चंदप्रभू के पदकमल, वन्दूं मन वच काय,
रोग,शोक,संकट टले,सुख सम्पति अधिकाय ||१||
जन्मभूमि जिन चन्द्र की, नमन करूं शत बार ,
चालीसा उनका कहूँ,मिले सुफल अविकार ||२||
भारतभूमी गौरवशाली, अनुपम निधियां जिसने पा लीं ||१||
कई महापुरुषों की जननी, रत्नप्रसूता मंगलकरणी ||२||
हुए अनंतानंत जिनेश्वर , हर युग में चौबिस तीर्थंकर ||३||
सभी जनमते तीर्थ अयोध्या,मोक्ष सम्मेदशिखर से होता ||४||
कालदोषवश उन्निस जिनवर,जन्मे अलग-अलग ही भू पर ||५||
ऋषभ आदि पाँचों श्री जिनवर,जन्म अयोध्या जी तीरथ पर ||६||
उन्निस में से अष्टम जिनवर, चन्द्रप्रभूजी सर्व हितंकर ||७||
चन्द्रपुरी नगरी में जन्मे, सुर नर मुनिजन उनको प्रणमें ||८||
महासेन नृप पितु कहलाए, मात लक्ष्मणा हर्ष मनाएं ||९||
चैत्र वदी पंचमि तिथि प्यारी, गर्भागम की बेला न्यारी ||१०||
माँ ने देखे सोलह सपने, रत्नवृष्टि हो माँ के महले ||११||
पौष कृष्ण ग्यारस की तिथि में, तीर्थंकर प्रभुवर थे जन्मे ||१२||
इन्द्र शची सह परिकर लेकर, जन्मकल्याणक का उत्सव कर ||१३||
गिरि सुमेरु जिन न्हवन किया था, नेत्र सहस कर वह पुलकित था ||१४||
शैशव से फिर यौवन आया, ब्याह किया अरु राज्य चलाया || १५||
स्वर्ग के दिव्य वस्त्र आभूषण, स्वर्ग से प्रभु का आता भोजन ||१६||
कैसा सुन्दर दृश्य वो होगा, स्वर्णसुसज्जित नगर वो होगा ||१७||
नगरी की शोभा क्या कहना, उस क्षण की नहिं कोई गणना ||१८||
दर्पण में जब दो मुख दीखे, हुई विरक्ती सभी सुखों से ||१९||
लौकंतिक सुर आन पधारे , जय-जय का स्वर सभी उचारें ||२०||
जन्मतिथी में दीक्षा ले ली, धन्य हुआ सर्वर्तुक वन भी ||२१||
घोर तपश्चर्या करते थे, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु के ||२२||
सुन्दर समवसरण की रचना, दिव्यध्वनी प्रगटी जग भर मा ||२३||
जिसने उसका पान कर लिया, आत्मा का कल्याण कर लिया ||२४||
धन्य-धन्य है चंद्रपुरी जी, चार कल्याणक से पावन थी ||२५||
गंगा तट पर बसी वो नगरी, काल थपेडों के कारण ही ||२६||
हुई वीरान न कोई जाता , कोई वहाँ की सुध ना लाता ||२७||
कभी जहाँ सुरपति आते थे, रतन करोड़ों बरसाते थे ||२८||
उसका जीर्णोद्धार हुआ कुछ, भक्त कभी जाते श्रद्धायुत ||२९||
इक प्राचीन वहाँ जिनमंदिर , गंगा तट का दृश्य विहंगम ||३०||
उस तीरथ की यात्रा करना , इक असीम आनंद तुम लेना ||३१||
जिनसंस्कृति की रक्षा हेतू, कृतसंकल्प सभी को होना ||३२||
विजय यक्ष हैं वहाँ विराजित, ज्वालामालिनि माता राजित ||३३||
उनके पद में शीश नमाओ , मनवांछा पूरी कर आओ ||३४||
कण-कण परम पूज्य है भू का, जिनसंस्कृति इतिहास है कहता ||३५||
उसकी यात्रा है सुखकारी , भव से पार लगाने वाली ||३६||
उस तीरथ को मेरा वंदन, आत्मा मेरी होवे कुंदन ||३७||
भाव यही यात्रा कर लाना, नहीं पुनर्भव हमको पाना ||३८||
चन्द्रचिन्हयुत चन्द्रप्रभूजी , बस मेरी इक अरज सुनो जी ||३९||
हे करुणाकर पार लगा दो, मम आत्मा को तीर्थ बना दो ||४०||
चालिस दिन तक जो पढ़े , नित चालीसहिं बार
तीरथ की यात्रा करे, पूरण हों सब कार्य ||१||
भाव सहित ‘इंदू ‘ नमें, आत्मविशुद्धी काज
चन्द्रप्रभू की भक्ति से, मिले मुक्ति साम्राज्य ||२||