यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थीं, रात्रि के पिछले प्रहर में उन्होंने उत्तम-उत्तम छह स्वप्न देखे। स्वप्न देखने के बाद मंगलपाठ प़ढते हुए बंदीजनों के शब्द सुनकर वे जाग पड़ीं। बंदीजन इस तरह पाठ पढ़ रहे थे कि – ‘‘हे कल्याणि! दूसरों का कल्याण करने वाली और स्वयं सैक़डों कल्याण को प्राप्त होने वाली हे देवि! अब तुम जागो, क्योंकि तुम कमलिनी के समान शोभा धारण करने वाली हो। हे देवि! जिस प्रकार मानसरोवर पर रहने वाली राजहंस की प्रियवल्लभा नदी का किनारा छोड़ देती है, उसी प्रकार तीर्थंकर ऋषभदेव के मन में निवास करने वाली और उनकी प्रियवल्लभा तुम भी शैय्या छोड़ो।’’ इस प्रकार बंदीजनों के मंगलपाठ और दुंदुभियों के शब्दों को सुनते हुए महारानी यशस्वती अपनी शैय्या छो़डकर प्रातःकालीन मं गलस्नान से निवृत्त हो, राजसभा में राजाधिराज ऋषभदेव के समीप पहुँचीं। वहाँ पतिदेव के समीप अपने यो ग्य सिंहासन पर सु खपूर्वक बैठ गर्इं। अनन्तर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक निवेदन करने लगीं – ‘‘ हे देव! आज रात्रि के पिछले भाग में मैंने उत्तम-उत्तम छह स्वप्न दे खे हैं, उनका फल आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ । स्वामिन्! स्वप्न में १. सुमेरुपर्वत २. चन्द्रमा ३. सूर्य ४. हंससहित सरोवर ५. चंचल लहरों वाला समुद्र और ६. ग्रसित होती हुई पृथ्वी देखी है।’’ इतना कहकर महादेवी प्रभु के शब्द सुनने की उत्सुकता से सन्मुख देखने लगीं । तभी अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्र के धारी प्रभु बोले- ‘‘हे देवि! स्वप्नों में जो तुमने-
१. सुमेरुपर्वत देखा है, उसका फल यह है कि तुम्हारे चक्रवर्ती पुत्र का जन्म होगा।
२. चन्द्रमा के देखने से वह अपूर्व कांति का धारक होगा।
३. सूर्य के देखने से वह पुत्र छह खंड विजयी महाप्रतापी होगा।
४. हे कमलनयने! सरोवर के देखने से तुम्हारा पुत्र अनेक पवित्र लक्षणों से चिन्हित शरीर हो कर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर कमलवासिनी- लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा।
५. हे देवि! पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से वह तुम्हारा पु्त्र चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त पृथ्वी का पालन करेगा।
६. और समुद्र के देखने से यह प्रगट हो रहा है कि वह चरमशरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा। इसके सिवाय इक्ष्वाकुवंश को आनन्द देने वाला वह पुत्र तुम्हारे सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ होगा।’’ पति के मुखारविंद से ऐसा फल सुनकर यशस्वती देवी हर्ष से रोमांचित हो गईं पुनः कुछेक क्षण बाद वे अपने अंतःपुर में वापस आ गईं। सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर अहमिन्द्र का जी व उनके पवित्र गर्भ में निवास करने लगा। वह महादेवी भगवान् ऋषभदेव के दिव्य प्रभाव से उत्पन्न हुए गर्भ को धारण कर रही थी। यही कारण था कि वे अपने ऊपर आकाश में चलते हुए सूर्य को भी सहन नहीं करती थीं। गर्भस्थ वीरपुत्र के प्रभाव से वे अपने मुख की कांति को तलवार रूपी दर्पण में देखती थीं। ये यशस्वती देवी, जिसके गर्भ में रत्न भरे हुए हैं, ऐ सी भूमि के समान, जिसके मध्य में फल लगे हुए हैं, ऐसी बेल के समान अथवा जिसके मध्य में देदीप्यमान सूर्य छिपा हुआ है, ऐसी पूर्व दिशा के समान अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो रही थीं । मणियों से ज़डी हुई पृथ्वी पर स्थिरता पूर्वक पैर रखकर मं दगत से चलती हु ये यशस्वती, यह पृथ्वी हमारे भोग के लिए है, ऐसा मानकर ही मानों उस पर मुहर लगाती जाती थीं । गर्भ के बढ़ते रहने पर भी उनके उदर का बली भंग नहीं हुआ था, सो मानों यही सूचित कर रहा है कि इनका पुत्र अभंग, नाशरहित दिग्विजय प्राप्त करेगा। जैसे-जैसे गर्भ बढ़ने लगा, वैसे-वैसे ही उन्हें उत्कृष्ट दोहले होने लगे, आहार में रुचि मंडप गई , इत्यादि गर्भ के चिन्ह देखकर माता मरुदेवी प्रसन्न हो रही थीं। महाराज नाभिराज भी पोते के जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे और तीर्थं कर प्रभु ऋषभदे व का मन भी प्रसन्न हो रहा था। क्रम से नव महीने व्यतीत हो जाने पर यशस्वती महादेवी ने देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण महापुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया। भगवान् ऋषभदेव के जन्म के समय जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि पड़े थे, वे शुभ दिन आदि उस समय भीथे अर्थात् उस समय चैत्र कृष्णा नवमी का दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धनराशि का चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। वह पुत्र अपनी दोनोंभुजाओं से पृथ्वी का आलिंगन कर उत्पन्न हुआ था। पुत्र जन्म का समाचार सुनते ही निमित्तज्ञानियों ने कहा – ‘‘यह पुत्र अपनी भुजाओं से पृथ्वी का आलंगिन करते हुए जन्मा है अतः यह समस्त छह खण्ड पृथ्वी का सम्राट् चक्रवर्ती होगा।’’ जिस प्रकार चन्द्रमा का उदय होते ही समुद्र अपनी बेला सहित वृद्धि को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार उस बालक के दादा-दादी महाराज नाभिराज और मरुदेवी दोनों परम हर्ष की वृद्धि को प्राप्त हुए थे। अधिक हर्ष से गद्गद हो पति-पुत्रवती स्त्रियाँ कह रही थीं – ‘‘हे यशस्वती महादे वि! तु म इसी प्रकार सैक़ डों पुत्र उत्पन्न करो।’’ उसी क्षण राजमहल में करोड़ों प्रकार के मंगल बाजे बजने लगे। तुरही, दुंदुभि, झल्लरी, शहनाई, सितार, शंख, काहल और ताल आदि अनेक बाजे उस समय मानों हर्ष से ही शब्द कर रहे थे। उस समय देवगण आकाश से पु ष्पवृष्टि कर रहे थे। कल्पवृक्षों के पुष्पों की सुगंधि से युक्त, जल के कणों से मिश्रित, सुकोमल और मन्द-मन्द हवा चल रही थी। उसी समय आकाश मे स्थित हो कर दे वगण और देवियां कह रही थीं – ‘‘हे पुत्र! तुम जयशील होवो, चिरंजीव रहो। नंद-नंद, वर्धस्व- वर्धस्व, जय-जय, चिरंजीव-चिरंजीव।’’ राजांगण में अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। सारी अयोध्या नगरी की प्रजा ने उत्सव मनाना प्रारंभ कर दिया। गलियों को चंदन के जल से सिं चित कर जहाँ -तहाँ रत्नों के चूर्ण से सुन्दर-सुन्दर चौक बनाये गये। तोरणद्वार बाँ धे गये और मंगल चौक बनाकर उन पर सुवर्ण के मंगलघट और प्रत्येक मंगलघटों पर कमल के पुष्प रखे गये थे। उस समय दादा नाभिराज ने सभी को मुँहमाँगा दान दिया था। स्वयं तीर्थंकर महाराज ऋषभदेव अपने हाथों से रत्नों की धारा बरसा रहे थे। उस समय प्रेम से भरे हुए समस्त बंधुओं ने बड़े हर्ष से समस्त भरत क्षेत्र के अधिपति हो ने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से पुकारा था। इतिहास जानकारों का यह कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐ सा यह हिमवान् पर्व त से ले कर समुद्रपर्यं त का चक्रवर्ति यों का क्षेत्र उसी ‘भरत’ के नाम के कारण ‘भारतवर्ष’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ है।