प्राकृतभाषा में रचति एक ऐसी रचना हैं; जिसमें आचार-विचार, सिद्धान्त, तत्त्वाचितन आदि का समावेश है। आचार्य शिवार्य ने विशाल जन-मानस की भावना को ध्यान में रखकर मानसिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए संभवत: इसकी रचना की होगी। इसमें मानसिक पर्यावरण का पूर्ण संरक्षण है। जीव की जीवंतता ही इसका प्रतिपाद्य विषय नहीं है, अपितु प्राणीमात्र की सुरक्षा भी इसमें है। यह आराधना आत्त्मा प्रतीति का साधन है। इसके रचियता की जो भी दृष्टि ही है, वह तो सर्वोपरि है ही; परन्तु सबसे बड़ी बात यह है कि शिवार्य ने जो कुछ भी किया प्रतिपादित किया, वह शोरसेनी प्राकृतभाषा की सूक्ष्मता का परिचय देने के लिए भी किया गया होगा-यह तथ्य इसके अध्ययन से ज्ञात होता है। वे प्रकृतविज्ञ थे, ‘मूलाचार जैसे आचाराशास्त्र उनके समाने अवश्य थे। वे जो कुछ भी कहना चाहते थे; उसे ‘रूपात्मक, वर्णनात्मक, कथात्मक, भावात्मक, पारिभाषिक, व्युपत्तिमूलक, निरुक्त, अर्थ-सौन्दर्य आदि की दृष्टि से बहुत कुछ विचारकों के सामने रख देते हैं। मैंने इसके मूल में जो निरुक्त-रूप देखा, भाषा की दृष्टि से बारंबार विचार किया तथा टीकाकार आचार्य श्री अपराजित सूरि की टीका ‘विजयोदया’ पर ध्यान दिया; तो इसका विषय जितना चिन्तनीय है, उससे कहीं अधिक इसमें भाषात्मक प्रयोग विशेषताओं के लिए एक से अधिक शोध-प्रबन्धों की आवश्यकता है। मैं यहाँ इसमें प्रयुक्त कुछके निरुक्तियाँ प्रस्तुत करूँगा, जो अपने आपा में महत्त्वपूर्ण हैं।
‘‘जुत्ति त्ति उवाय त्ति य णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती’’
(मूला० ५१५)
अर्थात् युक्ति उपाय है, जो अखंडित/निरवयव, युक्ति/कथन/विचार है; वह ‘निर्युक्ति’ है। ‘निर्युक्ति’ का अर्थ है ‘सम्पूर्ण उपाय’; यह सम्पूर्ण उपाय निरवयव होता है। ‘निर्युक्ति में ‘नि’ निरवयव/सम्पूर्ण/युक्ति का अर्थ प्रकाट करता है, जो अभीष्ट अर्थ का द्योतक है, जो तत्त्व के उपाय को प्रकट करता है। ‘नि’ का अर्थ निश्चय/एवार्थ/अधिकता भी है। ‘आवश्यक निर्युक्ति’ (८८) में कहा है ‘णिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती; तह वि य इच्छावेइ विभासिउं सुत्तपरिवाडी’’ अर्थात् निर्युक्ति का अर्थ है सम्बद्ध/बँधा हुआ; उससे जो सूत्र की परिपाटी की व्याख्या की जाती है, वह ‘निर्युक्ति’ कहलाती है। ‘आचारांग’ वृत्तिकार (पृ.३) के शब्दों में निर्युक्ति – ‘‘अर्थ-धर्म-प्रयत्न-भाजस्तस्यैवंधिस्य, निश्चयेनार्थ-प्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्तिस्तां कीर्तयिष्ये अभिधास्ये इति अन्तस्तत्त्वेन निष्पन्नां निर्युत्तिं बहिस्तत्त्वेन प्रकाशयिष्यममीत्यर्थ:’’। अर्थात् अर्थ, धर्म, प्रयत्न आदि की पात्रता की विधि का निश्चय अर्थ से प्रतिपादन किया जाता है, ऐसी युक्ति/उपाय निर्युक्ति है, उसके कथन से अन्तस्तत्त्व के साथ बाह्य तत्त्व के द्वारा निष्पन्न व्याख्या का प्रकाशन किया जाएगा। अर्थ का मूलसूत्र के साथ सम्बन्ध होता है। मूलसूत्र का जो अर्थ होता है वही निर्युक्ति के द्वारा स्पष्ट किया जाता है; इसलिए निर्युक्ति निश्चय अर्थ का प्रतिपादक होती है। ‘‘सूत्राार्थयो: परम्परं निर्योजनं सम्बन्धं निर्युक्ति:’’ (आव०गा०८३) अर्थात् सूत्रार्थ के परस्पर निर्योजन एवं सम्बन्ध की विशेषता बतलाने वाली ‘निर्युक्ति’ है। शीलंकाचार्य ने ‘आचारांगवृत्ति’ (पृ.७) में ‘निर्युक्ति के तीन भेद किए हैं – 1. निक्षेपनिर्युक्तानुगम, 2. उपोद्घातनिर्युक्तानुगम, 3. सूत्रस्पार्शिकनियुक्तानुगम 1. निक्षेपनिर्युक्ति – में सामान्य और विशेष रूप में प्रसिद्ध घोष-निष्पन्न और नाम-निष्पन्न का ग्रहण किया जाता है। यह निक्षेपों का विवेचन सूत्र की अपेक्षा से कहे गए लक्षणरूप होता है। 2. उपोद्घातनिर्युक्ति –
उद्देसे णिद्देसे य णिग्गमे खेत्तकालपुरिसे य । कारण-पच्चय-लक्खण णए समोयारणाऽणुमए ।। (आचा० ९)
अर्थात् ‘उपोद्घातनिर्यक्ति’ में उद्देश्य, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण और नय आदि पर विचार किया जाता है। उसमें यह विचार किया जाता है कि वह क्या है, कितने प्रकार का है, किस रूप, कैसा एवं किस काल तक होता है। 3.सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्ति सूत्र के अवयव, अर्थ और सूत्र-उच्चारण पर इसमें विशेष ध्यान दिया गया है। निर्युक्तियाँ भाषा, शैली और विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं। जो कि प्राचीन आगमों पर निर्युक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं, वे प्राकृत में हैं और इनका प्रमुख छन्द ‘गाथा’ है। परन्तु भाष्य एवं टीकाकारों ने जो व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत को अधिक महत्त्व दिया गया है। वैयाकरणों ने इसके 1. वर्णागम, 2. वर्णविपर्यय 3. वर्णविकार 4. वर्णनाश और 5. धात्वथज्र्ञतिशय ये पाँच भेद किए हैं। निरुक्त के आधार पर विषय-विभाजन के रूप में चार भेद किए जाते हैं – 1. व्युत्पत्तिजन्य 2. पारिभाषिक 3. विशेषणात्मक 4. वृत्यात्मक ‘भगवती आराधना’ में उक्त सभी के नियुक्तिपूर्ण शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ अकारादि-क्रम से उनका उल्लेख किया जा रहा है –
(१) अज्जव – (आर्जव) ‘ऋजुमार्गवृत्ति: आर्जवम् ’ जिससे सरल मार्ग की प्रतीति हो। यह वृत्यात्मक निर्युक्ति है। (गा० १३२)
(२) अणुत्तरं – ‘‘न विद्याते उत्तरं उत्कृष्टास्मादिति अनुत्तरं’’ (गा० ४२)। जिसका उत्तर नहीं है या इससे कोई उत्कृष्ट नहीं है। यह विशेषणातमक निर्युक्ति है।
(३) आणवणी – ‘‘ अनुशासनवाणी आणवणी’’ (गा० ११८९)। अनुशासन-वाणी ‘आणवणी’ है। (पारिभाषिक व्युत्पत्ति)
(४) आमंतणि – ‘‘यया वाचा परोऽभिमुखी क्रियते सा आमन्त्रणी।’’ (गा० ११८९) जिस वाणी से पराङ्मुख/आमन्त्रण किया जाता है, वह ‘आमन्त्रणी’ है।
असत्त: – असत्तवयणं (गा० ८१७) असत् वचन ‘असत्य’ है। गरहिददवयणं (गर्हितवचन ‘असत्य’ है।) (गा० ८२३)
सावज्जसंजुदं वयणं – सावद्य-युक्त ववन ‘असत्य’ है। (गा० ८२३) अप्पियवयणं असत्तवयणं – अप्रियवचन, असत्यवचन ‘असत्य’ है। पावस्सासवदारं असच्चवयणं – पापों के आस्रव द्वारा का नाम असत्यवचन है। (गा० ८१७) असद् अशोभनं वचनं – असत् /अशोभनवचन असत्य है। (गा० ८१७) अहिंसा – सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा। (गा० ७८९) सभी व्रतों के गुणों का पिण्ड/समूह या सार अहिंसा है। हिंसादो अविरमणं (गा८००) हिंसा से रहित होना ‘अहिंसा’ है। उवाय/उवाव: – पावस्य णिरोहे (गा० ११८३) पाप का निरोध ‘उपाय’ है। उवावो कम्मासवदारणिरोहणो हवे सव्वो। (गा० १४४४) सभी जरह के कर्म-आस्रव द्वार का निरोध ‘उपाय’ है। उवयोग: – परिणाम एवं उपयोग – (गा० ३०) परिणाम ही उपयोग है। कल्प: – कल्प्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डो स कल्प (गा० १३२) जिसके अपराधरूप दण्ड कल्पित होता है या ज्ञान किय जाता है, वह ‘कल्प’ है। काउस्सग्ग: – ‘कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो’ (गा० ११८२) ‘काय क्रिया’ की निवृत्ति ‘कायोत्सर्ग’ है। कायगुत्ति: – कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया ‘कायक्रिया’, तस्य निवृत्ति: कायगुप्तिरिति (गा० ११८२) काय/शरीर की सम्बन्धिनी क्रिया ‘काय-क्रिया’ है, उसकी निवृत्ति ‘कायगुप्ति’ है। ग्रन्थ: – ग्रथ्नंति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्था;। (गा० ४२) जो संसार को ग्रन्थी करते हैं, रचते हैं और उसका विस्तार करते हैं, वे ग्रन्थ हैं। ‘‘मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयम: कषाय: अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामा: ग्रंथा:’’ (गा० ४२) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय और अशुभ योगत्रय – ये परिणाम ग्रन्थ हैं। गज: – गर्जतीति गज : (पृ. ६००) जो गर्जना करता है, वह गज है। गौ: – गच्छति इति गौ: (पृ. ६००) जो गमन करता है; वह ‘गौ’ है। गणधर: – चाएदि जो ठवेदुं गणमप्पाणं गणधरो सो ( गा० २८९) जो अपने गण की स्थापना के प्रयत्नशील होता है, वह ‘गणधर’ है। गुप्ति: – सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति: (गा० ११८१, ११४) अच्छी तरह से योग (मन, वचन और काय) का निग्रह ‘गुप्ति’ है। यतो गोपनं सा गुप्ति:। (गा० ११४) जिससे गोपन/निग्रह हो वह ‘गुप्ति’ है। जधाछंद: – सो होदि साधु सत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। (गा० १३०४) आगम के विरुद्ध मार्ग की अपनी इच्छानुसार कल्पना करना ‘यथाच्छन्द’ है। थेर:- गणधरवसहो य जदणाए (गा० ६२८) गणधर की प्रधानता के मार्ग का ज्ञाता ‘स्थविर’ है। ‘स्थविर’ है। स्थविरश्चिरप्रव्रजितो मार्गज्ञो। जो चिरप्रव्रजित और मार्ग का ज्ञाता होता है ‘थेर/स्थविर’ है। तव:- चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो अउंजणा य होइ सो चेव तवो। (१०) जो चरित्र में उद्यमशील करे वही ‘तप’ होता है। ‘‘चरणोद्योगोयोगावेव तपो भवतीति’’ (पृ० २९) आचरण के प्रयत्न से तप होता है। धम्म:- सम्मत्त-चरणसयुदमइओ धम्मो। (गा० १७४७) ‘धर्म’ सम्यक्तव, चरण और श्रुत युक्त होता है। धारयति वस्तुनो वस्तुतामिति धर्म:। (गा० १६४९) जो वस्तु की वस्तुता को धारण करता है, वह ‘धर्म’ है। परिहार:- कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो। (गा० ९) कादव्वमिणाति णादूण परिहारो – करने योग्य को जानकरचाहना ‘परिहार/त्याग’ है। अकादव्वमिणत्ति णादूण हवदि परिहारो नहीं करने योगय को जानकार छोड़ना ‘परिहार’ है। फल:- साध्यं परिप्राप्यं आराधनाया:। (गा० ६९) आराधना के द्वारा प्राप्त साध्य को ‘फल’ कहते है। भोग:- भोज्यंते सेव्यन्ते इति भोगा:। (गा० १२७६) जो भोगे एवं सेवन किए जाते हैं, वे ‘भोग’ हैं। भुज्यन्तेऽनुभुयन्त इति भोगा:। मणोगुत्ति:- जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाति तं मणीगुत्ती। (गा० ११८१) सिसे रागादि की निवृत्ति होती है तथा जो मन को जानता है, वह ‘मनरोगुप्ति’ है। रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्त्ति:। (११८१) रागादि कार्य करने से रोकना ‘मनोगुप्ति’ है। वीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकारणनिरोधो मनोगुप्ति:, मन: शब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते, तस्य रागादिभ्श्रय यो या निवृतित: रागद्वेष-रूपेण या अपरिणति:, सा मनोगुप्तिरित्युच्चते। माणी:- ‘‘जो अवमाणणकरणं दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्ते। सो णाम होदि माणी’’। (गा० १४२४) जो किसी का अपमान नहीं करता है, तथा नित्य दोषों का परित्याग करता है, वह ‘माणी’ है। महव्वद:- साधेंति जं महत्थं आयरिदाइं च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाइं सयं महव्वदाइं हवे ताइं ।। (गा० ११७८) 1. जो महान् प्रयोजन को साधते हैं महान् पुरुषों के द्वार इनका आचरण किया जाता है और जो स्वयं महान् है, उसका ‘महाव्रत’ होता है।
रदी:- पीदीए विणा ण रदी। (गा० १२६१) प्रीति बिना रति नहीं। रोस:- रोसो सत्तुगुणकरो। (गा० १३५९) परिभवकरो सवासे रोसो। (गा० १३५९) शत्रुता के गुण का कारण रोष है, परिभवकारक रोष है। वचिगुत्ती- अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होइ वचिचुत्ती (गा० ११८१) अलीक/असत्य वचन आदि की निवृत्ति या मौन वचिगुप्ति है। ‘‘विपरीतार्थ-प्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदु:–खोत्पत्तिनिमित्तत्वाच्चाधर्माद्या व्यावृत्ति सा वाग्गुुप्ति।’’ विपरीत अर्थ की प्रतिपत्ति में कारण होने और दूसरों को दु:ख की उत्पत्ति में निमित्त होने से जो अधर्ममूलक से निवृतित होती है, वह वायगुप्ति / वचिगुप्ति है। ‘‘वाग्विशेषस्यानुपादकता वाच: परिहारो वाग्गुप्ति:’’ वचन विशेष की उत्पादकता से रहित वचन का त्याग वाग्गुप्ति है। ‘‘मौनं व सकलाया वचो या परिहरित सा बाग्युप्ति:’’ मौन या पूर्ण वचन का त्याग वाग्गुप्ति है। विक्खेवणी:- ‘‘स-समय-पर-समयगदा कथा दु विक्खेवणी।’’ (गा० ६५५) स्वसमय और परसमय को प्राप्त कथा विक्षेपणी है। विणय – ‘‘विलयं नमति कर्ममलमिति विनय!’’ (गा० ३०२) जो कर्ममल की समाप्ति की ओर ले जाए वह विनय है। संघ:- ‘गुणसंघाओं संघा’ (गा० ७१३) गुणों के समूह से संघ बनता है। दंसण-णाण-चरित्त संघायंतो हवे संघो। (गा० ७१३) दर्शन, ज्ञान और चारित्र में संलग्नता संघ है। सामण्ण:- ‘समणस्य भावो सामण्णं’ (गा० २१) श्रमण के भाव को ‘सामण्ण’ कहते हैं। ‘सामण्णं समता’ ‘सामण्ण’ का अर्थ समता है। ‘‘सममणो समणो समणस्य भावो सामण्णं।’’ (गा० ७०) उक्त निरुक्त शब्द व्युत्पत्ति, परिभाषिक आदि के रूप में प्राकृत एवं संस्कृत दोनों के ही दिए गए हैंं ‘भगवती आराधना’ में कोई निरुक्त हैं, उसमें से विस्तारभय के कारण कुछ ही दिए गए हैं। इनका पूर्व ग्रन्थों ‘षट्खंडागम’ प्रवचनसार, समयसार, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति आदि के शब्दों को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत कर उसके विकासक्रम को भी दर्शाया जा सकता है। उक्त शब्दों को ‘भगवती आराधना’ के पश्चात् लिखे गए ग्रन्थों के उद्धरण द्वारा उसकी विशेषता को निरूपित किया जा सकता है। मैं इसके विस्तार निरूपण में प्रयत्नशील हूँ। निरुक्त शब्दों की ऐतिहासिकता आदि से विषय का गाम्भीर्य निश्चित ही सरल एवं मूलानुगामी हो सकेगा। इससे सिद्धानत की विशेषताएं एवं उसका रहस्य भी स्पष्ट हो सकेगा। निरुक्त शब्द भावों से परिपूर्ण एवं भाषा की गरिमा का गुणगान प्रकट करने में सभी तरह से यथेष्ट एवं ज्येष्ठ भी हैं।