प्रारम्भ से ही विश्व में आध्यात्मिक उन्नति की धारा निरन्तर प्रवहमान रही है। जिसमें भारत की भी विविध संस्कृतियों, परम्पराओं, आचारों और विचारों का अद्भुत समन्वय दृष्टिगत हुआ है। इसी कारण से भारत को जगत् का आध्यात्मिक गुरु माना गया है। उसमें भी विभिन्न मतों, आचार-विचार में स्वविशिष्टता के कारण से सभी का परस्पर में पृथक अस्तित्व है। एकाधिक अस्तित्व वाले होने पर भी सभी परंपराओं में अनेक स्थलों पर समरसता है। जहां एक ओर कुछ तथ्य एक-दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं, वहीं कुछ विपरीत। भारतीय ध्यान परंपरा भी इसकी सम्पोषक है। चार्वाक को छोड़कर भारत के प्रत्येक दर्शन ने किसी न किसी रूप में ध्यान की सत्ता को स्वीकार किया है। भारतीय ध्यान परम्परा दो प्रमुख धाराओं में विभक्त है- वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा। श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध संयुक्त रूप से सम्मिलित हैं। इन तीनों परम्पराओं में प्राचीन काल से लेकर आज तक आध्यात्मिक उन्नति के लिए ध्यान साधना की परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रवहमान रही है। यद्यपि देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप साधना की प्रक्रिया में परिवर्तन, परिवर्धन और परिशोधन होते रहे हैं तथापि ध्यान परम्परा की मूल अवधारणा में परिवर्तन नहीं हुआ। ध्यान में एकाग्रता का होना अति आवश्यक है, ऐसा प्रत्येक दर्शन स्वीकार करता है अथवा यह कहा जाये कि एकाग्रता का ही अपर नाम ध्यान है तो गलत न होगा। कोई ध्यान को समाधि का नाम देता है तो कोई ध्यान को साधना कहता है, नाम कोई भी हो परन्तु सबका अभिप्राय चित्त की एकाग्रता से मुक्ति प्राप्त करना ही है। जैन परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द आदि अनेक आचार्यों ने ध्यान परम्परा को समय-समय पर विशिष्ट रूप से समृद्ध किया है इसलिये जैन परम्परा में ध्यान से सम्बद्ध साहित्य प्रचुरता में प्राप्त होते हैं। आचार्य माघनन्दि ने ‘ध्यान सूत्राणि’ नाम से एक पृथक ग्रंथ ही रच दिया है, जो ध्यान के लिए उपयोगी सूत्रों का प्रतिपादन करता है ध्यान के विषय में वैसे तो कई आचार्यों ने अपनी लेखनी को प्रवृत्त किया है, परन्तु उसमें पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, पूज्यपाद स्वामी, शुभचन्द्राचार्य, आचार्य देवसेन स्वामी और ब्रह्मदेव सूरि आदि प्रमुख हैं।
अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन के ध्यान की अवधारणा में कुछ भिन्नता प्रतीत होती है। कुछ (योग आदि) दर्शनों में ध्यान और योग को लगभग एक समान मान्यता है परन्तु जैनदर्शन में ध्यान और योग का स्वरूप अत्यन्त भिन्न है। जहां मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहा गया है, वहां इन तीनों को एकाग्र करके किसी एक पर स्थिर हो जाना ध्यान है। अन्य मतों की अवधारणा के अनुसार मन की स्थिरता को योग कहा गया है। बौद्ध दर्शन की अपेक्षा यदि ध्यान का स्वरूप कहें तो चित्त का अभ्यास ही ध्यान है और कुशल चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा गया है। भारतीय संस्कृति में ध्यान का विशेष महत्त्व है, यथा आरोग्य शास्त्र में रोग, रोग के कारण, आरोग्य और आरोग्य के कारण वर्णित किये गये हैं तथा जैन शास्त्रों में संसार, संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन है और उस मोक्ष की प्राप्ति ध्यान के द्वारा ही संभव है। अत: कर्मों को जलाने के लिए आचार्यों ने ध्यान का अवलम्बन धारण करने की शिक्षा प्रदान की है। यह ध्यानरूपी अग्नि ही है जो निधत्ति और निकाचित कर्मों को भी लकड़ी की तरह भस्म कर देती है। इसी ध्यान को संस्कृत व्याकरण के अनुसार ध्यै धातु से चिन्ता के अर्थ में ग्रहण किया गया है। सामान्य रूप से एकाग्रता पूर्वक चिन्ता का निरोध करना ध्यान कहलाता है। मुख्तयता ग्रंथों पर जब दृष्टिपात करते हैं तो सभी आचार्यों ने लगभग एक समान स्वरूप प्ररूपित किया है। समस्त आचार्यों में प्रतिनिध के रूप में आचार्य उमास्वामी के द्वारा प्रदत्त ध्यान का लक्षण सर्वमान्य है उसी लक्षण को ही सभी आचार्यों ने अपने शब्दों में प्ररूपित किया है। आचार्य उमास्वामी ने एक सूत्र में ही ध्यान किसके होता है? ध्यान का स्वरूप और ध्यान का समय, इन तीन तथ्यों को निर्दिष्ट किया है।
उत्तम संहनन वाले के अर्थात् वङ्कावृषभ नाराच संहनन वाले के, एकाग्रता से चिन्ता का निरोध करना अर्थात् चित्तवृति को रोकना ध्यान कहलाता है। वह ध्यान मात्र अन्तर्मुहूर्त के लिए होता है। इस सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने तीनों विषयों को एकत्रित कर दिया है। ध्यान में चित्त की स्थिरता अर्थात् एकग्रता होनी चाहिए अन्यथा ध्यान संभव नहीं है। एकग्रता को ही ध्यान क्यों कहा जाता है? तो इसका समाधान करते हुए आचार्य रामसेन कहते हैं -एकाग्रता का अर्थ व्यग्रता की विनिवृत्ति है और ज्ञान ही वास्तव में व्यग्र होता है ध्यान नहीं।तत्त्वानुशासन श्लोक ५९ चित्त में व्यग्रता होगी तो फिर ध्यान किस प्रकार से संभव होगा, जैसे बाहुबलि भगवान् के मन में स्थिरता न आ पाने के कारण ही वह एक वर्ष तक निश्चल खड़े रहे परन्तु वह स्थिर, अविचल, अन्तर्मुहूर्त का ध्यान नहीं हो पाने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाये थे और बाद में चित्त की एकाग्रता आइ्र, ध्यान सिद्धि हुई और केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसी कारण से ध्यान में एकाग्रता होना परम आवश्यक है। श्वेताम्बर आगमों (उत्तराध्ययन और आवश्यकनिर्युक्ति आदि) में ध्यान का स्वरूप इसी प्रकार से प्रतिपादित किया गया है। आवश्यक निर्युक्ति में कहा गया है कि- आलम्बन में प्रगाढ़ रूप से संलग्न तथ निष्प्रकम्प चित्त ध्यान कहा है। आलम्बन में मृदु भावना से रहित अव्यक्त और अनवस्थित चित्त ध्यान नहीं कहलाता है।
ध्यान के भेद –
ध्यान के भेंदों का वर्गीकरण करने के लिए आचार्यों के चित्त में अशुभोपयोग और शुभोपयोग की अपेक्षा मुख्य रूप से दो भेद आते हैं। इसी संदर्भ में आचार्य बट्टकेर स्वामी लिखते हैं – अशुभ चिन्तन के कारण आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान को अप्रशस्त अथवा अशुभ ध्यान और शुभ एवं आत्मकलयाण के लिए जो चिन्तन है वह धम्र्यध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त अथवा शुभध्यान है।मूलाचार पंचाचाराधिकार ३९४ इन्हीं भेदों को आचार्यों ने समान रूप से स्वीकार किया है। प्रस्तुत आलेख अशुभ ध्यान अथवा अप्रशस्त ध्यान को प्रस्तुत करने वाला है, इसीलिये अब अशुभ ध्यानों पर ही विशेष दृष्टिपात किया जाता है। सद्गति की प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाले, अत्यन्त भयरूप निमित्त होने से भहाभयंकर,भगवती आराधना १६९९, आस्रव के कारणतत्त्वार्थवार्तिक ९/२८/४ एवं नीचगति को प्राप्त कराने वाले आत्र्त और रौद्र ध्यान अप्रशस्त अथवा अशुभ ध्यान कहे गये हैं। जो संसार के साक्षात् कारण हैं ऐसे वे दो ध्यान इस प्रकार हैं –
१. आर्तध्यान– आर्त शब्द ‘ऋत’ पद से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ होता है पीड़ा।सर्वार्थसिद्धि ९/२८/४४५ इसका आशय यह है कि दु:ख को उत्पन्न करने वाला आर्तध्यान कहलाता है। यह ध्यान मिथ्याज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। परिग्रह में आसक्ति, कुशील में प्रवृत्ति, धार्मिक एवं सामाजिक तथा निजी विषयों में कृपणता, अतिलोभ, भय, उद्विग्नता और महान् शोकादि ये सब आर्तध्यान के बाह्य चिन्ह हैं। आर्तध्यान के सभी आचार्यों ने चार भेद किये हैं और उन्हीं भेदों को ब्रह्मदेवसूरि ने भी प्ररूपित किया है – इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज, पीड़ा चिन्तन और निदान।
i इष्टवियोगज –जो पदार्थ अत्यधिक प्रिय लगता है उसका वियोग हो जाने पर उसकी पुन: प्राप्ति किस हेतु से हो जावे, इस विषय में निरन्तर बार-बार चिंतन करना इष्टवियोगज आत्र्तध्यान कहलाता है।तत्त्वार्थसूत्र ९/३१, भाव संग्रह ३५९ तात्पर्य यह है कि मनोज्ञ पदार्थ यथा राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य और अन्य भोगों की सामग्री आदि नाश अथवा वियोग हो जाने पर जो त्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक और मोह के कारण जो खिन्न भाव उत्पन्न होता है अथवा उनका पुन: संयोग किस से हो, ऐसा बार-बार चिंतन करता है। इस प्रकार से यह ध्यान निश्चित रूप से पाप बन्ध का ही कारण है।
ii अनिष्ट संयोगज – किसी भी अप्रिय पदार्थ का संयोग हो जाने पर उसके वियोग होने का अथवा वह किस प्रकार से दूर हो जाये, इस विषय में बार-बार चिंतवन करना अनिष्ट संयोगज आत्र्तध्यान कहलाता है। यहां आशय यह है कि जो भी अपने प्रिय पदार्थों का वियोग कराने वाले हैं वे सभी हमारे लिए अप्रिय होते हैं यथा- अग्नि, जल, विष, शस्त्र, सर्पादि क्रूर जीव, जलचरादि जीव, बिल बनाकर रहने वाले जीव, दुष्ट मनुष्य, राजा एवं शत्रु आदि इनके संयोग होने पर आकुल-व्याकुल परिणामों से जितना जल्दी हो सके उनको दूर करने हेतु जो बार-बार चिन्तन किया जाता है।ज्ञानार्णव २५/२५-२७ वह पदार्थ चर, अचर और चराचर कोई भी हो सकते हैं। इन पदार्थों के देखने, सुनने, स्मरण और अधिक समीप समागम होने से आगामी समय में इनका संयोग न हो पावे, इस हेतु बार-बार चिंतन करता है। यह ध्यान भी पाप-बन्ध का कारण है।
iii वेदनाजन्य/पीड़ाचिन्तन –किसी रोग, चोट अथवा घाव के होने पर जो तीव्र वेदना उत्पन्न होती है, उसको दूर करने कि लिए जोर बार-बार चिंतवन होता है, उसे वेदनाजन्य आत्र्तध्यान कहा जाता है।तत्त्वार्थसूत्र ९/३२, भाव संग्रह ३५९ जीवों के शरीर में तीन प्रकार के रोग वात, वित्त और कफ एवं अन्य प्रकार के रोगों और घावों आदि से उत्पन्न प्राणान्त पीड़ा का प्रबल उदय आने पर उनसे उत्पन्न होने वाली पीड़ा अथवा क्लेश का निवारण करने के लिए अथवा रोगजन्य दु:ख के विषय में बार-बार चिन्तन करना वेदनाजन्य आत्र्तध्यान कहलाता है। यह ध्यान पाप बन्ध का कारण, दुर्निवार और महान् दु:ख का कारण है। स्वप्न में किसी भी प्रकार के रोग की उत्पत्ति न हो, ऐसा बार-बारचिन्तन करता रहता है।
iv निदान –पूर्व में किये गये पुण्यार्जन अथवा प्रभुभक्ति के बदले में इस लोक और परलोक के लिये सांसारिक भोग्य वस्तुओं की प्राप्ति के विषय में बार-बार चिन्तन करना निदान आत्र्तध्यान है। यह जीव तीव्र वासना के कारण वर्तमान में तीव्र वेदना को सहन करके बड़े-बड़े तप करता है, उपसर्ग और परीषहों को सहजता से सहन करता है, वह भी मात्र आगामी काल में मनोवांछित सुख की इच्छा की पूर्ति के लिए बार-बार चिन्तन करता रहता है, वह निदान कहलाता है। निदान निश्चित रूप से नीचगति को प्राप्त कराने वाले होता है, क्योंकि जिस वस्तु को चाहकर प्राप्त किया जाये उसको भोगने में अधिक आसक्ति होती है। इस प्रकार संक्षेप में आत्र्तध्यान का स्वरूप प्रतिपादित किया है।
ये चारों ही आर्तध्यान कृष्ण, नील और कापोतलेश्या से रंजित रहते हैं। ये चारों ही आत्र्तध्यान अज्ञानमूलक, पापबन्ध के आयोजन में तीव्र पुरुषार्थ उत्पन्न करने वाले, अनेकों प्रकार के विषयों की प्राप्ति में आकुलित, धर्मभाव का त्याग कराने में समर्थ, कषाय भावों से युक्त, अशान्ति में वृद्धि करने वाले, अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले, कटुक फल प्रदान करने वाले, असाता कर्म का बन्ध कराने में समक्ष ओर तिर्यग्गति आदि का बन्ध कराने में सहायक होते हैं। इन चारों आर्तध्यानों में इष्टवियोगज, अनिष्ट संयोगज और पीड़ा जनित ये तीनों मिथ्यात्व गुणस्थान को आदि लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवों के ही होते हैं और निदान नामक आर्तध्यान पहले गुणस्थान से पांचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही होता है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि मुनि कभी निदान क्यों नहीं करते अथवा उनके निदान नहीं होता। उसका समाधान यह है कि यदि कोई छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि निदान करते हें तो वह एक से पांचवें गुणस्थान में से किसी एक में आ जाते हैंं इस प्रकार छठवें गुणस्थान में निदान संभव नहीं है। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव इस ध्यान के प्रभाव से तिर्यञ्चगति का बंध करता है। जिस सम्यग्दृष्टि जीव ने पहले ही तिर्यंचगति का बंध जीव कर लिया था उसको छोड़कर, शेष सम्यग्दृष्टि जीवों को तिर्यञ्चगति के बन्ध का कारण नहीं है, क्योंकि उसके भेदविज्ञान के बल से तिर्यञ्चगति के कारण रूप संक्लेश भावों का अभाव होता है। इस प्रकार से यह आत्र्तध्यान विवेकपूर्वक त्यागने योग्य है।
रौद्रध्यान –
रुद्र का अर्थ क्रूरता होता है। इसमें होने वाले भाव को रौद्र कहते हैं और क्रूरता से उत्पन्न होने वाले ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं। आवश्यकचूर्णि भाग-२ पृ. ८२ आवश्यकचूर्णि में रौद्रध्यान का स्वरूप वर्णित करते हुए कहते हैं – ‘हिंसाणुरंजितं रौद्रं।’ अर्थात् हिंसा से अनुरंजित (सने हुए) भावों को रौद्र ध्यान करते हैं।सर्वार्थसिद्धि ९/२८/४४५ कषायें जब अत्यन्त तीव्रता के साथ होती हैं तो उन भावों को रौद्रध्यान कहा है, ऐसे तो सभी जीवों के सामान्य रूप से कषायों का उदय तो होता ही है। इस ध्यान में कषाय और पापादि क्रियाओं को करते हुए उनमें यह जीव अत्यन्त आनन्द मानता है, इसलिये इनमें क्रूरता अधिक होती है। रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं – हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषय संरक्षणानन्द।
(क) हिंसानन्द –स्व और पर के द्वारा अन्य जीवों में मारे गये, पीड़ित किये गये और नाश किये गये जीवों में आनन्द उत्पन्न होता है, उसको हिंसानन्द रौद्रध्यान कहते हैं। जो स्वभाव से निर्दयी, क्रोधकषाय से युक्त, व्यभिचारी, पापों के भय से दूर और अन्य जीवों के दु:ख में प्रसन्नता का अनुभव करता है वही क्रूरपरिणामी रौद्रध्यान का पात्र होता है। इस ध्यान से युक्त जीव शत्रुओं से प्रतिशोध के विषय में, दूसरों की सम्पदा अथवा ऐश्वर्य से ईष्र्या, हिंसा के साधन शस्त्रादि को संगृहीत करने में और दुष्टों की सहायता करने आदि में प्रसन्नता का अनुभव करता है।
(ख) मृषानन्द – किसी को भी छलने के लिये झूठ बोलना और उसमें आनन्द मानना मृषानन्द रौद्रध्यान है। ऐसे जीव सांसारिक भोगों की इच्छा से कल्याणरूप धर्ममार्ग से विमुख होकर कुमार्ग में प्रवृत्त होते हैं। अपनी प्रभुता से निरपराधी जीवों को अपराधी घोषित करवाकर, अपने वाक्चातुर्य से मूढ़ लोगों को संकट में डालकर अतिप्रसन्न होते हैं। छोटी से छोटी बात पर झूठ बोलकर अन्य किसीका भी मजाक बनाकर अतिप्रसन्न होना तो इनका शौक होता है।
(ग) चौर्यानन्द – चोरी करके अथवा चोरी के उपाय बताकर उसमें प्रसन्नता का अनुभव करना चौर्यानन्द रौद्रध्यान कहलाता है। ऐसे जीवों में चोरी के उपायों का उपदेश देने में प्रवीणता, चोरी करने में तत्परता इत्यादि सहज ही होते हैं। इस ध्यान में क्रोध और लोभ कषाय के वशीभूत होकर अन्य लोगों की जरूरी वस्तुओं को छुपाने अथवा चुराने में, बिना थके चोरी की योजनायें बनाने में तत्परचित्त और हर्षित होता है। ऐसा रौद्रध्यान अतिशय रूप से निन्दा का पात्र है।
(घ) विषय संरक्षणानन्द – चेतन और अचेतन रूप बाह्य परिग्रह में ‘यह मेरा है’ इस प्रकार की ममत्व भावना से परिग्रह का कोई अपहरण न कर ले, इस भय से उसकी रक्षा करने के लिये बार-बार जो चिन्तन करते हुये उसके रक्षण करने में जो आनन्द का अनुभव करना है वह विषयसंरक्षणानन्द रौद्रध्यान कहा गया है। इसी कारण से यह जीव क्रूर परिणामों से युक्त होकर तीक्ष्ण अस्त्र और शस्त्रों के द्वारा अपने धन की रक्षा करने में अन्य किसी को भी मारने में, उसकी ऐश्वर्य संपदा को भोगने की इच्छा अपने मन में संजोय रखने में, कामभोग के साधन, धन सम्पदा में और वृद्धि करने में लालसा एवं व्यापारादि की वृद्धि करने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। यह रौद्रध्यान जीवों के मोक्षलक्ष्मी को उत्पन्न करने वाले धर्मरूपी वृक्ष को क्षणमात्र में ही नष्ट कर देता है।
अत: यह ध्यान भी अशुभ और अप्रशस्त होता है। जहां कुटिल भावों का चिंतन होता है। स्वभाव से ही जीव सभी पापों में उद्यत होता है। कुध्यान में लीन होता हुआ अन्य प्राणियों को पीड़ित करने के उपायों का चिंतन करने में उद्यत रहता है। फलत: यह स्वयं भी दु;ख से पीड़ित रहता है। इस लोक में और परलोक में भय से आतंकित, अनुकम्पा विहीन होकर नीचकर्मों में निर्लज्ज हो पाप में आनन्द और दूसरों के दु:ख में प्रसन्नता मानता है। यह ध्यान कृष्ण, नील, और कापोत इन तीनों लेश्याओं के बल से होता है। यह ध्यान नरकादि पर्यायों को प्राप्त कराने वाला होता है। यहां कोई शंका कर सकता है कि रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीपों के नरकगति का कारण है परन्तु सम्यग्दृष्टि के नहीं ऐसा क्यों ? इसका समाधान करते हैं कि – जिस सम्यग्दृष्टि ने सम्यक्तव से पहले ही नरकायु का बन्ध कर लिया है, उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों के नरकगति का कारण नहीं है, क्योंकि उनके विशिष्ट भेद विज्ञान के बल से नरकगति का कारणभूत जो तीव्र संक्लेश है उसका अभाव होता है। यह रौद्रध्यान प्रथम गुणस्थान को आदि लेकर पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों के होता है।बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ४८ पृ. १५९ पंचम गुणस्थान तक जो कहा है वह भी मिथ्यात्व की प्रधानता से कहा है, क्योंकि पंचम गुणस्थान में सम्यक्तव की सामथ्र्य से अत्यधिक रौद्र परिणाम नहीं हो पाते हैं।
उपसंहार
अशुभ ध्यान से बचने का सबसे उत्तम उपाय है धर्मध्यान की साधना करना और अशुभ ध्यान के कारणों में अपनी बुद्धि को बिलग करना। सदैव ऐसा विचार करना चाहिये कि आयुबन्ध किसी भी समय हो सकता है। यदि हम अशुभ ध्यान में लीन रहें और उसी समय आयु का अपकर्ष काल आ जाये तो निश्चित ही नरक और तिर्यञ्च आयु का बन्ध होगा। हम सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक आरंभ करने से आत्र्त-रौद्र ध्यानों में ही रहते हैं। यहाँ तक कि मन्दिर में भगवान् की पूजा करते हुए भी आगामी काल के लिये विषय सुख की बांछा करके निदान रूप आर्तध्यान करते हैं। इन ध्यानों के चिंतन करते समय यदि हम इनके परिणाम और धर्मध्यान के परिणाम के विषय में विचार करेंगे तो निश्चित रूप से हम अशुभ ध्यानों से बच सकते हैं। जैसा कि पं. दोलतराम जी लिखते हैं -बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे । परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनंद पूजे । इसी प्रकार अशुभ ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान की साधना करना चाहिये तथा शुक्लध्यान को लक्ष्य में रखकर आत्मकल्याण में लगना चाहिए। अत: अशुभ ध्यान जो नीचगति में ले जाते हैं उनको त्यागकर जो साक्षात् तो उच्चगति और परंपरा से मोक्ष का कारण है ऐसा धर्मध्यान धारण करना चाहिये। आरम्भादि क्रियाओं में प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होगी जो हम निश्चित रूप से अशुभ ध्यान से बच सकते हैं।
पं. आलोक कुमार जैन शोध अध्येता-
जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय लाड़नू जिला नागौर (राजस्थान)