नए वर्ष का सोत्साह स्वागत करने की परंपरा सी पड़ गई है। इस अवसर पर एक-दूसरे को मुबारकबाद देने का रिवाज बन गया है। ऐसा क्यों है ? क्या ३१ दिसम्बर को मध्य रात्रि के बाद अचानक सब कुछ बदल जाता है ? क्या सब कुछ नए ढंग से शुरु होता है ? नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं होता। समय का स्वरूप शाश्वत है। वह नहीं बदलता। हमारी दृष्टि बदलती है। ईसाई संवतसर के अनुसार नया साल १ जनवरी से शुरु होता है। भारत में विक्रमी, शक तथा अन्य अनेक संवत् है जिनके वर्ष अलग-अलग तिर्थियों को प्रारंभ होते हैं। विश्व की सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन में काल गणना की बिलकुल अलग अवधारणा है। काल अनादि, अनंत है, उसके न तो हम प्रारंभ की कल्पला कर सकते हैं, न ही अंत की। किन्तु मनुष्य के जीवन की अवधि सीमाबद्ध है। ऐसी स्थिति में काल की सीमा में बंधा मानव भला अकाल को उसकी संपूर्णता में कैसे देख और समझ सकता है ? फिर भी काल से ताल मिलाने की मानव की अदम्य इच्छा और आवश्यकता ने उसे काल को खण्डों में विभाजित कर उसकी अनुभूति प्राप्त करने की प्रेरणा दी। दिन, माह, वर्ष, शताब्दी, सहस्राब्दी की कल्पना की यही मानसिक पृष्ठभूमि है। असीम को सीमा में बांधने की सफलता पर हर्षोत्सव मनाना बहुत स्वभाविक है। मनुष्य तो हमेशा खुशियां बटोरने की तलाश में रहता है। संसार में दुख, दर्द है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। साथ ही इसे भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य में जटिल समस्याओं को सुलझाने की विषम परिस्थितियों को झेलने की घोर अंधकार में दीपक जलाने की भी अद्भूत आत्मशक्ति है। होली हो या दीवाली, कोई धार्मिकोत्सव हो या गणतंत्र दिवस, वैशाखी हो या न्यू ईयर डे आम आदमी प्रत्येक अवसर को उमंग और उल्लास के रंग में सराबोर कर देता है। १ जनवरी तो निर्जीव है। उसमें रंग, तरंग भरने की शक्ति हमारी आत्म ऊर्जा में है। हम भी नए वर्ष का नई शताब्दी का और नई सयहस्राब्दी का उन्मुक्त चेतना से स्वागत करते हैं। विश्व समुदाय के स्वर में मिलाते हुए नववर्ष की मंगल कामना करते हैं। विश्व को कुटुम्ब मनाने का उद्घोष धरती से हजारें वर्ष पूर्व किया गया था। अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है यह व्यवस्था ढाई हजार साल पूर्व स्थापित की गई थी। अहिंसा और वैश्वीकरण के नारे आज पश्चिमी जगत में जोरों से गूंज रहे हैं। किन्तु भारतीय जन मानस में तो सदियों से इनकी अनुगूंज सुनाई दे रही है। इस देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके लिए अहिंसा मात्र मानसिक अवधारणा नहीं है। उन्होंने अहिंसा को जीया है। जीवन में उतारा है। अब हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि पिछले वर्ष में जैन समाज ने क्या खोया-क्या पाया। पिछली जनवरी में जिस उत्साह और आशाओं के साथ हमने सन् २०१४ की अगवानी की थी ऐसा लगता है कि वैसा कुछ भी हो नहीं पाया। कुल मिलाकर जैन जन-मानस को पीड़ा और निराशा की ही अनुभूति हुई है और हो रही है। नव-वर्ष के उत्साह की उमंग कहीं दिखाई नहीं दे रही। आज कुल मिलाकर दिगम्बर जैन समाज की जो तस्वीर सामने आती है वह संभ्रम और दिशा-हीनता की तस्वीर है। चलने को तो हम बड़ी तीव्र गति से चल रहे हैं, पर इस चलने का कोई प्रयोजन, इस यात्रा का कोई सुनिश्चित लक्ष्य शायद हमारे सामने स्पष्ट नहीं है। यही कारण होना चाहिए जिससे हमारा चलना गति मात्र बनकर रह जाता है, उसमें कहीं किसी प्रगति का दर्शन नहीं हो पा रहा। हर साल विश्व-शांति के दर्जनों महोत्सव हम मना रहे हैं। हमें खर्च करने के लिए धन की कहीं कोई कमी नहीं होती। आशीर्वाद बरसाते हुए संतों का सान्निध्य और धन बरसाती श्रावकों को भीड़ को हर महोत्सव की सफलता का मानदण्ड बनाकर देशभर में हम उसका प्रचार करते हैं, परन्तु हमारे भीतर परस्पर का कलह, मनोमालिन्य और हमारे भीतर तथा बाहर लगभग पूरे विश्व में हिंसा का ताण्डव उसी गति से बढ़ता जा रहा है। समझ में नहीं आता कि हमारे इतने उच्च आदर्शों वाले ये अनुष्ठान हमारे चहुं ओर के वातावरण के प्रदूषण को कम क्यों नहीं कर पाते? मैं आशा करता हूँ कि हमारे समाज के प्रबुद्ध लोग इस विषय पर जरूर मंथन करेंगे। नूतन वर्ष शुभकामनाओं के साथ।