—डॉ.विमला जैन ‘विमल’, फिरोजाबाद (उ.प्र.)
‘‘चिन्तामणिं चिन्तित काम रूपम् पार्श्व प्रभुं नौमिनिरस्त पापम्’’
‘पुण्यफला अरिहन्ता’ के रूप में सर्वोत्कृष्ट पर्याय तीर्थंकर की है, उनमें भी सर्वाधिक लोकप्रिय भक्तों के चिन्तामणि, जन-जन के कल्पतरू, दीनों को कामधेनु, कटु व्रूर निम्न श्रेणी की लोह धातु को मात्र स्पर्श से स्वर्ण बनाने वाली पारस मणी के प्रतीक भगवान पार्श्वनाथ भक्तों के ही नहीं कलाकारों के भी कंठहार रहे हैं।
वीतराग चैत्य प्रतीकों में कलाकार की कल्पना को गौण होना पड़ता है यहाँ यथार्थ की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति में शिवम् को साकार करना होता है अत: कलाकार को कल्पना की कलात्मकता का बहिष्कार करना ही पड़ता है। भगवान पार्श्वनाथ पर सर्वज्ञता से पूर्व ध्यानस्थ अवस्था में उपसर्ग होता है और उस समय धरणेन्द्र पद्मावती अपने उपकारी पाश्र्व प्रभु की सेवा में उपस्थित हो नागफण पर उठा नाग छत्र लगा उपसर्ग निवारण में समर्पित होते हैं।
यद्यपि तीर्थंकर पार्श्वनाथ उस उपसर्ग में मेरु सदृश अचल एकाग्र हैं। ध्यान की चरम उत्कृाष्ट की फलश्रुति वैवल्य की प्राप्ति कर लेते हैं तथापि नागेन्द्र सपत्नीक उपसर्ग निवारण का श्रेय ले लेता है और सदा-सदा के लिए तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर नागफण अवस्थित होने की परम्परा बन जाती है। जैन समाज में भगवान पार्श्वनाथ को उपसर्गविजयी या आधिदैविक प्रतीकात्मक स्वरूप में ‘हर कष्ट का त्राता’ का मान दिया जाता है।
भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरूष हैं जैन ही नहीं जैनेतर आगम साहित्य पुराणों में उनकी चर्चा परिचर्चा सर्वाधिक रही है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीव जन्म-जन्मान्तर से क्षमा, समता, संयम के अनुपमेय महानायक रहे हैं तो कमठ का जीव जन्म-जन्मान्तर में व्रूर कषायों का खलनायक रहा है। मुख्यत: दश जन्म की एक तरफा द्वेषाग्नि ने जहाँ पार्श्वनाथ को कुन्दन से पारसमणी सर्वोपरि मानवोत्तर बनाया है वहीं उनकी क्षमता-समता ने अंत में कमठ की क्रोधाग्नि का शमन किया है। अत: यह घटना कभी विस्मृत न हो अत: कलाकार ने नागफण से उनके वीतराग स्वरूप को अभिन्न कर दिया है।
प्रस्तुत आलेख में इसी आधिदैविक प्रतीकात्मकता एवं कलात्मकता पर विहंगम चर्चा की गयी है। मूर्तिकला और चित्रकला के आदि प्रणेता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं, उन्होंने मानव को ‘जीवन जीने की कला’ सिखाई, कर्म युग में कर्म पुरूषार्थ, धर्म, अर्थ, काम पुरूषार्थ का विधि-विधान गृहस्थावस्था में और मोक्ष पुरूषार्थ अरिहन्तावस्था में प्रवर्तन कर आदि ब्रह्मा के नाम से वैदिक और आगमिक महापुरूष के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प षट्कर्म जीविकार्जन के लिए बताये थे।
शिल्प के अन्तर्गत वास्तु, मूर्ति, चित्रकला आदि विधि-विधान भी उन्होंने सर्वप्रथम अपने पुत्रों को ही दिया था अत: जैनागम में इनकी विस्तृत परिचर्चा है यहाँ मात्र नागरूपाकृतियों का मुख्यत: नागमंडित पाश्र्व प्रभु के स्वरूप का आधिदैविक प्रतीकात्मक महत्त्व एवं कलात्मक स्वरूप ही चर्चा का विषय है। जैन कला में विभिन्न रूपाकृतियों की भाँति नागाकृतियों का भी अपना अलग अस्तित्व है। जहाँ बाह्य स्वरूप में अनेक भंगिमाओं में उसे सौन्दर्यात्मक रूपाकार प्रदान किया गया है वहीं उनका आधिदैविक प्रतीकात्मक महत्त्व भी अपने में रहस्यात्मक दिव्यता से ओत-प्रोत है।
जैन कला में ही नहीं अन्य धर्मों तथा संस्कृति और साहित्य में भी नाग या नागेन्द्र की विशेष परिचर्चा रही है। जैन कला में सर्पफणा का रूपांकन बड़ा ही अभिरूचिपूर्ण तथा सम्मोहक रहा है साथ ही उसका प्रतीकात्मक महत्त्व भी बड़ा रोचक है। कला प्राणवन्त तभी बनती है जब उसके रूपात्मक पार्थिव शरीर में भावात्मक दर्शन या आधिदैविक प्रतीकात्मक देवांश प्रवेश करता है। कलात्मक रूप में भावात्मक देव की प्रतिष्ठा ही कला की सच्ची प्राण प्रतिष्ठा है उसकी भावात्मकता का आकर्षण ही जीव अथवा मानव को खींचता है। रूपांकन में कलाकार की कल्पना और प्रकृति का समन्वय होता है वहीं भावात्मकता में सत्य के साथ शिवम् या कल्याणकारी मंगल भावना अन्तर्निहित होती है।
सत्य और सौन्दर्य कला का कलेवर है तो सत्य और शिव उसकी आत्मा अत: सत्य की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति का उद्देश्य शिवम् की उपलब्धि है। इस लक्ष्य को वास्तु, मूर्ति तथा चित्रकला के माध्यम से दृष्टव्य बनाया जाता है तो काव्य, साहित्य और संगीत के द्वारा श्रव्य कला, उद्देश्य कला के द्वारा दर्शन का साक्षात्कार ही मनुष्य है।
कुमार पार्श्वनाथ द्वारा मरणासन्न युगल नाग को णमोकार मंत्र सुना सुगति का योग देना, पद्मावती-धरणेन्द्र का उनके यक्षी-यक्ष होना, तथा कमठासुर द्वारा उपसर्ग किये जाने पर नाग लोकाधिपती धरणेन्द्र पद्मावती का उपसर्ग निवारण करना तथा उसी समय शुक्ल ध्यान की चरम उत्कृष्टि पर पहुँच कैवल्योपलब्धि हो अरिहन्तावस्था को प्राप्त होना आदि ऐसी घटनायें हैं जो भगवान पार्श्वनाथ का नाग से सम्बन्ध स्थापित करने की परम्परा को आश्रय देती है अत: भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के साथ सर्प विभिन्न मुद्राओं में मंडित होने लगा।
नागफण की परम्परा एक शाश्वत सत्य के रूप में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा का आवश्यक अंग बन गयी और रूप शिल्पी ने नागाकृतियों में कल्पना का लावण्य भरकर मौलिकता को चमत्कारिक दिव्यता में प्रतिरूपित करना अपना अहोभाग्य बना लिया। जैन कला में नागाकृतियाँ मुख्यत: चार प्रकार से रूपांकित हुई हैं। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति के साथ नागफण पाँच, सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्र फण के रूप में विभिन्न प्रकार से बनाये गये हैं। दूसरी प्रकार की नागाकृतियाँ धरणेन्द्र पद्मावती के रूप में लावण्य युक्त दिव्यता से ओत-प्रोत हैं।
तृतीय प्रकार की नागाकृतियाँ अलंकरण या शोभन के रूप में आलेखित हैं। सामान्य रूप से नागांकन वर्णनात्मक चित्रों, तक्षण कला या कर्षण शैली में दृष्टव्य होते हैं। जहाँ तक कलात्मकता का प्रश्न है यहाँ कल्पना की ऊँची उड़ान दृष्टव्य है। भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें नागफण से मंडित होना विशेष सम्मान का प्रतीक है अथवा नागेन्द्र धरणेन्द्र पद्मावती के इष्टदेव के रूप में दृष्टव्य होती है, इनमें उत्कृष्ट कलात्मकता दसवीं शताब्दी के बाद से ही अधिक प्रखर हुई है। कितनी ही प्रतिमाओं में नाग अति विशाल रूप में सात वलय (मोड़) लेता हुआ दायीं ओर पूंछ से आरम्भ होकर सात कुण्डलियों में पूरा घेरने के बाद भी अगल-बगल में काफी कुछ द्रष्टव्य हो सौन्दर्य वृद्धि कर रहा है।
सिर पर सप्त फण कलात्मक रूप में झुके हुए हैं, ध्यानस्थ खड्गासन में मूर्ति अति भव्य वीतरागी सौम्य भावात्मक तथा आकर्षक है। नागाकृति को कलात्मकता, मौलिकता और स्वाभाविकता में कल्पना का अद्भुत स्वरूप प्रदान किया गया है। यह मूर्ति हासन चिक्कवसदि में अवस्थित है इसी प्रकार की एक मूर्ति मंगलौर श्रीमन्ती बाई स्मारक संग्रहालय में संग्रहीत तीर्थंकर पार्श्वनाथ की धातु निर्मित है जो अति कलात्मक एवं आकर्षक है।
खड्गासन प्रतिमा में सर्प की पूंछ पीछे लटकी हुई है। पेनुकुण्डा जिनालय के पार्श्वनाथ कलात्मक नागाकृति के साथ अत्यंत मनोहर हैं, यह चालुक्य कला ११-१२ वीं शताब्दी की उत्कृष्ट छवि प्रस्तुत करती है नागफण मंडित श्री १००८ सहस्रफणी पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर दरगा (बीजापुर) की जिनप्रतिमा कलाकार की कल्पना तथा कला कौशल का अद्भुत भव्य चमत्कार कहा जा सकता है। यह प्रतिमा काले पाषाण की लगभग पाँच फुट अवगाहना की है। एक हजार फणों से सुशोभित यह चैत्य एक अतिशयपूर्ण प्रतिमा के नाम से प्रसिद्ध है।
इसकी यह भी एक विशेषता है कि एक सर्पफण में जल या दूध डालने से सभी सहस्र फणों से दूध बहने लगता है। यह विश्व ख्याति प्राप्त मूर्ति अतिभव्य भावपूर्ण तथा आकर्षक है, सहस्र नागफणों की कलात्मकता दर्शक को सम्मोहन में डाल देती है, यह दैवीय दिव्यता से आह्लादित करने वाली अप्रतिम प्रतिमा शान्त रस का अनूठा सौन्दर्य प्रतिपादित कर देती है। सहस्रफणी पार्श्वनाथ के रूप में अनेक प्रतिमायें भारत के कोने-कोने में संजोयी हुयी हैं। केशरियाजी, देवरी तीर्थ क्षेत्र, बड़ागाँव, फिरोजाबाद आदि अनगिनत स्थानों पर मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, आवश्यकता है उनके कलात्मक सौन्दर्य को एक सूत्र में पिरोने की।
सहस्रफण मानवीय अचेतन मन की सहस्र इच्छाओं का प्रतीक है सम्भवत: कला शिल्पी ने इसी भाव को अप्रतिम प्रतीक रूप में सुशोभित करने में गौरव का अनुभव किया है। ये प्रतिमायें स्वयं में अद्वितीय आदिदैविक प्रतीकात्मक कला सौष्ठव का आदर्श स्वरूप हैं। उपरोक्त कलात्मक स्वरूप के अतिरिक्त अन्यान्य प्रकार की अनेक नागाकृतियाँ जैन कला में देखी जा सकती हैं मुख्यत: धरणेन्द्र पद्मावती के स्वरूप में, नर-नारी की मुखाकृतियोें में अधोअंग सर्प का है ये चमत्कारिक लावण्य को आविर्भूत किये हुए है।
इनके अतिरिक्त शोभन स्वरूप में आलेखित नागाकृति अनबूझ पहेली दिखती है। हर फन हल्ली-होस वसदि में उलझाये-सुलझाये कलात्मक नाग भाव भंगिमा में अद्वितीय है। भगवान पार्श्वनाथ के साथ नागाकृतियाँ भी पूज्य बन गयी हैं। सरीसृप की पर्याय में नाग सर्वोपरि है, नागेन्द्र धरणेन्द्र के नाम पर उच्चासन का अधिकारी तथा पाताल लोक का अधिनायक सर्व शक्तिमान कष्ट निवारक आराध्य बन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लाञ्छन ही नहीं फण के रूप में मस्तक पर भी स्थापित हो गया है। श्रावण शुक्ला सप्तमी मुकुटसप्तमी के रूप में भगवान पार्श्वनाथ का मोक्षकल्याणक दिवस है और इससे दो दिन पूर्व ही लौकिक जनों द्वारा नाग पंचमी का त्योहार अपने आधिदैविक प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
सर्प प्रकृति की भयानक शक्ति का प्रतीक है इसे पूर्व जन्म का प्रतीक भी माना जाता है अत: सर्प के केचुली छोड़ने को आत्मा का बन्धन त्याग या पूर्व जन्म की धारणा का पर्याय माना गया है। आज वैज्ञानिक युग में धर्म और दर्शन को व्यावहारिक परिपे्रक्ष्य में विज्ञान की कसौटी पर खरा देखने की लालसा बलवती हो रही है अत: आवश्यकता है जैन धर्म में रची-पची इन कलात्मक नागाकृतियों को एक वृहद शोध गं्रथ के रूप में विश्व पटल पर रखा जाये। भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाणोत्सव पर हम पार्श्वनाथ पर्वत तीर्थराज सम्मेदशिखर पर ‘लाडू चढ़ा’ अपने धर्म पुरूषार्थ की इतिश्री मान लेते हैं परन्तु यह इक्कीसवीं सदी, पुरा की जीर्णता में नवीन अनुसंधान की उपलब्धि चाहती है।
दर्शन और धर्म निराकार होते हैं, सिद्धांत और विचार सूत्र देते हैं परंतु कला उसे साकार स्वरूप प्रदान करती है। जन सामान्य को उसका आधिदैविक प्रतीकात्मक स्वरूप कला, वास्तु, मूर्ति, चित्र और साहित्य के द्वारा ही परिभाषित होता है। कला संस्कृति की अमूल्य निधि के रूप में फैली हुई है, उनका संरक्षण, संवर्धन जैन संस्थाओं को करना है, कलाकृतियों की आभान्वित मुक्ताओं को माला का रूप देने का यह स्वर्ण युग आरंभ हो चुका है।
पुरूषोत्तम श्री पार्श्व जिन, सर्वश्रेष्ठ दिव्येश।
लक्षण नाग, नागेन्द्र सिर, नमन ‘विमल’ विद्येश।।