आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित आयुर्विज्ञान सम्बन्धी सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक वर्णन देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार सम्भवत: दीक्षा-पूर्वकाल में कभी स्वयं ही उस क्षेत्र का सिद्धहस्त चिकित्सक तथा चिकित्सा शास्त्र मर्मज्ञ अनुभवी तथा समाजशास्त्री विद्वान-शिक्षक रहा होगा। बहुत सम्भव है कि उसने आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं शरीर-संरचना विज्ञान सम्बन्धी कोई विशाल स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा हो, जो किसी परिस्थिति-विशेष में विस्मृत, अथवा प्रच्छन्न या नष्ट हो गया हो ? प्रस्तुत निबन्ध में उक्त ग्रन्थ में वर्णित समकालीन आयुर्वेद-सम्बन्धी तथ्यों को प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। श्रमण-संस्कृति के इतिहास में द्वादशांग वाणी का विशेष महत्त्व है। उसके बारहवें ‘दृष्टिवादांग’ के पाँच भेदों में से ‘पूर्वगत’ नाम का एक प्रमुख भेद है। उसके भी १४ भेदों में से ‘प्राणावाय’ नामक प्रभंद सुप्रसिद्ध रहा है। १. जैन-परम्परा के अनुसार आयुर्वेद की उत्पत्ति का मूलस्रात वही ‘प्राणावाय’ नाम का पूर्वांग है।यथा –
अर्थात् जिसमें काय, तद्गगतदोष, और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग-आयुर्वेद का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हो; पृथिवीर आदि भूतों की क्रिया, विषैल जानवर तथा उनकी चिकित्सा आदि और प्राणपान का विभाग जिसमें किया गया वह हो; वह ‘प्राणावाय नाम का पूर्वांगशास्त्र’ कहा गया है। जैनाचार्यों ने उक्त ‘प्राणावाय’ से ही मूलस्रोत ग्रहण कर त्रिकालाबाधित जैनायुर्वेदिक-सिद्धान्तों एवं उनके ग्रन्थों की रचना की। २. ऐसे आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों में आचार्य समन्तभद्र ३, पूज्यपाद ४, सिद्धनागार्जुन ५, श्रुतकीर्ति ६, कुमारसेन ७, वीरसेन ८, पात्रकेशरी-स्वामी ९, सिद्धसेन १०, दशरथगुरु ११, मेघनाद १२, सिंघनाद १३, उग्रादित्य १४, अमृतनन्दि १५, एवं गुम्मटदेव मुनि १६ तथा कीर्तिवर्म १७, मंगराज १८, अभिनवचन्द्र १९, देवेन्द्रमुनि २०, जगदेकमहामन्त्रवादि श्रीधरदेव २१, साल्व २२, जगद्दलसोमनाथ २३ आदि प्रसिद्ध हैं। एक उल्लेख के अनुसार आचार्य समन्तभद्र ने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त किया हैं२४ –
१. कार्य-चिकित्सा – श्वास, कास, प्रमेह, जलोदर, बुखार आदि से सम्बन्धित समस्त धतुक शरीर की चिकित्सा।
२. बाल-चिकित्सा अथवा कौमारमृत्य – बालरोगादि तथा माताओं के रोगों की चिकित्सा।
३. ग्रह-चिकित्सा – नाड़ीचक्र में दोषोत्पन्न रोगों की चिकित्सा।
४. ऊध्र्वांग-चिकित्सा – आँख, कान, गला, नाक, दन्त एवं शिरोरोगें की चिकित्सा।
५. शल्य-चिकित्सा – शस्त्रास्त्रों द्वारा ऑपरेशन कर उनकी चिकित्सा।
६. अगदतन्त्र अथवा द्रंष्ट्रा-चिकित्सा – सर्पादि विष-जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर तथा स्थावर, जंगम के द्वारा विष के शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर उसकी चिकित्सा।
७. रसायनतन्त्र अथवा जरा-चिकित्सा – पुनयौवन प्राप्त करने की चिकित्सा। एवं
८. वृष्य-चिकित्सा – बाजीकरण चिकित्सा अथवा वीर्यशोधन, वीर्यवर्धन एवं सन्तानोत्पति के उपाय। उक्त विषयों पर परवर्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों ने स्वरुचिपूर्वक अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों की प्रशंसा जैनेत्तर आयुर्वेदज्ञों ने भी मुक्तकण्ठ से की है। आयुर्वेद के ख्यातिलब्ध विद्वान् पं० गंगाधर गोपाल गुणे ने उनके प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुये लिखा है२५- ‘‘राशास्त्र पर जैनाचार्यों ने विशेष श्रमसाध्य शोध-खोज की है। आज जो भी अनेकानेक सिद्वौषधियाँ आयुर्वेदीय वैद्य प्रचार में लाते हैं, वे जैनाचार्यों की प्रतिभा व अविश्रान्त खोजों की सुपरिणाम है। अनेक प्रतिभावन, त्यागी, विरागी आचार्यों ने जीवनभर गहन वनों में एकान्तवास कर तथा विचारपूर्वक परिश्रम-प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषाधरत्नों का भण्डार संग्रहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, निघण्टू एवं औषधिगुण-धर्मशास्त्र आदि अनेक शास्त्रों का निर्माण अप्रतिमरूप से करके इन जैनाचार्यों ने समस्त आयुर्वेद-जगत पर बड़ा उपकार किया है।’’ अभी तक उपलब्ध जैन ग्रन्थों में नोवी सदी के प्रथम चरण के आचार्य उग्रादित्य२६ कृत ‘कल्याणकारक’ ही प्रकाशित हो सका है, जो अष्टांग आयुर्वेद-विद्याका सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ के २५ अध्यायों में आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं विकास की कथा बतलाकर पूर्ववत्र्ती जैनाचार्योंं के अनेक सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो आयुर्वेदिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। जैन आयुर्वेदज्ञों की यह विशेषता रही है कि आयुर्वेद को उन्होंने पीड़ित प्राणियों की सेवा का ही माध्यम बनाया, न कि अपनी स्वार्थपूर्ति अथवा धनार्जन का माध्यम। उन्होंने निरन्तर ही अहिंसक वस्तुओं के मिश्रण से औषधियों के निर्माण किए। क्षणभुगुर शरीर की रक्ष के लिए अन्य जीवों के शरीरावयवों को उदरस्थ कर लेने का उपदेश या विधान उसमें भूलकर भी नहीं किया गया। जहाँ जैनेतर आयुर्वेदज्ञों ने औषधियों के निर्माण में मल-मूत्र, अस्थि, चर्म, रक्त एवं माँस आदि के प्रयोग से स्पष्ट विधान किए हैं; तथा क्वचित् कदाचित् गोरक्त, गौमाँस, मानवावयव तक के योग जैनेतर वैद्यक-ग्रन्थों में मिलते हैं; जब कि जैनाचार्यों ने मद्य एवं मधु तक को त्याज्य बतलाया है। आसव एवं अरिष्ट, जिनमें एकेन्द्रिय तो क्या, दो इन्द्रिय जीव तक आँखों से देखे जा सकते हैं; जैन औषधि-निर्माण में त्याज्य बतलाए गए हैं। अवलेह आदि की भी मार्यादा बतलाई गई है; क्योंकि उनमें सीमावधि के बाद आधुनिक खुर्दबीन आदि के द्वारा दो इन्द्रिय जीव देखे गए हैं। इन्हीं कारणों से जैनाचार्यों ने तरल पदार्थों द्वारा चिकित्सा के स्थान पर रसादि-चिकित्सा पर अधिक जोर दिया है। ‘पुष्पायुर्वेद’ जैनाचार्यों की ही देन है, जो जैन औषधि-निर्माण की आश्चर्यजनक अहिंसक पद्धति है और जैनाचार्यों ने ई०पू० की सदियों में ही लगभग १८००० प्रकार के पक्व एवं स्वयं-पतित पुष्पों के प्रयोग से अनेक चूर्ण एवं रसायन तैयार कर पीड़ित प्राणियों की अचूक सेवा की थी। इस ‘पुष्पायुर्वेद’ की विश्व के अनेक चिकित्सकों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।२७ वर्तमान के के अनुसार भारत में केवल १५००० प्रकार की पुष्प जातियाँ ही बची हैं, बाकी किन्हीं कारणों से नष्ट हो चुकी हैं। इस निबन्ध का मुख्य उद्देश्य शौरसेनी प्राकृत में लिखित ‘भगवती-आराधना’ में उपलब्ध आयुर्वेदविद्या-समबन्धी सामग्री को मुखर करना है। ‘भगवती आराधना’ का मूल विषय वस्तुत: आयुर्वेद नहीं, बल्कि मुनि आचार है। प्राप्त परम्परा के अनुसार सुपात्रों को मुनि-दीक्षा के पूर्व देश एवं समाज की सभी परिस्थितियों का यथासम्भव सम्यकज्ञान तथा लोकजीवन एवं लोकचार का पारदर्शी ज्ञान अनिवार्य माना गया है। क्योंकि मुनि-आचार्यग अध्यात्मयोगी होने के साथ-साथ शास्त्रकार, साहित्यकार, प्रचवनकार एवं इतिहास-निर्माता भी होते थे। अत: उन्हें धर्म-साधना के साथ-साथ प्राय: सभी विद्याओं तथा प्राय: समस्त प्राणधारियों का वैज्ञानिक एवं मनोविज्ञानिक ज्ञान भी अनिवार्य था। अत: पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के बाद ही उन्हें दीक्षा-योग्य माना जाता था। इन सभी की जानकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ‘भगवती आराधना’ में मिलता है, जिसमें उसके लेखक ने मुनि आचार और जैनधर्म के विविध सिद्धान्तों के साथ-साथ ‘अष्टांग-आयुर्वेद’ के काय-चिकित्सा, ग्रह-चिकित्सा, शल्य-चिकित्सा, ऊध्र्वाग-चिकित्सा, आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इनके अतिरिक्त भी उसमें शरीर-संरचना, भ्रूण-विज्ञान विविध व्याधियों एवं उनके निदान तथा औषधियों आदि विषयों पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसके लेखक ने यद्यपि अपने ग्रन्थ-लेखन की स्रोत-सामग्री की चर्चा नहीं की; किन्तु विदित होता है कि जिन ग्रन्थों का उसने अध्ययन किया होगा, बाद में वेग्रन्थ या तो नष्ट हो गये या वर्तमान में देश-विदेश के प्राच्य शास्त्रभण्डारों में कही अप्रकाशितरूप में छिपे पड़े हैं। फिर भी मेरी दृष्टि से परवत्र्ती आयुर्वेदज्ञ जैनाचार्यों के सम्मुख ‘भगवती-आराधना’ ग्रन्थ अवश्य रहा होगा और उससे विषय-सामग्री लेकर आचार्यों ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर उसे पर्याप्त विकसित किया है। जैनेतर आयुर्वेदाचार्यों ने भी जैनायुर्वेद-ग्रन्थों से पर्याप्त प्रकणाएँ ली हैं, इसके अनेक सन्दर्भ ‘माधवनिदान’ आदि ग्रन्थों में मिलते हैं।२८ ‘भगवती-आराधना’ में वर्णित शारीरिक संरचना, रोगों एवं विभिन्न चिकित्साओं का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है –
शारीरिक संरचना –१. मानव-शरीर का ढाँचा अस्थियों से बना है। उसे ‘अस्थिपंजर’ भी कहा जाता हैं, जो माँस, चर्म, शिराएँ, धमनियाँ, स्नायु आदि कोमल अंगों को शरीर के भीतरी गहवरों में सुरक्षित रखने का आधार है। माँस, पेशी, पेशीबन्धन, बन्धनी, सौत्रिक-तन्तु आदि इसी से लिपटे रहते हैं। आचार्य शिवकोटि के अनुसार मनुष्याकार के अस्थिपंजर में कुल ३०० सौ अस्थियाँ है, जो ‘मज्जा’ नाम की धातु से भरी हुई हैं। इसीप्रकार उसमें ३०० सन्धि-स्थ्ल (व्दग्हूे) है। यथा-
३. मानव शरीर में शिराओं के ४ जाल है, १६ कंडरा (रक्तभरित महाशिराएँ अर्थात् बड़ी मोटी नसें) हैं, ६ मूल शिराएँ है और २ माूंसरज्जू (एक पीठ एवं एक पेट के आश्रित) हैं। यथा-
७. मानव-शरीर में मस्तक अपनी अंजुलि से एक अंजुलि-प्रमाण है। मेद, ओज, अर्थात् शुक्र ये दोनों भी १-१ स्वांजुलि-प्रमाण जानना चाहिए। तीन अंजुली-प्रमाण वसा (चर्बी) तथा पित्त का प्रमाण ६ अंजुलि मात्र हैं; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि मात्र है; श्लेष्म अर्थात् कफ की मात्रा भी ६ अंजुलि-प्रमाण तथा रुधिर का प्रमाण आधा आढक है। यथा –
भौतिक एवं आध्यात्मिक विद्या-सिद्धियों के प्रमुख साधन-केन्द्र इस मानव-तन का निर्माण किस-किस प्रकार होता है, गर्भ में वह किस प्रकार आता है तथा किस प्रकार उसके शरीर का क्रमिक विकास होता है? -उसकी क्रमिक विकसित अववस्थओं का ग्रन्थकार ने स्पष्ट चित्रण इस प्रकार किया है। यथा –
(१) कललावस्था – माता के उदर में शुक्राणुओं के प्रविष्ट होने पर १० दिनों तक मानव-तन गले हुए तांबे एवं रजत के मिश्रित रंग के समान रहता है।२९
(२) कलुषावस्था – अगले १० दिनों में वह कृष्ण वर्ण का हो जाता है।३०
(३) स्थिरावस्था – तत्पश्चात् अगले १० दिनों में वह यािावत् स्थिर रहता है।३१
(४) बुब्बुदभूत – दूसरे महीने में मानव-तन क स्थिति एक बबूले के समान हो जाती है।३२
(५) घनभूत –तीसरे मास में वह बबूला कुछ कड़ा हो जाता है।३३
(६) मांसपेशीभूत – चौथे मास में उसमें माँसपेशियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है।३४
(७) पुलकभूत – पाँचवे मास में उक्त मांस-पेशियों में पाूंच पुलक अर्थात् ५ अंकुर फुट जाते हैं, जिनमें से नीचे के दो अंकुरों से दो पैर और ऊपर के ३ अंकुरों में से बीच के अंकुर से मस्तक तथा दोनों बाजुओं में से दो हाथों के अंकुर फुटते हैं।३५
(८) छठवें मास –में बालक के अंग-उपांग बनते हैं।३६
(९) सातवें मास – में उस मानव-तन के अवयवों पर चर्म एवं रोम की उत्पत्ति होती है, तथा हाथ-पेर के नख उत्पन्न हो जाते हैं।३७ इसी मास में शरीर में कमल के डण्ठल के समान दीर्घनाल पैदा हो जाता है, तभी से यह जीव माता का खाया हुआ आहार उस दीर्घनाल से ग्रहण करने लगता है।३८
(१०) आठवें मास –में उस गर्भस्थ मानव- तन में हलन-चलन क्रिया होने लगती है।३९ (११) नौवें अथवा दसवें मास – में वह सर्वांग होकर जन्म ले लेता हैं।४०
गर्भ स्थान की अवस्थिति
आमाशय एवं पक्वाशय इन दोनों के बीच में जाल के समान मांस एवं रक्त से लपेआ हुआ गर्भ ९ मास तक रहता है। खाया हुआ अन्य उदराग्नि से जिस स्थान में थोड़ा-सा पचाया जाता है, वह स्थान ‘आमाशय’ और जिस स्थान में यह पूर्णतया पचाया जाता है वह ‘पक्वाशय’ कहलाता है। गर्भस्थान इन दोनों (अर्थात् आमाशय एवं पक्वाशय) के बीच में स्थित रहता है। ग्रन्थकार ने विविध प्रकार के रोगियों के लिए समय-समय पर चिकित्सक के माध्यम से औषधि-सेवन की जो सलाहें दी है, वे वर्तमान युग की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथा सर्वसुलभ, आसान एवं सस्ती भी। उसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं –
रोगशामक औषधियाँ (घरेलू इलाज) (१) कुष्ठ रोग को नष्ट करने के लिए इक्षुरस श्रेष्ठ रसायन है। यथा –कोढ़ी संतों लद्धूण डहई उच्छूं रसायणं।
(गा० १२२३)
(२) सदैव स्वस्थ रहने के लिए मध्यम रसवाले कटु, तिक्त, आम्ल, कषायले, नमकीन,मधुर, विरस, सुगन्धित, स्वच्छ तथा मध्यम उष्ण भोजन लेना चाहिए। यथा –अकडगम तितथ मणंविलंव अकसायमलवणममधुरं । अविरस मदुरव्विगंधं अच्छमण वहं अणदिसीदं ।।
(गा० १४९०)
(३) स्वच्छ एवं ताजा जल कफनाशक एवं पथ्यकारक होता है, –
(गा० १४९१)
(४) गो-दुग्ध पित्त शान्त करता है। (५) शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य एवं तेजस्विता की वृद्धि के लिए अभ्यंगन-हेतु तेल, अनुकूल वृक्षों के मूलभाग, छाल, फल, एवं पत्तोंके चूण्र का सेवन करना चाहिए।
(गा० ८८ एवं ९३)
(६) पुरुष के लिए ३२ ग्रास तथा महिला के लिए २८ ग्रास भोजन प्रर्याप्त है। इतने भोजन में उनकी भूख शान्त हो जाती है, यथा –
(७) मक्खन, मदिरा, माँस एवं मधु – ये शरीर में महान् विकृतियाँ एवं रोग उत्पन्न करते हैं। यथा –
चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीइ-मज्ज-मंस-महु ।
(गा० २१३)
(८) तेल एवं कषायले द्रव्यों के दिन में कई बार कुल्ले करने से जीभ, नासा, गला, आँख एवं कानो को सामथ्र्य प्राप्त होता है। जीभ का मैल निकल जाने से उच्चारण शुद्धि तथा कान में तेल डालने से श्रवण-शक्ति बढ़ती है। यथा-
(१२) उदर विकार में काँजी में बिल्वपात्रों को भिंगोकर उदर को सेकना चाहिए तथा सेंधा नमक में बत्ती को भिगोंकर गुदा-द्वार में प्रवेश करने से उदर का मल निकल जाता है। यथा-
(१३) उपवास के बाद मित का हलका आचाम्ल भोजन लेना चाहिए।
(गा० २५१)
व्याधियाँ
‘भगवती-आराधना’ में जिन रोगों के उल्लेख मिलते हैं, उनके नाम इस प्रकार है – (१) कच्छु (खुजली), ज्वर, खाँसी, श्वास, कुष्ठ नेत्ररोग एवं भस्मक-व्याधि। यथा –
कच्छू जर खास सोसों भतेच्छदुच्छि दुक्खणि ।
(गा० १५४२)
(२)इनके अतिरिक्त भी अनेकरोग उस समय रहे होंगे, किन्तु जिनकी प्रमुखता थी, सम्भवत: उन्हीं के उल्लेख ग्रन्थकार ने किए हैं। इनमें से एक विशिष्ट रोग भस्मक-व्याधि का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें रोगी को असाधारण भूख लगती है। वह असाधारण रूप से भोजन भी करता है, किन्तु वह तत्काल ही पेट में जाकर भस्म हो जाता है और उसके रोगी को वही असाधारण भूख बनी रहती है। एक किंवदन्ती के अनुसार दूसरी सदी के आचार्य समन्तभद्र को यही भस्मक व्याधि हो गई थी। उसका शमन कैसे हुआ, उसकी कथा अनेक लेखकाचार्यों ने बड़ी ही रोचक शैली में लिखी है। वर्तमान में इस बीमारी की जानकरी नहीं मिलती। चिकित्सक के विषय में लेखक ने कहा है कि वह अपनी चिकित्सा स्वयं नहीं कर पाता। आजकल भी यह देखा जाता है कि किसी भी पद्धति का चिकित्सक अपना इलाज स्वयं नहीं करता। वह अपने विश्वस्त मित्र चिकित्सक से अपनी चिकित्सा कराता है। ग्रन्थकार की भाषा में ही देखिए – वह कहता है –
३. अष्टंगायुर्वेद तथा १८००० श्लोकप्रमाण ‘सिद्धान्तरसायनकल्व’ के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)।
४. ‘कल्याणकारक’, ‘शालाक्य-शिराभेदन-तन्त्र’ तथा ‘वैद्यामृत’ नामक ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, किन्तु डिटपुट रूप में उनके ६५ सिद्ध-प्रयोग आरा स्थित जैन सिद्धान्त भवन के प्राच्य शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं)।
५. नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट आदि सैद्धान्तिक एवं प्रायोगि महान् ग्रन्थों के लेखक (ये ग्रन्थ अनुपलब्ध है)।
६-८. ग्रन्थ अज्ञात एवं अनुपलब्ध।
९. शल्यतन्त्र-आपरेशन सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक ( ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)।
१०. विष एवं उग्रग्रह आदि के शमन-समबन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं) ।
११-१२ . बालरोग-चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)।
१३. शरीर-बलवर्धक तथा बाजीकरण () आदि सम्बन्धी ग्रन्थ के लेखक (ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं)।
१४. ‘कल्याणकारक’ के लेखक ( पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री (शोलापुर) द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित, सन् १९४०ई०)
१५. २२ सहस्र शब्दप्रमाण ‘निघण्टुकोष’ (अपूर्ण-सकार तक उपलब्ध) के लेखक।
१६. ‘मेरुतन्त्र’ नामक वैद्यक ग्रन्थ के लेखक।
१७. ‘गोवैद्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेखक।
१८. ‘खगेन्द्रमणिदर्पण’ (कन्नड़) के लेखक।
१९. ‘हयशास्त्र’ (कन्नड़) के लेखक।
२०. ‘बालग्रह चिकित्सा’ (कन्नड़) के लेखक।
१.‘वैद्यामृत’ (कन्नड़ १४ अधिकारों में विभक्त) ग्रन्थ के लेखक।
२२. ‘रसरत्नाकर’ (कन्नड़) एवं ‘वैद्य सांगत्य’ (कन्नड़) ग्रन्थ के लेख।
२३. पूज्यपाद कृत ‘कल्याणकरक’ (संस्कृत) का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करने वाले आचार्य।
२४. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० ५।
२५. दे० ‘कल्याणकारक’ भूमिका पृ० १४।
२६. वही भूमिका पृ. ४३।
२७. ‘वैद्यसार-आयुर्वेदरत्न’ पं. सत्यन्धर जैन (आरा १९३१ ई०) भूमिका।