दर्द क्या होते हैं, ये फासले बता सकते हैं, गिरते क्यों हैं, ये आँखों से आंसू बता सकते हैं।।
मनुष्य के जीवन में माता—पिता का स्थान सर्वोपरि और सर्वोच्च है। संसार में माता—पिता का ही आशीष अमृत का वह स्रोत है, जिससे जीवन गतिमान होता है। माता—पिता के मन में अपनी संतान के प्रति गौरव और माधुर्य समाया रहता है। माता—पिता के वचन संतान के लिए प्रामाणिक माने जाते हैं और उन पर चलने पर संतान को सुख शांति की प्राप्ति होती है। अत: बच्चों का कर्तव्य है कि वह अपने वृद्ध माता—पिता का हर समय सम्मान करें और उनके गौरव की रक्षा करें। वर्तमान की युवा पीढ़ी संकुचित होकर अपनी पत्नी और संतान के प्रति तो अपना फर्ज निभाती है परन्तु अपने वृद्ध माता—पिता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाती है। वृद्ध माता—पिता का अपमान इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा अपमान है। हमारी भारतीय संस्कृति कहती है कि बुजुर्ग माँ—बाप की सम्मानपूर्वक सेवा करें और परमात्मा की तरह मानें। स्वामी श्ांकराचार्य जी ने जिन्दगी का कड़वा सत्य बताया है— जब तक आपमें कमाने की क्षमता है, तब तक आपके सगे—सम्बन्धी आपसे जुड़े रहेंगे। बाद में जर्जर होने के साथ जीएंगे तो आपके घर में भी आपसे कोई बात नहीं करेगा ? वृद्धावस्था तो उम्र की सीढ़ी का एक पायदान यानि पड़ाव है, वह उम्र का अवसान नहीं है। वृद्धावस्था में मनुष्य का अनुभव और ज्ञान की दृष्टि बहुत विस्तृत हो जाती है। यह सच्चाई है कि वृद्धावस्था में धमनियों में रक्त का संचालन मंद पड़ जाता है, याददाश्त भी क्षीण हो जाती है, नजरें कमजोर हो जाती हैं, त्वचा में सिकुड़न आ जाती है, हड्डियाँ कमजोर होने के साथ—साथ मांसपेशियाँ भी सिकुड़ने लगती हैं। एक बार इंग्लैंड की भूतपूर्व प्रधानमंत्री माग्र्रेट थेचर ने हिन्दुओं के संयुक्त परिवार और जीवन मूल्यों की भूरि—भूरि प्रशंसा की जो अब भूतकाल की वस्तु बन गई है। वर्तमान में हम देश में भी बुजुर्ग माँ—बाप की दयनीय एवं शोचनीय अवस्था पर दर्द से भरे हुए सिसकते आँसू बहाये जा रहे हैं। पृथ्वी को कागज बनाया जाये और समुद्र को स्याही बनाई जाए फिर भी माँ की ममता और पिता के दुलार भरे प्यार, नि:स्वार्थ भरी सेवा का वर्णन करना असम्भव है। यह कैसी विडम्बना है कि इंसान पत्थर की र्मूित बनाकर उसमें भगवान को तलाशने की कोशिश करता है लेकिन भगवान द्वारा बनाए गए बेसहारा वृद्ध माता—पिता में परमात्मा ढूंढने की कोशिश नहीं करता। बुढ़ापा जिन्दगी का सत्य है, कुछ को तो आ गया—
बच्चे ज्यों—ज्यों हो बड़े, डरते हैं माँ—बाप, वृद्धावस्था में ये हमें, भेज न दें चुपचाप।
दस बच्चों को पालते, खुश होते माँ—बाप, बूढ़े जब माँ—बाप हो, लगे बोझ अभिशाप।।
कुछ को तो आ रहा है और कुछ को तो आ चुका है। आज वृद्धजन जिस प्रकार से तनाव से गुजर रहे हैं, यह सब उनके साथ उठने, बैठने और बातचीत करने से पता चलता है। वृद्धजन दया नहीं सम्मान चाहते हैं। अति वृद्ध और अति शिशु ये दोनों ही असमर्थ अवस्थाएँ हैं। इन अवस्थाओं में प्राणी हर प्रकार से उठने—बैठने, चलने—फिरने तथा कुछ भी करने से असमर्थ होता है। अतिवृद्ध की ओर तो कोई देखना भी नहीं चाहता और यह महान् दु:खद अवस्था है। दुनिया का स्वभाव है कि मतलब निकलने पर भूल जाओ। आप भी भूल जाईये। बुढ़ापे में भी अपने परिवार वाले उसी प्रकार उपेक्षा व तिरस्कार करते हैं जिस प्रकार किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा करता है, दो समय का भोजन भी नहीं देता, भूखा मरने के लिए मजबूर कर देता है। मानव के अहंकार, हटाग्रह, महत्वाकांक्षा, प्रतिष्ठा, प्रतिस्पद्र्धा और प्रदर्शन की भूख ने हमारे समाज और परिवार में दरार विभाजन की प्रक्रिया को शुरू करके तोड़ा है, विखंडित किया है और भाई को भाई का, वृद्ध माँ—बाप और बेटे का, सास—बहू आदि का आपस का प्रेम, आदर — सत्कार, सद्भावना, सेवा—सुश्रुषा को समाप्त करके एक दूसरे का दुश्मन बना रही है और मरते दम तक पीछा नहीं छोड़ रही है। तुलसीदास जी का भी कथन है— प्रात:काल उठि रघुराई, प्रथम माता—पिता शीश—नवाई। किसी कवि ने कहा है—
हाड़ जले जैसे सूखी लकड़ी, केस जले जैसे घास रे। कंचन जैसी काया जल गई, कोई न आया पास रे।।