जिनवाणी के जनवरी—२०१४ के अंक में ‘परिवार—स्तम्भ’ में प्रकाशित श्री पारसमल जी चण्डालिखा का आलेख ‘कैसे बचें टूटते रिश्ते?’ पढ़ा। उन्होंने इस विषय पर मार्ग दिखाया कि अगर पति—पत्नी में एक दूसरे को समझने की, सामंजस्य करने की चाह होगी तो कोई ताकत उन्हें अलग नहीं कर सकती। आज हर रोज तलाक के एवं अंतरजातीय विवाह के प्रसंग सुनने —देखने को मिल रहे हैं। हमारे जैन समाज में यह क्या हो रहा है? कुछ परिवार के लोग लड़की को धन तो दे देते हैं, पर संस्कार नहीं देते। वे ससुराल से आई बेटी को अपने घर में रख लेते हैं और फिर कानून व अन्याय की रणनीति से लड़के वालों पर दहेज का, मारने का, पैसा मांगने का, लड़के पर शराब पीने का या लव अफैयर का इल्जाम लगाकर अपनी लड़की को हर गुनाह से बचा लेते हैं । उन्हें वापस उस लड़की की शादी करनी होती है। अब लड़कियाँ भी इस तरह रिश्ते बदलती हैं जैसे वह रिश्ता नहीं कपड़े हों। नादान लड़कियाँ यह नहीं सोचती हैं—‘‘मैं यहाँ से छोड़कर जाऊँगी तो मुझे वापस जाना तो दूसरी जगह पर ही पड़ेगा।’’जिस घर में वह शादी करके गई उसे अपना घर माने, अगर कोई बात है तो सामंजस्य करने में वह अपने पति के घर में बैठ कर ही अपनी बात रखे, न कि पिता के घर। अगर लड़की ससुराल में बड़ों का आदर करती है, छोटों को प्यार देती है, छोटी—छोटी बातें पीहर वालों को न बताकर स्वयं ही उसे सुलझा देती है तो स्थिति तनावपूर्ण नहीं बनती, सामने बोलना ,घंटो मोबाइल से बातें करना, घर का काम नहीं करना, गरिमा पूर्ण कपड़े नहीं पहनना आदि बातें ससुराल में शोभा नहीं देतीं। इनसे परस्पर तनाव एवं दुराव उत्पन्न होता है। हमें अपने आपको एडजस्ट करना होता है। आज फैशन परस्त युग है, पर कोई फैशन बाध्य नहीं करती कि आप मर्यादा में न रहें। बहुत से घरों में यह होता है कि वे बहू को तो घूंघट निकालते देखना चाहते हैं, किन्तु बेटी को स्कर्ट पहनाते हैं। वे यह नहीं जानते कि हमारे कपड़े हमारे शील की रक्षा करते हैं। लज्जा स्त्री का गहना होता है। अपनी बहू पर सभी कानून—कायदे लगाते हैं, परन्तु अपनी बेटी को ससुराल में कैसे रहना , यह शिक्षा नहीं देते। आज लड़की के ससुराल में हस्तक्षेप करके उसका जीवन नरक बना दिया जाता है। उसे बैसाखी के सहारे चलने की आदत डाल दी जाती है। वे यह नहीं सोचते कि बेटी ने कोई छोटी उम्र में तो शादी नहीं की है, वह भी अपना भला—बुरा समझती है, पर माँ—बाप का बेटी के प्रति अति प्यार बेटी का जीवन बिगाड़ देता है। बेटी मनगढंत कहानियाँ बना कर माता—पिता को परोसती है और फिर शुरु हो जाती है तहकीकात। अंत में उनका एक ही कार्य रहता है कैसे लड़के वालों को नीचा दिखाना, कैसे उनसे लाखों रूपये निकलवाना तथा उन्हें कोर्ट—कचहरी में झूठा केस डालकर फसाना । उन्हें पता होता है कि कानून लड़कियों के लिये ही बना है। मेरी यह विनति है कि आप बेटी को धन नहीं देंगे तो चलेगा, किन्तु उसे संस्कार अवश्य दें ताकि वह अपने पिता व पति का नाम रोशन करे, क्योंकि जब हमारे घर में आग लगती है तो धुँआ पड़ोसी के घर में भी जाता ही है। अपनी लड़की को बचाने के चक्कर में वे सामने वालों का तथा स्वयं का भी बुरा कर बैठते हैं। श्रीमान् चण्डालिया जी ने टूटते रिश्ते को बचाने के जो सुझाव बताये हैं उनसे बेटियों को मार्गदर्शन दें, हर माता—पिता से यही अनुरोध है।