—ब्र. कु. सारिका जैन (संघस्थ)
प्रस्तुत पुस्तक जिसका नाम है ‘‘आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज-एक स्वर्णिम व्यक्तित्व’’, इसमें ब्र. हीरालाल जी से आचार्य श्री वीरसागर जी बनने वाले महापुरुष का स्वर्णमयी जीवन कथानक है। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के दीक्षागुरु आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के हिमालय सदृश उत्तुंग-विशाल व्यक्तित्व को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत कर पाना तो अत्यन्त कठिन कार्य है परन्तु प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने अपनी अद्भुत लेखन शैली के द्वारा इस दुर्लभ कार्य को भी सुलभ करके इसे जन साधारण के पढ़ने योग्य बना दिया है।
पूज्य आचार्यश्री के जीवन की अनेकानेक घटनाएँ पढ़ने-सुनने में आती हैं, उन्हीं में से एक अति रोमांचक घटना को मैं कुछ पंक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहती हूँ-
बीसवीं सदी के प्रथमसूरि के, प्रथम शिष्य को वंदन है।
गुरुवर श्री वीरसिंधु को मेरा, कोटि-कोटि अभिवंदन है।।
माँ ज्ञानमती के दीक्षागुरु, वे चारित के चूड़ामणि हैं।
उन सूक्तिरूप वाणी जन-जन के, लिए क्षेम-मंगलकर है।।१।।
दीक्षा से पूर्व एक दिन वे१, श्री शांतिसिंधु के पास गए।
खुशहाल ब्रह्मचारी के संग, गुरुवर के सम्मुख बैठ गए।।
बोले-तुममें नहिं ऋद्धि अत:, हम तुमको मुनि नहिं मान रहे।
नहिं तुममें कोई विक्रिया है, नहिं अवधिज्ञान तुम्हारे है।।२।।
गुरुवर मुस्काए मंद-मंद, पूछा-वह वृक्ष कौन सा है ?
ब्रह्मचारी जी ने बतलाया-गुरुवर! वह वृक्ष आम का है।।
गुरुवर बोले-ब्रह्मचारी जी! इसका प्रमाण क्या हो सकता ?
इसमें नहिं बौर, न आम कहीं, यह आम्रवृक्ष नहिं हो सकता।।३।।
ब्रह्मचारी जी ने अपना बुद्धी-कौशल उनको दिखलाया।
बोले-मौसम नहिं आम का है, इसलिए बौर-फल नहिं आया।।
जब मौसम आएगा तब इस ही, वृक्ष में आम फलित होंगे।
हर कोई इसको वृक्ष आम का, ही बतलाएगा सच में।।४।।
गुरुवर मुस्काकर बोले-भैया! वैसे ही हम भी मुनि हैं।
इस कलियुग के कारण हममें, नहिं अवधिज्ञान-नहिं ऋद्धी हैं।।
लेकिन सतयुग में इसी वेष में, अवधिज्ञान प्रगटित होगा।
हम मुनियों को ही ऋद्धी होंगी, मोक्ष हमें ही होवेगा।।५।।
सुनकर दोनों ब्रह्मचारी जी, नतमस्तक होकर बोल पड़े।
गुरुवर! हमको दो क्षमादान, हम हैं अज्ञानी बहुत बड़े।।
अब हमको दीक्षा लेकर भव-सागर से पार उतरना है।
गुरुचरणों की सेवा करके, निज जीवन सार्थक करना है।।६।।
गुरुवर ने उनको जिनदीक्षा, दे करके उन्हें कृतार्थ किया।
ब्रह्मचारी हीरालाल को मुनिश्रीवीरसिंधु यह नाम दिया।।
उन वीरसिंधु गुरुवर का जीवन, बहुत वीरतापूर्ण रहा।
फोड़ा अदीठ का हुआ पीठ में, पीड़ा का नहिं भान जरा।।७।।
वे भूख-नींद इन दो रोगों से, मुक्तिप्राप्ति के इच्छुक थे।
महावीरप्रभू उनकी यह इच्छा, जल्दी ही परिपूर्ण करें।।
वे सिद्धशिला पर राजित होकर, शाश्वत सुख को प्राप्त करें।
‘‘सारिका’’ शीघ्र ही हम सब उनको, सिद्धरूप में नमन करें।।८।।
ऐसे महामना आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का जीवनवृत्त सभी के लिए विशेष अनुकरणीय है। आज पूज्य ज्ञानमती माताजी का ज्ञान-चारित्र, उनका विशाल व्यक्तित्व, उनके अनेकानेक गुणों को देखकर सभी के मन में एक विचार सहज ही आ जाता है कि जब पूज्य माताजी इतनी महान हैं, तो इनके गुरु कितने महान होंगे!
पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी की प्रभावक शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की लेखनी से सृजित इस पुस्तक को पढ़कर आप भी संयमीरूपी अनमोलनिधि के द्वारा अपने जीवन को महान बनाने का पुरुषार्थ अवश्य करें, यही मंगलकामना है।