येऽणुव्रतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम्। तर्पणीया हि तेऽस्माभि: इंप्सितैर्वसु वाहनै:।।८।।
अत: भरत चक्रवर्ती ने इस महोत्सव में आने के लिये आदेश प्रसारित कर दिय। नियत दिनांक को नियम समय पर सभी राजा अपने—अपने सदाचारी इष्ट मित्र, परिवार सदस्य, नौकर—चाकर आदि को साथ ले उपस्थित हुए। परीक्षार्थ भरतचक्री ने महोत्सव के मार्ग को हरे—हरे अंकुरों, पुष्पों तथा फलों से सुंदर बनाकर दो भागों में बांट दिया था। जो अणुव्रतधारी नहीं थे वे हरे भरे अंकुरित एवं पुष्पफलमय राह को पार कर उत्सव में पहुँचे परन्तु व्रतधारी अणुव्रती िंहसा के डर से बिना सजे रेतीले मार्ग से उत्सव में पहुँचे। इन व्रतधारियों को भरतचक्री ने द्विज या ब्राह्मण संज्ञा दी और ब्राह्मण जाति या वर्ण की स्थापना की। इसका संकेत ‘महापुराण’ के अड़तीसवें सर्ग के २३वें पद्य में किया है—अथ ते कृतसन्माना: चक्रिणा व्रतधारिण:। भजन्ति स्म परं दाढर्यं लोकश्चैनानपूजयत्।।२३।।
‘‘भरतचक्री द्वारा सम्मानित व्रतधारी अणुव्रती द्विज—ब्राह्मण व्रतों में पक्के बन गये और अव्रती और अन्य लोगों ने उनको अधिक सन्मान या पूजा का पात्र माना।’’ भरत चक्री ने इन द्विज या ब्राह्मणों को इज्या—देवपूजा के प्रकार १. सदार्चन (मंदिर में प्रतिदिन जिनेन्द्र देव का पूजन), २. चतुर्मुख (महामुकुट बद्ध राजाओं द्वारा महापूजन यज्ञ), ३. कल्पद्रुम (चक्रर्वितयों द्वारा किमिच्छक—मुँहमांगा दान दिया जाने वाला पूजन यज्ञ), ४. आष्टाह्निक (आष्टाह्निका पर्व में पूजन विधान यज्ञ), ५. ऐन्द्रध्वज। (इन्द्रों द्वारा किया जाने वाला महायज्ञ)। इन पाँच पूजनों का तथा २ वार्ता (विशुद्ध आचरण के साथ खेती करना) ३ दत्ति—दयादत्ति, पात्रदत्ति (मुनिसंघ तथा र्आियका संघों को दान) समदत्ति (समान क्रिया, आचार और समानव्रतादि के पालने वालों को श्रद्धा के साथ दान) ४. अन्वयदत्ति (वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ कुटुम्ब को समर्पण करना) तथा स्वाध्याय, संयम और नय साधने का उपदेश दिया। आचार्य पद्मनंदि ने इन्हीं को देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षट्कर्म का नाम दे प्रतिदिन पालने का उपदेश दिया। द्विजों—ब्राह्मणों की व्याख्या करते हुए ‘‘महापुराण’’ में कहा है कि—द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च य:। क्रिया मंत्र विहीनस्तु केवलं नामधारक:।।४८।।
तदेषां जातिसंस्कारं दृढयन्निति सोऽधिराट्। स प्रोवाच द्विजन्मेभ्य: क्रियाभेदानशेषत:।।४९।।
ताश्च क्रियास्त्रिधाऽऽम्नाता: श्रावकाध्यायसंग्रहे। सद्दृष्टिभिरनुष्ठेया महोदर्का: शुभावहा।।५०।।
गर्भान्वयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रिया:। कत्र्रन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधैर्मता:।।५१।।
‘‘जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रियासंस्कार से जन्म लेता है वह द्विज या ब्राह्मण है किन्तु क्रिया और मंत्र दोनों से हीन द्विज मात्र नाम से द्विज है।।४८।।’’ अत: इन द्विज जाति के जनों के संस्कार को दृढ़ करते हुए निम्न क्रियाओं के समस्त भेद भरत चक्रवर्ती ने कहे।।४९।। ‘‘श्रावकाध्याय संग्रह’’ में द्विजों की वे क्रियायें तीन प्रकार की कही गई हैं। सम्यक्दृष्टि पुरुषों को उन उत्तम फल देने वाली तथा शुभ—कल्याण करने वाली क्रियाओं को पालना चाहिये।।५०।। ‘‘विद्वानों ने १. गर्भान्वय क्रिया २. दीक्षान्वय क्रिया ३. कत्र्रन्वय क्रिया इस प्रकार तीन प्रकार की क्रियायें बताई हैं। ‘‘महापुराण’’ के ३८वें सर्ग में इन तीनों क्रियाओं के भेदों को बताते हुए कहा है—आधानाद्यास्त्रिपंचाशत् ज्ञेया: गर्भान्वयक्रिया:। चत्वािंरशदथाष्टौ च स्मृता: दीक्षान्वयक्रिया।।५२।।
कत्र्रन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञै: समुच्चिता:।। तासां यथाक्रमं नामनिर्देशोऽयमनूद्यते।।५३।।
‘‘आधानादि गर्भान्वय क्रियायें ५३ हैं, दीक्षान्वय क्रियायें ४८ हैं और विद्वानों ने ७ कत्र्रन्वय क्रियायें संग्रहीत की हैं। आगे इन सब के नामों का निर्देश किया जाता है।’’५३।। इस लेख का संबंध केवल विद्यार्थी जीवन से संबद्ध ‘प्रथम गर्भान्वय क्रिया से लेकर १६वीं’’ व्रतावतरण क्रिया’’ तक है। अतएव मैं ‘‘महापुराण’’ के ३८वें सर्ग के दो पद्यों द्वारा उन १६ संस्कारों—क्रियाओं का मात्र उल्लेख कर उन पर विस्तार से प्रकाश डालूँगा।आधानं प्रीतिसुप्रीती धृतिर्मोद: प्रियोद्भव:। नामकर्मबहिर्याननिषद्या: प्राशनं तथा।।५५।।
व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंख्यानसंग्रह:। उपनीतिव्र्रतं चर्या व्रतावतरणं तथा।।५६।।
‘‘१. आधान २. प्रीति ३. सुप्रीति ४. धृति ५. मोद ६. प्रियोद्भव ७. नामकर्म ८. बहिर्यान ९. निषद्या १०. प्राशन ११. व्युष्टि १२. केशवाप १३. लिपिसंख्यान संग्रह १४. उपनीति १५. व्रतचर्या १६. व्रतावतरण।’’ इन १६ क्रियाओं का बचपन से विद्यार्जन तक जीवन पर्यन्त संस्कारों की श्रेष्ठता लाने में अच्छा प्रभाव पड़ता है। इन संस्कारों से भावी संतान का जीवन समुज्वल एवं र्धािमक बनता है। संस्कार भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सुखी जीवन की कुंजी है और रामबाण औषधि है। अत: कहा गया है—सुखं वाञ्छन्ति सर्वेऽपि जीवा दु:खं न जातुचित्। तस्मात् सुखैषिणो जीवा संस्कारायाभिसंमता:।।
‘‘पू. क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी’’ ने ‘‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश’’ के पृष्ठ १४९ पर संस्कारों के महत्त्व के विषय में निम्न प्रकार डंके की चोट लिखा है— ‘‘व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उनके संस्कारों के अधीन है। जिनमें से कुछ पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिये गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिये विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मंत्र विधान सहित ५३ क्रियाओं का विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन बन जाता है।’’ खदान से निकले हीरे जवाहरातों को संस्कारों द्वारा निर्मल और चमकीला बनाया जाता है तभी उनका निखार होता है और कीमत बढ़ जाती है। ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ में कहा गया है—ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकांश नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।
तेज: स्फुरमणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि।।२०।।
‘‘हे जिनेन्द्र देव ! अनन्त पर्यायात्मक ज्ञान जैसा आप में शोभायमान होता है वैसा ज्ञान हरिहरादि नायक देवों में नहीं शोभा पाता जिस प्रकार संस्कारित चमकीलें मणियों में तेज गौरव को पाता है। उस प्रकार चमकते कांच के टुकड़ों में तेज शोभा नहीं देता।।२०।। इसीलिये जिनेन्द्रदेव त्रिलोकी सर्वज्ञ कहे जाते हैं। बालक बिना संस्कारों के उच्च आचरणों द्वारा निर्मल, सुखी जीवन एवं समाजोपयोगी बनने के साथ मोक्ष के परमानन्द के पात्र नहीं बन सकते। संस्कारों की महिमा धवला, मूलाचार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, सर्वार्थसिद्धि, द्रव्य संग्रह आदि ग्रंथों में गाई गई है। प्रथम आधान क्रिया का उद्देश्य षट्कर्मों के पालन के साथ सुयोग्य सुपुत्र या सुपुत्री के लिए भौतिक भोगाभिलाष निरपेक्ष पति—पत्नी संसर्ग से है। पर वर्तमान भौतिकवादी युग में पति—पत्नी दोनों विपरीत दिशा में चल रहे हैं। अत: सुयोग्य और र्धािमक संतान का लक्ष्य पूरा होना कठिन हो गया है। प्रथम ‘‘आधान क्रिया’’ के विषय में ‘‘महापुराण’’ में कहा गया है—