ में विराजमान हैं।
चन्द्रपुरी (Chandrapuri)-सारनाथ से लगभग १५ किमी. पर चन्द्रवटी नाम का गांव है जो चन्द्रपुरी का भग्नावशेष कहा जा सकता है। जैन पुराणों के अनुसार यहाँ पर आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान ने जन्म लिया था। यहाँ गंगा के तट पर दिगम्बर जैन मंदिर है।
प्रयाग (Prayag)-यहाँ त्रिवेणी संगम के पास ही एक पुराना किला है। किले के भीतर जमीन के अंदर एक अक्षयवट (बड़ का पेड़) है। कहते हैं कि श्री ऋषभदेव ने यहाँ तप किया था। किले में प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी हैं।
इलाहाबाद शहर में भी प्राचीन जैन मंदिर है। शहर से १३ किमी. दूर इलाहाबाद-बनारस हाइवे पर ही ईसवी सन् २००१ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर की संस्था द्वारा भगवान ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ का निर्माण किया गया है, जिसमें भगवान ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक मंदिर, भगवान ऋषभदेव समवसरण रचना मंदिर, भव्य वैâलाशपर्वत, वैâलाशपर्वत गुफा मंदिर, भगवान ऋषभदेव कीर्ति स्तंभ आदि दर्शनीय हैं।
यह तीर्थ आज से करोड़ों वर्ष पूर्व का इतिहास जीवन्त कर रहा है। जब युग की आदि में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या में जन्म लेकर राज्यभोग के पश्चात् वैराग्यभाव प्राप्त करके जिस स्थान पर जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की थी, वही स्थल ‘‘प्रयाग’’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे दीक्षा लेकर ध्यानस्थ मुद्रा में भगवान ऋषभदेव ने छह माह तक योग धारण किया था। इसी कथानक को पुनर्जीवित करने हेतु तपस्थली तीर्थ पर निम्न दर्शनीय एवं वंदनीय स्थलों का निर्माण किया गया है।
आधुनिक सुविधायुक्त २६ फ्लैटों एवं कमरों की इस धर्मशाला में यात्रियों की समुचित आवास आदि की व्यवस्था है तथा आचार्य श्री शांतिसागर प्रवचन हाल में विभिन्न कार्यक्रम सम्पन्न होते हैं।
अयोध्या (Ayodhya)-यह तीर्थ पूर्वी उत्तरप्रदेश के पैâजाबाद जनपद में अवस्थित है। अयोध्या में भगवान् आदिनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ इन पाँच तीर्थंकरों के जन्म हुए तथा आज से ९ लाख वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी ने जन्म लेकर अपने आदर्शों के द्वारा नगरी को राममय बना दिया।
जैनधर्म के अनुसार अनन्त तीर्थंकरों की जन्मभूमि होने से यह अयोध्या नगरी शाश्वत एवं अनादि तीर्थ तो है ही, वर्तमान में वहाँ सभी धर्मों के अनुयायी अपने-अपने ढंग से उसे पवित्र तीर्थ मानते हैं।
वर्तमान के जैन मंदिरों में कटरा मुहल्ले में एक प्राचीन जैन मंदिर है, जहाँ सन् १९५२ में भगवान आदिनाथ, भरत, बाहुबली जी की खड्गासन प्रतिमाएँ विराजमान हुईं, यहाँ ४ और वेदियाँ हैं तथा प्रांगण के बीच में तीर्थंकर सुमतिनाथ भगवान की टोंक है। बेगमपुरा मुहल्ले में भगवान अजितनाथ की टोंक है। कटरा स्कूल तथा उँâची सरकारी टंकी के पास भगवान अभिनंदननाथ की टोंक है, उसी के पास प्रथम चक्रवर्ती भरत तथा प्रथम कामदेव बाहुबली की टोंक है। करोड़ों वर्षों से बह रही वहाँ सरयू नदी के तट पर राजकीय उद्यान के पीछे बड़े परिसर में भगवान अनन्तनाथ की टोंक है। अयोध्या के रायगंज मोहल्ले में सन् १९६५ में विशाल मंदिर का निर्माण होकर ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजित हुईं तथा ६ अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं।
तीर्थ विकास के क्रम में सन् १९९३-१९९४ में यहाँ तीन चौबीसी मंदिर एवं समवसरण मंदिर का निर्माण हुआ। सन् १९९५ में राजकीय उद्यान में २१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा निर्मित हुई, कटरा मंदिर के एक स्थल पर बनी पाण्डुकशिला में शांति-कुंथु-अरहनाथ के चरण विराजमान हुए। सन् २०११ में भगवान ऋषभदेव की टोंक पर सुन्दर जिनमंदिर का निर्माण होकर भगवान ऋषभदेव की श्वेतवर्णी प्रतिमा विराजमान हुई पुन: सन् २०१४ तक सभी टोंकों पर उन-उन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान हो चुकी हैं जो तीर्थ के प्राचीन स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए जैन संस्कृति की गौरव गाथा वर्णित कर रही हैं।
इसके अतिरिक्त यहाँ प्रशासन द्वारा भगवान ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय तथा अवध विश्वविद्यालय में भगवान ऋषभदेव जैन पीठ की स्थापना हुई है। क्षेत्र पर यात्रियों के लिए भोजन एवं आवास की समुचित व्यवस्था है।
काकंदी (Kakandi)-गोरखपुर से एन.ई. रेलवे का नोनखार स्टेशन २९ मील है। वहाँ से ३ मील की दूरी पर खुखुन्दु गांव है। इसका प्राचीन नाम किष्किन्धा बतलाया जाता है। यहाँ के मंदिर में श्री पुष्पदंत भगवान की मूर्ति विराजमान है। यह ९वें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि है। यहाँ पर सन् २०१० में विशाल नवीन जिनमंदिर का निर्माण किया गया है, जिसमें ९ फुट उत्तुंग पद्मासन भगवान पुष्पदंतनाथ की प्रतिमा विराजमान की गयी है। तीर्थ परिसर में नवनिर्मित कीर्तिस्तंभ एवं प्राचीन जिनमंदिर भी दर्शनीय है।
श्रावस्ती (सहेटमहेट) (Shravasri)-पैâजाबाद से गोंडा रोड पर २१ मील बलरामपुर है। बलरामपुर से
१० मील पर सहेट महेट है। इसका प्राचीन नाम श्रावस्ती बतलाया जाता है जो कि तीसरे तीर्र्थंकर संभवनाथ का जन्मस्थान है।
रत्नपुरी (Ratnapuri)-यह स्थान पैâजाबाद जिले में सोहावल स्टेशन से डेढ़ मील है। यह श्री धर्मनाथ स्वामी की जन्मभूमि है। यहाँ दो जिनमंदिर हैं।
कम्पिला (kampila)-यह तीर्थक्षेत्र जिला फरुखाबाद के निकट कायमगंज स्टेशन से ८ मील है। यहाँ तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ के ४ कल्याणक हुए हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मास में यहाँ मेला भी भरता है और रथोत्सव होता है।
अहिच्छत्र (Ahichhatra)-बरेली-अलीगढ़ लाइन पर आंवला स्टेशन है। वहाँ से ८ मील रामनगर गांव है। उसी से लगा हुआ यह क्षेत्र है। इस क्षेत्र पर तपस्या करते हुए भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर कमठ के जीव ने घोर उपसर्ग किया था और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
अहिच्छत्र (बरेली) उ.प्र. तीर्थ पर क्षेत्रकमेटी द्वारा भारत में प्रथम बार तीस चौबीसी तीर्थंकरों की ७२० जिनप्रतिमाओं से समन्वित ग्यारह शिखरों वाला विशाल जिनमंदिर निर्मित किया गया है।
गाँव के अंदर एक प्राचीन जिनमंदिर है तथा तीर्थ परिसर में तिखाल वाले बाबा का विशाल मंदिर, मानस्तंभ, पार्श्वनाथ पद्मावती मंदिर आदि दर्शनीय हैं।
हस्तिनापुर (Hastinapur)-ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर अयोध्या के समान ही अत्यन्त प्राचीन एवं पवित्र माना जाता है। जिस प्रकार जैन पुराणों के अनुसार अयोध्या नगरी की रचना देवों ने की थी, उसी प्रकार युग के प्रारंभ में हस्तिनापुर की रचना भी देवों द्वारा की गयी थी। अयोध्या में वर्तमान के पाँच तीर्थंकरों ने जन्म लिया तो हस्तिनापुर को शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ इन तीन तीर्थंकरों को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इतना ही नहीं, इन तीनों जिनवरों के चार-चार कल्याणक (गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान) हस्तिनापुर में इन्द्रों ने मनाए हैं ऐसा वर्णन जैन ग्रंथों में है।
ये तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती और कामदेव पदवी के धारक भी थे। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को एक वर्ष ३९ दिन के उपवास के पश्चात् हस्तिनापुर में ही युवराज श्रेयांस एवं राजा सोमप्रभ ने इक्षुरस का प्रथम आहार दिया था। उस समय भी वहाँ पर देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई थी एवं सम्राट् चक्रवर्ती भरत ने अयोध्या से हस्तिनापुर जाकर राजा श्रेयांस का सम्मान करके उन्हेंं ‘‘दानतीर्थ प्रवर्तक’’ की पदवी से अलंकृत किया था। पुराण ग्रंथों में वर्णन आता है कि भरत ने उस प्रथम आहार की स्मृति में हस्तिनापुर की धरती पर एक स्तूप का निर्माण करवाया था। आज तो उसका कोई अवशेष देखने को नहीं मिलता है किन्तु इससे यह ज्ञात होता है कि धर्मतीर्थ एवं दानतीर्थ की प्रशस्ति का उल्लेख उसमें अवश्य होगा। काल के थपेड़ों में वह इतिहास आज समाप्तप्राय हो गया किन्तु हस्तिनापुर एवं उसके आसपास में इक्षु-गन्ने की हरी-भरी खेती आज भी इस बात का परिचय कराती है कि कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व भगवान के द्वारा आहार में लिया गया गन्ने का रस वास्तव में अक्षय हो गया है इसीलिए उस क्षेत्र में अनेक शुगर पैâक्ट्री तथा क्रेशर गुड, खांड और चीनी बनाकर देश के विभिन्न नगरों में भेजते हैं।
इसी प्रकार से हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा पर रक्षाबन्धन कथानक, महाभारत का इतिहास, मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा की प्रारम्भिक कहानी, राजा अशोक व रोहिणी का कथानक आदि प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध हुए हैं। जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त होता है और हस्तिनापुर नगरी की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है।
हस्तिनापुर की अर्वाचीन स्थिति (Recent Position of Hastinapur)-सन् १९४८ में भारत के प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उजड़े हुए हस्तिनापुर को पुनः बसाया था जो कि ‘‘हस्तिनापुर सेन्ट्रल टाउन’’ के नाम से जाना जाता है। वहाँ लगभग २० हजार की जनसंख्या है एवं शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, डाक व्यवस्था, आवागमन सुविधा आदि के समस्त साधन वहाँ सरकार की ओर से उपलब्ध हैं। टाउनेरिया की सक्रियता से हस्तिनापुर कसबे की सारी जनता प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन यापन करती है। यहाँ हिन्दू-मुसलमान, पंजाबी-बंगाली सभी जाति के लोग जातीय एकता के साथ अपने-अपने धर्म एवं ईश्वर की उपासना करते हैं।
तीर्थक्षेत्र की अवस्थिति (Location of Pilgrimage Place)-सेन्ट्रल टाउन से लगभग डेढ़ किमी. दूर जैन तीर्थ क्षेत्र का अवस्थान है। मेरठ से रामराज जाती हुई मुख्य सड़क से बाईं ओर लगभग ४०० वर्ष पुराना प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। वहाँ के परिसर में अन्य कई नये मंदिरों का निर्माण हुआ है। मंदिर से जम्बूद्वीप के आगे जंगलों में चार तीर्थंकरों के जन्म की प्रतीक नसियाएं दिगम्बर जैन समाज की तथा एक श्वेताम्बर समाज की है जहाँ भक्तगण श्रद्धापूर्वक दर्शन करने जाते हैं।
जम्बूद्वीप रचना तीर्थक्षेत्र की प्रगति का मुख्य कारण है (Main reason of progress of Teerth is Jambudweep)-सन् १९७४ में जबसे हस्तिनापुर की धरा पर परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप रचना का शिलान्यास करवाया, तब से तो वहाँ की ख्याति देश-विदेश में पैâल गई है। १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत से समन्वित जम्बूद्वीप की रचना में विराजमान २०५ जिनबिम्ब जहाँ श्रद्धालुओं के पापक्षय में निमित्त हैं, वहीं गंगा-सिंधु आदि नदियाँ, हिमवन आदि पर्वत, भरत-ऐरावत आदि क्षेत्र, लवण समुद्र जनमानस के लिए मनोरंजन के साधन भी हैं। बिजली-फौव्वारों की तथा हरियााली की प्राकृतिक शोभा देखने हेतु दूर-दूर से लोग जाकर वहाँ स्वर्ग सुख जैसी अनुभूति करते हैं।
जम्बूद्वीप के उस परिसर में कमल मंदिर, ध्यानमंदिर, तीनमूर्ति मंदिर, शान्तिनाथ मंदिर, वासुपूज्य मंदिर, ॐ मंदिर, सहस्रकूट मंदिर, विद्यमान बीस तीर्थंकर मंदिर, भगवान ऋषभदेव मंदिर, ऋषभदेव कीर्तिस्तंभ, अष्टापद मंदिर, तीनलोक रचना, विशाल भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ जिनमंदिर, नवग्रह शांति मंदिर, चौबीसी मंदिर, स्वर्णिम तेरहद्वीप रचना, शांतिनाथ समवसरण मंदिर आदि अद्वितीय एवं नयनाभिराम हैं। जम्बूद्वीप पुस्तकालय, णमोकार महामंत्र बैंक आदि हैं जो भक्तों को भक्ति और ध्यान अध्ययन की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर पहुँचने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री के लिए जम्बूद्वीप स्थल पर लगभग ५०० कमरे हैं जिनमें से अधिकतर डीलक्स फ्लैट और अनेक कोठियाँ भी आधुनिक सुविधायुक्त हर समय तैयार रहते हैं।
आवास सुविधा के साथ-साथ शुद्ध विशाल भोजनालय अपने अतिथियों की सुबह से शाम तक सेवा में तत्पर है। जगह-जगह पानी की सुविधा हेतु जलपरी, वाटरकूलर, हैण्डपम्प, नल आदि उपलब्ध हैं।
इन सबके अतिरिक्त वहाँ नित्य ही नवनिर्माण का कार्य चालू रहता है। सुन्दर पक्की सड़कें, हरे-हरे लॉन, फूलों के उद्यान, झूले, नाव, खेल के मैदान, बच्चों की रेल, ऐरावत हाथी आदि परिसर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। कभी-कभी बिजली न होने पर यात्री देर रात तक रुककर जम्बूद्वीप के लाइट-फौव्वारे की शोभा देखकर ही वापस जाने की इच्छा रखते हैं।
यहाँ की स्वच्छता सबको मोह लेती है (Cleanliness Here Attracts All)-जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार तक प्रतिदिन दिल्ली और मेरठ की १०-१५ रोडवेज बसें सुबह से शाम तक यात्रियों को लाती और वहाँ से ले जाती हैं। वहाँ उतर कर कल्पवृक्ष द्वार में घुसते ही हर नर-नारी के मुँह से सर्वप्रथम यही निकलता है कि-‘‘ऐसा लगता है स्वर्ग में आ गए’’। पुनः वहाँ भ्रमण करने के पश्चात् वे लोग परिसर की स्वच्छता का गुणगान करते नहीं थकते हैं। पूरे स्थल पर कहीं कागज का एक टुकड़ा भी पड़ा नहीं दिखता जो वहाँ के सौन्दर्य में बाधक हो।
इन सबसे प्रभावित होकर ही उत्तरप्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने जम्बूद्वीप रचना के चित्र से हस्तिनापुर की पहचान बनाते हुए विभाग द्वारा प्रकाशित फोल्डर में लिखा है-
Jambudweep is the…….has today blossomed into a man-made heaven of unparallel superlatives and natural wonders.
मथुरा चौरासी (Mathura Chaurasi)-मथुरा शहर से करीब डेढ़ मील पर दिगम्बर जैनों का यह प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र है। परम्परा के अनुसार यह अंतिम केवली श्री जम्बू स्वामी का मोक्षस्थान माना जाता है। यहाँ पर एक विशाल जैन मंदिर है जिसमें अनेक जिन प्रतिमाएँ एवं श्री जम्बूस्वामी के चरण चिन्ह स्थापित हैं। यहाँ से पास में ही प्रसिद्ध कंकाली टीला है। जहाँ से जैन पुरातत्व की अति प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई। यहाँ पर ही भा. दि. जैन संघ का मुख्य भवन बना हुआ है। जिसमें उसका प्रधान कार्यालय तथा एक विशाल सरस्वती भवन है। पास में ही श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित है।
शौरीपुर (Shauripur)-मैनपुरी जिले के शिकोहाबाद नामक स्थान से १३ मील पर यमुना नदी के तट पर बटेश्वर नाम का एक प्राचीन गांव है। गांव के बीच में विशाल जैन मंदिर है। नीचे धर्मशाला है। यहाँ से १ मील की दूरी पर जंगल में कई प्राचीन मंदिर हैं और एक छतरी है। जिसमें श्री नेमिनाथ के चरण चिन्ह स्थापित हैं। यह स्थान श्री नेमिनाथ भगवान का जन्मस्थान तीर्थ है।
ग्वालियर (Gwalior)- यह कोई तीर्थक्षेत्र तो नहीं है किन्तु यहाँ के किले के आसपास चट्टानों में बहुत सी दिगम्बर जैन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। एक मूर्ति श्री नेमिनाथ जी की ३० फुट ऊंची है और दूसरी आदिनाथ की मूर्ति उससे भी विशाल है। लश्कर और ग्वालियर में लगभग २५ दिगम्बर जैन मंदिर हैं, जिनमें से अनेक मंदिर बहुत विशाल हैं।
सोनागिरि (Sonagiri)- ग्वालियर-झांसी लाइन पर सोनागिरि नाम का स्टेशन है, उससे लगभग २ मील पर यह सिद्धक्षेत्र है। वहाँ एक छोटी सी पहाड़ी है। पहाड़ पर ७७ दिगम्बर जैन मंदिर हैं, जिनकी वंदना में डेढ़ मील का चक्कर पड़ता है। यहाँ से बहुत से मुनि मोक्ष गये हैं। तलहटी में अनेक धर्मशालाएँ और अनेक मंदिर हैं। यहाँ एक विद्यालय भी स्थापित है।
अजयगढ़ (Ajaygarh)- यह अजयगढ़ स्टेट की राजधानी है। इसके पास ही एक पहाड़ है, उस पर एक किला है। उसकी दीवारों की दो शिलाओं में लगभग २० दिगम्बर जैन मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। पास में ही तालाब है। उसकी दीवार में बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से एक की ऊँचाई १५ फुट और दूसरी की १० फुट है। एक मानस्तंभ है। उसमें भी अनेक मूर्तियाँ बनी हैं।
खजुराहो (Khajuraho)- पन्ना से छतरपुर को जाते हुए २१वें मील पर एक तिराहा पड़ता है, वहाँ से खजुराहो ७ मील है। एक छोटा सा गांव है। दो धर्मशालाएँ हैं। यहाँ अनेक दिगम्बर जैन मंदिर हैं। यहाँ के मंदिरों की स्थापत्य कला दर्शनीय और विश्वविख्यात है।
द्रोणगिरि (Drongiri)- छतरपुर से सागर रोड़ पर बड़ा मलहरा गांव है, वहाँ से दाहिनी ओर रोड़ से ६ मील पर सेंधपा नाम का गांव है। गांव के पास ही एक पर्वत है, जिसे द्रोणगिरि कहते हैं। यहाँ से गुरुदत्त आदि मुनि मोक्ष गये हैं। पहाड़ पर २४ मंदिर हैं। प्रतिवर्ष चैत सुदी ८ से १४ तक मेला भरता है।
नैनागिरि (Nainagiri)- यह क्षेत्र सेन्ट्रल रेलवे के सागर स्टेशन से ३० मील दलपतपुर गांव के पास है। इस तीर्थ की तलहटी में धर्मशाला और अनेक मंदिर हैं। धर्मशाला से २ फर्लांग पर रेसिन्दी पर्वत है, यहाँ से श्री वरदत्त आदि मुनि मोक्ष गये हैं। पर्वत पर २५ मंदिर हैं। एक मंदिर तालाब के बीच में है। प्रतिवर्ष कार्तिक सुदी ८ से १५ तक मेला भरता है।
कुण्डलपुर (Kundalpur)- सेन्ट्रल रेलवे की कटनी-बीना लाइन पर दमोह स्टेशन है। वहाँ से लगभग २५ मील पर यह क्षेत्र है। इस क्षेत्र पर कुण्डल के आकार का एक पर्वत है। इसी से शायद इसका नाम कुण्डलपुर पड़ा है। पर्वत तथा उसकी तलहटी में बहुत सारे मंदिर हैं। पर्वत के मंदिरों के बीच में एक बड़ा मंदिर है, इसमें एक जैन मूर्ति विराजमान है जो पहाड़ को काटकर बनायी गयी जान पड़ती है। यह मूर्ति पद्मासन है फिर भी इसकी ऊँचाई ९-१० फुट से कम नहीं है। यह भगवान महावीर की मूर्ति मानी जाती है, किन्तु है ऋषभदेव की। इस प्रान्त में इन बड़े बाबा की बड़ी मान्यता है। दूर-दूर से लोग इनकी पूजा करने के लिए आते हैं। इसके माहात्म्य के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। महाराज छत्रसाल के समय में उन्हीं की प्रेरणा से इसका जीर्णोद्धार हुआ था, जिसका शिलालेख अंकित है।
बीना जी (Beena Ji)- सागर से ४८ मील पर बीनाजी क्षेत्र है। यहाँ तीन जैन मंदिर हैं, जिनमें एक प्रतिमा शांतिनाथ भगवान की १४ फुट ऊँची तथा एक प्रतिमा महावीर भगवान की १२ फुट ऊँची विराजमान है और भी अनेक मनोहर मूर्तियाँ हैं। सागर से ३८ मील पर मालथौन गांव है। गांव से १ मील पर एक जैन मंदिर है। इसमें १० गज से लेकर २४ गज तक की ऊंची खड़े आसन की अनेक प्रतिमाएँ हैं। ललितपुर से १० मील पर सीरोन गांव है। वहाँ से आधा मील पर ५-६ प्राचीन जैन मंदिर हैं। चारों ओर कोट हैं। यहाँ एक मूर्ति २० गज ऊँची शांतिनाथ भगवान की है तथा चार-पांच फुट ऊँची सैकड़ों खण्डित मूर्तियाँ हैं।
देवगढ़ (Devgarh)- सेन्ट्रल रेलवे के ललितपुर स्टेशन से १९ मील दूर पहाड़ी पर यह क्षेत्र स्थित है। यह सचमुच देवगढ़ है। यहाँ अनेक प्राचीन जिनालय हैं और अगणित खण्डित मूर्तियाँ हैं। कला की दृष्टि से भी यहाँ की मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। कुशल कारीगरों ने पत्थर को मोम कर दिया है। करीब २०० शिलालेख यहाँ उत्कीर्ण हैं। ८ मनोहर मानस्तंभ हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य भी अनुपम है। यहाँ से ६ मील पर चांदपुर स्थान है। वहाँ भी अनेक जैन मूर्तियाँ हैं। जिनमें १४ गज ऊँची एक मूर्ति शांतिनाथ तीर्थंकर की है।
पपौरा (Papaura)- विंध्य प्रान्त में टीकमगढ़ से कुछ दूरी पर जंगल में यह क्षेत्र स्थित है। उसके चारों ओर कोट बना है। जिसके अंदर लगभग ९० मंदिर हैं। एक वीर विद्यालय भी है। कार्तिक सुदी १४ को प्रतिवर्ष मेला भरता है।
अहार (Ahar)- टीकमगढ़ से ९ मील पर अहार गांव है। वहाँ से करीब ६ मील पर एक ऊजड़ स्थान में तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं। एक मंदिर में २१ फुट की ऊँची शांतिनाथ भगवान की अति मनोज्ञ मूर्ति विराजमान है जो खण्डित है किन्तु बाद में जोड़कर ठीक की गई है। यह प्रतिमा वि. सं. १२३७ में प्रतिष्ठित की गई थी। इन मंदिरों के सिवाय यहाँ अन्य भी अनेक मंदिर बने हुए थे किन्तु बादशाही जमाने में वे सब नष्ट कर दिये और अब अगणित खण्डित मूर्तियाँ वहाँ वर्तमान हैं। क्षेत्र कलाप्रेमियों के लिए भी दर्शनीय है। अब यहाँ एक संग्रहालय और पाठशाला भी चालू हैं।
चन्देरी (Chanderi)- यह ललितपुर से बीस मील है। यहाँ एक जैन मंदिर में चौबीस वेदियाँ बनी हुई हैं और उनमें जिस तीर्थंकर के शरीर का जैसा रंग था उसी रंग की चौबीसों तीर्थंकरों की चौबीस मूर्तियाँ विराजमान हैं। ऐसी चौबीसी अन्यत्र कहीं भी नहीं है। यहाँ से उत्तर में ९ मील पर बूढ़ी चन्देरी है। यहाँ पर सैकड़ों जैन मंदिर जीर्णशीर्ण दशा में हैं। जिनमें बड़ी ही सौम्य और चित्ताकर्षक मूर्तियाँ हैं।
पचराई (Pachrai)- चन्देरी से ३४ मील खनियाधाना स्थान है और वहाँ से ८ मील पर पचराई गांव है। यहाँ पर अनेक जिनमंदिर हैं। उनमें लगभग एक हजार मूर्तियाँ हैं, इनमें आधे के लगभग साबुत हैं, शेष खण्डित हैं।
थूबोन जी (Thoobonji)- चन्देरी से ८ मील पर थूबोन जी है। यहाँ अनेक मंदिर हैं, प्राय: सभी प्रतिमाएँ पत्थरों में उकेरी हुईं हैं, खड़े योग में हैं और २०-३० फुट तक की ऊँची हैं।
श्री महावीरजी (Shri Mahaveer Ji)- पश्चिमी रेलवे की नागदा-मथुरा लाइन पर ‘श्री महावीर जी’ नाम का स्टेशन है। यहाँ से ४ मील पर यह क्षेत्र है। यहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है, उसमें महावीर स्वामी की एक अति मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा पास के ही एक टीले के अंदर से निकली थी। इसे जैन और जैनेतर खास करके जयपुर रियासत के मीना और गूजर बड़ी श्रद्धा और भक्ति से पूजते हैं। यात्रियों का सदा तांता लगा रहता है। प्रतिवर्ष वैशाख बदी एकम् को महावीर भगवान की सवारी रियासती लवाजमें के साथ निकलती है। लाखों मीना एकत्र होते हैं। वे ही सवारी को नदी तक ले जाते हैं। उधर गूजर तैयार खड़े रहते हैं। मीना चले जाते हैं और गूजर सवारी को लौटाकर लाते हैं फिर गूजरों का मेला भरता है।
चांदखेड़ी (Chandkheri)- कोट रिसायत में खानपुर नामक एक प्राचीन नगर है। खानपुर से २ फर्लांग की दूरी पर चांदखेड़ी नाम की पुरानी बस्ती है। यहाँ भूगर्भ में एक अति विशाल जैन मंदिर है। इसमें अनेक विशाल जैन प्रतिमाएँ हैं। सब प्रतिमाएँ ५७७ हैं। द्वार के उत्तर भाग में एक ही पाषाण का १० फुट ऊँचा कीर्तिस्तंभ है इसमें चारों ओर दिगम्बर प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं। तीन तरफ लेख भी हैं।
मक्सी पार्श्वनाथ (Maksi Parshvanath)- सेन्ट्रल रेलवे की भूपाल उज्जैन शाखा में इस नाम का स्टेशन है। यहाँ से एक मील पर एक प्राचीन जैन मंदिर है। उसमें श्री पार्श्वनाथ स्वामी की ढाई फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है। जो बड़ी ही मनोज्ञ है। इसको दोनों परम्परा वाले पूजते हैं परन्तु समय नियत है।
पदमपुरा (बाड़ा) (Padampura)- जयपुर से ३० किमी. दूरी पर स्थित यह एक प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र है। विक्रम संवत् २००९ में मकान की खुदाई में श्री पद्मप्रभु भगवान की मूर्ति प्रकट हुई। विशाल मंदिर व आवास स्थल हैं। यहाँ अनेक चमत्कार होते रहते हैं तथा व्यंतर बाधा से मुक्ति मिलती है।
माधोराजपुरा (Madhorajpura)- यहाँ लगभग २५ किमी० दूर फागी तहसील में माधोराजपुरा है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के करकमलों से वैशाख कृष्णा द्वितीया सन् १९५६ को बीसवीं सदी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की आर्यिका दीक्षा होने के कारण यह नगर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और यहाँ दीक्षा तीर्थ का निर्माण किया गया। भगवान पार्श्वनाथ की अतिशयकारी खड्गासन मूर्ति सहित चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ दर्शनीय है। जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के अगणित उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु भक्तजन इस नवोदित तीर्थ की यात्रा कर महान पुण्यार्जन करते हैं।
बिजौलिया पार्श्वनाथ (Bijolia Parshvanath)- नीमच से ६८ मील पर बिजौलिया रियासत है। बिजौलिया गाँव के समीप में ही श्री पार्श्वनाथ स्वामी का अतिप्राचीन और रमणीक अतिशय क्षेत्र है। एक मंदिर में एक ताक के महराब के ऊपर २३ प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं। चारों तरफ दीवारों पर भी मुनियों की बहुत सी मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। एक विशाल सभामण्डप, चार गुमटियाँ और दो मानस्तंभ भी हैं। मानस्तंभों पर प्रतिमाएँ और शिलालेख हैं।
श्रीऋषभदेव (केशरिया जी) (Shri Rishabhdev Kesariya Ji)- उदयपुर से करीब ४० मील पर यह क्षेत्र है। यहाँ श्री ऋषभदेव जी का एक बहुत विशाल मंदिर बना हुआ है। उसके चारों ओर कोट है। भीतर मध्य में संगमरमर का एक बड़ा मंदिर है, जिसके ४८ फुट ऊँचे-ऊँचे शिखर हैं। इसके भीतर जाने पर श्री ऋषभदेव जी का बड़ा मंदिर मिलता है, जिसमें श्री ऋषभदेव जी की ६-७ फुट ऊँची पद्मासन श्यामवार्ण की दिगम्बर जैन मूर्ति हैं। यहाँ केशर चढ़ाने का इतना रिवाज है कि सारी मूर्ति केशर से ढकी जाती है। इसलिए इसे केशरिया जी भी कहते हैं। श्वेताम्बरों की ओर से मूर्ति पर आंगी, मुकुट और सिन्दूर भी चढ़ता है। इसकी बड़ी मान्यता है। समस्त जैनी इसकी पूजा करते हैं।
आबू पहाड़ (Mount Abu)- पश्चिमी रेलवे के आबू रोड स्टेशन से आबू पहाड़ के लिए मोटरें जाती हैं। पहाड़ पर सड़क के दायीं ओर एक दिगम्बर जैन मंदिर है तथा बायीं ओर दैलवाड़ा के प्रसिद्ध श्वेताम्बर मंदिर बने हुए हैं। जिनमें से एक मंदिर विमलशाह ने वि. सं. १०८८ में १८ करोड़ ५३ लाख रुपये खर्च करके बनवाया था। दूसरा मंदिर वस्तुपाल तेजपाल ने बारह करोड़ ५३ लाख रुपये खर्च करके बनवाया था। संगमरमर पर छैनी के द्वारा जो नक्काशी की गई है वह देखने की ही चीज है। दोनों विशाल मंदिरों के बीच में एक छोटा सा दिगम्बर जैन मंदिर भी है।
अचलगढ़ (Achalgarh)- दैलवाड़ा से पाँच मील की दूरी पर अचलगढ़ है। यहाँ तीन श्वेताम्बर मंदिर हैं। उनमें से एक मंदिर में सप्तधातु की १४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
सिद्धवरकूट (Siddhvarkoot)- इंदौर से खण्डवा लाइन पर मौरटक्का नाम का स्टेशन है। वहाँ से ओंकार जी जाते हैं जो नर्मदा के तट पर है। यहाँ से नाव में सवार होकर सिद्धवरकूट को जाते हैं। यह क्षेत्र रेवा नदी के तट पर है। यहाँ से दो चक्रवर्ती व दस कामदेव तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँ क्षेत्र परिसर में १०-१५ दिगम्बर जैन मंदिर हैं, जो अति प्राचीन हैं। प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा पर बहुत बड़ा मेला लगता है।
ऊन (पावागिरी)(Oon, Pavagiri)- खण्डवा से ऊन मोटर के द्वारा जाया जाता है। ३-४ घंटे का रास्ता है। यहाँ एक प्राचीन मंदिर है जो सं. १२१८ का बना हुआ है। दो और भी प्राचीन मंदिर हैं जो जीर्ण हो गये हैं। इसे पावागिरी सिद्धक्षेत्र कहा जाता है। यहाँ से सुवर्णभद्र आदि ४ मुनियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। पहाड़ी पर भी खुदाई में मंदिर प्राप्त हुआ, जिसमें भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की अति प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। एक अन्य पहाड़ी पर पाँच मंदिर हैं, जो पंचपहाड़ी के नाम से जानी जाती हैं। यहाँ पर चारों मुनियों के चरण भी वर्तमान में स्थापित किये गये हैं। चैत्र वदी पंचमी को प्रतिवर्ष मेला लगता है।
बड़वानी (Badwani)- बड़वानी से ४ मील पहाड़ पर जाने से बड़वानी क्षेत्र मिलता है। बड़वानी से निकट होने के कारण इस क्षेत्र को बड़वानी कहते हैं। वैसे इसका नाम चूलगिरि है। इस चूलगिरि से इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण ने मुक्ति प्राप्त की थी। क्षेत्र की वंदना को जाते हुए सबसे पहले एक विशालकाय मूर्ति के दर्शन होते हैं। यह खड़ी हुई मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है, इसकी ऊँचाई ८४ फुट है। इसे बावनगजा भी कहते हैं। सं. १२२३ में इसके जीर्णोद्धार होने का उल्लेख मिलता है। पहाड़ पर अनेक मंदिर हैं। प्रतिवर्ष पौष सुदी ८ से १५ तक मेला होता है।
तारंगा (Taranga)- यह प्राचीन सिद्धक्षेत्र गुजरात प्रान्त के महीकांटा जिले में पश्चिमी रेलवे के तारंगा हिल नाम के स्टेशन से तीन मील पहाड़ के ऊपर है। यहाँ से वरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँ पर दोनों परम्परा के अनेक मंदिर और गुमटियाँ हैं।
गिरनार जी (Girnar Ji)- सौराष्ट्र प्रान्त में जूनागढ़ के निकट यह सिद्धक्षेत्र वर्तमान है। जूनागढ़ स्टेशन से ४-५ मील की दूरी पर गिरिनार पर्वत की तलहटी है, वहाँ दोनों परम्परा की धर्मशालाएँ हैं। पहाड़ पर चढ़ने के लिए धर्मशाला के पास से ही पक्की सीढ़ियाँ प्रारंभ हो जाती हैं और अन्त तक चली जाती हैं। २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ ने इसी पहाड़ के सहस्राम्र वन में दीक्षा धारण करके तप किया था। यहीं इन्हें केवलज्ञान हुआ था और यहीं से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था। उनकी वाग्दत्ता पत्नी राजुल ने भी यहीं दीक्षा ली थी। पहले पहाड़ पर पहुँचने पर एक गुफा में राजुल की मूर्ति बनी हुई है तथा दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के अनेक मंदिर बने हुए हैं। दूसरे पहाड़ पर चरण चिन्ह हैं। यहाँ से अनिरुद्धकुमार ने निर्वाण प्राप्त किया था। तीसरे से शंभुकुमार ने निर्वाण लाभ किया था। चौथे पहाड़ पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नहीं हैं इसलिए उस पर चढ़ना बहुत कठिन है। यहाँ से श्रीकृष्ण जी के पुत्र प्रद्युम्नकुमार ने मोक्ष प्राप्त किया है और पाँचवें पहाड़ से भगवान नेमिनाथ मुक्त हुए हैं। सब जगह चरण चिन्ह हैं तथा कहीं-कहीं पहाड़ में उकेरी हुई जिनमूर्तियाँ भी हैं। जैन संस्कृति में शिखर जी की तरह इस क्षेत्र की भी बड़ी प्रतिष्ठा है। वर्तमान में इस तीर्थ का विकास हुआ है तथा तलहटी में भी कई मंदिरों का निर्माण हुआ है। भगवान नेमिनाथ की बड़ी प्रतिमा भी विराजमान है।
शत्रुञ्जय (Shatrunjay)- पश्चिमी रेलवे के पालीताना स्टेशन से डेढ़-दो मील तलहटी है। वहाँ से पहाड़ की चढ़ाई आरंभ हो जाती है, साफ रास्ता है। पहाड़ के ऊपर श्वेताम्बरों के करीब साढ़े तीन हजार मंदिर हैं। जिनकी लागत करोड़ों रुपया है। श्वेताम्बर भाई सब तीर्थों से इस तीर्थ को बड़ा मानते हैं। दिगम्बरों का तो केवल एक मंदिर है। पालीताना शहर में भी श्वेताम्बरों की बहुत सारी धर्मशालाएँ और अनेक मंदिर हैं। यहाँ से तीन पाण्डु पुत्रों और आठ करोड़ मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया था।
पावागढ़(Pawagarh)- बड़ौदा से २८ मील की दूरी पर चांपानेर के पास पावागढ़ सिद्धक्षेत्र है। यह पावागढ़ एक बहुत विशाल पहाड़ी किला है। पहाड़ पर चढ़ने का मार्ग एकदम कंकरीला है। पहाड़ के ऊपर आठ-दस मंदिरों के खण्डहर हैं, जिनका जीर्णोद्धार कराया गया है। यहाँ से श्री रामचन्द्र के पुत्र लव और कुश को तथा पाँच करोड़ मुनियों को निर्वाण लाभ हुआ था।
मांगीतुंगी (Mangitungi)- यह क्षेत्र गजपंथा (नासिक) से लगभग अस्सी मील पर है। वहाँ पास ही पास दो पर्वत शिखर हैं, जिनमें से एक का नाम मांगी और दूसरे का नाम तुंगी है। मांगी शिखर की गुफाओं में लगभग साढ़े तीन सौ प्रतिमाएँ और चरण हैं और तुंगी में लगभग तीस। यहाँ अनेक प्रतिमाएँ साधुओं की हैं जिनके साथ पीछी और कमडलु भी हैं और पास में ही उन साधुओं के नाम भी लिखे हैं। यहाँ से श्रीरामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव वगैरह ने निर्वाण लाभ किया था। परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से यहाँ विश्व की सबसे ऊँची १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का निर्माण हो गया है।
गजपंथा (Gajpantha)- नासिक के निकट महसरूल गांव की एक छोटी सी पहाड़ी पर यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से बलभद्र और यदुवंशी राजाओं ने मोक्ष प्राप्त किया था।
एलोरा (Alora)- मनमाड़ जंक्शन से ६० मील दूर एलोरा तीर्थ है। यह ग्राम गुफा मंदिरों के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध है। इससे सटा हुआ एक पहाड़ है। ऊपर दो गुफाएं हैं, नीचे उतरने पर सात गुफाएं और हैं जिनमें हजारों जैन प्रतिमाएँ हैं।
कुंथलगिरि (Kunthalgiri)- यह क्षेत्र महाराष्ट्र प्रदेश में है और वार्सी टाऊन रेलवे स्टेशन से लगभग २१ मील दूर एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ से श्री देशभूषण, कुलभूषण मुनि मुक्त हुए हैं पर्वत पर मुनियों के चरण मंदिर सहित अनेक मंदिर हैं। माघ मास में पूर्णिमा को प्रतिवर्ष मेला भरता है। यहाँ दिगम्बर जैन गुरुकुल भी है। इसी कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने सन् १९५५ में समाधि ग्रहण की थी, जिनके चरण चिन्ह भी विराजमान हैं।
करकण्डु की गुफाएँ (Caves of Karkandu)- शोलापुर से मोटर के द्वारा कुंथलगिरि जाते हुए मार्ग में उस्मानाबाद नाम का नगर आता है, जिसका पुराना नाम धाराशिव है। धाराशिव से कुछ मील की दूरी पर ‘तेर’ नाम का स्थान है। तेर के पास पहाड़ी है। उसकी बाजू में गुफाएँ हैं। प्रधान गुफा बड़ी विशाल है। इसमें पाँच फुट की पार्श्वनाथ भगवान की काले पाषाण की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसके दूसरे कमरे में एक सप्तफणी नाग सहित पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। दो पत्थर और भी हैं जिन पर जैन प्रतिमाएँ खुदी हैं। प्रधान गुफा सहित यहाँ चार गुफाएँ हैं। इन सब गुफाओं में जो प्रतिमाएँ हैं वे अधिकतर पार्श्वनाथ भगवान की ही हैं। महावीर भगवान की तो एक भी प्रतिमा नहीं है। करकण्डु चरित के अनुसार राजा करकण्डु ने जो गुफाएँ बनवायी थी, वे ये ही गुफाएं बतलायी जाती हैं।
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ (Antriksh Parshvanath)-सेन्ट्रल रेलवे के अकोला (बराबर) स्टेशन से लगभग ४० मील पर शिरपुर नामक गांव है। गांव के मध्य धर्मशालाओं के बीच में एक बहुुत बड़ा प्राचीन विशाल दुमंजिला जैन मंदिर है। नीचे की मंजिल में एक श्यामवर्ण की ढाई फुट ऊँची पार्श्वनाथ जी की प्राचीन प्रतिमा है जो वेदी में अधर विराजमान है। सिर्फ दक्षिण घुटना कील बनाकर सटा हुआ है। इसी से यह प्रतिमा अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।
कारंजा (Karanja)- अकोला जिले में मुर्तिजापुर स्टेशन से यवतमाल को जाने वाली रेलवे लाइन पर यह एक कस्बा है। यहाँ पर तीन विशाल प्राचीन जैन मंदिर हैं। एक मंदिर में चांदी, सोने, हीरे, मूंगे और पन्ने की प्रतिमाएँ हैं। यहाँ दो भट्टारकों की गद्दियाँ हैं। एक बलात्कारगण की दूसरी सेनगण की। सेनगण के भट्टारक के मंदिर में संस्कृत प्राकृत के प्राचीन जैन ग्रंथों का बहुत बड़ा भंडार है। यहाँ महावीर ब्रह्मचर्याश्रम नाम की एक आदर्श शिक्षा संस्था भी है।
मुक्तागिरि (Muktagiri)- यह सिद्धक्षेत्र बराड़ के एलचपुर से १२ मील पर पहाड़ी जंगल में है। नीचे धर्मशाला है। पास में ही एक छोटी पहाड़ी है, जिस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। ऊपर कई गुफाएँ हैं जिनमें बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। गुफाओं के आस-पास बहुत सारे मंदिर हैं। यहाँ से बहुत से मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया था।
भातकुली (Bhaatkuli)- यह अतिशय क्षेत्र अमरावती से १० मील पर है। यहाँ अनेक दिगम्बर जैन मंदिर हैं। जिनमें से एक में श्री ऋषभदेव स्वामी की पद्मासनयुक्त तीन फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। इसकी यहाँ बहुत मान्यता है। प्रतिवर्ष कार्तिक बदी पंचमी को मेला भरता है।
रामटेक (Ramtek)- यह स्थान नागपुर से २४ मील पर है। यहाँ दिगम्बर जैनों के आठ मंदिर हैं। जिनमें से एक प्राचीन मंदिर में सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ स्वामी की १५ फुट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है।
बीजापुर (Beejapur)- मध्य दक्षिण रेलवे पर बीजापुर नाम का पुराना नगर है। स्टेशन के करीब ही संग्रहालय है। इनमें अनेक जैन मूर्तियाँ रखी हुई हैं। एक मूर्ति करीब तीन हाथ ऊँची पद्मासन भगवान पार्श्वनाथ की है। उस पर सं. १२३२ खुदा है। बीजापुर से करीब दो मील पर एक मंदिर है, इसमें श्री पार्श्वनाथ भगवान की सहस्रफणा सहित एक मूर्ति विराजमान है जो दर्शनीय है। बीजापुर से १७ मील पर बाबानगर है। वहाँ पर एक प्राचीन मंदिर है, उसमें भगवान पार्श्वनाथ की हरे पाषाण की डेढ़ हाथ ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है। इसका बहुत अतिशय है तथा इसके विषय में अनेक दन्तकथाएँ सुनी जाती हैं।
बादामी गुफा मंदिर (Badami Cave Temple)- बीजापुर जिले में बादामी एक छोटा कस्बा है। इसके पास में दो प्राचीन पहाड़ी किले हैं। दक्षिण पहाड़ी की बगल में छठी सदी के बने हुए हिन्दुओं के तीन और जैनियों का एक गुफा मंदिर है। जैन गुफा मंदिर में अनेक मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। यह गुफा मंदिर बादामी के प्रसिद्ध चालुक्य वंश के राजा पुलकेशी ने बनवाया था।
बेलगांव (Belgaon)- मध्य दक्षिण रेलवे पर यह शहर बसा है। शहर से पूर्व की ओर एक प्राचीन किला है। कहते हैं कि पहले यहाँ १०८ जैन मंदिर थे। उनको तुड़वाकर बीजापुर के बादशाह के सरदार ने यह किला बनवाया था अब केवल तीन मंदिर शेष हैं। जिनकी कारीगरी दर्शनीय है। बेलगांव जिले में ही स्तवनिधि नाम का क्षेत्र है। यहाँ ५-६ जैन मंदिर हैं। जिनमें सैकड़ों जैन मूर्तियाँ विराजमान हैं।
हुम्मच पद्मावती(Hummach Padmavati)- मैसूर स्टेट में शिमोगा शहर है। वहाँ से सीधे हुम्मच पद्मावती क्षेत्र को जाते हैं। यहाँ कई मंदिर हैं। जिनमें पंचवसदि विशाल और बेशकीमती मंदिर है। यहाँ पर बड़ी-बड़ी विशाल गुफाएं और सातिशय पद्मावती प्रतिमा है।
वरांग (Varang)- दक्षिण कनाड़ा जिले में एक छोटा सा गांव है। सड़क से लगा प्रकार के अंदर एक बहुत विशाल मंदिर है। मंदिर में पाँच वेदियाँ हैं। जिनमें बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। एक मंदिर पास ही तालाब में है। यद्यपि मंदिर छोटा सा है परन्तु बहुत सुन्दर है।
कारकल (Karkal)- वरांग से १५ मील पर यह एक अच्छा स्थान है। यह दिगम्बर जैनों का बहुत प्राचीन तीर्थस्थान है। यहाँ अनेक जैन मंदिर हैं। एक पर्वत पर श्री बाहुबलि स्वामी की ३२ फुट ऊँची खड्गासन मूर्ति विराजमान है। इसके सामने एक दूसरा पर्वत है, उस पर एक मंदिर है। उसमें चारों ओर खड्गासन की तीन-तीन विशाल प्रतिमाएं स्थित हैं। यह मंदिर कारीगरी की दृष्टि से भी दर्शनीय है।
मूडबिद्री (Moodbidri)- कारकल से तीस मील पर यह एक अच्छा कस्बा है। यहाँ अनेकानेक मंदिर हैं। जिनमें एक मंदिर बहुत विशाल है। उसका नाम त्रिभुवनतिलक चूड़ामणि है। यह एक कोट से घिरा है, तीन मंजिल का है। नीचे भी कई वेदियाँ हैं, इसके ऊपर वेदियाँ हैं और उसके भी ऊपर वेदियाँ हैं। एक मंदिर सिद्धान्त वसति कहलाता है। यह दुमंजिला है। इस मंदिर में दिगम्बर जैनों के प्रख्यात ग्रंथ श्रीधवल, जयधवल और महाबंध कनड़ी लिपि में ताड़पत्रों पर लिखे हुए सुरक्षित हैं। इसमें अनेक मूर्तियाँ पन्ना, पुखराज, गोमेद, मूंगा, नीलम आदि रत्नों की है, यहाँ श्री भट्टारक चारुकीर्ति पंडिताचार्य महाराज की गद्दी है। प्राचीन जैन ग्रंथों का अच्छा संग्रह है।
वेणूर (Venoor)- नदी के किनारे यह एक छोटा सा गांव है। गाँव के पश्चिम में एक कोट है। उसके अंदर श्री गोमट स्वामी की ३१ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान है। गांव में अनेक जैन मंदिर हैं।
वेलूर-हलेविड (Veloor-Halevid)- वेलूर और हलेविड, कर्नाटक के हासन शहर के उत्तर में एक दूसरे से दस-बारह मील के अंतर पर स्थित हैं। यहाँ का मूर्तिनिर्माण दुनिया में अपूर्व माना जाता है। एक समय यह दोनों स्थान राजधानी के रूप में मशहूर थे। आज कलाधानी के रूप में ख्यात हैं। दोनों स्थानों के आसपास जैन मंदिर हैं। दक्षिण के सभी मंदिर दिगम्बर तथा प्राचीन हैं और उच्चकोटि की कारीगरी के जीते-जागते नमूने हैं।
श्रवणबेलगोला (Shravanbelgola)- हासन जिले के अन्तर्गत जिन तीन स्थानों ने मैसूर राज्य को विश्वविख्यात बना दिया है, वे हैं वेलूर, हलेविड और श्रवणबेलगोला। हासन से पश्चिम में श्रवणबेलगोला है जो हासन या बैंगलोर से मोटर के द्वारा ४ घंटे का मार्ग है। श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि नाम की दो पहाड़ियाँ पास-पास हैं। इन दोनों पहाड़ियों के बीच में एक चौकोर तालाब है। इसका नाम बेलगोल अथवा सफेद तालाब था। यहाँ श्रमणों के आकर रहने के कारण इस गांव का नाम श्रमणबेलगोला पड़ा। यह मूल में दिगम्बर जैनों का एक महान् तीर्थस्थान है। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त अपने गुरु भद्रबाहु के साथ अपने जीवन के अंतिम दिन बिताने के लिए यहाँ आये थे। गुरु ने वृद्धावस्था के कारण चन्द्रगिरि पर सल्लेखना धारण करके शरीर त्याग दिया। चन्द्रगुप्त ने गुरु की पादुका की बारह वर्ष तक पूजा की और अंत में समाधि धारण करके इह जीवन लीला समाप्त की।
विन्ध्यगिरि नाम की पहाड़ी पर गोमटेश्वर की विशालकाय मूर्ति विराजमान है। विन्ध्यगिरि की ऊँचाई चार सौ सत्तर फीट और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। काका कालेलकर के शब्दों में मूर्ति का सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजुक और कान्तिमान है। एक ही पत्थर से निर्मित इतनी सुन्दर मूर्ति संसार में और कहीं नहीं। इतनी बड़ी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्ति के साथ कुछ प्रेम की भी यह अधिकारिणी बनती है। धूप, हवा और पानी के प्रभाव से पीछे की ओर ऊपर की पपड़ी गिर पड़ने पर भी इस मूर्ति का लावण्य खण्डित नहीं हुआ है। इसकी स्थापना आज से एक हजार वर्ष पहले गंगवंश के सेनापति और मंत्री चामुण्डराय ने करायी थी। इस पर्वत पर अनेक मंदिर हैं।
चन्द्रगिरि पर चढ़ने के लिए भी सीढ़ियाँ बनी हैं। पर्वत के ऊपर मध्य में एक कोट बना है। उसके अंदर बड़े-बड़े प्राचीन १४ मंदिर हैं। मंदिरों में बड़ी-बड़ी विशाल प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। एक गुफा में श्रीभद्रबाहु स्वामी के चरण चिन्ह बने हुए हैं। जो लगभग एक फुट लम्बे हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह पहाड़ी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पर बहुत से प्राचीन शिलालेख अंकित हैं, जो मुद्रित हो चुके हैं।
नीचे ग्राम में भी अनेक मंदिर और चैत्यालय हैं। एक मंदिर में चित्रकला से शोभित कसौटी पाषाण के स्तंभ हैं। यहाँ भी श्री भट्टारक चारुकीर्ति जी महाराज की मुख्य गद्दी है। उसके मंदिर में भी कुछ रत्नों की प्रतिमाएँ हैं। बड़ा अच्छा शास्त्र भंडार है।
इस प्रान्त में धर्मस्थल आदि अनेक स्थान भी हैं जहाँ जैन मंदिर और मूर्तियाँ दर्शनीय हैं।
खण्डगिरि (Khandgiri)- उड़ीसा प्रदेश की राजधानी कटक है। कटक के आसपास हजारों जैन प्रतिमाएँ हैं किन्तु उड़ीसा में जैनियों की संख्या कम होने से उनकी रक्षा का कोई प्रबंध नहीं है। कटक से ही सुप्रसिद्ध खण्डगिरि-उदयगिरि को जाते हैं। भुवनेश्वर से पाँच मील पश्चिमपुरी जिले में खण्डगिरि-उदयगिरि नाम की दो पहाड़ियाँ हैं। दोनों पर पत्थर काटकर अनेक गुफाएं और मंदिर बनाये गये हैं जो ईसा से लगभग ५० वर्ष पहले से लेकर ५०० वर्ष बाद तक के बने हुए हैं। उदयगिरि की हाथी गुफा में कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट खारवेल का सुप्रसिद्ध शिलालेख अंकित है।
विशेष नोट-उपरोक्त प्राय: सभी तीर्थ क्षेत्रों का जीर्णोद्धार एवं विकास समय-समय पर जैन समाज द्वारा कराया गया है और आज सभी भक्तजन इन तीर्थों के नूतन विकसित स्वरूप का दर्शन करके पुण्यार्जन करते हैं।