ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ काम सेवन नहीं करना, ब्रह्मचर्य अणुव्रत अथवा शीलव्रत कहलाता है। यह व्रत सभी व्रतों में अधिक महिमाशाली है। इसके पालन करने वाले को मनुष्य तो क्या देवता भी नमस्कार करते हैं। -मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की पत्नी सीता वनवास के समय पतिसेवा करना अपना कत्र्तव्य समझकर महलों के सुखों को छोड़कर पति के साथ वन-वन में घूमी थीं। उस वनवास के प्रसंग में रावण ने सीता के रूप पर मुग्ध होकर उसका हरण किया था। किन्तु पतिव्रता सीता ने रामचन्द्र के समाचार न मिलने तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया था। रावण के अनेक प्रलोभनों तथा उपसर्गों से भी वे चलायमान नहीं हुई थीं। अनंतर हनुमान ने ११ दिन बाद रामचन्द्र का समाचार देकर सीता को पारणा कराई थी। पुन: भयंकर युद्ध में रावण को मारकर सीता को प्राप्त कर रामचन्द्र कुछ दिन बाद अयोध्या आ गये थे। वहाँ पर किसी के मुख से सीता की झूठी निंदा सुनकर रामचन्द्र ने मर्यादा की रक्षा हेतु धोखे से गर्भवती सीता को भयंकर वन में भेज दिया। अनन्तर पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वङ्काजंघ के यहाँ सीता ने अनंगलवण और मदनांकुश इन युगलपुत्रोें को जन्म दिया। कालान्तर में रामचन्द्र ने सीता की अग्नि परीक्षा का निर्णय किया। तब सीता ने अग्निकुण्ड के सामने कहा-हे अग्निदेवता! यदि मैंने मन वचन काय से स्वप्न में भी परपुरुष को चाहा हो, तो तू मुझे भस्म कर दे तथा महामंत्र का स्मरण करते हुए अग्नि में कूद पड़ी। लोग हाहाकार करने लगे किन्तु शील के माहात्म्य से एक क्षण में ही वह अग्निकुण्ड जल का सरोवर बन गया, उसमें कमल खिल गये, देवियों ने कमलासन पर सीता को विराजमान कर दिया, आकाश से पुष्प-वर्षा होने लगी। चारों तरफ से सीता के शील की जय-जयकार होने लगी। परीक्षा के बाद रामचन्द्र के अतीव आग्रह पर सीता ने घर न जाकर उसी स्थल पर केशलोंच कर दिया और शीघ्र ही जाकर पृथ्वीमती आर्यिका से आर्यिका दीक्षा ले ली। धन्य है शील के माहात्म्य को कि जिससे अग्नि भी जल हो गई।