भगवान पार्श्वनाथ १०वें भव पूर्व-मरुभूतिपोदनपुर में महाराजा अरविन्द अपनी राजसभा में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान थे। उनके विश्वभूति नामक मंत्री ने राज्य के कुशल समाचार बताकर महाराज से जिनदीक्षा की आज्ञा मांगते हुए अपने पुत्र कमठ और मरुभूति को महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया।
उन मंत्रिवर के दीक्षा लेते ही महाराज अरविन्द ने उनके दोनों पुत्रों को परम्परागत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। पुन: एक दिन राजा अरविन्द अपने शत्रु राजा वङ्कावीर्य को जीतने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ मरुभूति मंत्री को लेकर युद्ध करने चल पड़े और कमठ कुमार मंत्री पर पोदनपुर के राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था डाल दी। कमठ जो कि स्वभाव से ही कुटिल परिणामी दुष्टात्मा था, वह समय पाकर मंत्री पद में अत्यन्त निरंकुश हो गया और सर्वत्र अन्याय का साम्राज्य फैला दिया।
किसी समय मंत्री कमठ ने अपने छोटे भाई मरुभूति की पत्नी वसुंधरी को अप्सरा के समान सुन्दर देखकर उसके साथ जबर्दस्ती दुराचार किया। राजा के वापस आने पर जब उन्हें यह पता चला तो उनकी आज्ञा से कोतवाल ने कमठ का सिर मुंडा कर मुंह काला करके उसे गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमा कर देश से निकाल दिया।
उस दण्ड से अपमानित होकर कमठ एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला लेकर खड़ा होकर तपश्चरण करने लगा। इधर मरुभूति अपने भाई के वियोग से दुखी हो उसे मनाकर वापस लाने हेतु आश्रम में गया और कमठ के पैरों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा किन्तु क्रोधी कमठ ने उसके सिर पर पत्थर की शिला पटक दी अत: मरुभूति तुरंत वहीं मर गया और आत्र्तध्यान से मरकर वह सल्लकी वन में हाथी बनकर जन्मा।
Lord Parshvanath Before 10th Birth-Marubhuti
Two brothers Kamath & Marubhuti were the ministers of king Arvind of Podanpur. Once Kamath forcibily raped the wife of Marubhuti in his absence. Knowing this, the king expelled him out of the country. Angry Kamath started penance with a rock in his hands in some Ashram.
Marubhuti came there to get him returned but Kamath threw the rock on his head, immediately he died and because of the attachment feelings for his brother, Marubhuti was born as an elephant in Sallaki forest.
भगवान पार्श्वनाथ ९वें भव पूर्व-हाथी
राजा अरविन्द ने भी एक बार आकाश में मेघों को विघटते देखकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली थी, पुन: अपने संघ के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा करते हुए सल्लकी वन में ठहरे थे। तभी अकस्मात् वङ्काघोष नामक विशालकाय हाथी (मरुभूति का जीव) सारे संघ में खलबली मचाता हुआ विचरण करने लगा। उस हाथी के पैरों के नीचे दबकर अनेक मनुष्य-पशु आदि मर गये अत: सर्वत्र हा-हाकार मच गया।
पुन: ज्यों ही वह ध्यानस्थ गुरुदेव श्री अरविन्द मुनिराज के निकट पहुँचा, उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और वह एकदम शांत होकर बैठ गया। तब मुनिराज कहने लगे- हे गजराज! तू अपने भाई कमठ के मोह में मरकर इस पशु पर्याय में जन्मा है, अब तू समस्त आत्र्तध्यान छोड़कर सम्यक्त्व को धारण कर और अपने अगले भव को सुधारने हेतु श्रावक के व्रतों को धारण कर।
इस प्रकार गुरुदेव के मुख से विस्तारपूर्वक सम्यक्त्व एवं व्रतों का उपदेश सुनकर उस हाथी ने गुरुदेव को नमन करके श्रावक व्रतों को स्वीकार कर लिया। एक दिन वह हाथी पानी पीने हेतु वेगवती नदी के तट पर गया और कीचड़ में फस गया। वहाँ से निकलने का साधन न देखकर उसने चतुराहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली और णमोकार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गया। कुछ ही देर में एक कुक्कुट जाति के साँप ने (कमठ का जीव जो मरकर साँप हो गया था) पूर्व जन्म के वैर के संस्कारवश उसे डस लिया, तब वह हाथी शांत भाव से मरकर बारहवें स्वर्ग में ‘‘शशिप्रभ’’ नाम का देव हो गया।
Lord Parshvanath Before 9th Birth-Elephant
King Arvind took Jaineshwari Deeksha and once he reached the Sallaki forest with his Sangh. As soon as Vajraghosh elephant (Marubhuti in previous birth) saw the Muniraj, it became quite peaceful and by his preaching accepted the vows of a Shravak (householder) with Samyaktva (right belief).
One day the elephant got trapped into the mud of a river and knowing the death to be sure, it accepted Sallekhna & concentrated on Namokar Mahamantra. In the meantime a Kukut snake (Kamath in previous birth) bit it but due to its peacefulness, the elephant became ‘Shashiprabh Dev’ in the 12th heaven after death.
भगवान पार्श्वनाथ ८वें भव पूर्व-शशिप्रभ देव
स्वर्ग में उपपाद शय्या पर जन्म लेते ही शशिप्रभ देव को अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि मैं तिर्यंचयोनि की हाथी पर्याय से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ। वहाँ पर गुरुदेव की कृपा से जो मैंने सम्यक्त्वरूपी रत्न एवं अणुव्रतरूपी निधि प्राप्त की थी, उसी के फलस्वरूप मुझे यह तेजोधाम स्वर्गपुरी का अतुल वैभव प्राप्त हुआ है। स्वर्ग में सोलह सागर तक वह देव असीम सुखों को भोगता रहा।
कभी वह जम्बूद्वीप, नंदीश्वरद्वीप आदि द्वीपों में जाकर अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करता, कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों में भाग लेता तो कभी चारणऋद्धिधारी मुनियों की एवं अपने सच्चे हितकारी गुरु अरविन्द मुनिराज की पूजा करता…….आदि। देखो! धर्म एवं व्रतरूपी कल्पवृक्ष के प्रसाद से जहाँ एक हाथी का जीव स्वर्ग के सुखों को भोग रहा है, वहीं जिस कुक्कुट सर्प ने हाथी को डसा था, उसने अपनी आयु पूर्ण कर अधोलोक के पाँचवे नरक में जन्म ले लिया।
वहाँ सत्रह सागर तक असीम दु:खों का अनुभव करता रहा। पुन: शशिप्रभ देव तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग की आयु बिताकर विद्याधर मनुष्य हो गया एवं बेचारा नारकी (कुक्कुट सर्प का जीव) मरकर अजगर सर्प की योनि में आ गया।
Lord Parshvanath Before 8th Birth-Shashiprabh Dev
Shashiprabh Dev enjoyed the pleasures of the heaven for 16 Sagars (very large time), but he never neglected his religious practices because he knew that he had obtained all the happiness & comforts because of adopting Anuvratas in the previous birth of Vajraghosh elephant. On the other side, the Kukut snake, which had become Narki (hellish being) in the 5th hell due to its wicked nature, underwent the hardships & sorrows of the hellish life for 17Sagars. After completing their life-times the Dev became a Vidyadhar and the Narki became a fierce python (a large snake).
भगवान पार्श्वनाथ ७वें भव पूर्व-अग्निवेग विद्याधर
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत के लोकोत्तम नगर के विद्युत्गति विद्याधर राजा की रानी विद्युन्मालिनी से जन्मा शिशु अग्निवेग दूज चन्द्रमा के समान स्वयं बढ़ने लगा और सबकी खुशियों को भी वृद्धिंगत करने लगा। राज्यसम्पदा को भोगते हुए सहसा भरी जवानी में ही अग्निवेग ने एक दिन समाधिगुप्त मुनिराज से संबोधन प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और घोर तपश्चरण करते हुए वे अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करने लगे।
एक दिन वे महामुनि हिमगिरि पर्वत की गुफा के अन्दर ध्यान में लीन थे, तब वहाँ एक अजगर सर्प आया और मुनि को देखते ही उसने पूर्व भव के वैर संस्कारों के कारण भयंकर क्रोध से प्रेरित होकर उन्हें निगल लिया। मुनिराज परम समताभाव से मरकर सोलहवें स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हो गये तथा कालांतर में वह अजगर सर्प मुनिहत्या के घोर पाप एवं जीव हिंसा आदि व्रूर परिणामों से आयु पूर्ण कर छठे नरक में चला गया, वहाँ बाईस सागर तक अनंत दु:खों को भोगता रहा।
Lord Parshvanath Before 7th Birth-Agniveg Vidyadhar
Vidyunmalini, the wife of the Vidyadhar king Vidyutgati of East Videh Kshetra of Jamboodweep, gave birth to the son Agniveg (Shashiprabh dev in previous birth). Later Agniveg ruled over the country but in very young age he took Jaineshwari Deeksha listening to the preachings of Samadhigupt Muniraj.
Once Agniveg Muniraj was meditating on his pure soul, suddenly the python (Jeev of Kamath) came there & swallowed him due to the malicious feelings of previous births. Muniraj became dev in the 16th heaven due to death with equanimous feelings while the python took birth in the 6th hell due to its cruel & violent nature.
भगवान पार्श्वनाथ ६वें भव पूर्व-अच्युत स्वर्ग मेें
सरलता और क्षमा की प्रतिमूर्ति वह मरुभूति का जीव पांचवे भव में अच्युत स्वर्ग के दिव्य सुखों का अनुभव कर रहा है। वहाँ बाईस सागर की आयु कैसे बीत गई उसे पता ही नहीं चलता है क्योंकि सम्यग्दर्शन से सहित वह देव सदैव तत्त्व चर्चा, जिनेन्द्र भक्ति एवं अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना आदि में अपना समय व्यतीत करता है।
पुण्य फल के रूप में प्राप्त उस अलौकिक वैभव को भोगते हुए भी उसे आत्मा और शरीर की भेदभिन्नता का पूर्ण ज्ञान है इसीलिए आयु के अंत में समाधिमरणपूर्वक शरीर छोड़कर अतिदुर्लभ मानवपर्याय में जन्म धारण कर लेता है तथा छठे नरक का नारकी (कमठ का जीव) वहाँ से निकलकर भील की पर्याय में जन्म ले लेता है।
Lord Parshvanath Before 6th Birth-In Achyut Heaven
The Jeev of Marubhuti, who was the image of innocence & forgiveness, was enjoying the divine glamour of the Achyut (16th) heaven. He passed the life of 22 sagars there with Jin-Bhakti, worshipping in the eternal temples of Madhyalok & discussing the principles of Jainism etc. because he was having full belief in the differentiation of the body and the soul.
He accepted Samadhimaran at the last and so he was born as a humanbeing in the next birth. On the other side, the Narki of the 6th hell became a Bheel (tribal) after death. Thus, we can notice that the simplicity & innocence in behaviour cause pleasures in life, while the cruel & revengeful nature has become the cause of undergoing sorrow & hardships in next births.
भगवान पार्श्वनाथ ५वें भव पूर्व-वङ्कानाभि चक्रवर्ती
अच्युत स्वर्ग का वह देव जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र के अश्वपुर नगर में जब राजा वङ्कावीर्य की रानी विजया के गर्भ में आया तब रानी ने एक रात्रि को पिछले प्रहर में सुदर्शन मेरु, सूर्य, चन्द्रमा, देवविमान और सरोवर ये पाँच स्वप्न देखे। पुन: पति से सपनों के फल में चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करने का समाचार जानकर रानी विजया अतीव प्रसन्न हुई। युवावस्था में वङ्कानाभि राजा ने चक्ररत्न प्राप्त कर छह खण्ड वसुधा पर एकछत्र शासन किया किन्तु वे निरंतर श्रावक के षट्कर्तव्यों का पालन करते हुए जिनधर्म को कभी नहीं भूले।
प्रत्युत् दिन-प्रतिदिन जिनेन्द्रभक्ति में उनकी रुचि बढ़ती ही गई। ठीक ही है कि पुण्यात्माजन सांसारिक वैभव को पाकर कभी धर्म से विमुख नहीं होते हैं। एक दिन शहर के बाहर बगीचे में पधारे एक महामुनिराज के दर्शन करके चक्रवर्ती महाराज ने उनसे धर्मोपदेश सुना और तुरंत उन्होंने अपना राजपाट त्याग करके दीक्षा धारण कर ली।
वे वङ्कानाभि मुनिराज घोर तपश्चरण करते हुए एक बार वन में ध्यानलीन थे, तब उस कमठ के जीव ने जो छठे नरक से निकलकर जंगल में भील बना था, उसने मुनि को देखते ही उनके ऊपर बाण चला-चला कर छेदन-भेदन का खूब उपसर्ग किया।
Lord Parshvanath Before 5th Birth-Vajranabhi Chakravarti
After coming from the Achyut heaven, the Jeev (soul) of the deity came in the womb of Maharani Vijaya, the wife of king Vajraveerya of the West Videh Kshetra of Jamboodweep. The mother saw 5 auspicious dreams indicating the birth of a Chakravarti son to her.
Son Vajranabhi was born and later he became Chakravarti, who ruled over the 6 Khandas along with observing the vows of a Shravak. Once he accepted Jaineshwari Deeksha and performed hard penance for a long time. One day, the Bheel (the Jeev of Kamath) saw him and with inherent anger, pierced & killed the Muniraj with his arrows.
भगवान पार्श्वनाथ चौथे भव पूर्व-अहमिन्द्र
वङ्कानाभि मुनिराज ने भील के तीक्ष्ण बाणों का उपसर्ग शांतिपूर्वक सहन किया और समाधिपूर्वक मरण करके वे सोलहवें स्वर्ग से भी ऊपर मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र बन गये, वहाँ सत्ताईस सागर तक दिव्य सुखों को उपभोग किया लेकिन वह पापी भील मुनिहत्या के फलस्वरूप सातवें नरक में चला गया, जहाँ के दु:खों का वर्णन मुख से कर पाना भी असंभव है अर्थात् सत्ताईस सागर तक वह नरक में भीषण दु:ख भोगता रहा।
वहाँ उसे कुअवधिज्ञान के प्रभाव से पूर्व भवों की सब बातें याद हो आर्इं कि मैंने पिछले जन्मों मेें बहुत पाप किये हैं। अनेकों पश्चात्ताप करने पर भी वहाँ क्षेत्रजन्य प्रभाव के कारण उसे तिल-तुषमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। कर्म की विचित्रता देखो, मरुभूति का जीव जो मुनि अवस्था से अहमिन्द्र बना था, वह सत्ताईस सागरों तक स्वर्ग में तत्त्वचर्चा आदि के द्वारा असीम सुखों का भोग करता रहा।
Lord Parshvanath Before 4th Birth-Ahmindra
Vajranabhi Muniraj had tolerated the atrocity of the Bheel very peacefully and so he became Ahmindra in the middle Graiveyak, which was even above the 16th heaven. He passed his lifetime of 27 Sagars there with divine comforts along with continuous Jin-Bhakti. However, the Bheel became the Narki in the 7th hell and underwent extreme hardships for 27 Sagars.
He remembered all the sinful incidents of the previous births by the effect of wrong-clairvoyance (Ku-avadhigyan) but even on repeated repentance in own heart, he could not get any relief & comfort there. Think! one soul is enjoying the pleasures of heaven due to the effect of Dharmapalan, while the other soul is experiencing hardships due to the feelings & deeds of revenge and anger.
भगवान पार्श्वनाथ तीसरे भव पूर्व-राजा आनंद
ग्रैवेयक विमान के उस अहमिन्द्र ने सत्ताईस सागर की आयु बिताकर मध्यलोक की अयोध्या नगरी में महामंडलीक राजा आनंद के रूप में मनुष्य जन्म धारण कर लिया और कमठ का जीव सातवें नरक से निकलकर वहीं निकटवर्ती वन में सिंह हो गया। महाराजा आनन्द ने राज्य सुखों का उपभोग करते हुए एक बार फाल्गुन अष्टान्हिका पर्व में मंदिर में नंदीश्वर पूजन के मध्य पधारे विपुलमती मुनिराज के मुखारविन्द से तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन सुना तो उन्हें सूर्य विमान के जिनमंदिर के प्रति अगाढ़ श्रद्धा हो गई
अत: उन्होंने कुशल कारीगरों से अयोध्या की धरती पर ही मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाया और उसमें रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करार्इं, पुन: शास्त्रोक्त विधि से वहाँ अनेक प्रकार से महापूजाएं की। उत्तरपुराण में कहा है कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है। आनन्द नरेश ने एक दिन राजसभा में बैठे-बैठे दर्पण में अपना मुख देखा तो सिर में एक सफेद बाल देखते ही उन्हें राज्य-वैभव से वैराग्य हो गया
और उन्होंने अपने सुयोग्य बड़े पुत्र को राज्यभार सौंपकर सागरदत्त मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली, पुन: गुरुचरणों में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। वे आनंद मुनिराज एक बार वन में ध्यान लीन थे तब सिंह वहाँ आकर उन्हें खा लेता है और मुनि समता भाव से उपसर्ग सहन कर तेरहवें स्वर्ग के विमान में इन्द्र हो जाते हैं। आगे सिंह मरकर पांचवे नरक मेें चला जाता है।
Lord Parshvanath Before 3rd Birth-King Anand
The Ahmindra became king Anand at Ayodhya in the next birth, while the Narki became the lion in the nearby forest. By listening to the preaching of a Muniraj, the king got built the Viman of the Surya (sun) with Jin temples, since then Surya-Pujan became famous in the world.
Later king Anand took Jaineshwari Deeksha and bound Tirthankar Prakriti in the holy feet of his preceptor by the practice of Solahkaran Bhavnas . Once the lion (Kamath’s Jeev) killed him while he was engrossed in meditation. Muniraj Anand became Indra in the 13th heaven by expiring with equanimity while the lion became Narki in the 5th hell.
भगवान पार्श्वनाथ दूसरे भव पूर्व-आनत स्वर्ग में इन्द्र
समता परिणामों की विशेषता के कारण आनंद मुनिराज ने तेरहवें स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया था। वहाँ उस इन्द्र को दिव्य अवधिज्ञान से ज्ञात हो जाता है कि पूर्व जन्म में मैंने महामुनि बनकर जो तपस्या की थी उसी के प्रभाव से यहाँ मुझे इन्द्र का वैभव प्राप्त हुआ है अत: वहाँ के वैभव को देखकर वे आनंदचर इन्द्रराज धर्म और धर्म के फल में और अधिक श्रद्धा करने लगते हैं।
वे इन्द्रराज अपने परिवार देवों के साथ कभी नन्दीश्वर द्वीप में पूजन करने जाते हैं, कभी विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर के समवसरण में दिव्यध्वनि का पान करते हैं तो कभी देव-देवांगनाओं के साथ मनोविनोद करते हैं। भावी तीर्थंकर वे देवेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो रहे हैं और वहाँ बीस सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे हैं।
Lord Parshvanath Before 2nd Birth-Indra at Aanat Heaven
Due to the feelings of equanimity at the time of inflictions, Anand Muniraj had become Indra in the 13th heaven. By the effect of divine clairvoyance (Avadhigyan), the Indra knew that he had come into the heaven due to the hard penance, done in the form of Digambar Muniraj.
He enjoyed the divine pleasures for 20 Sagars along with practising Jain-Dharma with full devotion because he definitely knew that all the Punya was owing to Dharma only. Sometime he used to go to Nandishwar Dweep alongwith his family for worshipping, while at some other time, he used to go to the Samavsaran of Tirthankars like Simandhar Swami etc. Sometime he used to enjoy with other deities and so on. In the next birth, this Indra will be Lord Parshvanath.
भगवान पार्श्वनाथ के गर्भ-जन्मकल्याणक
वाराणसी नगरी में महाराजा अश्वसेन अपनी महारानी वामा देवी के साथ नौ मंजिल वाले शिखराकार दिव्य महल में रहते थे। एक दिन उनके आंगन में धनकुबेर ने स्वर्ग से आकर रत्नवृष्टि शुरू कर दी और प्रतिदिन करोड़ों रत्न बरसाने लगा। कुछ दिन (६ माह) बाद एक दिन (वैशाख वदी दूज) रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी वामा देवी ने ऐरावत हाथी, बैल, सिंह आदि सोलह स्वप्न देखे पुन: प्रात: अपने पति से यह जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुर्इं
कि तुम्हारे पवित्र गर्भ से तीर्थंकर महापुरुष का जन्म होगा इसीलिए इन्द्र, देव, देवियाँ सभी तुम्हारी सेवा में लगे हुए हैं। इस प्रकार अतिशय सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते हुए वामा देवी ने पौष कृष्णा एकादशी के दिन सूर्य के समान तेजस्वी तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया। तब सौधर्म इन्द्र के साथ असंख्य देवों ने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर ले जाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर उनका जन्माभिषेक किया और उन्हें दिव्य वस्त्राभूषण से अलंकृत कर ‘‘पार्श्वनाथ’’ नाम से अलंकृत किया।
Garbh (Conception) & Janma (Birth) Kalyanaks of Lord Parshvanath
Maharaja Ashvasen was living along with his wife Maharani Vamadevi in 9 storeyed divine palace at Varanasi. One day Kuber started the showering of crores of jewels in his courtyard and continued this practice everyday. After 6 months, Vama Devi saw 16 dreams in the night of Vaishakh Vadi Duj indicating the incarnation of the Tirthankar child into her holy womb.
Tirthankar son was born on Paush Krishna Ekadashi. Till then, showering of jewels was continued. Indra took the child on the Panduk-Shila of Sumeru Parvat by Aeravat elephant for Birth-anointment and gave Him the name ‘Parshvanath’.
भगवान पार्श्वनाथ का नागयुगल को संबोधन, दीक्षा,उपसर्ग एवं केवलज्ञान
इन्द्र द्वारा अंगूठे में स्थापित अमृत का पान करते हुए जिनबालक पार्श्वनाथ ने शैशव से युवावस्था में प्रवेश किया। एक दिन पाश्र्वकुमार ने अपने अनेक मित्रों के साथ बनारस नगरी के उद्यानों में विचरण करते हुए एक तापसी साधु को देखा जो पंचाग्नि तप कर रहा था। पार्श्वनाथ वहाँ खड़े होकर उसकी मिथ्या क्रियाएं देखने लगे, तब तापसी ने सोचा कि देखो!
मैं इस बालक का नाना हूँ, फिर भी यह मेरी विनय नहीं कर रहा है पुन: वह क्रोध में भड़क कर कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरने लगा। तत्क्षण अवधिज्ञानी पार्श्वनाथ बोल उठे कि इस लकड़ी में नागयुगल हैं, इसे मत चीरो। तापसी को यह सुनकर और अधिक गुस्सा आ गया, किन्तु उसने ज्यों ही लकड़ी के दो टुकड़े किये, उसमें से कटे हुए छटपटाते नागयुगल भी निकल पड़े। तब पार्श्वनाथ के सम्बोधन से वे दोनों मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती नामक यक्ष जाति के देव-देवी हो गये।
इस प्रकार अपनी अमृतमयी वाणी से अनेक जीवों का कल्याण करते हुए युवराज पार्श्वनाथ तीस वर्ष की उम्र में एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उसी समय अयोध्या नरेश जयसेन महाराज का दूत आ गया और उसने अनेक प्रकार की भेंट समर्पित कर अयोध्या के वैभव एवं भगवान ऋषभदेव के दश भव आदि का वर्णन सुनाया। जिससे पार्श्वनाथ को वैराग्य हो गया अत: उन्होंने दीक्षा धारण कर ली। वे भगवान एक बार किसी वन के अन्दर ध्यान में लीन थे,
तभी कमठ का जीव जो पाँचवें नरक से निकलकर पशुयोनि के दु:ख सहन करते हुए राजा महीपाल के रूप में महीपालपुर का राजा हो गया, पुन: मिथ्यातप से मरकर शंवर नामक ज्योतिषी देव हो गया, इसने अब भी पार्श्वनाथ का पीछा नहीं छोड़ा और उनके ऊपर घोर उपसर्ग करने लगा। उसी समय धरणेन्द्र-पद्मावती ने आकर उपसर्ग दूर किया और भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इस उपसर्गविजय की भूमि को ही ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ की प्रसिद्धि प्राप्त हुई, जहाँ पार्श्वनाथ भगवान का प्रथम समवसरण अधर आकाश में निर्मित हुआ था।
Deeksha (Initiation) & Kevalgyan (Omniscience) Kalyanaks of Lord Parshvanath
Prince Parshvanath took Jaineshwari Deeksha at the age of 30 years. When he was engrossed into meditation in a forest once, an astral deity named Shambar (the Jeev of Kamath) started making atrocities on Him. Dharnendra & Padmavati came to protect the Lord and at the same time Parshvanath attained omniscience. This pious land was called as ‘Ahichchhatra’, where first Samavsaran of the Lord was created.
भगवान पार्श्वनाथ का सम्मेदशिखर से निर्वाण
समवसरण में बारह सभाओं के मध्य धर्मोपदेश करते हुए प्रभु पार्श्वनाथ ने लगभग सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में जब उनकी आयु एक माह की शेष रह गई तब वे विहार बंद कर सम्मेदाचल पर्वत के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये, पुन: श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: समस्त कर्म नष्ट करके निर्वाणधाम को प्राप्त कर लिया। इन्द्रों ने उस समय उनका निर्वाणकल्याणक खूब महोत्सवपूर्वक मनाया।
तब से लेकर आज तक सम्मेदशिखर के स्वर्णभद्रकूट पर भगवान पार्श्वनाथ का मोक्षकल्याणक प्रतिवर्ष भक्तगण धूमधाम से मनाते हुए निर्वाणलाडू चढ़ाते हैं। पंचकल्याणक वैभव को प्राप्त ऐसे उन भगवान पार्श्वनाथ के जन्म को २८८४ वर्ष हो चुके हैं। जैन समाज की वरिष्ठतम साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने पूरे देश को भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव मनाने की प्रेरणा प्रदान की, जिसका उद्घाटन ६ जनवरी २००५ को जन्मभूमि वाराणसी में किया गया।
तीन वर्ष तक इस महोत्सव को विविध आयोजनों के साथ मनाया गया। उसमें गर्भ-जन्म एवं दीक्षाकल्याणक तीर्थ वाराणसी, केवलज्ञान कल्याणक तीर्थ अहिच्छत्र, निर्वाणकल्याणक तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के साथ-साथ पार्श्वनाथ के समस्त अतिशय क्षेत्रों का भी प्रचार-प्रसार किया गया।
Salvation of Lord Parshvanath From Sammed Shikharji
Lord Parshvanath preached for about 70 years. When one month was remaining of His life-time, He reached Sammedachal mountain (Sammed-Shikhar), where He got Nirvan (salvation) on Shravan Shukla Saptami. At that time, Indras celebrated His Nirvankalyanak Mahotsava with great enthusiasm. Till today, devotees celebrate this Mahotsava by offering Nirvan Ladoo at the Swarnabhadra Koot of Sammed-Shikhar every year.
2884 years have passed since Lord Parshvanath was born, so Supreme Jain Sadhvi Pujya Ganini Shri Gyanmati Mataji inspired the whole country to celebrate ‘Lord Parshvanath Birth-Anniversary Third Millennium Mahotsava’. this Mahotsava was inaugurated at Varanasi, the birthland of the Lord, on 6th Jan. 2005.
With organising various programmes, the Mahotsava was celebrated for three years. In these Holy years the vast propaganda of Kalyanak Tirths and Atishaya Kshetra related to Lord Parshvanath viz. Varanasi, Ahichhatra, Sammedshikhar etc. was done by the society.