सिद्धप्रभू के पदकमल, नमूँ-नमूँ सिरनाय।।१।।
विमलनाथ भगवान को, मनमंदिर में धार।
लिखने का साहस करूँ, यह चालीसा पाठ।।२।।
हे जिनवाणी भारती, रहना मेरे पास।
जब तक पूरा हो नहीं, प्रभु का यह गुणगान।।३।।
ऋषभदेव से वासुपूज्य तक, बारह तीर्थंकर हैं सुखकर।।१।।
अब तेरहवें विमलनाथ जी, अमल-विमल पद प्राप्त प्रभू जी।।२।।
तुम हो निर्मल शुद्ध प्रभू जी, भाव-द्रव्य-नोकर्म रहित ही।।३।।
आत्मा शुद्ध बने हम सबकी, इसीलिए करते तुम भक्ती।।४।।
तुम जनमे कंपिलापुरी में, पितु कृतवर्मा के महलों में।।५।।
मात तुम्हारी जयश्यामा थीं, तुमको जनकरजन्म देकर आनन्दित थीं।।६।।
निर्मल तीन ज्ञान से संयुत, प्रभु मलरहित गर्भ में स्थित।।७।।
ज्येष्ठ बदी दशमी को प्रभु का, गर्भकल्याण मनाते सुरगण।।८।।
पुन: माघ सित चौथ के दिन में, जिनवर जन्मे मध्यलोक में।।९।।
तीनलोक में आनन्द छाया, इन्द्र ने जन्मकल्याण मनाया।।१०।।
नामकरण भी इन्द्र ही करते, अपना पुण्य बढ़ाते रहते।।११।।
बत्तिस लख विमान का अधिपति, होता है सौधर्म इन्द्र ही।।१२।।
तो भी वह प्रभुवर के सम्मुख, िंककर सम रहता है हरदम।।१३।।
इसीलिए तो वह भव्यात्मन्! इतना पुण्य करे एकत्रित।।१४।।
वह बस एक ही भव ले करके, पहुँच जाएगा सिद्धशिला पे।।१५।।
अब हम आगे विमलनाथ के, जीवन की कुछ बताते।।१६।।
काल कुमार का बीत गया जब, राजपाट मिल गया उन्हें तब।।१७।।
राज्यकार्य को करते-करते, तीन लाख हो गए वर्ष थे।।१८।।
ऋतु हेमन्त में बर्फविनशती, देख प्रभू को हुई विरक्ती।।१९।।
तत्क्षण राजपाट छोड़ा था, शिवपथ से नाता जोड़ा था।।२०।।
देवदत्त नामक पालकि से, गए सहेतुक वन में प्रभु जी।।२१।।
नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली, चौथा ज्ञान हुआ था तब ही।।२२।।
तीन वर्ष छद्मस्थकाल के, मौन सहित बीते प्रभुवर के।।२३।।
पुन: घातिया कर्म नाश हो, केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु को।।२४।।
गगनांगण में समवसरण की, रचना धनकुबेर ने कर दी।।२५।।
धनकुबेर के बारे में भी, वर्णन आता है शास्त्रों में।।२६।।
वो भी बहुत पुण्यशाली है, केवल एक भवावतारि है।।२७।।
समवसरण की महिमा देखो, चाहे अंधे या लंगड़े हों।।२८।।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़ते, बस केवल कुछ ही मिनटों में।।२९।।
प्रभु का समवसरण जहाँ जाता, हर प्राणी को मिलती साता।।३०।।
प्रभु की दिव्यध्वनि को सुनकर, कर लेते कल्याण भव्यजन।।३१।।
पूरे आर्यखण्ड में प्रभु ने, भ्रमण किया था समवसरण में।।३२।।
पुन: गए सम्मेदशिखर पर, कर्म अघाती भी विनशे तब।।३३।।
तिथि आषाढ़ कृष्ण अष्टमि थी, प्रभु ने पाई थी शिवलक्ष्मी।।३४।।
साठ धनुष तन की ऊँचाई, साठ लाख वर्षों की आयू।।३५।।
वर्ण आपका स्वर्ण सदृश था, घृष्टीसूकर सोहे चिन्ह आपका।।३६।।
मेरे मन-वच-काय प्रभो! अब, पूर्ण विमल कर दो हे भगवन्!।।३७।।
तभी आत्मा निर्मल होगी, परमात्मा की प्राप्ती होगी।।३८।।
परमात्मा बनने तक भगवन्! कभी न छूटे सम्यग्दर्शन।।३९।।
क्योंकी यह सम्यग्दर्शन ही, देवेगा ‘‘सारिका’’ को मुक्ती।।४०।।
श्री विमलनाथ का चालीसा, निर्मल पद प्राप्त कराएगा।
सम्पूर्ण मलों को धो करके, आत्मा को स्वच्छ बनाएगा।।
इस युग में अभिनव ब्राह्मी-गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी ही शिष्या काव्यचन्द्रिका, मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
सब ‘छोटी माताजी’ कहते, उनकी ही पुण्य प्रेरणा से।
हूँ अल्पबुद्धि फिर भी यह चालीसा का पाठ लिखा मैंने।।
इसको चालिस दिन चालिस-चालिस, बार पढ़ो यदि भव्यात्मन्।
निश्चित ही मल से रहित अमल-आत्मा होगी इक दिन पावन।।२।।