‘जिन’ के अनुयायियों को जैन तथा जिनों’ द्वारा स्थापित धर्म को जैनधर्म के नाम से जाना गया है। जैनधर्म के ऐसे महान महापुरूषों को तीर्थंकर या केवली कहा गया है। ये तीर्थंकर 24 हुए हैं जिनकी धारणा ही जैनधर्म की धुरी है। अन्य जैन देवों की संकल्पना भी इन्हीं जिनों से सम्बद्ध है। गुप्तोत्तर काल में इन 24 तीर्थंकरों की पहचान के निमित्त उनके लांछनों, यक्षों और शासन देवियों का निर्धारण किया गया, जिनमें 1 से 24 तक महान तीर्थंकरों की मूर्तियों के लक्षण तथा यक्ष व यक्षी (शासन देवी-दिगम्बर-श्वेताम्बर) निर्धारित की गई। निर्धाारण का यह क्रम व तालिका जैनधर्म के इतिहास विषयक ग्रन्थों में आसानी से देखी, परखी तथा समझी जा सकती है। अतः हम उनकी यहाँ चर्चा न करके मूर्तियों के लक्षणों की ही चर्चा करेंगे। जैन साहित्य के साक्ष्यों पर गौर किया जाये तो ज्ञात होता है कि अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्ति को उनके जीवनकाल में ही निर्मित करवा दिया गया था, जिसे जैन धर्मावलम्बियों में जीवन्त स्वामी कहा गया। विद्वान पुरातत्वविद् डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव (भिलाई) से जब जैन मूर्ति लक्षणों विषयक मैंने विशिष्ट निर्देश प्राप्त किये तब इस आधार पर प्रामाणिक रूप से यह माना जाता है कि जैन तीर्थंकर मूर्तिंयों में अभी तक सर्वाति प्राचीन, बिहार के लोहानीपुर से प्राप्त मौर्ययुगीन नग्न (दिगम्बर) धड़ को माना जाता है। इसका मूल कारण भी यह माना गया कि तीर्थंकर दिगम्बर ही थे। विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल ने मथुरा की जैन मूर्तिकला पर विशद प्रकाश डाला है। उनकी जैनकला विवेचना से यह प्रामाणित होता है कि मथुरा के कंकाली टीले से कुषाणकालीन जैन स्तूप खण्ड, आयांगपट्ट तीर्थंकर मूर्तियाँ मिली थी। इन पर कुछ ऐसे शिलालेख पठन में आये जिनमें वहाँ देवनिर्मित स्तूप के निर्माण के प्रमाणों का भी पता चलता है। प्रतीत होता है कि मथुरा जैनधर्म और कला का प्राचीन केन्द्र था। श्रीवास्तव के अनुसार-सारी अमूल्य निधियां अब लखनऊ के राज्य पुरातत्व संग्रहालय में दर्शित है। मथुरा के उक्त टीले क उत्खनन से जैन शिल्प की जो अद्भुत सामग्री मिली उनमें एक जैन स्तूप, दो प्रासाद व जैन मंदिरों के अंकल चित्र मिले थे। इनमें अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ स्वामी की मूर्ति की चौकी पर एक लेख में यह अंकित हे कि-कोट्टियगण की वज्री शाखा के वाचक आर्य वृहस्ती की प्रेरणा से एक श्राविका ने देव निर्मित स्तूप में अर्हत की मूर्ति स्थापित की। मूलतः यह लेख संवत् 89 का है, जो कुषाण सम्राट वासुदेव के शासन काल का 167 ई. का है। ये सामग्री ठीक ईसापूर्व दूसरी सदी से लगातार 11 वीं सदी तक मिलती है। इनमें निम्न मूर्तियों का विश्लेषण, लक्षण प्रस्तुत है। ये लक्षण अब सार्वजनिक रूप से पठन में नहीं आ पाते हैं।
आयागपट्ट
पाषाण के चौकोर टुकड़ों पर केन्द्र में चक्र, स्वास्तिक व तीर्थंकर मूर्ति को घेरकर उसमें श्रीवत्स्, मीन मिथुन, नन्द्यावर्त पूर्णघट, माला, भद्रासन आदि अष्टमांगलिक चिन्हों को उकेरा गया है। इनकी स्थापना अर्हत की पूजा हेतु बताई गई है। इस आधार पर श्रीवास्तव ने इन आयांगपट्टों को जैन पूजा के प्रथम सोपान माना है। उन्होेंने इस तथ्य को प्रस्तुत किया कि-पूर्व में प्रतीक पूजा का प्रचलन था बाद में इन आयांगपट्टों पर केन्द्र में पालथी मारकर ध्यान में बैठे तीर्थंकरों केा उकेरा जाने लगा और फिर बाद में उनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ भी गढ़ी जाने लगी।
जैन तीर्थंकर मूर्तिया
मूर्ति विशेषज्ञोें की प्रबल धारणा रही है कि जैन तीर्थंकरों की प्रथम मूर्तियाँ मथुरा में ही बनाई गई थी। इनके प्रारम्भिक प्रमाण कंकाली टीले से मिले है। इनमें कुषाणकालीन मूर्तियों की संख्या अधिक है। ये तीर्थंकर मूर्तियाँ तीन प्रकार की थी। 1. पालथी मारकर ध्यानमुद्रा में बैठी हुई। 2. कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई तथा 3. सर्वतोभद्र मुद्रा में अर्थात् एक ही पाषाणफलक पर पीठ से पीठ मिलाकर खड़ी चार चौमुखी जैन मूर्तियाँ।
लांछन
मथुरा की आरम्भिक तीर्थंकर मूर्तियां एक समान थी। अतः उनकी पहचान कर पाना दुष्कर था और कुषाणकाल तक तो तीर्थंकर मूर्तियों पर लांछनों का अंकन ही नहीं हुआ था। इस कारण मथुरा की प्राथमिक तीर्थंकर मूतियों की पहचान की गई, जैसे स्वामी आदिनाथ को उनके कंधों तक लटकती जटाओं से, स्वामी पार्श्वनाथ चरण चौकी पर कोई लांछन नहीं था। परन्तु उनमें कुछेक मूर्तियों को उनके शीर्ष पर सर्पफणों के छत्र थे। कुछेक मूर्तियों के शिलालेखों से उनकी पहचान की गई। परन्तु जैन शिल्प ग्रन्थों में लांछनों के उल्लेख 7वीं-8वीं सदी ई. के बाद से ही पाये गये।
महापुरूष लक्षण
यद्यपि चरण चौकी वाले लांछनों का विकास कुषाण काल में नहीं हुआ था, तथापि उसी काल में लगभग उन्हीं स्थानक व आसन मुद्राओं में निर्मित की गई बुद्ध-बोधिसतव की मूर्तियों तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों में भेद करने का मुख्य साक्ष्य महापुरूष लक्षण था। जैन तीर्थंकर की मूर्तियों के वक्ष पर उक्त प्रकार के श्रीवत्स का अंकन उन्हें बौद्ध मूर्तियों से अलग पहचान देता है। ध्यान मुद्रा में बैठी तीर्थंकर मूर्तियों की हथेलियां पर प्रायः चक्र और पैर के तलुओं पर चक्र और नंद्यावर्त के मांगलिक चिन्ह उकरे मिलते हैं। उक्त प्रकार के लक्षणों में कुछ अन्य विशेषताओं का भी ध्यान पाठक तथा मूर्तिकला पर काम करने वाले शोधार्थियों को रखना चाहिये। 1. तीर्थंकरों की मूर्तियों को या तो मुण्डित मस्तक वाला या कुंचित केश वाला बनाया गया। 2. ऐसी मूर्तियों की आंखों की भौंहो के मध्य ऊर्णी का अंकन किया गया। 3. ये मूर्तियां पूर्णतया नग्न (दिगम्बर) थी क्योंकि तब श्वेताम्बर विचारधार का उद्भव नहीं हुआ था। परवर्ती युग में फिर तीर्थंकर मूर्तियों में कुछ परिवर्तन किये गये और उनमें उर्णी का अभाव रहा। इनमें फिर शीश के पृष्ठ में प्रभामण्डल बनाया जाने लगा तथा उसका विविध रूपों में अलंकरण किया गया। इसी क्रम में तीर्थकर मूर्तियों पर उनके पारिवारिक देवों तथा यक्ष, शासन देवी, चामरधारी शासका उपासकों का अंकन होने लगा। शीश पर त्रिछत्र का तथा उसके ऊपर ढोल बजाते देवता का अंकन किया गया। मूर्ति परिकर में ऊपर मालाधारी विधाघर व नवग्रहों का भी समावेश किया गया तथा प्रायः आसन के नीचे मध्य में रखे धर्मचक्र को प्रमुखता दी गई। इस प्रकार के उक्त लक्षणों से पहचान सम्भव होना आसान हो गया।
अन्य जैन देव मूर्तियोके लक्षण”
जीवन्त स्वामी
जैन साहित्य की मान्यता के अनुसार महावीर स्वामी के जीवन में ही चन्दन से उनकी मूर्ति का निर्माण होने के कारण उन्हें उक्त नाम से भी पहचाना गया। शिल्प में इस रूप की मूर्ति को उनके अनुसार राजकुमार स्वरूप में बनाया गया। इसमें उन्हें कार्योत्सर्ग मुद्रा में मुकुट, मेखला, हार से अलंकृत किया गया । इस आशय की मूर्तियों के उदाहरण राजस्थान के औसियां नागौर तथा गुजरात के अंकोटा में है, जो ५ वीं- ६ठीं सदी के हैं तथा कांसे से निर्मित है। इसमें राजस्थान की उक्त प्रकार की मूर्तियां ९ वीं से १५ वीं सदी के मध्य की हैं।
गमेष तथा रेवती
यह बकरे के मुख वाला देव है, जो इन्द्र की पैदल सेना का प्रमुख है।श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उसने महावीर के भ्रूण को देवनन्दा नामक ब्राह्मणी के गर्भ से माता त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया था। मथुरा तथा लखनऊ के संग्रहालय में मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन ऐसी मूर्तियाँ प्रदर्शित है। इस मूर्ति पर इस देव का नाम भी हैै। इसे बालको को मंगल देवता माना जाता है। रेवती को नैगमेष की शक्ति माना गया है। यह बकरे के मुखवाली नारी मूर्ति है, जो मथुरा संग्रहालय में है।
इन्द्र—जैनधर्म के ग्रन्थों में उल्लेख है कि तीर्थंकरोें के जन्म, दीक्षा और कैवल्य प्राप्ति के अवसरों पर इन्द्र धरती पर आते हैं। इसी आशय को राजस्थान के जैन मंदिरों (११वीं-१२वीं सदी) में देखा जा सकता है।
गजलक्ष्मी तथा सरस्वती
तीर्थंकरों की माताओं द्वारा देखें स्वप्नों में लक्ष्मीका उल्लेख विशिष्टता से है। अत: जैन शिल्प में उन्हें सम्मानजनक स्थान दिया गया। ये मूर्तियाँ शुंगकाल से ही उपलब्ध होती है, वहीं इस धर्म में सरस्वती को भी विद्या, बुद्धि की मानकर उसे सम्मान सहित स्थान दिया गया परन्तु उन्हें श्रुतदेवी के नाम से जैन शिल्प में पहचाना गया। कुषाणयुगीन मथुरा के कंकाली टीले मिली सरस्वती की मूर्ति सर्वाधिक प्राचीन है, जो वहाँ के जैन परिसर से मिली है। यह लखनऊ संग्रहालय में है। चेक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती देवी— जैन शिल्प में कुछ ऐसी देवियों का विधान भी रखा गया जो तीर्थंकरों के शासन देवी है। इसके हाथों में चक्र धारित होता है तथा यह गरूड़ पर आरूढ़ होती है। मध्यकाल की इस प्रकार की मूर्तियाँ जैन मंदिरों में देखी जा सकती है। अम्बिका तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी है। इसका अंकन भी मध्ययुम में हुआ। इसके हाथों में क्रमश: एक बालक, पाश, अंकुश तथा आम की बौर वाली टहनी होती है। यह सिंह पर आरूढ़ रहती हैं। पद्मावती तीर्थकर पार्श्र्वनाथ की शासनदेवी के रूप में मान्य है। इसके शीश पर सर्पफणों का छत्र होना इसका मुख्य लक्षण है। इन तीनों देवियों का स्पष्ट व ११वीं सदी का मूर्त शिल्प झालरापाटन (झालावाड़, राजस्थान) के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में दर्शित है। क्षेत्रपाल—जैनधर्म ने क्षेत्रपाल की गणना भैरव के समान योगिनियों के साथ की है। क्षेत्रपाल की मूर्ति लक्षणों में उनकी भंयकर मुखाकृति, श्यामवर्ण, बिखरे केश, पैरों में खड़ाऊ हाथों में मुगदर, डमरू तथा अंकुश प्रमुख होते हैं। मथुरा संग्रहालयों में जैन क्षेत्रपाल की एक प्राचीन मूर्ति में उनके हाथ में दण्ड है तथा उन्होंने अपने बायें हाथ में श्वान (कुत्ते) की रस्सी को पकड़ रखा है। उत्तरप्रदेश के देवगढ़ तथा मध्यप्रदेश के खजुराहो में भी ११वी—१२वीं सदी की इस प्रकार की मूतियाँ मिलती हैं। आदि मिथुन—सृष्टि के मूल कारण आदि मिथुन का अंकन जैन शिल्पकला में विशेष स्थान रखता है। इसे जुगलिया (युगल मिथुन) भी कहा गया। इस शिल्प में इन्हें विशाल वृक्ष के नीचे बैठा दर्शाया जाता है। चरण चौकी पर बालकों का अंकन तथा वृक्ष के ऊपर जिनबिम्ब बना होता है। ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार लखनऊ संग्रहालय में इस आशय का एक अंकन फलक पर दर्शित है। सूत्रों के अनुसार उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर में वहाँ के राज्यपुरातत्व संगठन में कूंड नामक स्थान से ११वीं सदी का एक ऐसी ही सुन्दर जुगलिया (आदि मिथुन) फलक खोजा है। यदि जैन बौद्ध मूर्तांकन में भेद किये जाये तो अध्ययन करने तथा धर्मों की मूर्तियाँ देखने पर निम्न बिन्दु समक्ष में आते हैं। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ निर्वस्त्र (दिगम्बर) होती है जबकि बुद्ध की मूर्तियों में उनके बायें या फिर दोनों कंधों से संधारि वस्त्र नीचे तक लटकता है। बुद्ध की र्मूितयों के वक्ष पर श्री वस्त का अंकन नहीं होता जबकि तीर्थंकरों की मूर्तियों पर श्रीवत्स का लक्षण होता है। तीर्थकर मूर्तियाँ या तो ध्यानमुद्रा में आसनस्थ अथवा कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़ी दिखायी देती है। उनमें अभय, वरद या अन्य मुद्रा का अभाव होता है, जबकि बुद्ध मूर्तियाँ अभय मुद्रा में रहती हैं अथवा भूमि स्पर्श, धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठी हुई या महापरिनिर्वाण मुद्रा में लेटी हुई होती है। इस प्रकार मुद्राओं तथा लक्षणों के आधार पर मूर्तियों की पहचान आसानी से की जा सकती है।
आयांगपट्ट का शिल्प वैशिष्टय
वासुदेवशरण अगवाल ने मथुरा की जैन कला पर विस्तृत एवं गंभीर विवेचना प्रस्तुत की है। उन्होंने अपनी शोध मेें बताया कि उक्त क्षेत्रीय जैन कला में आयांगपट्ट तीर्थंकर मूर्तियाँ, देवी मूर्तियां,स्तूपों के तोरण, शालभंजिका, वेदिका स्तम्भ, उष्णीय आदि मुख्य हैं। आयांगपट्ट मूल रूप से आर्यकपट्ट होता है। अर्थात् पूजार्थ हेतु स्थापित शिलापट्ट, जिस पर स्वास्तिक, धर्मचक्र आदि अलंकरण या तीर्थंकर की मूर्तियां स्थापित की गई हो। स्तमप के प्रांगण में इस प्रकार के पूजा शिलापट्ट ऊँचे स्थानों पर स्थापित किये जाते थे तथा दर्शनार्थी उनकी पूजा करते थे। मथुरा की जैन कला में इन आयांगपट्टों का अति विशिष्ट स्थान है। उन पर जो अंलकरण की छवि है वह नेत्रों को मोहित कर देती हैं। उदाहरण के लिये सिंहानादिक द्वारा स्थापित आयांगपट्ट पर ऊपर नीचे अष्टमांगलिक चिन्हों का अंकन है। दोनों पाश्र्वों में से एक ओर चक्रांकित ध्वजस्तम्भ व दूसरी ओर गंजाकित स्तम्भ है। मध्य में चार त्रिरत्नों के मध्य मेें तीर्थंकर की बद्धपद्मासन मूर्ति है। एक अन्य प्राप्त आयांंगपट्ट के मध्य भाग में लधु तीर्थंकर मूर्ति है। ध्यान से देखने पर यह ज्ञात होता है कि स्वास्तिक के आवेषण रूप में सोलह देव योनियों से अलंकृत मण्डल है, जिसके चारोें कोणों पर चार मंहोरग मूर्तियां हैं, जबकि नीचे की ओर अष्टमांगलिक चिन्हों की श्रंखला है। तृतीय आयांगपट्ट के मध्य षोडषाधर्मचक्र का सुन्दर अंकन है तथा इसके चारों ओर तीन मण्डल है जिसके प्रथम मण्डल में सोलह नन्दिपद, दूसरे में अष्टदिक्कुमारिकाएँ और तीसरे में कुण्डलित पुष्पकरस्रज कमलों की माला है। चारों कोनों में चार महोरग मूर्तियां है। इस प्रकार का पूजा पट्ट प्राचीन काल में चक्रपट्ट कहलाता था। आयांग पट्ट जैन कला की महत्वपूर्ण निधि है। इसकी स्थापना फल्गुयश नर्तक की पत्नि शिवयशा ने अर्हंत पूजा हेतु की थी। इस पर प्राचीन मथुरा जैन स्तूप की आकृति अंकित है जिसमें तोरण, वेदिका तथा सोपान है। मथुरा के कंकाली टीले से एक मूर्ति आर्यवती की मिली थी। डा. अग्रवाल इसका सम्बन्ध महावीर की माता त्रिशला क्षत्रियाणी से बताने की संभावना व्यक्त करते हैं। यह मूर्ति क्षत्रप षोडास के शासनकाल में संवत् ४२ में स्थापित की गई थी। इस मूर्ति का लक्षण यह है कि इसमें देवी आर्यवती को राजपद रूप की देवी के रूप में अंकित किया है तथा छत्र और चंवर लिये दो पाश्र्वचर स्त्रियाँ उनकी सेवा कर रही है। इस प्रकार जैनधर्म की मूर्तियों के उक्त गंभीर प्रमाणों से उनके लक्षणों को देखकर कोई भी श्रद्धालु या शोधार्थी उनकी पहचान आसानी से कर सकता है। परन्तु यह भी एक कटुसत्य है कि प्राचीन मूर्ति शिल्प के लक्षणों, भावोें पर जितने भी ग्रन्थ रचे गये वे या तो संस्कृत में हैं या अंग्रेजी में। ये ग्रन्थ ना तो मिलते हैं ना ही पढ़ने वाले क्योंकि यह एक दुरूह कार्य है। अत: सामान्यजन मूर्तियों की पहचान कर ही नहीं पाता। प्रस्तुत लेख मूर्ति शिल्प के निष्णात् मनीषी विद्धानों से चर्चा कर ही तैयार किया है, ताकि आम पाठक में भी मूर्तियों के प्रति रूचि जाग्रत कर सके।
ललित शर्मा
—जैकी स्टूडियो, १३, मंगलपुरा, झालावाड़— ३४६००१ (राजस्थान)