भोगों में लिप्त जीवन अंतिम श्वाँसें ले रहा था। प्रकृति के अकस्मात् परिवर्तन से भोग—विलास से युक्त वसुन्धरा पर कर्मयुग शनै: शनै: उतर रहा था। भोग युग में ढले हुए प्राणियों को कर्म— युग बड़ा ही नागवार गुजरा; क्योंकि भोगयुग में उन्हें वैषेयिक सामग्री वस्त्र/भोजन/आभूषण आदि बिना किसी परिश्रम के ही कल्पवृक्षों से उपलब्ध हो जाती थी, लेकिन कर्म युग के प्रारम्भ में ही सारे के सारे कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे। यह देखकर जन जीवन अत्यन्त अनियमित हो गया। लोग उस समय युग के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के पास आये और उनके समक्ष अपनी व्याकुलता प्रगट की; उनके आसन्न संकट को देखकर उन्होंने सर्व—प्रथम भारत की भूमि पर कृषि करने का उपदेश दिया। लोगों को बीज वपन से लेकर फसल काटने तक की सारी प्रक्रिया सिखलाई। भारत के पहले कृषक वही थे, जिन्होंने युग के आदि में बीजों की गवेषणा कर शाकाहार की सात्विक परम्परा का जीर्णोद्धार किया। जो वस्तुएँ भागे युग में जीने वालों को कल्पवृक्षों से मिलती थीं वही अब उनके द्वारा उपदिष्ट असि….. मसि…… कृषि…..शिल्प…. वाणिज्य…..और विद्या से सुलभ होने लगी। उनका जनजीवन सामान्य रूप से पलने लगा। धीरे—धीरे युग के कदम विलासिता की ओर बढ़ने, लगे और आविष्कार आवश्यकता का जनक बन गया। लोगों में आधुनिकता का प्रादुर्भाव हुआ। वासनायें दिन—प्रतिदिन द्विगुणित रूप से आकार लेने लगी।
आदिनाथ के युग में लोग अत्यन्त सरल थे क्योंकि उस समय इतनी अधिक उलझने नहीं थी; बड़ा ही सुलझा हुआ युग था वह। आवश्यकतायें सीमित थीं आध्यमिक चेतना सतत जाग्रत रहती थी। युग—पन्छी उड़ता रहा चलता रहा। वर्तमान सदी में तो वातावरण एकदम प्रदूषित हो गया है। जिह्वालोलुपी मानव ने अपनी स्वार्थतान्धता की पुष्टि हेतु अनीति/अत्याचार/झूठ/छल/फरेब का सहारा लेकर धर्म—प्राण भारतीय संस्कृति में अधर्म का बीज बोकर उसे अर्धमृतक—सा बना दिया। जिसके प्रभाव से आध्यामिक चेतना सुप्त हो गई। वर्तमान में एक ओर जहाँ भारतीय मानस का रूझान मांसाहार/बनाव शृंगार एवं बाह्य प्रदर्शन की ओर हो रहा है, वहीं अमेरिका आदि मांसाहार मुल्कों में शाकाहार की रोशनी तेजी से फैल रही है और उसके आलोक में लाखों लोग भारतीय संस्कृति से प्रसूत शाकाहार को धड़ा—धड़ा अपनाते चले जा रहे हैं। प्रकृति प्रदत्त शारीरिक संरचना से लगता है कि मांसाहार मानवीय आहार नहीं है। क्योंकि मांसाहाररी एवं शाकाहारी एवं पशुओं के अंग/ प्रत्यंगों तथा दिनचर्या ….. उनके भोजन करने के ढंग मेें काफी अन्तर है। जैसे मांसाहारी पशु जीभ की सहायता से पानी चप—चप करते हुए पीते हैं, उनके दाँत एवं नाखून नुकीले होते हैं। उनका पाचन आमाशय से शुरू होता है तथा पेट की आँते छोटी होने से मांस सड़ने से पूर्व ही आसानी से निष्काषित हो जाता है।
वे एक ही बार में एक से अधिक बच्चे जनते हैं, वे हिंसक/व्रूर एवं अविवेकी होते हैं। बुद्धि से उनका कोई वास्ता नहीं होता जिससे वे कभी—कभी अपने बच्चों तक को खा जाते हैं। इसके विपरीत शाकाहारी पशुओं की जीवन शैली एवं शारीरिक रचना भिन्न है; वे जीभ निकाल कर पानी नहीं पीते बल्कि! मुँह डुबाकर या होंठों की सहायता से पीते हैं। दाँत चर्वण योग्य होते हैं। पाचन मुहे की सहायता से शुरू होता है, आमाशय विभाजित होता है तथा छोटी आँत तिगुनी होती है। वे एक बार में (कुछ अपवादों को छोड़कर) एक ही बच्चा जनते हैं। वे अहिंसक/दयालु/संवेदनशील/विवेकी एवं बुद्धिमान हुआ करते हैं। लाख विपत्ति आने पर भी वे अपने बच्चों का भक्षण नहीं करते और उनके लिये अपना जीवन तक समर्पित कर देते हैं। यहाँ शारीरिक संरचना एवं जीवन शैली से निदान यह हुआ कि मांसाहार शाकाहारी पशुओं तक के भी योग्य नहीं है फिर मनुष्यों के योग्य कैसे हो सकता है। प्रकृति से कोई प्राणी मांसाहारी नहीं होता शेर, चीता, बाघ, कुत्ता, बिल्ली आदि के बच्चे जन्म लेते ही दुग्ध—पान करते हैं। रक्तपान नहीं करते । मांसाहार के संस्कार परिस्थिति, आवश्यकता एवं शारीरिक संरचना शारीरिक रसायन पद्धति के वशीभूत होकर पड़ जाते हैं।
धार्मिक नजरिये से मांसाहार घोर नरक एवं नैतिक पतन का कारण है। किसी भी धर्म की नींव हिंसा पर आधारित नहीं है, किसी भी धर्म के ग्रन्थों में मांसाहार का समर्थन नहीं है यह तो बाद में लिपिकारों ने अपनी रसना के वश होकर धर्मग्रन्थों का हवाला देकर मांसाहार का विधान कर भोली—भाली जनता को अपने दुष्कृत्यों में लिप्त कर दिया। श्री राम तकरीबन चौदह वर्ष पर्यन्त वनों में रहे लेकिन तुलसीकृत रामायण में ऐसा नहीं लिखा कि श्रीराम ने अपनी क्षुधा पूर्ति हेतु किसी हिरण या अन्य वन्य प्राणी का शिकार कर अपनी क्षुधा पूर्ति की हो। वे अपने कष्टमय जीवन में भी उबले ओदन तथा फल—फूलों का सेवन कर शाकाहार की सात्विक परम्परा के निर्वाहक रहे। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से मांसाहार स्वास्थ्य संतुलन में अत्याधिक बाधक है। मांस में यूरिक एसिड होने से मांसाहारियों की पेशाब, तेजाब युक्त होती है वर्तमान में सुरक्षा की प्रक्रिया में अण्डों में व्याप्त डी.डी.टी. से आँते विषैली हो जाती हैं। सेच्युरेड कोलेस्ट्राल होने से वह जाकर सीधा रक्त वाहनियों में जम जाता है; जिससे हार्ट—अटेक, हाई ब्लड प्रेशर, धमनियों में जख्म, कैंसर, त्वचा की बीमारियाँ हो जाती हैं। जैसे कोई टाईफाइड का रोगी डॉक्टर के पास जाता है तो डॉक्टर उसे एकदम अण्डा सजेष्ट नहीं करता और वह ऐसा करता है तो वह रोगी का हितैषी नही, शत्रु है। सबसे पहले उसे रोटी की पपड़ी, मूंग की दाल का पानी पीने की सलाह देता है।
आजकल डॉक्टर लोग भी अंडा/मांस खाने की सलाह नहीं देते क्योंकि अब वे आधुनिक अनुसंधानों से परिचित हो गये हैं। शाकाहारी की तुलना में मांसाहार अत्यधिक बीमारियों से ग्रस्त हुआ करते हैं, कारण कि उन्हें पशुओं के शरीरगत सैकड़ो बीमारियाँ मांसाहार सेवने के पुरस्कार स्वरूप मुफ्त में ही मिल जाती हैं। जो व्यक्ति सोचते हैं कि अण्डा तथा मांस के सेवन से तंदुरूस्ती आयेगी, शक्ति शाली हो जायेंगे, वे बड़े भ्रम में हैं। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि सब से अधिक बलशाली हाथी है जो शाकाहारी है। अण्डे को शाकाहारी सिद्ध करने वाले वैज्ञानिक तथ्य से पहले इस प्राकृतिक सत्य को समझे और अपनी बचकानी हरकत से बाज आये। शाकाहार यानि जो पेड़ पौधों से उपलब्ध हो और मांसाहार यानि जो प्राणियों के वध से प्राप्त हो। आज तक किसी ने कहीं ऐसा अजूबा देखा है कि आम, बड़, पीपल या अन्य वृक्ष ने अण्डे दिये हों अथवा किसी मुर्गी, कबूतर, चिड़ियों आदि ने अण्डोें के स्थान पर आम, अमरूद, या सेब फल दिये हों। आर्थिक दृष्टिकोण से अगर हम देखें तो शाकाहार की तुलना में मांसाहार कई गुना अधिक मंहगा है। जितने रुपयों में आज एक किलो मांस आता है, उतने रुपयों में दस किलो गेहूँ खरीदा जा सकता है। जनश्रुति के अनुसार एक पाव दूध चार रोटियों के बराबर होता है। मांसाहार मुख्य भोजन नहीं है। मांस को खाने के लिये शाकाहार की आवश्यकता होती है। केवल मांस ही मांस नहीं खाया जा सकता। रोटी रूखी भी खाई जा सकती है, लेकिन मांस को घी में तला जाता है। इसके साथ ही एक मांसाहारी सात शाकाहारियों को भोजन उदरस्थ कर लेता है।
मनोवैज्ञानिक का भी मानना है कि मांसाहारी सब से अधिक तनाव ग्रस्त रहते हैं। उनकी विचाराधारा तामसिक भोजन के प्रभाव से दूषित हो जाती है। वे मूर्ख, क्रूर , अविवेकी, एवं अपराधिक वृत्ति से युक्त होते हैं। इसके विपरीत शाकाहारी, बुद्धिमान, दयालु, विवेकी एवं अपराध बोध से युक्त होते हैं। अत्यन्त प्रतिभाशाली शाकाहारी ही होते हैं। प्रायोगिक परीक्षण से ज्ञात हुआ है कि देश/विदेश में श्रेष्ठतम खिलाड़ी, आविष्कारक विद्वान, कलाकार, नोबल पुरस्कार विजेता शाकाहारी ही रहे हैं। मांसाहारी मदिरा पान को भी अपने जीवन का अनन्य अंग समझकर उसका सेवन करते हैं, जिसके परिणाम जग विख्यात हैं। पर्यावरण शास्त्रियों का कथन है कि पशुओं द्वारा पर्यावरण असंतुलित हो रहा है, उसे संतुलित बनाने में मांसाहारियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। मैं उनसे यही कहूँगा कि पर्यावरण वरण मनुष्यों के द्वारा ही असंतुलित हो रहा है पशुओं के कारण नहीं। मनुष्यों के द्वारा स्थापित कारखानों से तथा उसकी चिमनियों एवं वाहनों के धुयें से, कारखानों से निकले जहरीले केमिकलों से पर्यावरण भारी असंतुलित हुआ है। जंगल भी मनुष्यों ने काटे हैं पशुओं ने नहीं। इन सब तथ्यों से निष्कर्ष यह निकला कि अण्डा शाकाहार नहीं है और मांसाहार, प्राकृतिक आहार भी नहीं है। अत: प्रत्येक प्राणी को प्रकृति—प्रदत्त आहार, शाकाहार ही करना चाहिये, जो कि स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन एवं आध्यामिक चेतना की संजीविनी है।