द्वारा- ब्र ० कु० इन्दू जैन ( संघस्थ )
हैं कितनी विद्वान मगर,विद्वत्ता का अभिमान नहीं |
सरल,सहज है प्रवृत्ति तेरी,है व्यक्तित्व महान सही ||
शाश्वत आत्मा की अनंत,शक्ती को जाग्रत करें सदा |
श्रमण संस्कृति धन्य हुई है पाकर ऐसी दिव्य सुधा ||१||
भाग्यवान वे जीव जो जीवन में चरित्र धारण करते |
हैं सौभाग्यवान वे सचमुच जीवन भर पालन करते ||
महाभाग्यशाली जो वृद्धिंगत उस चारित को करते |
हो उनमें तुम एक मातुश्री, इसीलिए तुमको नमते ||२||
पुण्य जगा जो शान्तिसिंधु की,शान्ति धरोहर तुम्हें मिली |
वीरसिंधु की परंपरा में,वीर्यसंपदा रहे खिली ||
ज्ञानमती गुरुसंनिधि से है,आत्मज्ञान वैभव पाया |
ज्ञानमती का ज्ञानपुष्प बन जग को तुमने महकाया ||३||
ज्ञान चंदना का दर्शन पा मनःशान्ति मिल जाती है |
सुख शांती की प्राप्त सुगंधी ह्रदय सरोज खिलाती है ||
जहां-जहाँ तव चरण पड़े हैं,लगता आया चौथा काल |
पावन पदरज पाकर जनता,झुका रही है अपना भाल ||४||
वर्ष चवालिस बिता दिए माँ,गुरुछाया अनुगामिनि हो |
अनुपम अनुकरणीय भक्ति से आप्लावित पथगामी हो ||
गुरुआज्ञा,अनुशासनपालन,हर सुकार्य करतीं संपन्न |
परम हितैषी,ज्ञानसुधाकर तव चरणों में शत वंदन ||५||
कुशल संघसंचालनकर्त्री,मृदुभाषी रखती हैं ध्यान |
आगमचर्या सतत पालतीं,नहीं करें उसमें व्यवधान ||
ग्रंथों का लेखन,संपादन,देता तुम्हें अलग पहचान |
मुक्तकंठ से यह साहित्यजगत गाता तेरा अवदान ||६||
धर्मविमुख प्राणी को अद्भुत, शैली में माँ समझातीं |
भूले भटके पथिकजनों को, धर्ममार्ग तुम समझातीं ||
जीवन में गुणवान बने अरु बनता कुल जाती का मान |
आत्मतोष पा भविप्राणी वह चढ़ता उन्नति का सोपान ||७||
ज्ञानमती माँ की प्रतिछाया,दिखता तुममें उनका रूप |
सदा करें गुरुआज्ञा पालन,ज्ञान ध्यान में आप अनूप ||
है वात्सल्य भरा नयनोँ में,सरल स्वभावी शांत छवी |
शीतल और सुगन्धित जीवन,जैन जगत की दिव्य रवी ||८||
यथा नाम गुण की हो धारी, सचमुच जैनधर्म की शान |
मृदुता ऋजुता अरु सहिष्णुता,गुण से भूषित आप महान ||
आशुकवित्री कुशल लेखिका, दूरद्रष्टिसम्पन्ना मात |
आर्षमार्ग की हे अनुगामिनि,तुमसे मिलता नया प्रभात ||९||
वाचस्पति,शास्त्री,धर्मालंकार उपाधी मिली तुम्हें |
लेकिन तेरी गुणगरिमा के सम्मुख कुछ भी नहीं अरे ||
प्रज्ञाश्रमणी,पी एच डी.की पदवी भी तुमने पाई |
मर्यादाशिष्योत्तमा मात,आर्यिकारत्न भी कहलाईं ||१०||
ओजस्वी वाणी है तेरी, अद्भुत तेरी गुणगाथा |
गुरु से पाकर ज्ञानरश्मियाँ,बनीं चंदनामति माता ||
आर्षमार्ग संरक्षण में रत,संवर्धन करने वाली |
प्रवचनपटु हे प्रज्ञाश्रमणी मन तामस हरने वाली ||११||
बड़े-बड़े कार्यों को करतीं कहलातीं छोटी माता |
अहंकार नहिं पास फटकता,भक्त सदा तव गुण गाता ||
वत्सलता की वर्षा से,अभिसिंचित करती रहती हो |
गुरुपथ की अनुगामिनि हो,वात्सल्य की शिक्षा देती हो ||१२||
हम जैसे अज्ञानी को माँ,ज्ञानामृत को पिला दिया |
अगणित दोष हुए फिर भी,वात्सल्य से उसको भुला दिया ||
हे माँ तेरे उपकारों से,उऋण नहीं हो पाऊँगी |
जब तक जन्मूँ इस धरती पर,तव गुणगाथा गाऊँगी ||१३||
धर्ममार्ग का बीजारोपण, करने में हैं आप कुशल |
त्वरित कार्यक्षमता है अद्भुत, मेधाशक्ती बड़ी प्रखर ||
गुणरूपी सुमनों से सुवासित, है चरित्र माता तेरा |
गुरुआज्ञा,अनुकूल सदा रहना जीवन का ध्येय बना ||१४||
थोड़े से गुण आ जाने पर,शिष्य सदा यह भाव रखे |
निज अस्तित्व बनाऊं अब मैं,क्यों कोई आधीन रहे ||
प्रज्ञा आदि गुणों से भूषित,अनुपम एक मिशाल मगर |
सदा सर्वदा गुरु चरणों में,रहने की है आश प्रवर ||१५||
रत्नत्रय से भूषित माता,पवित्रता की देवी हो |
श्रुत के प्रति अगाध श्रद्धा है,विनय भाव की सेवी हो ||
हंसमुख,उत्साही दृढशक्ति चेहरे पर रहती मुस्कान |
समायोजना तेरी अद्भुत,ममतामयी हो मात महान ||१६||
रचनात्मक मस्तिष्क आपका,नूतन रचना पाए जग |
समतावान,सजग साधक,जग होता तुम चरणों में नत ||
सागर सी प्रशांत रहती हो,नम्र सदा हो डाली सम |
मेरू सम हो अडिग त्याग में,सुरभित होतीं बन चन्दन ||१७||
आत्मा का श्रृंगार है दीक्षा और साधना का उपहार |
शिवपथ का है द्वार बंधुओं!आनंद सुख का है आधार ||
शान्तिसिंधु की परम्परा में,उस दीक्षा को पाया है |
गुरु के पदचिन्हों पर चलकर,जीवन सफल बनाया है ||१८||
बहुआयामी है व्यक्तित्व,कृतित्व भी अजब निराला है |
मन्त्रमुग्ध करने की क्षमता, चिंतन प्रतिभा वाला है ||
शब्दों में नहिं बाँध सकूँ,नहिं गुण तेरे गा पाऊंगी |
चुल्लू भर जल लेकर बंधू!क्या सागर भर पाऊँगी ||१९||
सुन्दर बाग कुशल माली का,ज्ञान बताता जाता है |
स्वच्छ सुसज्जित घर गृहणी की योग्य कथा बतलाता है ||
सुगठित अरु खुशहाल राष्ट्र, से शासक कुशल कहाता है |
तुम सम योग्य शिष्य गुरु की,महिमा का ज्ञान कराता है ||२०||
गुरुभक्ती में रहो अटल, श्रद्धान करो अरु भक्ति सदा |
सदा रहो प्रमुदित जीवन में,तेरे चरणों में सीखा ||
दुर्लभ मोक्षमार्ग में माता,तुमने मुझको लगा दिया |
मैं पत्त्थर मुझको छू तुमने,शिल्पकला का रूप दिया ||२१||
देव शास्त्र गुरु तीन रत्न,इस जग में पूज्य कहे जाते |
इनके वंदन से मानव जीवन ज्योतिर्मय हो जाते ||
हे माता तव ज्ञानसरोवर,में अवगाहन मैं कर लूँ |
अपने अंतर्मन से मैं अज्ञानतिमिर का क्षय कर लूँ ||२२||
हो भविष्य सुन्दर सब चाहें,तदनुरूप सब कार्य करें |
तेरी इक शिक्षा जो पाले,वह अपना उद्धार करे ||
वर्तमान हो गौरवशाली,भूत भविष्य बने उज्जवल |
है भविष्य का द्वार वही,उसको रखना भक्तों निर्मल ||२३||
हिन्दी,अंग्रेजी,संस्कृत भाषा में तुम हो पारंगत |
दो सौ ग्रन्थ लिखे हैं अनुपम,नमता है साहित्यजगत ||
ऐसी दिव्य महाआत्मा जब भी भूतल पर जन्म धरें |
देश,राष्ट्र कुल गौरवशाली निज पर का उत्थान करें ||२४||
हैं कमजोर और कोमल काया पर दृढ़ता अद्भुत है |
धर्म जाति पर बलि-बलि जाऊँ भाव सदा ये निर्मल है ||
धन्य हो गया मेरा जीवन तुम जैसी गुरु माँ पाया |
जब तक मोक्ष नहीं मिलता चाहूँ मैं बस तेरी छाया ||२५||
गुणरूपी आभूषण से हो सदा सुसज्जित तुम माता |
श्वेत साटिकाधारी तुम लगती हो जिनवाणी माता ||
दिव्यवचन अमृत का झरना जब भी मुख से बहता है |
भवि प्राणी नूतन दिश पाकर आत्मरमण नित करता है ||२६||
महासाधिका मम आराध्य तेरे गुण मैं कैसे गाऊँ |
है आदर्श स्वरूप तेरा उसको लख मैं बलि-बलि जाऊँ ||
लक्ष्य और सिद्धांतों के प्रति सदा अडिग रहती हैं आप |
जैनधर्म की प्रभावना में सतत सजग हैं माता आप ||२७||
ग्यारह वर्ष की लघुवय में पवित्र संयम तुमने पाया |
निज जीवन को किया सुवासित सदा मिली गुरु की छाया ||
नभ के सम विशाल माता सागर सम हो गंभीर सदा |
हो तेजस्वी सूर्य सदृश स्नेहिल है स्पर्श तेरा ||२८||
खान-पान अरु खानदान की शुद्धि रखो यह सदा कहें |
सज्जातित्व की रक्षा मन में सदा यही प्रेरणा करें ||
जन्मीं भले अमावस में पर शुभ्र चांदनी है तन में |
ज्ञानज्योति से आलोकित मन ज्ञानकिरण चहुँदिश चमके ||२९||
गुरु ने निज सांचे में ढाला जैनधर्मरत तुम्हें किया |
रोम-रोम में धर्मसंस्कृति का भी बीजारोपण था ||
धरती माता सम उर में करुणा का अनुपम स्रोत बहे |
जिनसंस्कृति की हे अनुपम निधि तुम चरणों में नित्य नमें ||३०||
धन्य हो गयी धरा मात जहां तुम सम पुण्यात्मा जन्मीं |
धन्य हो गए मात-पिता जिनकी गोदी में तुम खेलीं ||
धन्य अवध का कण-कण माता तुम जैसे गुरु को पाया |
धन्य हो गया मेरा जीवन ऐसे गुरुवर की छाया ||३१||
सरिता की धारा सम है व्यक्तित्व सदा गतिशील तेरा |
हो जिनशासन की प्रभाविका जीवन शीतल गंगा सा ||
तुम विशालहृदया हो माता आप्लावित उदार गुण से |
श्रेष्ठ आचरण वाणी मधुरिम तभी भक्त श्रद्धा करते ||३२||
नयनों में निर्झर सम नितप्रति करुणास्रोत प्रवाहित है |
मात समर्पण की मूर्ती उर में प्रभुचिंतन राजित है ||
मलयगिरि दिव्य सुगंघी से सारे जग को महकाता है |
पर मात चंदना के सम्मुख आ वह फीका पड़ जाता है ||३३||
भक्ती,माधुर्य,सरसता से संयुत रचनाएं पाया है |
सामाजिक जाग्रति अरु निर्माण से ज्ञान का दीप जलाया है ||
आनंदपूर्वक जीवन जीने की वे कला सिखाती हैं |
और सकारात्मक चिंतन से जीवन निर्माण कराती हैं ||३४||
साधनामयी जीवनयात्रा संदेश साधना का देती |
जिनशासन की हो अमूल्य निधि धर्मोपदेशिका माताजी ||
है यथा नाम व्यवहार वही माँ धर्म सुगंधी बाँट रहीं |
अज्ञानी ज्ञानी बन जाता,और ज्ञान की सुरभी फैल रही ||३५||
तेरी विद्वत्ता लख तीर्थंकर महावीर विद्यालय ने |
पी.एच.डी की मानद उपाधि से सम्मानित कर हर्ष करें ||
माँ ज्ञानमती की प्रबल प्रेरणा कई शास्त्र ग्रंथादि लिखे |
गुरुप्रेरित हर कार्यों की हैं मार्गदर्शिका इन्हें नमें ||३६||
जीवंत तीर्थ के रूप में माता ज्ञानमती ने तुम्हें दिया |
इसलिए राष्ट्रगौरव माता के प्रति राष्ट्र का शीश झुका ||
गुण,ज्ञान और व्यवहार की शिक्षा यदि उनके जीवन से लें |
तो हम संसारी जीव सदा निज जीवन को सुरभित कर लें ||३७||
जीवन का लक्ष्य पवित्र तेरा आतमशक्ती है साथ तेरे |
संयमसम्पन्न चरित्र तेरा,झुकता ब्रम्हाण्ड समक्ष तेरे ||
हर सांस में धर्मध्यान बसता,अद्भुत शब्दों में ललित कला |
आगमप्रणीत अनमोल मार्गदर्शन खिलती जीवन बगिया ||३८||
है सहज,सरल,साधुता झलकती धवल वस्त्र से माता के |
अमृतवाणी अरु ज्ञानगंगयुत,उर से करुणास्रोत बहे ||
सत्संग में जिनके आत्मा की एक दिव्य सुगंधी बहती है |
तेजस्वी नैनों से जिनके उपासना सहज झलकती है ||३९||
दर्पण समान निर्मल व्यक्तित्व गुरुपथ की अनुगामिनि हैं |
जब ज्ञान की धारा बहती है तब लगती माँ जिनवाणी हैं ||
भगवंतों की वाणी अनुसार,स्वयं को उसमें ढाला है |
जो भव्य आपकी शरण लहे,निज जीवन सफल बनाया है ||४०||
गर ज्ञानमती माता सूरज तो किरण आप उनकी माता |
गर पूर्ण चाँद हैं गुरुवार तो ज्योत्सना बनी हो विख्याता ||
महासागर हैं माँ ज्ञानमती तुम उसकी हो शीतल गंगा |
हे ज्ञानगंग की प्रज्ञापुंज तुम्हें संसार नमन करता ||४१||
जीवन के पूरे साठ वर्ष की अखण्ड तपस्या जो पाता |
यह निष्कलंक चारित्र अखण्ड ही स्थिरता को दिखलाता ||
यूं तो नारी जीवन कोमल काया का रूप दिखाता है |
पर तुम दिनचर्या को देखो,तो मस्तक खुद झुक गाता है ||४२||
गुरुवार के प्रति समर्पण गुण विरले शिष्यों में होता है |
तेरा कृतज्ञता और धैर्यता गुण इस हेतु चमकता है ||
चांदी सम दमके तप तेरा,निर्मल क्गारित की आप धनी |
जीवों के प्रति करुणा,वात्सल्य अवध की तुम अनमोल मणी ||४३||
जो भव्य जीव होते उनका ही पुण्य सदा रंग लाता है |
शायद इस हेतु पुण्य आपका अद्भुत योग दिखाता है ||
सन अट्ठावन में जन्मीं हैं अरु साठ वर्ष हैं पूर्ण हुए |
यह अद्भुत ही संयोग आदिप्रभु की छाया जो इन्हें मिले ||४४||
श्रावण शुक्ला ग्यारस प्यारी हे माँ जब तुमने दीक्षा ली |
सारे सुख वैभव को छोड़ा हो माँ संयम पद की धारी ||
नहिं क्रोध,मान नहिं लोभ मोह,अरु राग द्वेष का लेश नहीं |
बन मोक्षमार्ग की स्वयं पथिक सम्प्रेरक भी उसकी बनतीं ||४५||
माँ ज्ञानमती उत्कृष्ट योजनाशिल्पी कहलाईं जग में |
उसको देती हो मूर्त रूप अतिदक्ष कोई ऐसा न मिले ||
मिश्री की भांति मिठास वचन में अरु स्नेह बड़ा प्यारा |
आचरण दुग्ध सा पावन है चन्दन से सुवासित जग सारा ||४६||
है कार्य की क्षमता और कार्यपटुता दोनों ही बेमिशाल |
समता शांती का पाठ सीखने आएं विद्वज्जन तेरे द्वार ||
चरणों में जब बैठो लगता मानो हम स्वर्ग में आए हैं |
करुणा,ममता की मूरत को हम शत-शत शीश झुकाए हैं ||४७||
हो धर्म समाज की धुरी आप इसलिए माधुरी कहलाईं |
संस्कृति अरु धर्म की संरक्षक हो आर्षमार्ग की तरुणाई ||
चन्दन सी शीतलता देतीं इसलिए चंदनामती बनीं |
इस भौतिकता में ऐसी साध्वी के चरणों में होऊं नती ||४८||
संदेशवाहिका ज्ञानज्योति की ज्ञान ध्यान तप से भूषित |
प्रज्ञा छेनी के बल से मोह को नष्ट किया जो विस्तारित ||
निज ह्रदयकमल मंदिर में धारण कर निज जीवन सफल करूं |
आशीष की शक्ती और भक्ति से मोह राग का शमन करूं ||४९||
स्वाध्याय की गरिमा से निज प्रज्ञा दूज चाँद सी वृध्दि करी |
पूनम की पूर्ण प्रकाशित चन्द्र बनीं माता प्रज्ञाश्रमणी ||
हैं श्रेष्ठ गुणों से युक्त ज्ञान की गरिमा से मंडित माता |
तेजस्विनि और सरल ह्रदया “इंदू ” का सदा झुका माथा ||५०||
काव्यादर्शों के मानदंड अनुरूप सृजन का रूप खरा |
है सरस सरल प्रांजल गीतों से सरस्वती भंडार भरा ||
शांती भक्ती रस रचना मानव हृदय में अमृत घोल रही |
जो उसमें अवगाहन करता उसको मिलती अनुपम ज्योती ||५१||
आर्यिका,आर्ष,श्रुत,संयम परम्परा तुमसे वृद्धी पाए |
माँ ज्ञानमती की दिव्य छेनि से गढ़ीं आप जग हर्षाएं ||
जीवंत कृती माँ ज्ञानमती की है विराट व्यक्तित्व तेरा |
मंगल आकांक्षा एक यही हो शीघ्र माँ केवलज्ञान तेरा ||५२||
निज ख्याति,लाभ,पूजा की चाह कभी जीवन में नहीं किया |
चारित्र,ज्ञान के माध्यम से धर्माराधन भी खूब किया ||
कहतीं उपाधि है व्याधि और जल से हैं भिन्न कमलवत भी |
सिद्धांतसुचिंतामणि की हिन्दी टीकाकर्त्री तव प्रणमा ||५३||
आत्माराधन से उदित हुई अंतर शक्ती को अर्जित कर |
बन गईं हैं श्रमणीरत्न आप जन-जन को ऐसा हुआ विदित ||
चारित्रचक्रवर्ती गुरुवार की बगिया तुमसे लहराई |
इस युग की चन्दनबाला तुम कहते हैं सभी बहन-भाई ||५४||
है वर्तमान गौरवशाली जो मिलीं आर्यिका श्रेष्ठतमा |
श्रुतकेवलि सम प्रेरणादायी वचनों से सम्बोधें जग मा ||
माता तेरा निर्मल चरित्र अरु उन्नत ज्ञान अगर पाऊँ |
तो में भी मेरी आत्मा को साकार रूप में प्रगटाऊँ ||५५||
निर्झर के नर्तन सा संगीत व पायल की खान-खान जैसी |
सर्ताल के लय में लरज रही सम्मोहनयुत वाणी तेरी ||
मंदिर में बजती घंटी सम है मन्त्रमुग्ध आवाज तेरी |
संशय विभ्रम हरने वाली मुखचन्द्र से अमृत की झरणी ||५६||
स्वस्थ और दीर्घायु रहो माँ आदिप्रभू से अभिलाषा |
मेरी आयु तुझे लग जाए एक यही मन में आशा ||
ज्ञान चंदना की सुरभी से निज जीवन को महकाऊँ |
तेरी रजकण पाते-पाते मुक्तिवल्लभा को पाऊँ ||५७||
आमावस और शरदपूनो का शुभग समन्वय है तुममें |
ब्राम्ही चंदनबाला की यह जोड़ी युग-युग अमर रहे ||
यही भावना जिनवर से यह प्रभा सदा दिन दूनी हो |
भारत माता की गोदी इस माता से कभी न सूनी हो ||५९||