हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थों का राजा है। यह धर्म प्रचार का आद्य केन्द्र रहा है। यहीं से धर्म की परम्परा का शुभारंभ हुआ। यह वह महातीर्थ है जहाँ से दान की प्रेरणा संसार ने प्राप्त की। भगवान आदिनाथ ने जब दीक्षा धारण की उस समय उनके देखा-देखी चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। भगवान ने केशलोंच किया, उन सबने भी केशलोंच किया, भगवान ने वस्त्रों का त्याग किया, उसी प्रकार से उन राजाओं ने भी नग्न दिगम्बर अवस्था धारण कर ली। भगवान हाथ लटकाकर ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये, वे सभी राजागण भी उसी प्रकार से ध्यान करने लगे किन्तु तीन दिन के बाद उन सभी को भूख-प्यास की बाधा सताने लगी। वे बार-बार भगवान की तरफ देखते किन्तु भगवान तो मौन धारण करके नासाग्र दृष्टि किये हुए अचल खड़े थे, एक-दो दिन के लिए नहीं पूरे छह माह के लिए अतः उन राजाओं (मुनियों) ने बेचैन होकर जंगल के फल खाना एवं झरनों का पानी पीना प्रारंभ कर दिया। उसी समय वन देवता ने प्रगट होकर उन्हें रोका कि-‘‘मुनि वेश में इस प्रकार से अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यदि भूख-प्यास का कष्ट सहन नहीं हो पाता है, तो इस जगत पूज्य मुनि पद को छोड़ दो।’’ तब सभी राजाओं ने मुनि पद को छोड़कर अन्य वेश धारण कर लिये। किसी ने जटा बढ़ा ली, किसी ने बल्कल धारण कर ली, किसी ने भस्म लपेट ली, कोई कुटी बनाकर रहने लगे इत्यादि। भगवान ऋषभदेव का छह माह के पश्चात् ध्यान विर्सिजत हुआ, वैसे तो भगवान का बिना आहार किये भी काम चल सकता था किन्तु भविष्य में भी मुनि बनते रहें, मोक्षमार्ग चलता रहे, इसके लिए आहार के लिए निकले किन्तु उनको कहीं पर भी विधिपूर्वक एवं शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिल पा रहा था। सभी प्रदेशों में भ्रमण हो रहा था किन्तु कहीं भी दातार नहीं मिल रहा था। कारण यह था कि उनसे पूर्व में भोगभूमि की व्यवस्था थी। लोगों को जीवनयापन की सामग्री-भोजन, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सब कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते थे। जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हुई, तब कर्मभूमि में कर्म करके जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने की कला भगवान के पिता नाभिराय ने एवं स्वयं भगवान ऋषभदेव ने सिखाई। असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प एवं वाणिज्य करके जीवन जीने का मार्ग बतलाया। सब कुछ बतलाया किन्तु दिगम्बर मुनियों को किस विधि से आहार दिया जावे, इस विधि को नहीं बतलाया। जिस इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव के गर्भ में आने से छह माह पहले से रत्नवृष्टि प्रारंभ कर दी थी, पाँचों कल्याणकों में स्वयं इन्द्र प्रतिक्षण उपाqस्थत रहता था किन्तु जब भगवान प्रासुक आहार प्राप्त करने के लिए भ्रमण कर रहे थे, तब वह भी नहीं आ पाया। सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात् हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ के राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिये, जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शन मेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रातःकाल में उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा, तब ज्योतिषी ने बताया कि जिनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है, जो सुमेरु के समान महान् हैं, ऐसे तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का लाभ प्राप्त होगा। कुछ ही देर बाद भगवान ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो गया, उन्हेें आठ भवपूर्व का समरण हो आया। जब भगवान ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था, तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान आहार के लिए निकले हैं। यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुओं को हाथ में लेकर भगवान का पड़गाहन करने लगे। हे स्वामी! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्र तिष्ठ तिष्ठ……..विधि मिलते ही भगवान राजा श्रेयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुनः निवेदन किया-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, भोजनशाला में प्रवेश कीजिये। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षुरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य वृष्टि होती है। भगवान जैसे पात्र का लाभ मिलने पर उस राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर-नारी भोजन कर गये, तब भी भोजन जितना था उतना ही बना रहा। एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वी मंडल पर हस्तिनापुर के नाम की धूम मच गई, सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोहपूर्वक सम्मान किया तथा प्रथम आहार की स्मृति में यहाँ एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया। दान के कारण ही भगवान आदिनाथ के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन यहाँ प्रथम आहार दान हुआ, वह दिन वैशाख सुदी तीज का था। तब से आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं। इस प्रकार दान की परम्परा हस्तिनापुर से प्रारंभ हुई। दान के कारण ही धर्म की परम्परा भी तब से अब तक बराबर चली आ रही है क्योंकि मंदिरों का निर्माण, र्मूितयों का निर्माण, शास्त्रों का प्रकाशन, मुनि संघों का विहार, दान से ही संभव है और यह दान श्रावकों के द्वारा ही होता है। श्रवणबेलगोल में एक हजार साल से खड़ी भगवान बाहुबली की विशाल प्रतिमा भी चामुण्डराय के दान का ही प्रतिफल है, जो कि असंख्य भव्य जीवों को दिगम्बरत्व का, आत्मशांति का पावन संदेश बिना बोले ही दे रही है।