लंका के राजा विद्युत्केश अपनी रानी श्रीचन्द्रा के साथ प्रमदवन में क्रीड़ा कर रहे थे। कुछ क्षण बाद श्रीचन्द्रा पतिदेव से कुछ दूर पहँुचकर वन की प्राकृतिक छटा का अवलोकन कर रही थी कि इसी बीच एक बन्दर वहाँ आया और श्रीचन्द्रा को देखकर खोखने लगा। श्रीचन्द्रा घबराकर इधर-उधर देखने लगी तब बन्दर ने उसकी साड़ी पकड़ ली। नाखूनों से उसके शरीर पर खरोंचें बना दीं। वह रानी जोर-जोर से रोने लगी। रानी के रोने की आवाज सुनते ही राजा विद्युत्केश दौड़े आये और उसके शरीर में जहाँ-तहाँ नखों के घाव देखकर घबराये। रानी ने कहा-‘‘स्वामिन्! इस बन्दर ने बिना कारण ही मुझे सताया है।’’ राजा को देखते ही वह बन्दर वहाँ से भागा किन्तु राजा ने क्रोध में आकर उस पर बाण का निशाना लगाया। बाण से घायल हुआ वह बन्दर वेग से भागता हुआ आगे कुछ दूर जाकर गिर पड़ा और छटपटाने लगा। वहीं पर आकाशगामी ऋद्धि से सहित एक महामुनि विराजमान थे। वे उस बन्दर को वैसी मरणासन्न स्थिति में देखकर उसके निकट आये। करुणाबुद्धि से उसे उपदेश दिया और कहा- हे वानर! तुमने पूर्व में कुछ पाप-कर्म किया होगा जिसके फलस्वरूप इस तिर्यंच योनि में बन्दर हुए हो। जहाँ कोई किसी का नाथ या रक्षक नहीं है। अब इस समय तुम्हारी स्थिति मरने के सन्मुख है, अत: अब तुम सम्पूर्ण पदार्थों का त्याग कर दो, भोजन-पानी आदि का त्याग करके सल्लेखना स्वीकार करो कि जिससे अगले भव में तुम इस तिर्यंच योनि से छूटकर अच्छी गति प्राप्त कर लो। शरीर की वेदना से मन को हटाओ और मैं महामन्त्र सुना रहा हूँ तुम एकाग्रमन से सुनो। यह मन्त्र तुम्हें सर्वदु:खों से छुड़ा देगा।’’ इतना कहकर मुनिराज उसे णमोकार मन्त्र सुनाने लगे-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्व-साधुओं को नमस्कार हो। इस मन्त्र को सुनते-सुनते ही बन्दर के प्राण निकल गये और वह इस निद्य शरीर को छोड़कर अड़तालीस मिनट के भीतर-भीतर में ही भवनवासी देवों में महोदधि कुमार नाम का देव हो गया। इधर राजा विद्युत्केश उस बन्दर को मारकर आस-पास में खेलते हुए अन्य बन्दरों को भी मारने के लिये तैयार हो गये। उधर महोदधि देव दिव्य वैक्रियिक शरीर प्राप्त कर सोचने लगा कि-‘‘मैं कौन हूँ? और कहाँ से आया हूँ? यह स्थान क्या है?’’ उसी क्षण उसे दिव्य अवधिज्ञान प्रगट हो गया जिसके निमित्त से उसने सारी घटना जान ली। वह सोचने लगा-‘‘ओह! देखो, यह राजा कितना निर्दयी है। अपनी राज-सत्ता के मद में चूर हो रहा है। अरे! बन्दर स्वभाव से ही चंचल होते हैं। यदि मैंने बन्दर की पर्याय में इसकी पत्नी को नोंच-खसोट दिया तो क्या उसका दण्ड प्राणों से ही खत्म कर देना था। और फिर अब वह निर्दयी अन्य अनेक निरपराधी बन्दरों को क्यों मार रहा है?’’ ऐसा सोचकर वह महोदधि देव वहाँ आ पहँुचा और उसने एक क्षण में अपनी विक्रिया से बहुत बड़ी वानर सेना बना ली। उन सभी वानरों के मुख दाढ़ों से विकराल थे, उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं और सिन्दूर के समान लाल-लाल उनका वर्ण था। वे सभी राजा के सामने आ गये। किसी ने हाथ में पर्वत उठा लिया, किसी ने बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़ लिये और कोई हाथों से पृथ्वी को ही वूटने लगे। उस समय वे सभी बन्दर बहुत ही विकराल दिख रहे थे। ऐसे मायामयी वानरों ने कुपित हुए राजा विद्युत्केश से कहा-‘‘अरे मूर्ख विद्याधर! अब तेरी मृत्यु आ गई है ऐसा समझ, ओ पापी! वानरों को मारकर तू किसकी शरण में जायेगा?’’ इतना कहते हुए उन सभी वानरों ने भूमि और आकाश मण्डल को इतना व्याप्त कर दिया कि वहाँ सुई रखने की भी जगह नहीं रह गई। इस दृश्य को देखकर राजा विद्युत्केश के आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा। वह सोचने लगा-‘‘यह वानरों का बल नहीं है और न ही वानर ऐसी मनुष्यों की भाषा में बोल सकते हैं, यह तो कुछ और ही होना चाहिये।’’ वह राजा अपने जीवन की आशा छोड़कर मधुर वाणी में विनयपूर्वक उन वानरों से पूछने लगा-‘‘हे सत्पुरुषों! कहो, आप लोग कौन हो? तुम्हारे शरीर अत्यन्त चमक रहे हैं और तुम्हारी भाषा मनुष्यों जैसी है। ये सभी योग्यतायें वानर तिर्यंचों में तो सम्भव नहीं हैं।’’ विद्याधर राजा को नम्र हुआ देखकर महोदधि देव कहने लगा- ‘‘हे राजन्! पशु जाति के स्वभाव से चपल वानर ने जो आपकी स्त्री को कष्ट दिया था और फिर जिसे तूने मारा था, वह मैं ही हूँ। साधु के प्रसाद से मैंने इस देवपद को प्राप्त कर लिया है। इस पर्याय से मैं महान शक्ति और वैभव से सम्पन्न हो चुका हूँ। तुम मेरी विभूति को देखो।’’ इतना कहकर देव ने अपना तमाम वैभव उसको दिखलाया। यह देख राजा विद्युत्केश भय से काँपने लगा। तब देव उसे वैसा देख दयाद्र्र होकर कहने लगा-‘‘डरो मत, डरो मत।’’ इस स्थिति में सान्त्वना प्राप्त कर राजा कहने लगा-‘‘हे देव! अब मैं क्या करूँ? आप जो आज्ञा दें, मैं पालने को तैयार हूँ।’’ तब देव ने कहा-‘‘राजन्! जिन्होंने मुझे पंच नमस्कार मन्त्र सुनाकर दैवीय सम्पदा प्राप्त कराई है। चलो, हम और आप उन्हीं के पास चलें और उनके प्रसाद से पवित्र दयामयी धर्म को ग्रहण करें।’’ राजा अपनी रानी श्रीचन्द्रा को साथ लेकर देव के साथ मुनिराज के समीप पहँुचे। तीनों ने बड़ी भक्ति से गुरू की प्रदक्षिणायें कीं और उन्हें विधिवत् नमस्कार किया। पुन: महोदधि कुमार कहने लगा-‘‘हे अशरण के शरण! हे दु:खिजनवत्सल! हे दयासिन्धो! आपने अभी कुछ क्षण पूर्व जिस वानर को उपदेश दिया था और पंच नमस्कार मन्त्र सुनाया था, वह मैं ही हूँ। हे गुरूदेव! आपकी कृपा प्रसाद से मैं इस नद्य पर्याय से छूटकर दिव्य देव पर्याय को प्राप्त हुआ हूँ।’’ इतना कहकर देव ने महामालाओं से मुनिराज के चरणों की पूजा की तथा बार-बार उनके श्रीचरणों में नमस्कार किया। यह सब आश्चर्य देखकर राजा विद्युत्केश एकदम शान्त हो गया था अत: अब वह गुरूदेव के चरणों में नमस्कार कर पूछता है-‘‘हे नाथ! मैं क्या करूँ? मेरा क्या कत्र्तव्य है?’’ इतना सुनकर मुनिराज अपने मुखचन्द्र से अमृत की वर्षा करते हुए के समान बोले-‘‘चार ज्ञान के धारी हमारे गुरू यहीं पास में विद्यमान हैं, सो हम लोग उन्हीं के समीप चलें, यही सनातन धर्म है क्योंकि आचार्य के निकट विद्यमान होने पर भी जो शिष्य आप स्वयं उपदेश आदि आचार्य का काम करता है वह शिष्य न शिष्य रहता है और न आचार्य ही कहलाता है।’’ मुनिराज के उक्त वचन सुनकर देव और राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए। वे सोचने लगे-‘‘अहो! तप का कैसा अचिन्त्य माहात्म्य है कि ऐसे महासाधु भी अपने गुरू को इतना सम्मान देते हैं!’’ सभी लोग मुनिराज के साथ गुरू के पास पहँुचे। गुरूदेव की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और भक्ति से उन्हें नमस्कार किया। वे मुनि भी गुरू की वन्दना करके उनके निकट विनय से बैठ गये। तब देव और विद्युत्केश राजा ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक गुरू से धर्म का स्वरूप पूछा। गुरू ने दयामयी परमधर्म का उपदेश दिया। अनन्तर देव और विद्युत्केश राजा दोनों ने मुनिराज से अपने पूर्वभवों को पूछा। मुनिराज के मुख से भव-भवांतरों को सुनकर राजा विद्युत्केश संसार के भोगों से विरक्त हो गये अत: उन्होंने अपने पुत्र सुकेश को राज्यभार सौंपकर उन मुनिनाथ के पास दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। महोदधि कुमार देव भी पाप से भीरुमना होता हुआ धर्म में अतिशय प्रीति को प्राप्त हुआ। पुन: पुन: मुनियों को नमस्कार करके वह अपने स्थान को चला गया। सच है धर्म का माहात्म्य अचिंत्य है। देखो, एक चंचल प्राणी बन्दर मरणासन्न स्थिति में गुरूमुख से धर्म को श्रवण कर और महामन्त्र को प्राप्त कर उत्तमदेव हो गया। पुन: गुरू प्रसाद से सदा के लिये धर्म में अनुरागी बन गया है।