वैदिक अर्थव्यवस्था का मूलमंत्र है- प्रजारंजन, रक्षण और संवर्द्धन । ऋग्वेद में कर-र्सग्रह के लिए निर्देश है- ‘ जो राजा सूर्य और मेघ के स्वभाव वाला होकर आठ मास प्रजाओं से कर लेता है और चार मास यथेष्ट पदार्थो को देता है, इस प्रकार सब प्रजाओं का रंजन करता है, वही सब प्रकार से ऐश्वर्यमान् होता है । ऋग्वेद, दयानन्दभाष्य 53०। 11’ प्रस्तुत शोध-पत्र का उद्देश्य प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध कष्ट न देने वाली कर-सग्रह-पद्धति का वर्णन कर आधुनिक बोझिल कर-पद्धति की ओर संकेत करना है । मनु महाराज समाज-व्यवस्थाओं के प्रवर्तक थे । एक राजा के रूप में उन्होंने अन्य व्यवस्थाओं. की ही भांति कर-व्यवस्था का भी निर्धारण किया ।. मनु महाराज की कर-व्यवस्था प्रजाओं के कष्ट-निवारण हेतु थी । कौटिल्य अर्थशास्त्र में इस वचन की पुष्टि में कहा है- ‘मात्स्यन्यायाभिभूता : प्रजा : मनु वैवस्वत राजान चक्रिरे । धान्यषड्भागं पण्यदशभागं हिरण्य चास्य भागधेयं प्रकल्पयामासु । तेन भूता : राजान : योगक्षेमवहा : । तेषां किल्विष दण्डकरा हरन्ति, योगक्षेमवहाश्च प्रजानाम्।अर्थशास्त्र पृ. 8, अ 12 मात्स्यन्याय अर्थात् जैसे बड़ी मछली छोटी निर्बल मछली को खा जाती है, इसी प्रकार बलवान् लोगों ने निर्बलों का जीना मुश्किल कर दिया । इस अन्याय से पीड़ित हुई प्रजाओं ने अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिए मनु महाराज को अपना राजा बनाया और तभी से प्रजाओं ने अपनी कृषि की उपज का छठा भाग, व्यापार की आमदनी का दसवाँ भाग व कुछ सुवर्ण राजा को कर के रूप में देना निश्चित किया । इस कर को पाकर राजाओं ने प्रजाओं की सुरक्षा और कल्याण का सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर स्वीकार किया । इस प्रकार मनु-निर्धारित कर-व्यवस्था प्रजाओं के कष्टों का निवारण करने और उनका कल्याण करने में सहायक सिद्ध है । कौटिल्य के इस वचन से जहाँ कर-व्यवस्था के उद्भव और प्रयोजन पर प्रकाश पड़ता है वहीं यह भी स्पष्ट होता है कि कर-व्यवस्था प्रजा के रंजन, रक्षण व संवर्धन के लिए होती है । मनु महाराज की कर-व्यवस्था प्रजा के कष्टों का निवारण करने व उनके कल्याण के लिए है । उन्होंने ऐसे राजा की निन्दा की है जो राजा प्रजाओं की बिना रक्षा किए उनसे बलिस्थन्नादि का छठा भाग, कर, शुल्कत्र् व्यापारियों से लिया जाने वाला, प्रतिभागत्र् चुंगी और दण्डत्र्जुर्माना ग्रहण करता है । ऐसा राजा शीघ्र ही नरकत्र्विषेश दु कख को प्राप्त होत? है ।’विशुद्ध मनुस्मृति – डॉ. सुरेन्द्र कुमार, 83०7 योऽरक्षन्बलिमादत्ते करं शुल्कं च पर्थिव:। प्रतिभाग च दण्ड च सः सद्यो नरक व्रजेत्। । वास्तव मैं वह प्रजा का ध्यान न रखने के कारण उनके असहयोग से किसी-न-किसी कष्ट से आक्रान्त हो जाता है । मनु महाराज का कथन है कि जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े- थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं वैसे ही राजा प्रजा से थोड़ा- थोड़ा वार्षिक कर लेवे ।’ वही, 7129, यथाल्पाल्पमदन्त्याद्या वार्योकोवत्सषट्पदा। तथाल्पाल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्रादाज्ञाब्दिक: कर:। उन्होंने कर की किसी शाश्वत व्यवस्था का निर्धारण नहीं किया अपितु उनका कथन है कि जिस भी प्रकार से राजा, राजपुरुष व प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त हार्वे वैसा विचार करके राजा तथा राज्यसभा राज्य में कर-स्थापन करें ।वही, 7.128; यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्। तथावेक्ष्य नृपो राष्ट्र कल्पयेत्सतत करान्। । मनु महाराज का स्पष्ट वचन है कि वस्तु-स्थितियों का विचार करके ही राजा कर-संग्रह करे । राजा व्यापारी से कर लेते समय इन बातों पर अवश्य ही विचार करे कि उसकी खरीद और बिक्री, भोजन व मार्ग की दूरी, भरण-पोषण का व्यय और लाभ, वस्तु की प्राप्ति एवँ सुरक्षा और जन-कल्याण की स्थिति कैसी है ।वही, 7 ,127; क्रयविक्रयमध्वानं भक्त व सपरिव्ययमू। योगक्षेम च संप्रेक्ष्य वणिजो दापयेत्करान्। । राजा को पशुओं और सोने के लाभ में से पचासवाँ भाग और अन्तों का छठा, आठवां या अधिक से अधिक बारहवाँ भाग ही लेना चाहिए । गोद, मधु, घी और गंध, औषधि रस तथा फूल, मूल और फल, इनका छठा भाग कर में लेना चाहिए । वृक्षपत्र, शाक, तृण, चमड़ा, मासनिर्मित वस्तुएं, मिट्टी के बने बर्तन और सब प्रकार के पत्थर से निर्मित पदार्थ, इनका भी छठा भाग ही कर में लेना चाहिए ।वही, 7.130- 132 ‘ कर-ग्रहण मे अतितृष्णा राजा व प्रजा दोनों के लिए ही पीड़ादायक है । महाभारत में भी अनेकत्र अपीड़ादायक-कर-संग्रह-पद्धति के दर्शन होते है । वहाँ राजा को उपदेश देते हुए कहा गया है कि जैसे भवरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके रस का ग्रहण करता है उसी प्रकार राजा भी प्रजा को बिना कष्ट पहुंचाए उनसे कर-सग्रह करे ।’महाभारत, उद्योगपर्व 34.17; यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पद:। तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया। । जैसे गोसेवक गाय के बछडो का ध्यान रखते हुए थनों को बिना कुचले दुग्धदोहन करता है । उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षा करते हुए, उन्हें बिना कष्ट पहुचाए, उनके ही कल्याण व संवर्धन के लिए राष्ट्ररूपी गौ का दोहन करे । शान्तिपर्व में राजा को कर-सग्रह करते हुए जोंक, व्याघ्री व चूहे के सदृश व्यवहार करने का उपदेश है । जैसे जोंक बहुत ही कोमलता से मनुष्य के शरीर का रक्त पीती है ठीक वैसे ही राजा मृदु उपायों से ही राष्ट्र का दोहन करे । जैसे तीखे दांतों वाला चूहा सोए हुए मनुष्य के पैर के मास को ऐसी मृदुता से काटता है कि उसे पीडा का भान ही नहीं होता। उसी प्रकार राजा कोमल उपायो से ही कर संग्रह करे, जिससे प्रजा को पीडा न हो ।वही, 896) यथा शल्यकवानाखुः पादं धूनयते सदा। अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्र समापिबेत्। । ” वहीं पर ही राजा को उपदेश देते हुए कहा है- ‘ मालाकारोपमो राजन् भव मागरिककोयम : ।वही, 72.20) तथा वही, उद्योगपर्व 3418 अर्थात् हे राजा! कर-संग्रह करते हुए आपकी चेष्टा मालाकार (माली) के सदृश होनी चाहिए, आगारिक (कोयला बनाने वाले) के सदृश नहीं । जिस प्रकार एक माली वृक्षों की सेवा करता हुआ ही उसके पुष्पादि का उपयोग करता है उसी प्रकार प्रजा की सेवा व रक्षा करते हुए ही कर-संग्रह युिक्त्युक्त है । दूसरी ओर, एक कोयला बनाने वाला पहले वृ क्ष को काटता है फिर उसे सुखाकर व जलाकर कोयला बनाता है, ऐसा आचरण सर्वथा निषिद्ध है । व्यवहारभाष्य के अनुसार कर का निर्धारीकरण मनुस्मृति की ही भांति पैदावार की राशि, फसल की कीमत, बाजार- भाव और खेती की जमीन आदि पर निर्भर करता है। सामान्य रुप से पैदावार के दसवें हिस्से को कानूनी टैक्स स्वीकार किया गया है । ‘ व्यवहारभाष्य 11 प 1 ?प्र-128 अ जैनसूत्रो में अठारह प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है-गोकर, महिषकर, उष्ट्रकर, पशुकर, छगलीकर, तृणकर, पलालकर, बुसकर, काष्ठकर,. अंगारकर, सीताकर ( हल पर लिया जाने वाला कर), जंघाकरत्र्जंगाकर (चारागाह पर लिया जाने वाला कर), बलीवर्दकर घटकर, चर्मकर, और अपनी इच्छा से दिया जाने वाला कर । ‘ आवश्यकनिर्युक्ति,1०78; कौटिल्य अर्थशास्त्र में बाइस प्रकार के राजकर बताए हैं 26242 जैन- आगम-साहित्य में तात्कालिक पीड़ादायी कर-संग्रह-पद्धति के भी दर्शन होते हैं । बृहत्कल्पभाष्य में एक कथा आती है कि राजगृह में किसी वणिक् ने पक्की ईटों का घर बनवाया, लेकिन गृहनिर्माता पूरा होते ही वणिक् की मृत्यु हो गयी । वणिक् के पुत्र बडी मुश्किल से अपनी आजीविका चला पाते थे । लेकिन नियमानुसार उन्हें राजा को एक रुपया कर देना आवश्यक था । ऐसी हालत में कर देने के भय से वे अपने घर के पास एक झोपडी बनाकर रहने लो; अपना घर उन्होंने जैनश्रमणों को रहने के लिए दे दिया ।बृहत्कल्पभाष्यं 3477० पडनिर्युक्तिटीका, 87; पृ.32-अ में प्रत्येक घर से प्रतिवर्ष दो द्रम्म लिए जाने का उल्लेख है। ‘वहीं पर शुल्क ग्रहण करने वालों की निर्दयता का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘ शूर्पारिक का राजा व्यापारियों से कर वसूल करने मे जैब असमर्थ हो गया तो अपने शुल्कपालों को भेजकर उसने उनके घर जला देने का आदेश दिया ।वृहत्कल्पभाष्यं 125०6 ” इस प्रकार ऐसी स्थितियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय की कर-पद्धति भी आज के सदृश बोझिल हो चुकी थी । आज हमारे देश की कर-व्यवस्था बोझिल होने के साथ-साथ अव्यवस्थित भी हो गयी है । ‘ द इकोनोमिक टाइम्स ‘ के अनुसार केवल हमारे देश के 2 : लोग ही टैक्स देते हैं । ये -7 : लोग भी धनाढ्य नहीं है अपितु मध्यमवर्गीय ही हैं ।The economic Times, August 27, 2002 ; only 2% of the population pays these taxes and it is not even the higher 2 % ” ये मध्यमवर्गीय भी केवल वे लोग हैं जो वेतनभोगी हैं और जिनकी आय का लेखा-जोखा सरकार के पास है । यहां यह भी ध्यातव्य है कि केवल दक्षिण अफ्रीका को छोड्कर दुनिया के लगभग सभी देशों की तुलना मे हमारा भारत देश सबसे अधिक टैक्स चुकाता है । ‘ इकोनोमिक टाइम्स ‘ ने एक सर्वे क्षण कराया और उसमें दुनिया के अलग- अलग देशों के वे सभी लोग जिनकी वार्षिक आय डेढ से दो लाख भारतीय रूपये के तुल्य है, उनके द्वारा देय टैक्स की दर जानने का यत्न किया गया । आय को समतुल्य स्तर पर पहुंचाने के लिए सर्वेक्षणकर्त्ताओं ने प्रत्येक देश की मुद्रा को उसकी वस्तु-क्रय- क्षमता और अन्तर्राष्ट्रिय विनिमय दर के आधार पर निर्धारित किया । जिनमें 9 : से 15 : कर चुकाने (डेढ़ से दो लाख की आय पर सरचार्ज मिलाकर) वाले देशों में सिंगापुर, थाईलैण्ड, ताइवान अर्जेन्टीना आदि देशों के साथ अमेरिका भी शामिल है । पाकिस्तान व बांग्लादेश क्रमश : 2० : व 18 : कर चुकाते हैं । इंग्लैण्ड में यह दर 22 : है तथा चीन में 25 : है । लेकिन इन सब देशों से बढकर भारत अपने मध्यमवर्गीय सरकारी वेतनभोगी व्यक्ति से 30ण्6 : की दर से कर वसूल करता है । ‘दक्षिण अफ्रीका -३२ %. भारत – 3०% ऑस्टेरलिया – 3०%. फिलिपीन्स – ३०% ब्राजील – 28% चीन – 25% इंग्लैण्ड – 22प० जापान, पकिस्तान – 2०% न्यूजीलैण्ड १९.५ % बांग्लादेश १८ % हांगकांग १७ % इंडोनेशिया १५ % अमेरिका १५ % अर्जेन्टीना ताइवान १३ % थाइलैण्ड ९ % (ऐसे व्यक्ति जिनकी आय डेढ़ से दो लाख तक है वे अपने अपने देश के अनुसार उपयुक्त टैक्स भुगतान करते हैं। महदाश्चर्य तो तब होता है जब ‘ द इकोनोमिक टाइम्स ‘ के इस सर्वे क्षण की ओर दृष्टि जाती है जिसमे यह बताने का यत्न किया है कि कौन सा देश कितना प्रतिशत कर-संग्रहीत- धन कहाँ व्यय करता है । हमारे देश की सरकार हमसे जो टैक्स वसूल करती है उस धन का 91 : धन अपने व अपनी नौकरशाही कै भाग-विलास में लुटा देती हैं । केवल 9 : धन स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण व सडकादि निर्माण में व्यय किया जाता है । ब्रिटेन में स्वास्थ्यादि पर प्रजा के कर का 58 :, अमेरिका में 55 : तथा मलेशिया में 43 : धन व्यय किया जाता है । The Economic Times August 27, 2002; Nearly 90 % is spent on consumption fettening a blouted, inefficient bureaucracy being one of the main expenses. With India spending less and less on investment, the quality of state-founded health care, education, social services and Physical infrastructure like roads and irrigation networks is dismal, Britain puts about 58% of government spending on social services, America’s share is about 55% while Malaysia’s is about 43% India’s share is nearly 9%.” वास्तव में यह सर्वे क्षण चौंका देना वाला है कि हम भारतवासी दुनिया के सभी देशों की अपेक्षा ( केवल दक्षिण अफ्रीका को छोड्कर) अधिक कर चुकाते हैं लेकिन हमारे धन का अत्यल्प ( जो सभी देशों से कम है) ही प्रजा के रक्षण, रंजन, व संवर्धन के काम आता है । इस प्रकार उक्तानुशीलन से यही निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इस चरमराती हुई कर-व्यवस्था के प्रयोजन की ओर ध्यान धरकर इसमें अपेक्षित परिवर्तन किए जाएं। सरकारी वेतनभोगी लोगों से भिन्न वे बड़े किसान, उद्योगपति व्यापारी, अभिनेता, सरकारी नेता इत्यादि जो बड़ी ही आसानी से टैक्स देने से बचे रहते हैं वे सब भी ईमानदारी से कर का भुगतान अवश्य करें । अन्यथा ‘ नवभारत टाइम्स ‘ के संपादक की यह टिप्पणी ‘ हर खच्चर की पीठ पर एक हाथी लदा है ।’ नवभारत टाइम्स, अगस्त 28, 2००2; (यहाँ खच्चर वे मध्यमवर्गीय सरकारी वेतनभोगी कर्मचारी हैं, जो टैक्स देते हैं तथा हाथी उन सब बड़े-बड़े उद्योगपति व व्यापारियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जो आसानी से टैक्स देने से बचे रहते हैं।’ तो मूर्तिमान है ही । जब देश का प्रत्येक व्यक्ति जो कर देने की श्रेणी में आता है, कर- भुगतान करेगा तो स्वत : सभी को अपनी आय कुछ ही प्रतिशत कर देना होगा । जिससे समाज में वैषम्य की स्थिति का किचित् हास अवश्य होगा । सरकार भी मनुस्मृति व महाभारतादि के वचनों को साररूप में स्मृतिपथ पर अंकित कर ले कि जो राजा बिना प्रजा की रक्षा किए कर-ग्रहण करेगा वह उसी भांति अपराधी है जैसे कोई क्षीरार्थी गाय के थन को काटकर दुग्ध प्राप्त करना चाहे महाभारत शान्तिपर्व 72.16; ऊधश्छिच्छाद्धि यो धेन्वा: क्षीरार्थी न लभेत् पय: । एवं राष्ट्रमयोगेन पीडित न विवर्धते। ।-? अत : कर-संग्रह में नृशंसता का परित्याग ही श्रेयस्कर हैवही, 7०3; अनृशंश्चचरेदर्थमू। 9 महा. शान्तिपर्व 894; वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकृन्तयेत्। 10 वही, 895) जलौकावत् पिबेत् राष्ट्र मृदुनैव नराधिप:। व्याघ्रीव च हरेत् पुत्रमदृष्ट्रवा मा पतेदिति। । 1४ वृहत्कल्पभाष्य 3477०