प्रत्येक व्यक्ति सुसंस्कृत संस्कारों की सरिता के प्रवाह में स्नान करना चाहता है। वह जीवन के विकास के लिए कोई न कोई हेतु बनाता है, वह परम पावन पवित्र आत्मा का चिन्तन करता है, वह अंतरंग की दृष्टि की ओर उन्मुख होकर उन भव्यात्माओं के जीवन की ओर लक्ष्य बनाता है, जो इस संसार से पार हो गए, जिन्होंने जन्-मृत्यु पर विजय प्राप्त करी ली है, जो उनके मार्ग पर चल रहे हैं, उन्हें स्मृति में लाता है, उन्हें विविध रूपों में स्मरण करता है तथा महागुणी बनने या आत्मा से परमात्मा बनने के लिए जो भी क्रिया करता है वह गुणकीर्तन है, वही पूजा है, स्तुति है या आराधना है। जिसे वह किंचित् समय की सीमा में नहीं बांधता, अपितु सदैव उन गुणों की प्राप्ति के लिए किसी न किसी तरह का उद्यम करता है। वह इष्टसिद्धि, शिष्टाचार, मानसिक शुद्धि, वाचिक प्रशुद्धि और कायिक शुद्धि आदि के लिए जो भी पुरुषार्थ करता है उसमें उसका निश्चित उद्देश्य होता है।
पूजा एक महान् साध्य है, जिसका उद्देश्य भी महान् है। वह पर से परम पद पर स्थित होने के लिए सर्वप्रथम परमेष्ठियों का स्मरण करता है हमारे आगमों, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थ, प्रवचनसार जैसे पाहुडों आदि में उल्लेख भी आता है। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों पावन हैं, इनका मार्ग है पवित्र। इसलिए साधक इनके
गुणों का श्रद्धापूर्वक आदर-सत्कार करता है। यही प्रवृत्ति है पूजा। ‘गुणेषु प्रशस्त रागो पूजा’- गुणों में प्रशस्त राग होना पूजा है।
पूजा नमस्यापचिति : सपर्यार्चार्हणा: समा: । (अमरकोष २/३५)
पूजा, नमस्करण, अपचिति, सपर्या, अर्चा, अर्हणा, आदि पूजा के पर्यावाची हैं।
पूजा- पूजनं पूजा, पूजायां धातु से ‘अड़्’ प्रत्यय होने पर पूजा ।
नमस्या- नमस्करणं नमस्या, नमस् + य + अ + आ
अपचिति- अप + चाय् (चि) + ति – अपचिति-निर्दोष गुण स्तवन।
सपर्या- सपर्- पूजायां, सपर् + य + अ + आ- सपर्या-गुणज्ञ प्रशंसा।
अर्चा- अर्च् -पूजायां, अर्च् + अ + आअर्चा-गुणानुवाद ।
अर्हणा- अर्ह् – पूजायां- अर्ह् + यु + आ- अर्हणा – गुणादर।
कृति, स्तवन, कीर्तन, भक्ति, श्रृद्धा, आदरत्र, उपासना, वंदना, स्तुति, स्तव, स्तोत्र, नुति, ध्यान, चिंतन, अर्चना, प्रणाम, नमोस्तु१ आदि पूजा के पर्याय हैं। आरती, दृष्टि, श्रद्धार्चना, विनती, गीत उपासना२ भी इसके नाम हैं।
‘पूजनं गन्ध माल्यादिभि: समभ्यर्चनम्’ (जैन.ल. ४१९)
गन्ध, मालादि के द्वारा अभ्यर्चन करना पूजा या पूजन है।परिकीर्तन (षट्खण्डागम १/१/१/२१) देवाधि-देवरचणे परिचरणं (रत्नकरण्ड गाथा ११९) परिचरण भी पूजा है।
पूजा का विकास – जो पूज्य होता है, उसकी होती है, पूज्य हैं- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। अत: पूज्य गुणों के कारण यह कहा गया –
एसो पंच- णमुक्कारो, सव्व-पावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं होदि मंगलं ।
मंगलों में प्रथम मंगल अरहंत आदि हैं, वे सर्व पापों का नाश करने वाले हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में अरहंत, सिद्ध, गणधर (आचार्य), अध्यापकवर्ग और साधुओं को नमन किया। आचार्य कुंद्कुंद ने ही – तीर्थंकर भक्ति, सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, आचार्य, निर्वाण, नंदीश्वर, शान्ति, समाधि, पंचगुरु भक्ति एवं चैत्यभक्ति का प्राकृत में निरूपण किया। मूलाचार के रचनाकार वट्टकेर ने- ‘‘मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदेसिरसा’’ के आधार पर मूलगुण वाले संयतों को महत्त्व दिया। भगवती आराधना के शिवार्य ने सिद्ध एवं अरहत की वंदना की। आचार्य सिद्धसेन ने सिद्धं सिद्वट्ठाणं णमणोवमसुह गयाणमित्ति (स.१/१) आचार्य यतिवृषभ ने संपूर्ण तिरेसठ शलाका पुरुषों का गुणानुवाद ही किया। प्राकृत के सभी काव्यकारों ने अपने अपने मंगलाचरण में पंचमरमेष्ठियों के साथ-साथ तीर्थंकर ऋषभ, शा, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ एवं वर्धमान आदि को मंगल रूप माना है।
अरहंत- णमोक्कारो भावणं को करेदि पयडमदी ।
सो सव्व-दुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।। आ. वीरसेन जयधवला।।
जो प्रकृष्टमति वाला अरहंत को नमस्कार करता है वह सभी दु:खों के क्षय को प्राप्त होता है। नियमसार एवं मूलाचार के आवश्यक नियमों में छह आवश्यक कर्मों का विवेचन है
समदा थवो य वंदण- पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं ।
पच्चक्खाण – विसग्गो करणीयावसया छप्पि ।। (मू. २२)
समता/ सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग में स्तव और वंदना शब्द दिए गए हैं।
थव- स्तव में उसहादि- जिणवराणं (मू. २४) से चतुर्विंशति स्तव और वंदना में- अरहंत-सिद्ध-पडिमा-तव-सुद-गुरुण-रागादीणं से अरहंत प्रतिमा और सिद्ध प्रतिमा के साथ साथ तप एवं श्रुत में जो गुरु है उनकी वंदना को महत्त्व दिया है।
जिण- पडिमाणं पणमं करेह – ज्ञाताधर्म –
जिन प्रतिमाओं को प्रणाम करे ऐसा ज्ञाताधर्म आगम में भी कहा है।
‘तिक्खुत्तो आयाहीणं पायाहीणं करेमि वंदामि णमस्सामि
सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देइयं चेइयं पज्जुवसामि मत्थेण वंदामि’
में देव और चैत्य दोनों की उपासना आदि के साथ तीन प्रदक्षिणा, तीन आवर्त आदि पूर्वक वंदना, नमन, सत्कार, सम्मान उन्हीं को दिया गया है जो देव/ आप्त हैं और आप्त के चैत्य हैं। जब प्रतिक्रमण या सामायिक आदि के पाठ को पढ़ते हैं तब चतुर्विंशति स्तव को पढ़ते हैं।
लोयस्स उज्जोयगरे धम्मतित्थ- यरे जिणे ।
अरहंते कित्तियहसं चउवीसं पि केवली ।।
उसहमजिदं च ददे संभवमहिणंदणं च सुमदिं च। इत्यादि। धवला में अनेकानेक मंत्र हैं- जिनमें णमो जिणाणं, णमो सव्वसाहूणं आदि लगभग ८० से अधिक गुणों के स्तवन पर प्रकाश डालते हैं।
श्रावक धर्म और पूजा- आचार्य पुष्पदंत भूतबलि जीवट्ठाण धवला टीका में यह स्पष्ट किया है कि जो श्रावक जिनबिंब के दर्शन करता है, उनकी तीन कारणों से सम्यक् पूजा, उपासना आदि करता है वह जाति स्मरण पूर्वक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है|
तीहि कारणेहि पढम- सम्ममुप्पदेदि केई ।
जाईस्सरा केई सोहूण केइ जिणबिबं दट्ठूणं ।। (धवला)
जिणबिंबदसणेण णिधत्त-किचादिस्स ।
विमिच्छत्तादि कम्म: कलावस्स खयदंसणादो ।। (धवला)
जिनबिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित की प्राप्ति और मिथ्यात्व आदि कर्म कलाप की समाप्ति होती है।
नित्य कर्म – श्रावक के नित्य आवश्यक कर्म-देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इसे सामायिक पाठ में पढ़ते हैं और सभी जानते हैं।
देव- पूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय – संयमश्तप: ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।।
जयधवला सूत्र ८२ में श्रावक के चार आवश्यक धर्म कहे हैं –
तं जाधा दाणं पूजा सीलमुववासो,
चेदि चदुव्विहो सावयधम्मो ।।
दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकधर्म हैं। रयणसार में दान और पूजा ये दो प्रमुख श्रावक धर्म हैं उनके बिना श्रावक नहीं होता।
दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे, सावया ते ण विणा ।
श्रावक के नित्य, नैमित्तिक कर्मों जिनबिंब दर्शन, अभिषेक, पूजन, प्रक्षालन आदि का विशेष महत्तव है। आचार्य कुंदकुंद ने अष्टद्रव्य के माहात्म्य को प्रतिपादित करत हुए यह भी कहा है कि जो श्रावक निर्वाण को प्राप्त अरहंतादि की पूजा करते हैं वे महाकल्याण को प्राप्त करते हैं।
दिव्वेण गंधेण दिव्वेण पुप् दिव्वेण धूवेण दिव्वेण चुण्णेण दिववेण वासेण दिव्वेण व्हाणेण णिच्चकालं अच्चंति पूजंति, वंदंति णमस्संति- परि-णिव्वाण-महाकल्लाण-पुज्जं अच्चेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्ख ओ कम्मक्खओ बोधिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं ।
नंदीश्वर भक्ति में भी दिव्वेहि पुप्फ़ही दिया है (नंदीश्वर भक्ति) चैत्यभक्ति में दिव्वेवण गंधेण दिण्वण पुप्फेण- आदि उक्त रूप में ही दिया है।
आचार्य विद्यानंद के जिनपूजा माहत्म्य और जिनमंदिर विवेचन में अनेकानेक पूजा के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- तीर्थंकरों की पूजा, ध्यान या उपासना आदि से श्रावक शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की आर भील अग्रसर हो जाता है। उन्होंने अष्टद्रव्य पूजा को इस प्रकार दिया है-
दिव्वेण व्हाणेण शुद्ध प्रासुक जलाभिषेक दिव्वेण गंधेण सुगंध चंदनकुन्
दिव्वेण अक्खएण अंखंड अक्षत दिव्वेण पुप्फेण लवणादि पुष्प
दिव्वेण चुण्णेण दिव्य चरु-चूर्णादि दिव्वेण दीवेण दीपक
दिव्वेण धूवेण सुगंध युक्त धूप दिव्वेण वासेण मोक्ष फल
अभिधान राजेन्द्र कोश के पूजा माहात्म्य में उक्त वर्णन है। (६/११०५) शांतिराज शास्त्री ने दिव्वेहि गंधंहि दिव्वेहि अक्खेहि दिव्वेहि पुप्फेहि दीनेहि दिव्वेहि धूवेहि, दिव्वेवहि चुण्णेहि दिव्वेहि वासेहि दिव्वेहिव्हाणेहि- को निर्वाण भक्ति के आधार पर विवेचित किया है कुन्दकुंद आचार्य
देवच्चणा विहाणं जं कधिदं देस- विरट्ठाणम्मि ।
होदि पदत्थं झाणं कधिदं तं वरजिणिंदेहिं ।।
(भावसंग्रह- देवसेन ६२६-६२७)
जहाँ देव अर्चना का विधान है वहाँ कर्मों का क्षय अवश्य है। प्राकृत में पूजा पढ़ने की पंरपरा रही होगी, जो बाद में भी प्रचलित रही है यहाँ एक बात स्पष्ट है कि दशलक्षण पूजा से संबन्धित दशों पूजाएं प्राकृत में हैं।