प्राणावाय पूर्व (जैनार्वेंद) और शाश्वत जीवन विज्ञान
-आचार्य राजकुमार जैन, दर्शनाचारायुर्वोदाचार्य
आयुर्वेद एक शाश्वत जीवन विज्ञान है। आयुर्वेद मानव जीवन से पृथक कोई भिन्न वस्तु या विषय नहीं है। सामान्यतः मनुष्य के जीवन की आद्यन्त प्रतिक्षण चलने वाली शृंखला ही आयु है, वह आयु ही जीवन है, उस आयु (जीवन) का वेद (ज्ञानी) ही आयुर्वेद है। आयुर्वेद शास्त्र केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु मानसिक एवं बौfद्धक स्वास्थ्य के लिए भी हितावह है। जैनागम द्वादशांग के अन्तर्गत बारहवें दृष्टिवादांग के चतुर्दश पूर्व में प्राणावाय पूर्व का प्रतिपादन किया गया है। जो वर्तमान में आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। जैन सिद्धांत के अनुसार विश्व की समस्त विद्याओं और कलाओं की उत्पत्ति आद्य तीर्थंकर भ. ऋषभदेव से मानी गई है। भ. ऋषभदेव के पहले सर्वत्र भोगभूमि थी, जिसमें कल्पवृक्षों का बाहुल्य था। उस समय न तो आधि-व्याधि की चिंता थी और न ही आजीविका की। शनैः शनैः कल्पवृक्षों का ह्रास हो गया और भोग भूमि का स्थान कर्मभूमि ने ले लिया। श्रम की प्रतिष्ठा बढ़ी और विद्या के प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने सर्वप्रथम अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को क्रमशः लिपि तथा अंक विद्या सिखाया। पुत्रियों की भाँति पुत्रों को भी विभिन्न विद्याओं जैसे अर्थशास्त्र, गन्धर्व शास्त्र, कामशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्वविद्या, गजविद्या, रत्न-परीक्षा ज्योतिष, शकुनविद्या, मंत्रज्ञान, द्यूतविद्या, स्थापत्य कला आदि प्रमुख हैं। आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं प्रसार के सम्बन्ध में श्री उग्रादित्याचार्य ने ग्रन्थ ‘कल्याणकारक’ में लिखा- कि भरत चक्रवर्ती आदि नरेशों ने समवशरण पहुंचकर भ. ऋषभदेव से पूछा- हे प्रभो! बहुत से मनुष्यों को त्रिदोष (वात-पित्त-कफ) के प्रकोप से महाभय उत्पन्न होने लगा है।१ इस कर्मभूमि में शीत, अतिताप और वर्षा से पीड़ित कालक्रम से मिथ्या आहार-विहार सेवन में तत्पर हम लोगों को स्वास्थ्य की रक्षा का विधान और उपाय क्या है? बतलाने की कृपा करें। २ भगवान् की दिव्य ध्वनि का प्रस्फोटी भाव तथा तदन्तर्गत वस्तु चतुष्ट्य का निरूपण करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य ने लिखा- ‘‘वह दिव्य ध्वनि सर्वप्रथम समस्त आयुर्वेद को पुरुष (रोगी) के लक्षण, औषध, अन्न और काल, इस प्रकार चार भाग में विभक्त करती हुई इस वस्तुचतुष्ट्य के लक्षण भेद-प्रभेद सहित सम्पूर्ण विषयों का संक्षिप्त रूप से कथन करने लगी जिसने भगवन की सर्वज्ञता को सूचित किया। ३
धार्मिक ग्रन्थों के रूप
वर्तमान में धार्मिक ग्रन्थों के रूप में आचार शास्त्र, नीतिशास्त्र, गणिताशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद ग्रन्थ आदि के रूप में तथा चारों अनुयोगों के अंतर्गत समाविष्ट समस्त ग्रन्थों के रूप में जो भी वाड्.मय उपलब्ध है वह भगवान महावीर की देशना (दिव्यध्वनि) से सम्बद्ध है। प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति ने भगवान् की देशना को धारणकर उसे द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व के रूप में प्रतिपादित किया था। वहीं श्रुत कहलाया और द्वादशांग श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली कहलाते हैं। गणधरों से श्रुतकेवलियों ने, उने वीतरागी मुनियों व अन्य आचार्यों ने आयुर्वेद का ज्ञान उपदेश रूप में ग्रहण किया और लोकहित की भावना से उसे लिपिबद्ध कर ग्रन्थ रूप प्रदान किया। उग्रादिचार्य ने अपने ग्रन्थ- कल्याणकारक में अनेक आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का उल्लेख किया है। कल्याणकारक में स्पष्टरूप से यह तथ्य उद्घाटित किया कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रन्थ का अनुसरण करते हुए मैंने संक्षेप में इस ग्रन्थ में रचना की है।४ इससे यह प्रमाणित है कि समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित अष्टांग वैद्यक विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ अवश्य ही विद्यमान एवं उपलब्ध रहा होगा। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ ‘ज्ञानार्णव में देवनन्दी (पूज्यपाद) को निम्न प्रकार से नमस्कार किया है-अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक् चित्त सम्भवम्। कलंकमग्निनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते।।इसमें देवनन्दी (पूज्यपाद) के तीन ग्रन्थों का उल्लेख सन्निहित है- काय (शरीर) के दोषों को दूर करने वाला वैद्यक शास्त्र, वाग्दोषों को दूर करने वाला व्याकरण ग्रन्थ (जैनेन्द्र व्याकरण) और चित्त (मन) के दोषों को दूर करने वाला ग्रन्थ समाधि तंत्र। इनमें प्रथम वैद्यक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जबकि शेष दोनों विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। गोम्मटदेव मुनि ने पूज्यापाद द्बारा वैद्यामृत नामक ग्रन्थ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है। ५ पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित शालाक्य तंत्र का उल्लेख भी कल्याणकारक ग्रन्थ में है। ६ इसी प्रकार पाश्र्व पण्डित ने भी पूज्यपाद स्वामी द्वारा आयुर्वेद के ग्रन्थ की रचना किए जाने का संकेत मिलता है। ७ आगे उग्रादित्याचार्य लिखते हैं- ‘‘श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा शालाक्य तंत्र, पात्रकेसरी मुनि ने शल्यतंत्र, आचार्य सिद्धसेन के द्वारा अगद तंत्र एवं भूत विद्या, दशरथ मुनि के द्वारा काय चिकित्सा, मेघनाचार्य के द्वारा बालरोगाधारित कौमार भृत्य और सिंहनाद, मुनीन्द्र द्वारा बाजीकरण एवं दिव्यामृत (रसायन) तंत्र का निर्माण किया गया। ८ परन्तु इनमें से कोई भी ग्रन्थ वर्तमान में विद्यमान नहीं है। किन्तु इन ग्रन्थों का आधार लेकर कल्याणकारक ग्रन्थ है जो लगभग ईसा की ९वीं शताब्दी में लिखा गया।
आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन चालुक्य राज्य दिगम्बराचार्य श्री उग्रादित्य ने आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन चालुक्य राज्य में उक्त कल्याणकारक ग्रन्थ की रचना की थी। वर्तमान में यही एकमात्र ऐसा उपलब्ध ग्रन्थ है जिसमे प्राणवाय पूर्व का अनुसरण करते हुए सम्पूर्ण अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तार से किया है। १४वीं शताब्दी के मुनि यशा कीर्ति द्वारा अपभ्रंश -भाषा में लिखित ‘‘जगत् सुन्दरी प्रयोगशाला’’ नामक ग्रन्थ का उल्लेख स्व. श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेकान्त वर्ष २ किरण २ (अश्विन वीर निर्वाण २४६५) में प्रकाश डाला है। इसी प्रार सन् १३६० के आसपास जैन कवि मंगराज के द्वारा लिखित ‘‘खगेन्द्रमणि दर्पण’ नामक ग्रन्थ की जानकारी मिलती है जो कन्नड़ लिपि में ३०० पृष्ठों का है, स्थावर विष की चिकित्सा पर आधरित है। मध्ययुग में प्राणावाय पूर्व की परम्परा समाप्त हो गई थी। इसके कुछ कारण थे। एक तो जैन आयुर्वेद-लौकिक विद्या के रूप में मान्य किया गया जो महाव्रती दि. साधुओं के लिए सीखना अभीष्ट नहीं था। क्योंकि उनके लिए लौकिक विद्यायें निष्प्रयोजन मानी जाती थीं। संयमशील तपःपूत साधुओं का जीवन अनुशासित होने से उनका शरीर प्रायः निरोगी होता है और उन्हें औषधोपचार की आवश्यकता प्रायः नहीं होती तथापि दैववशात् कभी अस्वस्थ होते हैं तो उपवासादि क्रियाओं से वे अनेक रोगों का शमन कर स्वयं लेते हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत विशेषतः कर्नाटका में प्राणावय पूर्व का प्रचलन अधिक था। वहाँ आठवीं शताब्दी के प्राणावाय पूर्व के ग्रन्थ अभी यत्र-तत्र मिलते हैं, जबकि उत्तर भारत में प्राणावाय पूर्व प्रतिपादक एक भी ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। ईसा की तेरहवीं शताब्दी से जैन श्राविकों और यति मुनियों के द्वारा रचित आयुर्वेद ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त होती है। उनमें कुछ मौखिक हैं, कुछ संकलन और कुछ टीका ग्रन्थ भी हैं। टीकायें संस्कृत अथवा तत्कालीन प्रचलित हिन्दी(देशी भाषा) में है।
दि० जैन साधुओं में भट्टारकों और श्वेताम्बर साधुओं में यतियों का अविर्भाव होने के पश्चात् लोकापयोगी साहित्य का सृजन हुआ। वे उपाश्रय (उपासरे) में निवास करते हुए लोक समाज में चिकित्सा तंत्र-मंत्र तथा ज्योतिष विद्या आदि के आधार पर प्रतिष्ठा प्राप्त की। इसे पीछे नाथों व शाक्तों आदि का बढ़ता प्रभाव था। जो लौकिक विद्याओं में जैसे चिकित्सा, रसायन, जादू-टोना, झाड़ा फूँकी की, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र आदि के द्वारा समाज में अपना प्रभुत्व जमाने लगे थे। ऐसी स्थिति में समाज के सम्मुख अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को बनाये रखने के लिए- जैन यतियों को इन लौकिक विद्याओं का आशय लेना पड़ा।
भट्टारकों का प्रभाव दक्षिण भारतमें विशेष रूप से था। उन्होंने आयुर्वेद की विशिष्ट चिकित्सा रसायन में दक्षता प्राप्त कर समाज में अपना प्रभुत्व बढ़ाया। पारद, गन्धक और खनिज द्रव्यों के योग से निर्मित रसौषधियों के द्वारा, रोगों का शमन करना तथा रोग व जरा से जर्जरित शरीर में शक्ति का संचार करना रसायन चिकित्सा का उद्देश्य था। आयुर्वेद मानव-जीवन से पृथक कोई भिन्न वस्तु नहीं है। वर्तमान में उपलब्ध वैदिक आयुर्वेद साहित्य के अनुसार भारतीय संस्कृति के आद्यस्रोत वेद और उपनिषद् के बीज ही आयुर्वेद को प्राप्त हुए हैं। अतः आयुर्वेद केवल भौतिक तत्वों तक ही सीमित नहीं है, अपितु आध्यत्मिक तत्त्वों के विश्लेषण में भी मौलिक विशेषता रही। चाहे अभ्युदय प्राप्त करना हो या निःश्रेयस; दोनों की प्राप्ति के लिए शरीर की स्वस्थता नितान्त अपेक्षित है। शरीर को आरोग्य प्रदान करने और विकार ग्रस्त शरीर की विकाराभिनिवृत्ति करने में एक मात्र आयुर्वेद ही समर्थ है। चतुर्विध पुरुषार्थ का मूल आरोग्य ही है- ‘धर्मार्थकामोक्षणामारोग्यं मूलमुत्तमम्’।शरीर के साथ प्राण तत्त्व का विवेचन, आत्मा और मन के विषय में स्वतंत्र दृष्टिकोण तथा शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास क्रम का यथोचित वर्णन आयुर्वेद की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता के सबल प्रमाण हैं। विशिष्ट विधि पूर्वक निर्मित रस-रसायन-पिष्टी-भस्म-चूर्ण-लेप-धृतपाक तैलपाक-अवलेह-मोदक आदि कल्पनाएँ और समस्त बनौषधियों के प्रयोग ने इस विज्ञान को निश्चित ही मौलिक स्वरूप प्रदान किया है। अपनी सरलता और रोगमुक्त करने की क्षमता के कारण आयुर्वेद, ग्रामीण जनजीवन में आसानी से प्रवेश पा लिया है और विभिन्न काढ़ों (क्वाथ) लेपों आदि के द्वारा ग्रामीण जन उपचार करते देखे जाते हैं। अतः आयुर्वेद मानव जीवन के अत्यधिक सन्निकट है। आयुर्वेद में रोग के मूल कारण को मिथ्या आहार-विहार जनित बतलाकर जिस प्रकार संयम द्वारा आहारगत पथ्य के नियम बनाए गए हैं वे अत्यन्त उत्कृष्ट और व्यावहारिक हैं। एलौपैथी, हौमियोपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा आदि में विश्वास रखने वाले भी आज आहार के महत्व को समझने लगे हैं और रोग निवारण के लिए रोगी के चिकित्सा क्रम के संयम द्वारा विनिर्मित आहारगत पथ्यक्रम को महत्व देने लगे हैं।
जैन वाड्.मय और आयुर्वेदशास्त्र
बारहवाँ- ‘दृष्टिवाद’ नाम का अंग है। उसके चौदह भेद हैं। उन चौदह भेदों में ‘प्राणावाय’ या ‘प्राणवाद’ नामक भेद है । इसी प्राणावाय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन अत्यन्त विस्तार से किया गया है। जैनाचार्य ने प्राणावाय की विवेचना इस प्रकार की है- ‘‘कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्म जांगुलिप्रक्रमः प्राणायानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितत्स्तत्प्राणावायम्।।अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तदगत दोष और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद आदि पंच महाभूतों के कर्म, विषैले जीव-जन्तुओं के विष का प्रभाव और उसकी चिकित्सा तथा प्राण-अपान वायु का विभाग जिसमें विस्तार से वर्णित हो वह ‘प्राणावाय’ होता है। ग्रन्थ के अन्त में लिखते हैं-
अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्थमागधी भाषा में जो प्राणावाय नामक महागम (महाशास्त्र) है उससे यथावत् रूप से संग्रह कर उग्रादित्य
गुरू ने उत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में की।
जैनमतानुसार आयुर्वेद
जैनमतानुसार आयुर्वेद रूप संपूर्ण प्राणावाय के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हैं। इसके विपरीत वैदिक मतानुसार आयुर्वेद शास्त्र के आद्य प्रवर्तक या आद्युपदेष्टा ब्रह्मा हैं जिन्होंने स्रष्टि की रचना से पूर्व ही उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र की अभिव्यक्ति की जिस प्रकार बालक के जन्म के पूर्व ही माता के स्तनों में स्तन्य (क्षीर) का आविर्भाव हो जाता है, किन्तु जैनामतानुसार यह सृष्टि अनादि और अनन्त है। भोगभूमि के पश्चात् कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ। उस समय शनैः शनैः कालक्रम से ऐसे मनुष्य भी उत्पन्न होने लगे जो विष शस्त्रादि द्वारा घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले होने लगे। उन्हें वात-पित्त-कफ के उद्रेक से महाभय उत्पन्न होने लगा। ऐसी स्थिति में भरत चक्रवर्ती आदि भव्य जन भगवान् ऋषभदेव के समवशरण में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु से निम्न प्रकार निवेदन किया-
तत्स्वास्थ्यरक्षण विधानर्मिहातुरणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ।।
-कल्याणकारक, अ. १/६-७
अर्थात् हे देव! इस कर्मभूमि में अत्यधिक ठंड, गर्मी और वर्षा से पीड़ित तथा कालक्रम से मिथ्या आहार विहार के सेवन से तत्पर, व्याकुल बुद्धि वाले शरणाग्रत हम लोगों के लिए आप ही शरण है। हे तीन लोक के स्वामिन् ! अनेक प्रकार की व्याधियों के भय से अत्यन्त दुःखी तथा आहार औषधि के क्रम को नहीं जानने वाले हम व्याधितो (पीड़ितो) के लिए स्वास्थ्य रक्षा के उपाय और रोगों का नाश करने वाली क्रिया (चिकित्सा) बतलाने की कृपा करेें। तब भगवान् की वाग्देवी दिव्यध्वनि प्रसारित हुई। जिसे गणधर प्रमुख ने जाना और महावीर तीर्थंकर पर्यंन्त सभी तीर्थंकरों ने आयुर्वेद शास्त्र का अत्यन्त विस्तृत, दोषरहित ज्ञान दिया। आयर्वेद शास्त्र का मनोयोग पूर्वक् अध्ययन करने वाले उसमें निष्णात व्यक्ति को ‘वैद्य’ कहा जाता है ऐसा कथन मुनिजनों ने किया है। वैद्यों का शास्त्र होने से इसे वैद्यक शास्त्र कहते हैं। श्री उग्रादित्याचार्य ने वैद्य एवं आयुर्वेद शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
अर्थात् अच्छी तरह से उत्पन्न केवलज्ञान रूपी चक्षु को विद्या कहते हैं। उस विद्या से उत्पन्न उदार शास्त्र को व्याकरण शास्त्र के विशेषज्ञ वैद्यशास्त्र कहते हैं। उस उदार शास्त्र को जो लोग अच्छी तरह मनन पूर्वक पढ़ते हैं वे वैद्य कहलाते हैं। यह आयुर्वेद भी कहलाता है। वेद शब्द का अर्थ वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बतलाने वाला है यानि तत्त्व के अर्थ को प्रतिपादित करने वाले वचन। इस वेद शब्द के पहले ‘आयु; शब्द जोड़ दिया जाय तो ‘आयुर्वेद’ शब्द निष्पन्न होता है। अतः उस वैद्यशास्त्र के ज्ञाता उस शास्त्र का अपर (दूसरा) नाम आयुर्वेद शास्त्र कहते हैं। जिस शास्त्र में आयु का स्वरूप प्रतिपादित किया गया हो, जिस शास्त्र का अध्ययन करने से आयु सम्बन्धी विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। अथवा जिस शास्त्र के विषय में विचार करने से हितकर आयु, अहितकर आयु, सुखकर आयु और दुखकर आयु के विषय में जानकारी प्राप्त होती है अथवा जिस शास्त्र में बतलाए हुए नियमों का पालन करने से दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है उसका नाम आयुर्वेद है। इसी प्रकार स्वस्थ और अस्वस्थ मनुष्य की प्रकृति, शुभ और अशुभ बतलाने वाले दूत एवं अरिष्ट लक्षण इत्यादि के उपदेशों से जो शास्त्र आयु का विषय अर्थात् यह स्वल्पायु है अथवा मध्यमायु है या दीर्घायु है इन सब विषयों का ज्ञान करा देता है वह आयुर्वेद है। यहाँ यह स्मरणीय है कि आयु शब्द का अर्थ वय नहीं करना चाहिये। आयु और वय में पर्याप्त भिन्नता है। आयु शब्द यावज्जीवन काल का बोधक है जबकि वय शब्द जीवन की एक निश्चित कालावधि का द्योतक है। आयु के लिए कौन सी वस्तु लाभदायक है अथवा किस वस्तु या विषय के सेवन से आयु की हानि हो सकती है? किस प्रकार की आयु हितकर है और किस प्रकार की आयु अहित कर है? यह सम्पूर्ण विषय जिस शास्त्र में वर्णित होता है तथा आयु को बाधित करने वाले रोगों का निदान और उनका प्रतिकार करने के उपायों (चिकित्सा) का वर्णन जिस शास्त्र में किया गया है उसे विद्वानों ने आयुर्वेद संज्ञा से अभिहित किया है। इस शास्त्र में आहार-विहार सम्बन्धी नियमों और अन्य सदाचारों का पालन करने से दीर्घायु की प्राप्ति हो सकती है। यह वैद्य शास्त्र लोकोपकार के लिए प्रतिपादित किया गया है। इसका प्रयोजन द्विविध है- १.स्वस्थ पुरुषों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और २.रोगी मनुष्यों के रोग का प्रशमन करना। भगवान् जिनेन्द्र देव के अनुसार दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है- पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यवहार स्वास्थ्य। इन दोनों में पारमार्थिक स्वास्थ्य मुख्य है।
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने से उत्पन्न, अत्यन्त अदभुत आत्यन्तिक एवं अद्वितीय विद्वानों अतीन्द्रिय मोक्षसुख ही पारमार्थिक सुख कहते है। व्यवहार स्वास्थ्य का लक्षण निम्न प्रकार बतलाया गया है।
अर्थात् मनुष्य के शरीर में सम अग्नि (अविकृत जठराग्नि) होना, धातुओं का सम होना, वात-पित्त-कफ तीनों का विभ्रम (विकृत) नहीं होना, मलों,(स्वेद मूत्र-पुरीष) की विसर्जन किया यथोचित रूप से होना, आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता सदैव रहना यह व्यवहारिक स्वास्थ्य का लक्षण है।
चिकित्सा योग
यहां कतिपय चिकित्सा योगों को उदधृत करना आवश्यक समझ्ता हूँ ताकि सभी लोग उनका व्यवहार कर उनमें अपेक्षित लाभ उठा सवेंâ। कुछ उपयोगी योग निम्न है-
१. गिलोय, सोंठ, नागरमोथा और जवासा इन सबका क्वाथ बना कर देने से ज्वर नष्ट होता है।
२.गिलोय, सोंठ और पीपलामूल इन सबका काढा बना कर पीने से वात ज्वर मिटता है।
३. पित्तपापडा, नागरमोथा, चिरायता इनका काढा बनाकर १-१ तोला प्रातः सायं पीने से पित्त ज्वर नष्ट होता है।
४. मीठा अनार का रस पिलाने से या फालसा के रस में सेधा नमक मिलाकर देने से पित्त ज्वर शान्त होता है।
५.नीम की छाल, सोंठ, गिलोय, कटा पोहकर मूल, कुटकी, कचूर, अडूवा, कायफल, पीपली और शतावरी इनको ३-३ माशा लेकर इनका काढा बनाकर देने से कफज्वर शान्त होता है।
६.कायफल, पीपल, काकडासिगी, पोहकर मूल समभाग लेकर इनका बारीक चूर्ण ३ माशा की मात्रा में मिश्री की चासनी के साथ देने से कफ ज्वर नष्ट होता है।
७.कायफल, पीपलामूल, इन्द्रजौ, भारंगी, सौंठ, चिरायता, काली मिर्च, पीपल, काकडासिंगी, पोहकरमूल, रास्ना, दोनों कटेरी, अजमोद, छड़, वच, पाठ, अडूसा, चव्य इन सबको समभाग लेकर
८ माशा का क्वाथ बनाकर दोनों समय देने से सन्निपात ज्वर, सभी प्रकार के वातरोग, पेट का शूल, आफरा, वाय व कफ विकारों का नाश होता है।
८.धनिया और पित्तपापड़ा का क्वाथ पीने से जीर्ण ज्वर (पुराना ज्वर) मिटता है।
९.जो जीर्ण या मलेरिया ज्वर कुनैन आदि औषधियों के सेवन से नहीं मिटता है वह ज्वर दार-हल्दी का चूर्ण या क्वाथ देने से मिट जाता है।
१०. पित्त पापड़ा और गिलोय के काढ़े में काली मिर्च का चूर्ण डाल कर पिलाने से जीर्ण ज्वर और खांसी में लाभ होता है।
११. विषम ज्वर (मलेरिया) की स्थिति में सुदर्शन चूर्ण गरम जल से देने से ज्वर शान्त होता है।
१२.बकरी के दूध में सोंठ का बारीक चूर्ण मिलाकर या सोंठ को घिस कर सिर पर लेप करने से सिरदर्द ठीक होता है।
१३. हरड़ की गुठली को पानी में पीस कर लेप करने से आधाशीशी की पीड़ा मिट जाती है।
१४.प्रातः सायं दूध के साथ गुलकन्द का सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
१५. घी और दूध के साथ १ माशा बच का चूर्ण लेने से स्मृति की वृद्धि होती है।
१६. ब्राह्मी से निर्मित धृत या मण्डूकपर्णी का स्वरस या गव्य दुग्ध के साथ यष्टीमधु (मुलेठी) का चूर्ण या गिलोय स्वरस या मूल और पुष्प युक्त शंखपुष्पी के कल्क का प्रयोग करने से मेधा की वृद्धि होती है। अतः ये मेध्य रसायन है। इनमें ब्राह्मी एवं शंख पुष्पी विशेषतः मेध्य है।
१७.अडूसा, मुनक्का और मिश्री का सेवन करने से सूखी खांसी मिट जाती है।
१८.केर की लकड़ी की भस्म १ रत्ती की मात्रा में मिश्री की चासनी के साथ खाने से सूखी खांसी में लाभ होता है।
१९.अदरक का रस, नागरबेल के पान का रस और तुलसी पत्तों का रस सम भाग लेकर उसमें मिश्री मिला कर पीने से कफज खांसी में लाभ होता है।
२०. मिश्री १६ तोला, वंशलोचन ८ तोला, पिप्पली ४ तोला, छोटी इलायची २ तोला और दाल चीनी। तोला इनको कूट छान कर बारीक चूर्ण बना लें। यह सितोपलादि चूर्ण श्वास, कास, हाथ-पैर की जलन, पित्त विकार आदि में अत्यधिक लाभकारी है।
वर्ष -६८ वाल्यूम-४ अक्टूबर-दिसम्बर २०१५ से अनेकान्त
(जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका)