प्रीति, कीर्ति, लता, कुसुमा, सुषमा, सुधा आदि बालिकाएँ आकर आचार्यश्री के, सर्वमुनियों और आर्यिकाओं के दर्शन करके परम विदुषी प्रमुख आर्यिका के पास पहँुचती हैं और उन्हें ‘वन्दामि’ शब्दोच्चारणपूर्वक नमस्कार करके कुछ प्रश्न करती हैं- सभी कन्यायें हाथ जोड़कर-‘‘वन्दामि माताजी!’’ वरदहस्त उठाकर माताजी आशीर्वाद देती हैं। ‘‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’’ पुन: कन्यायें पूछती हैं-‘‘माताजी, आपका रत्नत्रय कुशल है।’’ ‘‘हाँ कुशल है। कहो, आज तुम सभी बालिकाएँ एक साथ दिख रही हो। क्या कोई खास बात है?’’ सभी हँस पड़ती हैं और कहती हैं-‘‘हाँ, माताजी! आज हम सभी बालिकाएँ आपके लेखन कार्य में विघ्न डालने आयी हैं।’’ ‘‘अच्छा, यदि तुम सब विशेष लाभ लेना चाहोगी, तो मैं लिखना बन्द कर दूँगी। एक घण्टा समय तुम्हें ही दे दूँगी।’’ ‘‘बहुत अच्छा माताजी, हम लोग कुछ शंकाओं का समाधान चाहती हैं। पुन: आप जो भी नियम कहेंगी, हम लोग यथाशक्य ग्रहण भी करेंगी।’’ ‘‘माताजी! मेरी भाभी के लड़की हुई है। आज सात दिन हो गये किन्तु घर में इतनी अशान्ति मची हुई है कि मेरा एक मिनट मन नहीं लगता। सभी महिलाएँ भाभी को कोसती हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई घोर अनर्थ कर डाला है। पापा ने कहा कि वह कन्या भी अपना भाग्य अपने साथ लेकर आई है। तुम लोग इतना क्यों शोरगुल मचा रही हो? किन्तु ऐसा लगता है कि मम्मी के सिर पर अभी से एक लाख का कर्जा चढ़ गया हो। मम्मी को ऐसा लग रहा है कि अभी तक मैं अपनी ही लड़कियों को निपटा नहीं पाई और यह एक बला और आ गयी। इन सभी बातों को देखकर मुझे जीवन से एक अरुचि सी हो गई है। ऐसा क्यों हो रहा है?’’ ‘‘प्रीति, प्राय: जब-तब ऐसी चर्चाएँ मेरे पास आती ही रहती हैं। मुझे भी यह सुनकर बड़ा दु:ख होता है। देखो! तुम्हारी मम्मी भी किसी की कन्या ही हैं, हम भी कन्या ही थे। ओह! आज की यह स्थिति दहेज दानव का ही जीता- जागता नमूना है। घर-घर में कन्याओं के माता-पिता दु:खी हैं और कन्याओं का जीवन भारस्वरूप प्रतीत हो रहा है और न जाने कितनी दुर्घटनायें भी हो रही हैं। यह सब कलिकाल का ही दोष कहना पड़ेगा। यदि हम अपनी अनादि परम्परा को उठाकर देखती हैं तो मालूम पड़ता है कि एक समय कन्याएँ सर्वोत्तम रत्न मानी जाती थीं और जिनके घर कन्या का जन्म होता था वे रत्नाकर इस सार्थक नाम को धारण करते थे। बड़े-बड़े चक्रवर्ती आदि भी उनसे कन्या की याचना करते थे। देखो! आदिपुराण में सुलोचना के स्वयंवर का वर्णन करते हुए आचार्य ने सुलोचना के पिता अवंâपन महाराज को रत्नाकर कहा है-
समुद्र अपने रत्नाकरपने का खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है, क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न है उन्हीं राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा के यह रत्नाकरपना (रत्नों की खानस्वरूप समुद्रपना) सुशोभित होता है। स्वयंवर विधान में तो हजारों क्या, लाखों-करोड़ों राजा-महाराजा एक कन्या के लिये वहाँ एकत्रित हो जाते थे। कन्या तो उनमें से किसी एक का ही वरण करती थी। तब वे अपने आपको भाग्यहीन अनुभव करते थे। सीता आदि के स्वयंवर से भी यही बात स्पष्ट है। भगवान नेमिनाथ के लिये स्वयं श्रीकृष्ण नारायण उग्रसेन के यहाँ राजमती कन्या की याचना के लिये गये थे, इत्यादि अनेक उदाहरण कन्याओं के विषय में भरे पड़े हैं कि उन्हें कितना गौरव प्राप्त था। लड़कों के माता-पिता कन्या के पिता को तंग करके जबरदस्ती दान-दहेज नहीं माँगते थे, बल्कि कन्या के पिता स्वरुचि से ही यथाशक्ति बहुत कुछ दहेज देते ही थे। हमें तो यही समझ में आता है कि पुरातन युग में कन्या को प्राप्त करने के लिये पुरुष को ‘शुल्क’ की आवश्यकता रहती थी। तभी तो श्री वादीभसिंह सूरि ने क्षत्रचूड़ामणि में अलंकारिक भाषा में कहा है-
अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी के अधिपति श्री जिनेन्द्र भगवान आप सभी भक्तों के मनोरथ को सफल करें कि जिनकी भक्ति मुक्तिरूपी कन्या के पाणिग्रहण में शुल्क का कार्य करती है। ऐसे युग में कन्याओं के जन्म लेते ही शायद माता-पिता इतने दु:खी नहीं होते होंगे। आज के युग में पुत्र भी तो बड़े होकर नौकरी में या अन्यत्र कहीं व्यापार में लग जाते हैं तो वे माता-पिता को भला क्या सुख देते हैं? अस्तु! अगर भारतवर्ष की या अपने समाज की सभी कन्याएँ मिलकर इस दहेज प्रथा का विरोध स्वीकार कर लें तो यह प्रथा भी जड़मूल से समाप्त हो जाए। सुधा बोलने लगती है-‘‘माताजी! बहुत सी कन्याएँ तो वकील, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि के कोर्स का अध्ययन करके अपने पैरों पर खड़ी होकर अपने माता-पिता को निश्चिन्त भी कर देती हैं फिर भी अपने आप जो वर जँचे, उसके साथ शादी करके अपना जीवन सुखद बना लेती हैं। ऐसे अनेक उदाहरण अपनी नजरों से देख-देखकर कभी-कभी भाव भी ऐसे हो जाते हैं कि हम भी ऐसी ही क्यों न बनें? किन्तु मेरे पिताजी तो मेरी आगे की पढ़ाई कराने के खर्चे को झेलने के लिये ही असमर्थ हैं, क्या करें?’’ माताजी कहती हैं-‘‘बेटी सुधा! कन्याओं का ऐसा स्वतन्त्र जीवन भी गलत ही है। माता-पिता का कत्र्तव्य है कि वे कन्याओं को योग्य उचित विद्याध्ययन कराने में संकोच न करें। पूर्व में भगवान ऋषभदेव ने स्वयं ही सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी नाम की दोनों कन्याओं को विद्याध्ययन कराया था पुन: उन्होंने अपने भरत आदि एक सौ एक पुत्रों को भी सर्व विद्याओं में निष्णात किया था। आज की शिक्षा कन्याओं को सर्वथा स्वच्छन्द बना देती है, जिससे कि उनका शीलधर्मरूपी महारत्न नष्ट-भ्रष्ट हो जाने की दु:खद घटनाएँ प्राय: सुनने में आती रहती हैं अत: कन्याओं को अपनी मर्यादा में रहकर ही विद्या ग्रहण करना चाहिये।’’ सुषमा कहने लगती है-‘‘माताजी! एक दिन मेरी बड़ी बहन आर्थिक स्थिति से परेशान होकर पिता के पास आकर कुछ धन माँग रही थी कि जिससे जीजा जी कुछ अपना व्यापार जमा लें, तो भाई ने झट से कह दिया कि ब्याह के बाद लड़कियों का घर में कुछ भी अधिकार नहीं है अत: हम कुछ नहीं देने देंगे। पिताजी का दिल खूब दु:ख पाया किन्तु वे बेचारे चुपचाप रह गये और बहन निराश होकर चली गयी। अब सुना है कि उन्होंने कहीं पर कुछ नौकरी कर ली है।’’ ‘‘बेटी सुषमा! अपने शास्त्रों में तो स्पष्ट लिखा है कि पिता अपने धन का बंटवारा करते समय पुत्रों के समान ही पुत्रियों का भी हिस्सा अलग करे। देखो! आदिपुराण में कहा है कि-
पुत्रों के समान पुत्रियों को भी बराबर भाग देना चाहिये। हे पुत्र! तू कुल का बड़ा होकर मेरी सब संतानों का पालन कर।’’ बीच में ही कीर्ति बोल उठती है-‘‘माताजी! इन सभी उदाहरणों से तो यही मालूम पड़ता है कि आज के युग में पुरातन सत्य परम्पराएँ समाप्त ही हो चुकी हैं।’’ ‘‘हाँ, यह पंचमकाल का ही दुष्परिणाम है। प्रिय बालिकाओं! फिर भी तुम सभी को अपना इहलोक और परलोक सर्वोत्कृष्ट बनाने का ही पुरुषार्थ करना चाहिये। सुनो, तुम सब मिलकर महिला समाज को संगठित करो। दहेज प्रथा का विरोध पुत्रों की माताओं से कराओ, साहसपूर्वक धर्ममार्ग में दृढ़ रहो। अपने सम्यक्त्व की और शीलरत्न की रक्षा करके परलोक में स्त्रीपर्याय को जलांजलि दे दो। देवपूजा और गुरूभक्ति को अपना दैनिक कत्र्तव्य समझो। नित्य ही स्वाध्याय करो। घर में स्वस्थ और प्रसन्न वातावरण निर्मित करने के लिये अच्छी-अच्छी कथाओं को सुनाओ। स्वयं प्रसन्नचित्त रहकर सबको प्रसन्न रखो। ब्याह के बाद जिस घर में पहँुचो, उसे स्वर्ग सदृश बनाने की चेष्टा करो। कलह-अशांति को छोड़कर धर्म की रक्षा में रानी चेलना का उदाहरण सामने रखो। अपने पति को यदि श्रेणिक सदृश धर्मनिष्ठ न बना सको तो कम-से-कम आप उनके साथ अधार्मिक मत बनो। तुम सभी बालिकाएँ अब मेरे पास में शीलव्रत और अष्टमूलगुण धारण करो और मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करो। सभी बालिकाएँ नियम लेने के लिये मस्तक झुकाकर हाथ जोड़कर गवासन से बैठ जाती हैं। माताजी विधिवत् सबको नियम देकर अपना लेखन कार्य प्रारम्भ कर देती हैं।