भक्तामरस्तोत्र समस्त भारतीय संस्कृत-काव्य साहित्य में सर्वोत्कृष्ट भक्ति काव्य है। आचार्य मानतुंग विरचित इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति-काव्य मे भक्ति, दर्शन एवं काव्य की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित होती है। जैन स्तोत्र साहित्य में जैनाचार्यो ने भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए शताधिक भक्ति-स्तोत्रों की रचना की है, लेकिन भक्तामर स्तोत्र ने जिस प्रतिष्ठा, गौरव एबं प्रसिद्धि को प्राप्त किया है उतनी प्रतिष्ठा एवं प्रसिद्धि किसी दूसरे स्तोत्र को प्राप्त नहीं हुईं है। एक ओर जहाँ जैन समुदाय के अधिकांश लोगों को भक्तामर स्तोत्र पूर्ण रूपेण कंठस्थ है वही दूसरे ओर अन्य भक्ति काव्यों के नाम भी अधिकांश लोगों को याद नहीं हैं। भक्तामर स्तोत्र की सर्वोत्कृष्टता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? संस्कृत भक्ति काव्यों के इतिहास में अनेक भक्ति काव्यों के नाम प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख संस्कृत भक्ति काव्यों के नाम इस प्रकार है।
संख्या आचार्य काव्य समय
(1 )आ० समंतभद्र स्वामी द्वारा विरचित देवागम स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र जिन स्तुति शतक (स्तुति विद्या) 2वीं शती ई. –
(2) आचार्य पूज्यपाद स्वामी द्वारा विरचित शान्त्यष्टक , सरस्वती-स्तोत्र दश- भक्ति: 5वीं शती ईं. –
(3) आ. सिद्धसेनकृत कल्याण मंदिर स्तोत्र 6वीं शती ई. –
(4)आ. पात्रकेशरीकृत पात्र केशरी स्तोत्र 6वीं शती ई. –
भक्तामर स्तोत्र एक अत्यंत प्राचीन संस्कृत भक्ति काव्य हैं। भक्तामर स्तोत्र के रचनाकाल पर विद्धानों में मतभेद है। इसका कारण यह है कि श्री भक्तामर स्तोत्र के रचयिता आ. मानतुंग के काल का निर्धारण नहीं हो पाया है। विद्वानों में आचार्य मानतुंग के समय निर्धारण को लेकर परस्पर विरोधो विचारधारायें दिखाई देती है। कुछ विद्वानों ने आचार्य मानतुंग को सम्राट् हर्ष के समकालीन माना है, विद्वानों का एक समुदाय आ. मानतुंग को महाराज भोज के समकालीन मानता है। आधुनिक विद्वानों ने गहन शोध के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य मानतुंग सम्राट् हर्ष के समकालीन थे। आ. मानतुंग को सम्राट् हर्ष के समकालीन मानने वालों में संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान डॉ.ए. वी. कीथ ने लिखा है कि “आचार्य मानतुंग के स्तोत्र से जुड़ी हुई कथा में जिन कोठरियों के ताले एवं पाशबद्धता का वर्णन किया गया हैं वे संसार बन्ध न का रूपक है। इस प्रकार की रूपक विधा का उपयोग छठी एवं सातवीं शताब्दी के विद्वानों के काव्य संग्रहों में दिखाईं देता है।” सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. गौरी शंकर हीराचंद्र ओझा ने अपने “सिरोही का इतिहास” नामक ग्रंथ में आ. मानतुंग का समय हर्ष कालीन माना है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ० नेमिचंद्र जी शास्त्री एवं डा. ज्योति प्रसाद जी ने भी बिभिन्न संदर्भों एवं प्रमाणों से आचार्य मानतुंग का समय सम्राट् हर्ष के समकालीन निर्धारित किया है। सम्राट् हर्ष का राज्यभिषेक ईस्वी सन 608 में हुआ था अत: उपर्युक्त विद्वानों के निष्कर्षों से आ. मानतुंग का समय सातवीं शताब्दी माना जाना चाहिए। अनेक विद्वानों ने भक्तामर स्तोत्र की काव्य शैली कै अध्ययन के उपरांत उनकोंं मयूर, बाण, धनंजय आदि सुप्रसिद्ध कवियों के समकालीन माना है । इतिहासकारों ने महाकवि बाण, धनंजय, मयूर को सातवीं शताब्दी का कवि माना है। आचार्य मानतुंग को चाहे सम्राट् हर्ष के समकालीन माना जाये या ग्यारहवी सदी के राजा भोज के समकालीन माना जाय लेकिन किसी भी धारणा के पुष्ट होने पर इस उत्कृष्ट भक्ति काव्य की श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का अवमूल्यन नहीं होता। भक्तामर स्तोत्र का अभ्युदययह तो निर्विवाद है कि भक्तामर स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग जी ने अपनी लेखनी से की थी। उन घटनाओं एवं परिस्थितियों को लेकर विद्वानों में मतभेद है जिन घटनाओँ एवं परिस्थितियों ने इस कालजयी कृति को जन्म दिया था। जन सामान्य में भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे यह मान्यता है कि किसी राजा के द्वारा आचार्य मानतुंग को सांकलों से जकड़कर किसी ऐसी कोठरी में बंद कर दिया गया जिसमें अड़तालीस दरवाजे थे और प्रत्येक दरवाजे पर ताला लगा दिया गया। आचार्य मानतुंग ने इस विषम परिस्थिति में जिन धर्म की प्रभावना हेतु भगवान् जिनेन्द्र की भक्ति में तल्लीन होकर प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव की स्तुति करते हुए भक्तामर स्तोत्र की रचना की थी। इस भक्तिमय संस्कृत काव्य के प्रभाव से कोठरियों के ताले एवं साकलें टूट गयीं। आचार्य मानतुंग बंधन मुक्त हो गये। इस चमत्कारिक घटना से प्रभावित होकर राजा एवं प्रजा मुनिराज के चरणों में नम्री भूत हो गयी एवं जैन धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई।
उक्त जन सामान्य की मान्यता का समर्थन अनेक पूर्ववर्ती लेखकों ने अपनी-2 रचनाओ में किया है। इन लेखकों में कुछ प्रमुख लेखकों के नाम एवं उनकी रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं।
( 1 ) श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने 1277 ई. में लिखे गये ‘प्रभावक चरित’ नामक ग्रंथ में इसी प्रकार को घटना उल्लेख किया है।
(2)मेरुतुंग ने 1304 ई. में लिखे गये अपने ग्रंथ ‘प्रबन्ध चिन्तामणि’ में भी इसी घटना का उल्लेख किया है।
(3) गुणाकर सूरि ने 1370 ई. में लिखे गये भक्तामर स्तोत्र वृत्ति नामक शास्त्र में भी इसी प्रकार की घटना का वर्णन किया गया है।
( 4 ) 1610 ई. में ब्र रायमल्ल वर्णी द्वारा लिखे गये भक्तामर स्तोत्र वृत्ति में कथावतार के रूप में इसी घटना का वर्णन हैं।
(5)1665 ई. में भट्टारक विश्व भूषण कृत भक्तामरचरित में भी इसी प्रकार की घटना का वर्णन किया गया है । अनेक आधुनिक कवियों एवं विद्वानो ने भी भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे इसी प्रकार घटना का उल्लेख किया है।
इन विद्वानों में कवि विनोदी लाल, भट्टारक सुंरेन्द्र भूषण, नथमल बिलाला जयछंद छाबड़ा आदि कई विद्वानों के नाम उल्लेखनीय है। उपर्युक्त सभी पूर्ववर्ती विद्वानों ने अपने-2 ग्रंथों में भक्तामर स्तोत्र से जुड़ी हुईं जिस कथा का वर्णन किया है, उसकी विषय वस्तु समान है पर उनमें पात्रों क नाम, घटना काल एवं घटना स्थल में भिन्नता दिखाई देती है। इसके पीछे क्या कारण रहा होगा यह विचारणीय विषय है। भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे की घटना एवं परिस्थिति पर दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्र ने ग्यारहवीं शताब्दी में क्रिया कलाप ग्रंथ की टीका की उत्थानिका में लिखा है। ‘मानतुंग नामक: श्वेताम्बरो महाकवि निर्ग्रंथाचार्यवयैरपनीतमहाव्याधिप्रतिपन्न निर्ग्रथमार्गो भगवन् कि क्रियतामिति ब्रु वाणो भगवत: परमात्मनो गुणगणं स्तोत्रं बिधीयता मित्यादिष्ट: भक्तामर इत्यादि।” अर्थात् मानतुंग नामक श्वेताम्बर महाकवि को एक दिगम्बराचार्यं ने महाव्याधि से मुक्त कर दिया तो उसने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा कि भगवत्! अब मैं क्या करूँ? आचार्य ने आदेश दिया कि परमात्मा के गुणों को गूँथ कर स्तोत्र की रचना करो। जिसके फलस्वरूप मानतुंग मुनि ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की।
भक्तामर सम्बन्धी प्राप्त साहित्य- संस्कृत भाषा में रचित संपूर्ण भक्ति काव्यों के इतिहास में किसी स्तोत्र पर इतना साहित्य नहीं लिखा गया जितना साहित्य भक्तामर स्तोत्र की रचना के बाद इस स्तोत्र पर उत्तरवर्ती विद्वानों एवं कवियो ने लिखा है ” यह इसकी उत्कृष्टता का एक जीता-जागता प्रमाण है” भक्तामर स्तोत्र विषय साहित्य में निम्न रचनाओं के नाम उल्लेखनीय है
संख्या रचनाएं समय-(1) क्रिया कलाप टीका लगभग 1025 ई.- (2) प्रभावक चरित 1277 ई. -(3) प्रबंध चिंतामणि 13O4 ई. – (4) प्रबंधकथा कोष 1348 ई. -(5) गुणाकर कृत भक्तामर वृत्ति कथा 1370 ई. – (6) शुभशीलगणी कृत भक्तामर स्तोत्र माहात्म्य 1452 ई. – (7) ब्र० रायमल्ल कृत भक्तामर चरित्र 1610 ई. – (8) भट्टारक विश्व भूषण कृत भक्तामर चरित्र 1665 ई. -(9) विनोदी लाल जी कृत भक्तामर चरित्र कथा 1690 ई. – (1०) भट्टारक सुरेन्द्रभूषण कृत भक्तामर कथा 1740 ई. – (11) नथमल विलाला एवं लालचंद्र कृत भक्तामर स्तोत्र ऋद्धि मंत्र काव्य छन्द कथा 1772 ई. – (12) ज़यचन्द्र छाबड़ा कृत भक्तामर चरित 1813 ई.
भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य के पाठ और उच्चारण के महत्त्व को स्पष्ट करने वाली अनेक कथायें भी प्राप्त होती है। गुणाकर ने 26 पद्यों के महत्त्व को दर्शाने वाली 26 कथायें भी दी है। उसके बाद के लेखकों ने अड़तालीस पद्यो की पृथक्-पृथक् कथायें लिखी है। इन कथाओं की प्रामाणिकता शोध का विषय हो सकती है ” पर ये सभी कथायें निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर देती है कि समस्त जैन समुदाय अपने असाता कर्मो के अशुभ फल से बचने के लिए णमोकार मंत्र के बाद भक्तामर स्तोत्र पर ही श्रद्धा करता है ” भक्तामर स्तोत्र का केवल पाठ ही नहीं किया जाता है ” बल्कि पूजा-स्तवन एवं विधान के रूप में भी इस स्तोत्र का एक विशिष्ट स्थान है। प्रत्येक पद्य के भावार्थ पर आधारित ऋद्धि मंत्रों एवं यंत्रों की रचना भी को गयी है। जिनके द्वारा भक्त जन अतिशय फल प्राप्त करते हैं। भक्तामर स्तोत्र से जुड़े हुए पूजन एवं विधान साहित्य में भट्टारक सोमसेन का भक्तामरोद्यापन (1980 ई) भट्टारक ज्ञान भूषण जी कृत भक्तामरोद्यापन ( 1650 ई. ) श्री भूषण शिष्य ज्ञानसागर कृत भक्तामर पूजन (1610 ई.) रत्नचन्द्र गणिकृत भक्तामर स्तव ( 1617 ई.) भट्टारक लक्ष्मी चंदजी के शिष्य ब्रह्मज्ञान सागर कृत भक्तामर स्तवन पूजन (1625 ई.) आदि के नाम उल्लेखनीय है। सम्पूर्ण संस्कृत भक्ति काव्यों में भक्तामर स्तोत्र एक मात्र ऐसा स्तोत्र है जिसे सर्वाधिक भाषाओँ में अनुवादित किया गया है। इस स्तोत्र का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रचारित हिन्दी अनुवाद पांडे हेमराज जी द्वारा 1652 ई. में किया गया था। इसके बाद इस अनुपम स्तोत्र के अब तक हिन्दी में विभिन्न कवियो के द्वारा शताधिक अनुवाद किये जा चूके हैं। भक्तामर स्तोत्र को हिन्दी के साथ – 2 अन्य भारतीय भाषाओ में जैसे-राजस्थानी गुजराती, मराठी, कन्नड़, बंगला आदि में भी अनुवादित किया जा चुका है। इस स्तोत्र को जर्मन भाषा में डाँ. जैकोवी ने एवं अंग्रेजी में शार्लोट क्राउने एवं एच. आर. कापड़िया आदि विद्वानों ने अनुवादित किया है। हिन्दी के साथ-2 इस स्तोत्र को जर्मन, अंग्रेजी एवं उर्दू में भी अनुवादित किया जा चुका हैं। उर्दू में इसका अनुवाद 1925 ई. में भोलानाथ दरख्शां जी ने रूवाइयाते दरख्शां नामक शीर्षक से किया था। भक्तामर स्तोत्र का आंतरिक मूल्यांकनस्तोत्र शब्द की व्याख्या करते हुए हलायुधकोष में लिखा है कि स्तोत्र शब्द संस्कृत के स्तु धातु से निष्पन्न होता है। स्तु धातु का अर्थ स्तुति करना, प्रशंसा करना होता है। स्तोत्र शब्द की उक्त परिभाषा के अनुरूप भक्तामर स्तोत्र आ. मानतुंग के द्वारा जिनेन्द्र भगवन् की गुण स्तुति एवं प्रशंसा में लिखा गया है। भक्ति की कसौटी पर भक्तामर – भक्तामर जैसे महान संस्कृत भक्ति काव्य का मूल्यांकन करना समुद्र के जल को अंजुलि में भरने के असफल प्रयास जैसा होगा।
भक्ति के लक्षणों को समझने के लिए विभिन पूर्वाचार्यो एवं विद्वानों के अभिमतों पर दृष्टि डालना आवश्यक है –
अर्थ-अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय आदि बहुश्रुत संतों में और जिनवाणी में भावों की विशुद्धि पूर्वक जो प्रशस्त अनुराग होता है। उसे भक्ति कहते है । (2) “अर्हदादिगुणानुरागो भक्ति:- भगवती आराधना 47/159 अर्थ-अर्हदादि गुणों में प्रेम करना भक्ति है। (3) भक्ति: पुन: सम्यकत्वं भव्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठ्याराधनारूपा “, समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका 173/176/243 आगम मैं उल्लिखित परिभाषायें भक्ति के स्वरूप को भगवन् के गुणों के पति अनुराग के रूप में परिभाषित करती है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में भगवान जिनेन्द्र के प्रति एक भक्त के रूप में अनुराग व्यक्त करते हुए लिखा है कि – सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीशा ! कर्तु स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्त:! प्रीत्यात्मवीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्। नाभ्येति किं निज शिल्पों: परिपालनार्थम्।। भावार्थ – हे नाथ! जैसै हिरणी शक्ति न रहते हुए भी प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षां लिए सिंह का सामना करती है। उसी तरह मैं भी शक्ति न होने पर भी भक्तिवश स्तवन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ। उक्त पद्य में आचार्य मानतुंग ने स्पष्ट किया है जिनैन्द्र भगवत् कै प्रति उनके असीम अनुराग में ही उन्हें इस स्तोत्र की रचना के लिए प्रेरित किया है। भक्तामर स्तोत्र की विषय व्रस्तु – आचार्य भानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अइतालीस पद्यो के माध्यम से एक क्रमवार विषय वस्तु पर भावाभिव्यक्ति की है। अड़तालीस पद्यो की विषय वस्तु को गहराई से समझने पर समस्त पद्यों में एक क्रम पूर्वक विषय वस्तु स्पष्ट होती है. जो इस प्रकार है-
संख्या विषयवस्तु पद्य संख्या -(1) मंगलाचरण के रूप में आदि जिनेन्द्र प्रभु की वंदना 1 -(2) स्तोत्र रचना का संकल्प 2 -(3) लघुताभिव्यक्ति 3, 4-(4) भक्ति हेतु प्रेरणा 5, 6-(5) जिनेन्द्र स्तुति का फंल 7, 9, 10 -(6) श्रेयसमर्पण नि 8 – (7) जिनेन्द्र भगवान की परम दर्शनीय वाह्य मुद्रा 11 से 13 -(8) जिनेन्द्र भगवान क्री अंतरंग गुण बिभूति 14, 15-(9) अनुपमेय जिनेन्द्र भगवान 16 से 21-(10) जननी प्रशंसा 22-(11 ) श्रेयस पथ प्रणेता 23 – (12) विभिन्न नामों रने स्तुति एवं प्रणाम 24 से 26-(13) अनंत गुण निधान जिनेन्द्र की स्तुति 27 -(14) वाह्य विभूति रूप समवशरण, अष्ट प्रतिहार्या एवं बिहार काल का वर्णन 28 से 3३7-(15) भय मुक्ति दाता कै रूप मं जिनेन्द्र को स्तुति 38 से 47 – (16) स्तुति का फल 48
भक्तामर स्तोत्र के मंगलाचरण के प्रथम में प्रयुक्त “युगादौ” एवं सम्यक् प्रणम्य शब्द ध्यान देने योग्य है। “युगादौ” शब्द का प्रयोग युग के आदि में अर्थाक् कर्म भूमि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए भगवन् ऋषभ देव की और संकेत करता है यहाँ निश्चय ही आचार्य मानतुंग ने मंगलाचरण के रूप में प्रथम तीर्थकर भगवन् ऋषभ देव का स्मरण किया है। द्वितीय शब्द ‘सम्यकू प्रणम्य’ इस बात को स्पष्ट करता है कि भक्ति, त्रियोग (मन, वचन, काय) पूर्वक की जानी चाहिए। अंतरंग हदय में विद्यमान छल, कपट, अहंकार, विषयाभिलाषा जैसे विकारों को त्यागकर प्रमाद रहित होकर नमस्कार करना चाहिए। इसी भावना का उल्लेख पंडित प्रवर श्री दौलतराम जी ने छहढ़रला ग्रंथ के मंगलाचरण में नमहूँ त्रियोग सम्हारि लिखकर के किया है।
लघुताभिव्यक्ति
आचार्य मानुतंग ने भक्तामर स्तोत्र के तृतीय पद्य में बुद्ध्या विनाSपि शब्दों का प्रयोग करके अपने भीतर भरे हुए अपार ज्ञान सिन्धु से अहंकार का समस्त खारापन दूर कर दिया है। उनकी इस अभिव्यक्ति ने उनके कवि मस्तिष्क से उनके भक्त हृदय को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया है। उनकी इसी भावना ने लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर जैसी पंक्तियों को ज़न्म दिया है । आचार्य मानुतुंग ने भक्तामर स्तोत्र को लिखले समय ही इस स्तोत्र की सफलता का समस्त श्रेय आठवे पद्य में ही तव प्रभावात् के माध्यम से जिनेन्द्र चरणों में समर्पित कर दिया था। इस पद्य में उन्होंने लिखा कि “कमल” के पत्ते पर पड़ी एक साधारण जल की बूँद जिस तरह मोती जैसी चमक को प्राप्त कर लेती है। उसी प्रकार मुझ मन्द बुद्धि के द्वारा रचित आपका यह स्तवन सज्जनों के चित्त को हरने में आपके प्रभाव के कारण ही समर्थ होगा ”
भक्ति प्रेरणा
प्राप्त कथाओं से जिस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य मानतुंग ने शारीरिक बन्धन की अवस्था में इस स्तोत्र की रचना की एवं इसके प्रभाव से समस्त बंधनों से मुक्त हो गये “स्तोत्र रचना से बंधन मुक्त होने के उदेश्य के विषय में संपूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्य से जानकारी प्राप्त नहीं होती है। 46वे पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने आपाद -कण्ठ मुरुशंखलवेष्टिताडगा…विगत बंध भया भवन्ति” इन भावों के माध्यम से भगवान के नाम-जाप्य के महत्त्व के प्रभाव को दर्शाया है। इस पद्य में पूर्व में भी उन्होंने हस्तिभय निवारण, सिंह भय निवारण, दावाग्नि भय निवारण, भुजंग भय निवारण, संग्राम भय निवारण, निर्विघ्न समुद्र यात्रा आदि कर उल्लेख जिनेन्द्र स्मरण के फल के रूप मेँ किया हैं। इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वे स्वयं शारीरिक बंधन युक्त थे । भगवत् की स्तुति में प्रेरणा के रूप में मानतुंगाचार्य जी ने छठे पद्य में “त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् लिखकर स्पष्ट कर दिया कि उन्हे इस स्तोत्र की रचना के लिए केवल भगवन् की भक्ति ने ही प्रेरित किया था जैसे बसन्त ऋतु में आम की मंजरी को देखकर बसन्त ऋतु में आम की मंजरी को देखकर बरबस ही कोयल मधुर शब्द बोलने लगती है।
वीतरागी परमात्मा में कर्तृत्व का आरोप निराधार
कुछ लोग भक्तामर स्तोत्र के विषय में शंका करते है कि इस स्तोत्र में निकाँक्षित अंग को गौण कर दिया है एवं वीतरागी प्रभु को कर्ता मानकर स्तुति की गयी है। यह शंका निराधार है क्योकि सम्पूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्य में ईश्वर से किसी भी प्रकार स्वर्गादि रूप लौकिक बाँछा नहीं की गयी है। मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के सातवें पद्य में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति को पाप क्षयी बतलाते हुए लिखा है कि त्वत्संस्तवेन भव सन्तति-सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर भाजाम्। आक्रांत लोक-मलिनील मशेषमान्शु सूर्यांशु भिन्न मिव शार्वरमंधकारम् !!7!! हे भगवन् ! आपके स्तवन से प्राणियों के जन्म-2 के संचित पाप शीघ्र नष्ट हो जाते है जिस प्रकार सूर्य की किरणों से रात्रि का समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है। नवें पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने लिखा है कि हे भगवन् ! आपकी निर्दोष स्तुति की बात तो दूर है आपका पवित्र नाम उच्चारण मात्र से ही जीवों के पाप नष्ट हो जाते है। जैसे सूर्यं भले ही दूर हो पर इसकी उज्जवल किरणों से ही सरोवर के कमल खिल जाते हैं। आचार्य मानतुंग स्वामी ने स्तोत्र के अड़तीसवे काव्य से लेकर छियालीसवे काव्य तक जिनेन्द्र भक्ति को भयमुक्ति दायक बतलाया है। ये भय तिर्यचकृत मनुष्यकृत एवं प्रकृति कृत अनेक प्रकार के होते हैं। मानतुंगाचार्य जी ने जिनका उल्लेख एक साथ सैंतालीसवें काव्य में करते हुए लिखा है कि- “मदोन्मत्त हाथी, सिंह, दावानल सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर रोग, और कारागृह आदि से उत्पन्न हुआ भय भी जिनेन्द्र भक्ति से भयभीत होकर भाग जाता है। इन कथनों से कहीं भी मानतुंगाचार्य जी ने वीतरागी जिनेन्द्र प्रभु में कर्तृत्व आरोपित नहीं किया एवं न ही किसी प्रकार की बाँछा की है। समस्त सांसारिक आपत्तियाँ-विपत्तियाँ रोग, उपसर्ग, भय, असाता कर्मों के उदय से संसारी प्राणियों के जीवन में उपस्थित होते हैं। भगवन् जिनेन्द्र की गुणानुरागी भक्ति से शुभोपयोग द्वारा पुण्यास्रव होता है एवं असाता कर्म मंद पड़ जाते हैँ एवं समस्त भय एवं आपत्तियों का स्वत: निवारण हो जाता है। धवल ग्रन्थ मे भी लिखा है- जिणबिंब दंसणेण निधत्त निकाचिदस्स मिच्छतादि कम्म कला वस्स खय दंसणादो ” ( षटखंडागम पु. 6) अर्थात् जिन बिम्ब के दर्शन से निधत और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। भाव पाहुड़ में लिखा है- ते मे तिहुवण महिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा ” दिंतु बर भाव शुद्धिं दंसण णाणे चरित्ते य ।।163।। अर्थात-जो नित्य है निरंजन है शुद्ध है तथा तीन लोक के द्वारा पूजनीय है, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चरित्र में श्रेष्ठ उत्तम भाव की शुद्धता दें। थोस्सामि दण्डक में भी इसी प्रकार की भावना भायी गयी है- कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिंणा सिद्धी । आरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिंच में बोहिं ।।7।। अर्थात् -वचनों से कीर्तन किय गये, मन से वंदना किये गये और काय से पूजे गये ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान समाधि और बोधि प्रदान करें। जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करते हुए आचार्य पद्मनंदी जीं ने पद्मनंदी पंचविशतिका में लिखा है ।त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व मयि किंकरेSत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्ति: ।।1।। अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये। तेनाति दग्ध इति मे देव बभूव प्रालपित्वम्।। 6 ।।
जिसका भावार्थ है कि तीनों लोकों के गुरु और उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे है जिनेश्वर! इस मुझ दास क ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये। हे देव! कृपा करके आप मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए यही एक बात मुझे आप से कहनी है। परन्तु चूँकि मैं संसार से अति पीड़ित हूँ इसलिए मैँ बहुत बकवादी हूँ। हमारी नित्य-नैमित्ति पूजा – अर्चनाओँ में भी परमार्थिक कामनाओं के उदाहरण मिलते है। कवि वृंदावन जी ने “दु:खहरण विनती” में लिखा है कि-यद्यपि तुम में रागादि नहीँ, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनंत गुणी, नित शुद्ध दशा शिवथाना है।। तद्यापि भक्तन की भीरि हरो सुखदेव तिन्हें जु सुहाना है। यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का , क्या पावे पार सयाना है।।”
हिन्दी भाषा में लिखे गये जलाभिषेक पाठ में कवि हरजसराय जी ने लिखा है कि-“मैं जानत तुम अष्ट कर्म हरि शिव गये। आवागमन विमुक्त राग-वर्जित भये।। पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही। नय प्रमानतैं जानि महा साता लही।।
उक्त अनेक शास्त्र प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि हमारें पूर्वाचार्यों, विद्वानों एवं कवियों ने भगवन् जिनेन्द्र के वीतराग भाव से भली भाँति परिचित होते हुए भी एक भक्त के रूप में प्रशस्त राग के वशीभूत सभी प्रकार के सुखों की कामना जिनेन्द्र प्रभु से अनेक स्थानों पर व्यक्त की है। महाकवि धनंजय ने विषापहार स्तोत्र में लिखा है कि-“तुंगात्फलं यत्तदकिंचनाच्च ” प्राप्य समृद्धान्न धनेश्वरादे: । निरम्भसोSटयुच्चतमादिवादे नैकापि निर्याति धुनी पयोधे: ।।17।।
हे भगवन् ! यद्यपि आप अशेष अपरिग्रही है, आपके पास से फिर भी बहुतों के मनोरथो की संपूर्ति ऐसी सरलता से होती है। जो बड़े-बड़े धनेश्वरों से भी नहीं हो पाती। जैसे पर्वत पर तो जलाभाव है फिर भी नदियाँ वहीं से निकलती हैँ, जल संग्रह करने वाले समुद्रों से नहीं। स्तुति करता हुआ भक्त भक्ति के आवेग से भरकर समर्पित भाव से भगवन् को उपालंभ देता है सुख का कर्ता या दु:ख का हर्ता बतला देता है, अपनी दीनता-हीनता प्रकट करता है। यह तभी होता है जब भक्त समर्पण की पराकाष्ठा पर होता है। सर्वार्थ सिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने स्तुति के लक्षण की व्याख्या करते हुए लिखा है- भूता भूदगुणोद् भाववचनं संस्तव:7/23/364 अर्थात् – आराध्य में जो गण है और जो नहीं भी है इन दोनों का सदभाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है। उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र में भगवन् जिनेंद्र में कर्तृत्व आरोपित नहीं किया है बल्कि वीतरागत्व की उपासना करते हुए सहृदय स्तुति की है ” अन्तरंग एवं बाह्य स्तुति का अद्भुत समन्वय – भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग जी ने ग्यारहवें बारहवें एव तेरहवें पद्य में जिनेन्द्र भगवान के बाहय रूप एवं मुद्रा की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि हे भगवन्! आपके इस रूप को देखकर यह नेत्र किसी और को नहीं देखना चाहते जिस तरह क्षीर सागर का जल पीने के बाद कोई मनुष्य लवण समुद्र का खारा पानी नहीं पीना चाहता। जिनेन्द्र भगवन के परमौदारिक तन की सुन्दरता का वर्णन करते हुए लिखा कि जिन शांत परमाणुओं से आपकी रचना हुईं है, ऐसा लगता है कि लोक में वें उतने ही परमाणु थे। इसलिए आपके समान सुन्दर अन्य कोई दूसरा रूप नहीं है। अठारहवें पद्य में भगवन के मुख चन्द्र क्री शोभा का वर्णन करते हुए लिखा कि आपका मुख कमल अदभुत चन्द्रमा के समान है जिसके द्वारा मोहरूप अन्धकार का नाश होता जिसे न राहु निगल सकता है और न ही मेघों द्वारा आच्छादित किया जा सकता है। मानतुंगाचार्य ने अरिहंत प्रभु की बाह्य विभूति के रूप में अट्ठाईसवें पद्य से लेकर सैंतीसवें पद्य तक अष्ट प्रतिहार्यों, अकाशगमन एवं समशरण संपदा आदि का वर्णन भी किया है। लेकिन केवल बाह्य रूप एवं वैभव की आराधना से भगवन् की स्तुति पूर्ण नहीं हो सकती। आचार्य कुंद कुंद जी ने समयसार ग्रंथ में लिखा है कि-णयरम्मि वणि्णदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।।30।।
अर्थात-जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन नही होता है। इसी प्रकार शरीर के गुण का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने भी देवागम स्तोत्र में लिखा है कि है भगवन्! मैँ आपको केवल आपकी बाह्य विभूति जैसे देवों का समवशरण में आना, आकाश में बिहार करना छत्र चँँवर आदि के कारण नमस्कार नहीं कर रहा हूँ। मैं आपको आपके अन्तरंग गुण वितरागता एवं सर्वज्ञता आदि गुणों के कारण प्रणाम करता हूँ । आचार्य मानतुंग स्वामी ने भी भगवन जिनेन्द्र के अंतरंग गुणों की स्तुति करते हुए स्तोत्र के चौदहवे एवं पन्द्रहवें पद्य में लिखा है कि हैं भगवन! आपके आश्रयभूत अत्यंत निर्मल गुण तीनों लोकों में फैले हुए हैँं। भगवन् की निर्विकल्प दशा का वर्णन करते हुए लिखा कि जैसे प्रलय कालीन प्रचण्ड वायु जो पर्वतों को हिला देती है। वह मेरु पर्वत को कम्पित भी नहीं कर सकते उसी प्रकार मन में विकार पैदा करने वाली देवांगनाओँ के हावभाव भी आपके मन मैं विकार पैदा नहीं कर सकते। मानतुंगाचार्य जी का यह कथन भगवान जिनेन्द्र की निर्विकारी दशा को स्पष्ट करता है। सोलहवें एवं सत्रहवें पद्य में जिनेन्द्र प्रभु की अलौकिक दीपक एवं अदभुत सूर्य जैसी उपमाओं के द्वारा स्तुति की गयी है। इन दोनों ही उपमाओं का प्रयोग भगवान जिनेन्द्र के कैवल्य ज्ञान की स्तुति करने के लिये किया गया है । मानतुंगाचायं जी ने इस स्तोत्र में भगवान क अन्तरंग एवं बाह्य गुणों की स्तुति करके भक्ति के श्रेष्ट मार्ग को प्रकाशित किया है।मिथ्यात्व का परिहार
मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के विभिन्न पद्यों में जिनेन्द्र प्रभु की स्तुति क माध्यम से मिथ्यात्व का परिहार किया है। भक्तामर स्तोत्र के ग्यारहवे पद्य में लिखा हैं कि “आपके सुन्दर रूप को देखने के बाद यह नेत्र फिर किसी और को देखकर संतोष को प्राप्त नहीं होते” इस पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने यह भावाभिव्यक्ति की है कि जिस भवन ने जिनेन्द्र भगवान की वीतरागता के दर्शन का आनंद पा लिया है वह फिर कहीं भी रागी देवी -देवताओं में संतोष को प्राप्त नहीं होता। सम्यक्तव की यह भावना बीसवें पद्य में और अधिक मुखर हो जाती हैं। इस पद्य में मानतुंगाचार्य ने भगवन के कैवल्यज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “आपका परम ज्ञान जिस तरह आप में शोभा को प्राप्त होता है। उस तरह हरिहरादि में शोमा को प्राप्त नहीं होता। इस पद्य मेँ हरिहरादिक पद से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों का कथन किया गया है। इनमें वीतरागता का अभाव होने से इन्हें दिव्य कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है? इस स्तोत्र के इक्कीसवें पद्य में भी वीतरागी जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन क्री प्रशंसा ब्याजोक्ति अलंकार द्वारा की गयीं कि आपके पहले सभी हरिहरादि देवों को देख लने से आपके प्रति मन में संदेह नहीं रह पाता। निश्चित ही मानतुंगाचार्य जी के इन निर्मल भावों से सम्यग्दर्शन कै नि:शंकित अंग की पुष्टि होती है।जननी-प्रशंसामानतुंगाचार्य जी ने भक्तामरस्तोत्र के बाइसवें पद्य में उस जननी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है जिसने तीर्थकर जैसे महान् सुत को जन्म दिया । स्तोत्र परम्परा में जननी प्रशंसा का ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। तीर्थकर भगवान मोक्ष मार्ग कै प्रणेता होते है, उन जैसे महान सुत को जन्म देने के कारण से उनकी जननी स्वयमेव ही प्रशंसा की पात्र बन जाती हैं।आचार्य मानतुंग का सामाजिक दृष्टिकोण आचार्य मानतुंग के पूर्ववर्ती एवं समकालीन आचार्यों और कवियों ने अपने आराध्य की स्तुति मॅ उम्हें सूर्य, चंद्र, पर्वत, सागर, नदी, सरोवर, कमल आदि उपमायें प्रदान की है। जो सभी उपमायें प्रकृति की परिधि से ही ग्रहण की गयी थी। वहीं आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अपने आराध्य की स्तुति में उन्हें विभिन्न प्रकार की उपमायें देकर प्रकृति की परिधि से बाहर निकलने का साहस दिखलाया है। आचार्य मानतुंग की दृष्टि प्रकृति के मनोरम दृश्यों के साथ-2 तत्कालीन समाज पर थी। इसका उदाहरण हमें भक्तामर स्तोत्र के दसवे पद्य में प्राप्त होता है। दसवें पद्य में मानतुंग आचार्य ने भगवन की स्तुति के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि हे भगवन! आपकी स्तुति करने वाले भक्त जन आपके समान हो जाते है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। इस कथन को पुष्ट करने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया कि जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को सम्पति देकर अपने समान नहीं बनाता उसकी सेवा से क्या लाभ है? इस कथन से तत्कालीन समाज की स्थिति स्पष्ट होती है। दूसरे अर्थों में यह उदाहरण आर्थिक असमानता एवं सामाजिक भेद-भाव पर चोट कर के उसे दूर करने पर बल देता है। आधुनिक समाजवाद की विचार धारा के वृक्ष क बीज भक्तामर स्तोत्र के इस एक उदाहरण में स्पष्ट झलकते हैं।अद्भुत आलंकारिक छटा एवं अनोखा काव्य पक्ष संतुलन आचार्य मानतुंग जी ने भक्तामर स्तोत्र की रचना के लिए ‘वसंततिलका छंद का प्रयोग किया है। यह छन्द संस्कृत भाषा का एक अति ललित छंद है। इस छंद का दूसरा नाम मधुमाधवी भी है। काव्य शास्त्र में वसंततिलका छंद का लक्ष्मण स्पष्ट करते लिखा है कि “ज्ञेयं वसंन्ततिलका तभजा जगौ ग: । इस छन्द में क्रमश: तगण, भगण, जगण तथा दो गुरू होते है। इस प्रकार चौदह अक्षरों से इसका निर्माण होता है। भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में चार-चार पंक्तियाँ हैं। एवं 56-56 अक्षर हैं। इस प्रकार संपूर्ण स्तोत्र में 192 पक्तियाँ एवं 2688 अक्षर है। इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति-काव्य में अनेक अलंकारों की छटा बिखरी हुईं है। इस स्तोत्र में अनुप्रास, उढोक्षब्ब, उपमा, रूपक, ज्याजोक्ति आदि विभिन्न अलंकारों का प्रयोग किया गया है। शब्द और अर्थ रने समन्वित रचना को काव्य कहते है। इस स्तोत्र कै छब्दों मैं र्कबल शाब्दिक सूचनायें नहीं है उनमें अर्थ रूपी चित्त एवं भक्ति रस रूपी आत्मा भी हैं। भक्तामरस्तोत्र के भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष में अनोखा संतुलन नज़र आता है। न इसमें अति दार्शनिकता का बोझ है और न ही इसमें अबूझ उपमाओं का संग्रह हैँ “जिस काव्य में अत्यधिक अलंकार, अति दार्शनिकता एबं अबूझ उपमायें मायी जाती है, वह काव्य जन सामान्य के लिए अग्राह्रय हो जाता है। भवतामर स्तोत्र में काव्य के इन दोनों पक्षों का अदभुत समायोजन है। इसमें जहाँ एक ओर मनमोहक छंद एवं अलंकारों का प्रयोग किया गया है, वहीँ दूसरी और इसके प्रत्येक पद्य में जिनेन्द्रभक्ति के निर्मल भावों की अविरल सरिता प्रवाहित होती है। कला-पक्ष काव्य का शरीर है एवं भाव-पक्ष उसकी आत्मा होती है। किसी काव्य की पूर्णता इन दोनों के सदभाव से ही संभव है। भक्तामर स्तोत्र एक ऐसा ही संपूर्ण जीवन्त काव्य हैँ। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र के रूप में भव-सागर पर एक ऐसे सेतु का निर्माण किया है, जिसके द्वारा संसारी प्राणी इस दु:खालय से निकलकर सिद्धालय तक की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं।
पंकज कुमार जैन
कनिष्ठ शोध अध्येता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणासी (उ.प्र. )